मर्द होने के क्या मायने हैं? अलग-अलग वक्त पर इसके अलग-अलग जवाब हो सकते हैं. अगर आप किसी फर्टिलिटी क्लीनिक में अपना वीर्य शीशी में भरने की कोशिशों में जुटे होते हैं तब इसकी एक मुश्किल परिभाषा से रू-ब-रू हो सकते हैं. इस काम को अंजाम देने के लिए आपके पास सिर्फ 15 मिनट का वक्त होता है क्योंकि पीछे लंबी कतार होती है. दीवारों पर कामोत्तेजक तस्वीरें चस्पां हैं और इनके बीच आपको 100 एमजी वियाग्रा की एक गोली भी खिलाई जाती है.
मकैनिकल वाइब्रेटर, लिक्विड पैराफिन और अश्लील सामग्री से भरे हुए लैपटॉप को स्खलन (इजैकुलेशन) में आपकी मदद के लिए रखा गया है. यह काम पूरा होने के बाद अपने बाप बनने की संभावना का नतीजा जानने के लिए आधे घंटे का इंतजार सदियों जैसा लग सकता है, जिस दौरान एक माइक्रोस्कोप आपके वीर्य की गुणवत्ता और शुक्राणुओं की संख्या की जांच करता है. 600 रु. देकर आपको पता चलेगा कि आप बाप बनने लायक मर्द हैं या नहीं.
हर जमाने की अपनी दिक्कतें हैं. इक्कीसवीं सदी में पिता बनने की हसरत पुरुषों के लिए तनाव का बायस है. सेहत से जुड़ी तमाम समस्याएं जैसे-जैसे खत्म हो रही हैं, पुरुषों में इनफर्टिलिटी (बांझपन) की शिकायत सिर उठाने लगी है. 2013 के दरवाजे खुलते ही एक चिंताजनक शिकायत आई है कि भारतीय पुरुषों का वीर्य अब पहले जैसा नहीं रह गया है.
दिसंबर, 2012 में फ्रांस में बड़े पैमाने पर किए गए एक ग्लोबल अध्ययन में पाया गया है कि शुक्राणुओं की औसत संख्या में 32 फीसदी की गिरावट दर्ज हुई. इस खबर से चिकित्सा जगत में हड़कंप मच गया है. भारत में इस पर चर्चा शुरू हो चुकी है और कई वैज्ञानिक साक्ष्य इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि इनकार और चुप्पी की संस्कृति ने भारतीय पुरुषों के वीर्य के पतन की दास्तान को अपनी ओट में छिपा रखा है.
पिछले साल अगस्त में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने राज्यसभा में कहा था, “पुरुषों में इनफर्टिलिटी बढ़ रही है.” डॉक्टर पहले से ही जानते हैं कि यह सेहत संबंधी देश का सबसे बड़ा गोपनीय तथ्य है. इसीलिए जब कोई दंपती किसी डॉक्टर के पास जाता है तो वे सबसे पहले पुरुषों की जांच कराते हैं.
इस सिलसिले में पहला अध्ययन मणिपाल के कस्तूरबा अस्पताल में 2008 में 7,700 पुरुषों पर किया गया था जिनका वीर्य खराब क्वालिटी का पाया गया. इसके बाद से कई अध्ययन हो चुके हैं. दिल्ली के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एम्स) के एक शोध से पता चलता है कि तीन दशक के दौरान प्रति मिलीलीटर वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या छह करोड़ से घटकर दो करोड़ रह गई है. लखनऊ के सेंट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टीट्यूट में जमा 19,734 स्वस्थ पुरुषों के वीर्य पर किए एक मानक अध्ययन में पता चला है कि वीर्य की संरचना और गतिविधि में “वास्तविक गिरावट” आई है.
मर्दानगी की तमाम कसौटियां रही हैं, लेकिन उसे आज तक कभी भी माइक्रोस्कोप की कसौटी पर नहीं कसा गया. हाल तक भी मर्दानगी पर सवाल नहीं उठते थे क्योंकि लोग यह मान कर चलते थे कि हर पुरुष बाप बनने के काबिल है. इस भरोसे को झ्टका लगा है. आज युवाओं को फर्टिलिटी लैब्स में आते-जाते देखा जा सकता है.
उनके चेहरों पर अपनी मर्दानगी को लेकर उम्मीद और चिंता एक साथ देखी जा सकती हैः कहीं ऐसा तो नहीं कि वीर्य के हर मिलीलीटर में दो करोड़ शुक्राणुओं से कुछ कम पड़ जाएं? कम-से-कम आधे तो स्वस्थ आकार और दुरुस्त होंगे? ‘मर्द’ बार-बार कहते हैं, “प्लीज एक बार और चेक कर लीजिए.” परीक्षण में पास हो जाने वाले भी अनुभव से हिले हुए नजर आते हैं. आखिर मर्दानगी का नरक कहीं है, तो यही है.
यह समस्या अकेले भारत की नहीं है. मशहूर पत्रिका ब्रिटिश मेडिकल जर्नल के मुताबिक, पिछले पचास साल में दुनिया भर में मर्दों में शुक्राणुओं की संख्या आधी रह गई है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सामान्य पुरुषों के लिए शुक्राणुओं की संख्या में संशोधन कर के उसे पचास के दशक के पैमाने 11.3 करोड़ प्रति मिलीलीटर (एमएल) से गिरा कर अब दो करोड़ प्रति मिलीलीटर पर तय कर दिया है.
दिसंबर में फ्रांस में हुए अध्ययन ने, जो ह्यूमन रिप्रोडक्शन में छपा था, एक ‘सेहत संबंधी सार्वजनिक चेतावनी’ का काम किया है और शुक्राणुओं की ‘अंतरराष्ट्रीय निगरानी’ की जरूरत पर बल दिया है. ब्रिटेन की एबरडीन यूनिवर्सिटी में रिप्रोडक्टिव मेडिसिन के प्रोफेसर डॉ. शिलादित्य भट्टाचार्य कहते हैं, “आज दुनिया भर में पुरुषों के वीर्य की गुणवत्ता चिंता का विषय है.” भट्टाचार्य के अध्ययन में पता चला है कि एक दशक के दौरान ब्रिटेन में वीर्य की गुणवत्ता में 29 फीसदी की गिरावट आई है.
इस नई समस्या ने नई भाषा को भी जन्म दिया है. शुक्राणुओं को अब ‘स्विमर’ यानी तैराक कहा जाने लगा है. एक सामान्य पुरुष एक बार के इजैकुलेशन में 20 से 50 करोड़ शुक्राणु स्खलित करता है. मुंबई के लीलावती अस्पताल में फर्टिलिटी स्पेशलिस्ट डॉ. हृषिकेश पै बताते हैं कि ये तैराक मेंढक के बच्चे (टेडपोल) की आकृति के होते हैं जो गाढ़े मादा द्रव्य के बीच अफरातफरी भरा सफर तय करते हैं. इनमें कई किनारे लग जाते हैं. कुल शुक्राणुओं में सिर्फ एक-तिहाई ही सामान्य संरचना के होते हैं जिनका अगला सिरा अंडाकार होता है और पूंछ काफी लंबी.
उन्हें किसी गाइडेड मिसाइल की तरह तेज गति से तैरने की जरूरत होती है ताकि वे फर्टिलाइजेशन के काम आ सकें. सिर्फ 50 से 100 शुक्राणु ही अंडाणु तक पहुंच पाते हैं और करीब दर्जन भर उसके सुरक्षा कवच को भेदने की कोशिश करते हैं जिनमें कोई एक ही कामयाब हो पाता है. आम तौर पर वीर्य के नमूनों को कुछ ऐसे शब्दों से खारिज कर दिया जाता है, कि यह ‘बहुत गाढ़ा है’, ‘बहुत पतला’, ‘बहुत कम’ या फिर ‘बहुत चिपचिपा’. ये महज शब्द नहीं, मर्दानगी की छाती में चुभने वाले नश्तर हैं.
मर्दानगी के सामने अब नई चुनौतियां हैं, जिनमें कम समय में मांगे जाने पर वीर्य का नमूना देना भी एक है. बड़े क्लीनिकों में इस काम के लिए ‘मास्टरबेटोरियम’ कहे जाने वाले निजी हस्तमैथुन कक्ष बनाए गए हैं जिनकी दीवारों पर कामोत्तेक तस्वीरें चिपकी हैं, हालांकि एक सामान्य फर्टिलिटी क्लीनिक में अंधेरे शौचालयों के अलावा कोई चारा नहीं है. जो पुरुष बाजार में जांच नहीं करवाना चाहते, उनके लिए घर पर ही वीर्य की जांच करने वाले किट पिछले साल लॉन्च हुए हैं. ये किट कमोबेश गर्भधारण जांच करने वाले किट की तरह ही स्ट्रिप्स वाले होते हैं जिनसे पता लगाया जा सकता है कि शुक्राणु 2 करोड़ की परीक्षा में पास है या फेल.
अक्सर पुरुष इस परीक्षण को लेकर निराश हो जाते हैं क्योंकि वे इनफर्टिलिटी और नपुंसकता का अंतर नहीं जानते. चेन्नै के जी.जी. अस्पताल की गाइनेकोलॉजिस्ट डॉ. प्रिया सेल्वाराज कहती हैं, “पुंसकता का मतलब किसी पुरुष का सेक्स गतिविधियों में लगातार असमर्थ रहना है जबकि इनफर्टिलिटी का मतलब शुक्राणुओं की खराब क्वालिटी या संख्या से है.” दोनों ही स्थितियां हालांकि रिश्तों, जीवन के स्तर और आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाने वाली हैं.
दिल्ली के कम स्पर्म काउंट वाले एक शख्स को उनकी पत्नी के अंडोत्सर्ग चक्र (ओवुलेशन साइकिल) के दौरान संभोग करने के लिए कहा गया. वे बताते हैं, “आप जानते हैं कि जरूरी नहीं कि इनफर्टिलिटी का संबंध नपुंसकता से हो फिर भी आप चिंतित तो होते ही हैं.” अमेरिका की स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी के जर्नल ऑफ एंड्रोलॉजी में 2012 में छपे एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि काम-काज का दबाव पुरुषों में नपुंसकता पैदा कर सकता है क्योंकि उससे सेक्स के लिए जरूरी हार्मोन की कमी हो जाती है.
कोलकाता के एक शख्स के साथ ऐसा ही हुआ. बच्चे के लिए उन्होंने बरसों मेहनत की, बाद में उन्हें कहा गया कि वे पिता नहीं बन सकते. डॉक्टरों के मुताबिक अब 40 पार के ये सज्जन एजूस्पर्मिया नाम के लक्षण से ग्रस्त थे. इसका मतलब यह होता है कि उनका इजैकुलेशन तो ठीक था लेकिन उनके वीर्य में शुक्राणु नहीं थे. विशेषज्ञ वजह का पता नहीं लगा सके. लेकिन इस स्थिति ने पत्नी के साथ उनके संबंधों को काफी तनाव में ला दिया. हर बात बहसबाजी में बदल जाती और पत्नी उन्हें बार-बार “अक्षमता” का उलाहना देती थी और मुखर हो जाती थी. वे अपनी मर्दानगी को पहुंची इस ठेस से कभी उबर नहीं सके. शादी तो नहीं टूटी, लेकिन वे एक हंसते-खिलखिलाते हुए आदमी से थके-हारे रोबो में तब्दील हो गए.
बांझपंन को हमेशा से ही औरतों से जोड़ा जाता रहा है. हैदराबाद के इनफर्टिलिटी इंस्टीट्यूट ऐंड रिसर्च की डॉ. ममता दीनदयाल कहती हैं, “मेरे पास ऐसी महिलाएं आती थीं जिनके पति उन्हें प्रताड़ित करते, घर से निकाल देते और दूसरी शादी कर लेते थे.” पुरुषों में बढ़ता बांझपंन अब बंद दरवाजों के पीछे पारिवारिक समीकरण को बदल रहा है. दिल्ली की वकील कामिनी जायसवाल कहती हैं, “एक समय था जब तलाक के मामले अधिकतर दहेज और घरेलू हिंसा के कारण दर्ज होते थे. आज ऐसे मुकदमे नपुंसकता और इनफर्टिलिटी की वजह से भी दायर होते हैं.” कर्नाटक हाइकोर्ट में पिछले साल जून में एक मामला आया था जिसमें महिला ने यह कहते हुए तलाक की मांग की थी कि शादी के दो साल बाद भी वह गर्भ धारण नहीं कर सकी है और वह “अपने वैवाहिक जीवन से संतुष्ट नहीं है.” जस्टिस एन.के. पाटिल और बी.वी. पिंटो ने अपने फैसले में कहा था, “पति की नपुसंकता पर सवाल उठाना जिंदगी और मौत का सवाल है.”
जिस देश में मर्दानगी का फतवा अदालतों में जारी होता हो, वहां आश्चर्य नहीं कि समस्या की जड़ पुरुषों में खोजे जाने की बजाए इसे संतानहीनता की तरफ मोड़ दिया गया है. सामान्य आबादी में इनफर्टिलिटी खासकर शहरी भारत में नाटकीय तरीके से बढ़ रही है. जनगणना के आंकड़ों के आधार पर मुंबई स्थित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज का अनुमान है कि 1981 से 2010 के बीच इसमें 50 फीसदी की वृद्धि हुई है. मुंबई के जसलोक अस्पताल में असिस्टेड रिप्रोडक्शन की चीफ डॉ. फिरुजा पारिख कहती हैं, “15 से 20 फीसदी बेऔलाद भारतीय दंपत्तियों में अब उंगली पुरुषों की तरफ घूम गई है. देश में संतानहीनता के 40 फीसदी मामलों में पुरुषों में इनफर्टिलिटी को जिम्मेदार ठहराया जाता है.”
पुरुषों में इनफर्टिलिटी के पीछे मुख्य बायोलॉजिकल फैक्टर्स में शुक्राणुओं की संख्या कम होना यानी ऑलिगोस्पर्मिया, शुक्राणुओं का अभाव या एजूस्पर्मिया, एस्थेनोस्पर्मिया यानी शुक्राणुओं की असामान्य गतिविधि और असामान्य आकार तथा संरचना वाले शुक्राणुओं की बीमारी या टेरेटोस्पर्मिया हैं. अन्य वजहों में अंडकोश की नसों में सूजन, संक्रमण, शुक्राणुरोधी जीवाणु, ट्यूमर, अंडकोश में गड़बड़ी, हार्मोन असंतुलन, शुक्राणु नली की असामान्यता, क्रोमोजोम में गड़बड़ी और कुछ दवाइयों का असर हो सकता है. वे कहती हैं, “काम पर लाइफस्टाइल संबंधी फैक्टर भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं.”
बंगलुरू की प्रतिष्ठित बीपीओ कंपनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर 32 वर्षीय विवेक जयंत के शुक्राणुओं के साथ कोई लफड़ा नहीं था, लेकिन माइक्रोस्कोप में देखने पर पाया गया कि उनकी रफ्तार बहुत धीमी थी और उनकी पूंछ गोल सिरे के इर्द-गिर्द लिपटी हुई थी. डॉक्टर ने उनसे पूछा, “क्या आप शेफ हैं? आपके शुक्राणु लगता है, गर्मी के कारण सिकुड़ गए हैं जो आमतौर पर गर्म वातावरण में रहने वाले लोगों के साथ होता है” पता चला कि जयंत शाम को अपनी 27 वर्षीया पत्नी प्रतिमा के साथ एकाध घंटा टीवी देखते वक्त गोद में लैपटॉप लेकर बैठते थे. उन्हें बताया गया कि घंटा भर भी ऐसा करने से शुक्राणुओं का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है.
दिल्ली के फोर्टिस अस्पताल में गाइनेकोलॉजी विभाग की प्रमुख डॉ. सुनीता मित्तल बताती हैं, “माहौल का बड़ा असर होता है.” रोजाना काम आने वाले उत्पादों के रूप में हर साल तकरीबन 2,000 नए केमिकल्स दुनिया भर के बाजारों में उतारे जाते हैं. वे कहती हैं, “हम इनमें से कई केमिकल्स के अपनी सेहत पर असर के बारे में कुछ नहीं जानते.” शराब से शुक्राणु बनना कम हो जाता है, स्मोकिंग से इनका आकार गड़बड़ा जाता है, एस्पिरिन की ज्यादा खुराक वीर्य में अहम रसायनों से छेड़छाड़ कर देती है और चीनी की अधिक मात्रा मोटापा, तनाव, यौन संक्रमित रोग, भारी वर्जिश, अनिद्रा और उम्र का बढऩा सब मिलकर इनफर्टिलिटी को बढ़ावा देते हैं.
मर्दानगी पर मंडराते इस खतरे ने नैतिकता की नई परिभाषाओं को जन्म दिया है. कभी-कभार ‘रक्त शुद्धता’ को बनाए रखने के नाम पर धोखाधड़ी की जाती है, तो कभी बच्चे के लिए व्यावसायिक लेन-देन तक होते हैं. मसलन, समाजशास्त्री ज्योत्सना अग्निहोत्री गुप्ता ने इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स में 2008 में किसी स्पर्म बैंक के निदेशक के साक्षात्कार के हवाले से बताया था कि कैसे किसी पुरुष में इनफर्टिलिटी की स्थिति होने पर उसके भाइयों या पिता ने शुक्राणु दान दिया था और पत्नी को इस बारे में अंधेरे में रखा गया. अपना नाम न छापने की शर्त पर निदेशक ने कहा था, “वे अपनी पत्नियों से कहते हैं, मैं अपना नमूना लेकर आता हूं. तुम्हारे साथ कुछ दिक्कत है. और फिर वे दूसरे का वीर्य लेकर पहुंच जाते हैं.”
बच्चे की चाहत कभी अजीब रूप भी ले लेती है. ऐसा ही एक सनसनीखेज उदाहरण पिछले साल जनवरी में देखने को मिला था जब एक दंपती ने 20,000 रु. के बदले किसी हाइ आइक्यू वाले आइआइटी छात्र के शुक्राणु की चाहत का विज्ञापन दे डाला था, जिसने आइआइटी, चेन्नै के छात्रों में सनसनी पैदा कर दी थी.
मर्दों में इनफर्टिलिटी का इलाज आसान नहीं है. परीक्षण सटीक नहीं होते. वीर्य इंसानी शरीर का सबसे जटिल द्रव्य होता है जिसे इकट्टा और जमा करना मुश्किल होता है. इस क्षेत्र में सीमित ज्ञान के चलते अपर्याप्त शोध से बनी दवाइयों को बेचना भी आसान हो जाता है. फर्टिलिटी क्लीनिकों और स्पर्म बैंकों का पंजीकरण नहीं होता. इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च ने हालांकि देश भर में ऐसे 900 क्लीनिकों की पहचान की है, लेकिन डॉक्टरों का मानना है कि कई और उसकी नाक के नीचे अपना धंधा चला रहे हैं. ऐसा कोई नियमन नहीं है जो सुनिश्चित कर सके कि ये क्लीनिक विश्व स्वास्थ्य संगठन के ताजा दिशा-निर्देशों को मानें.
इनफर्टिलिटी के इलाज में मर्दानगी ही सबसे बड़ा रोड़ा है. सच मानने में पुरुषों की शर्म, उनका आत्मसम्मान और इलाज से इनकार समस्या का बोझ महिलाओं के कंधे पर डाल देता है. ऐसे अनियमित क्षेत्र में नैतिकता के किसी भी मानक का अभाव डॉक्टरों को भी संदिग्ध बना देता है. एम्स के यूरोलॉजिस्ट डॉ. राजीव कुमार कहते हैं, “पुरुषों को सिर्फ शुक्राणु देने वाले के रूप में बरतने का एक चलन है जबकि उनकी स्वस्थ जीवनसाथी को दर्द भरे और घातक इलाज से गुजरना पड़ता है.”
चिकित्सा के पेशे से जुड़े लोगों का दावा है कि उन्हें भारतीय पुरुषों में इनफर्टिलिटी के ऊंचे स्तर की जानकारी कुछ साल पहले से ही है. सवाल उठता है कि इसे सामने आने में फिर इतना वक्त कैसे लग गया. आखिरकार, यह हिंदुस्तान की आने वाली पीढिय़ों का सवाल है.