डेढ़ किलो के अब्राम (Abram)ने विले पार्ले के नानावटी अस्पताल में 27 मई को समय से पहले जन्म लिया. उसे विशेष देखभाल के लिए ब्रीच कैंडी अस्पताल लाया गया. एक महीने से अधिक समय से गौरी उसकी देखभाल कर रही थीं, ताकि वह पूरी तरह से तंदुरुस्त होकर घर आए. डॉ. शाह की मदद से 80 जोड़ों ने पिछले दो साल में सरोगेट मां के जरिए औलाद का सुख पाया है. डॉ. शाह को उम्मीद है कि शाहरुख और गौरी का यह ‘‘साहसी कदम’’ समाज के कई वर्गों में सरोगेट मां से जुड़ी भ्रांति दूर करने की दिशा में अहम भूमिका निभाएगा. उन्हें उम्मीद है कि अब्राम का जन्म असिस्टेड रिप्रोडक्टिव टेक्नोलॉजी (एआरटी) के प्रति जागरूकता बढ़ाने में मदद करेगा. इस टेक्नोलॉजी को पहले ही किरण राव और आमिर खान के कदम से पहचान मिल चुकी है जिनका बच्चा आजाद सरोगेट मां से 2011 में पैदा हुआ था. एआरटी आर्टिफिशियली स्टीमुलेटिंग प्रेग्नेंसी प्रॉसेस है जिसमें आइवीएफ और भ्रूण ट्रांसफर (ईटी), आइसीएसआइ, एक्सोजिनस गोनैडोट्रॉपिंस के जरिए डिंबग्रंथि को सक्रिय करना, सर्जिकल लैप्रोस्कोपी और सरोगेट मातृत्व शामिल है. किराए की कोख में डिंब प्रत्यारोपित किए जाते हैं. आने वाले शिशु का विकास तो किराए की कोख में होता है, लेकिन उसके प्राकृतिक मां-बाप कोई और होते हैं.
कंसल्टेंसी फर्म केपीएमजी के लाइफसाइंसेज विंग के अनुसार, भारत में फर्टिलिटी इंडस्ट्री 750 करोड़ रु. तक पहुंच गई है, जिसमें 7 फीसदी कारोबार यानी करीब 54 करोड़ रु. सरोगेसी से जुड़े हैं. लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि उस समय इस संख्या में और भी इजाफा होगा जब लोगों में ऐसे मामलों को बताने की हिचकिचाहट खत्म होने लगेगी. फिलहाल क्लीनिक पर यह बताने की बाध्यता नहीं कि बच्चे को असल मां ने जन्म दिया या किराए की मां ने. लिहाजा वास्तविक आंकड़ा मिलना संभव नहीं दिखता और जो संख्या मिलती है वह अनुमान आधारित होती है.
असिस्टेड रिप्रोडक्टिव टेक्नोलॉजी बिल-2010 का देश में इंतजार हो रहा है, लेकिन अभी उसके मसौदे पर काम चल रहा है. उम्मीद है कि उसके लागू होने पर बहुत-सी चीजें बेहतर हो जाएंगी. 2005 में एआरटी के संबंध में दिशा-निर्देश तैयार करने वाले इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (आइसीएमआर) के डिप्टी डायरेक्टर आर.एस. शर्मा को बिल के मद्देनजर आइवीएफ क्लीनिक के रजिस्ट्रेशन को देखने का जिम्मा सौंपा गया है. शर्मा बताते हैं, ‘‘भारत में समस्या यह है कि निहित स्वार्थों में लिप्त क्लीनिक बैंकों (सरोगेट उपलब्ध कराने वाली संस्था) की तरह काम कर रहे हैं. बिल के पारित होने पर ये दोनों अलग-अलग कर दिए जाएंगे. अब उन्हें बताना होगा कि वे क्लीनिक चलाएंगे या बैंक.’’ आइसीएमआर ने भारत में 1,200 आइवीएफ क्लीनिक की पहचान की है जिनमें से 504 ने क्लीनिक के रूप में काम करने की बात मानी है. बाकी बैंकों के रूप में सेवा मुहैया करा रहे हैं. इनमें से सिर्फ 150 आइसीएमआर में लिस्टेड हैं.
सामाजिक भ्रांति का सामना
अहमदाबाद के बावीशी फर्टिलिटी इंस्टीट्यूट के डॉ. हिमांशु बावीशी ने जब 1998 में सरोगेट मदर से पहले बच्चे का जन्म कराया तो उस दिन आधी रात को उनके दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी. दरवाजे पर वही सरोगेट मदर खड़ी थी. उसे ‘‘अपने बच्चे को बेचने’’ के जुर्म में गांव से बाहर निकाल दिया गया था. आज इस इंस्टीट्यूट में हर महीने किराए की कोख से 16 से 20 बच्चे जन्म लेते हैं और उन्हें सामाजिक तौर पर स्वीकार करने की प्रवृत्ति में तेजी से बढ़ोतरी हुई है. 1987 में सरोगेसी से जुड़ी खबर ने सबसे पहले लोगों का ध्यान उस समय खींचा जब अमेरिका की टाइम पत्रिका के कवर पर ‘बेबी एम’ दिखी. उस बच्ची की किराए की मां ने उसे सौंपने से इनकार कर दिया था. मामला न्यू जर्सी के सुप्रीम कोर्ट में गया जहां सरोगेसी से सामाजिक और नैतिक मूल्यों में आई जटिलताओं पर सवाल किए गए. बहस छिड़ी और नतीजा हुआ कि इस संबंध में कानून बनाना पड़ा.
मुंबई के जसलोक अस्पताल में कार्यरत 68 वर्षीय न्यूरोसाइकियाट्रिस्ट डॉ. राजेश पारिख किराए की कोख देने वाली महिलाओं के मनोविज्ञान का विश्लेषण करते हैं. उनका कहना है कि भारत में किराए की कोख का इतना बड़ा कारोबार होने पर भी अभी तक कोई कानून नहीं बन पाया है. मुंबई शहर के कोलाबा में मालपानी इनफर्टिलिटी क्लीनिक की डॉ. अंजलि मालपानी ने गौर किया कि पिछले कुछ साल में औरतें नॉन-मेडिकल वजहों से सरोगेसी का विकल्प चुन रही हैं. मालपानी ने उन्हें तीन समूहों में बांटा है: पहली, करियर को प्यार करने वाली औरतें जो कॉर्पोरेट बुलंदियों पर पहुंचने की दौड़ में मातृत्व के लिए छुट्टी लेकर पिछडऩा नहीं चाहतीं; दूसरी, मॉडल, अभिनेत्री और सोशलाइट जो अपनी तराशी हुई काया ‘खराब’ नहीं करना चाहतीं और तीसरी, ऐसी महिलाएं जो अखबारों में छपी रिपोर्ट पढ़कर महसूस करती हैं कि सरोगसी बच्चे को जन्म देने का एक दर्द रहित तरीका है. मालपानी कहती हैं, ‘‘हम उन्हें ऐसा करने से मना करते हैं और सही सलाह देते हैं.’’
हद तो यह है कि किराए की कोख देने वाली महिलाएं भी इसे पैसा कमाने का जरिया मानने लगी हैं. ‘‘तीन साल पहले दिल्ली से एक महिला ने मुझे मेल किया, जिसमें उसने लिखा कि वह किराए की मां बनने के लिए तैयार है बशर्ते नौ महीनों के लिए उसे कफ परेड के पॉश इलाके में एक अपार्टमेंट दिया जाए.’’
लेकिन इस तरह के मामले काफी कम हैं. सरोगेसी एक मेडिकल समस्या का चिकित्सीय समाधान है. एक आम धारणा है कि यह एक अचूक गर्भाधान विधि है. जसलोक हॉस्पिटल ऐंड रिसर्च सेंटर में असिस्टेड रिप्रोडक्शन ऐंड जेनेटिक्स की फर्टिलिटी एक्सपर्ट और डायरेक्टर 57 वर्षीया डॉ. फिरुजा पारिख का मानना है, ‘‘सरोगेसी में सिर्फ 50 से 70 फीसदी ही कामयाबी की संभावना होती है.’’
किराए की जिंदगी
सरोगेट मदर आम तौर पर ऐसी औरतें होती हैं, जिनके अपने बच्चे होते हैं. इससे यह पता चलता है कि वे मां बन सकती हैं, उनकी कोख में बच्चे का पूरा विकास हो सकता है और इससे यह भी तय होता है कि शिशु को जन्म देने के बाद वे भावुक होकर उसे सौंपने से इनकार नहीं करेंगी. बावीशी या जसलोक अस्पताल में डॉ. पारिख के क्लीनिक जैसी अत्याधुनिक सुविधापूर्ण जगहों पर प्राथमिक रूप से सरोगेट की सेहत, प्रजनन और शारीरिक क्षमता देखी जाती है. वह मानसिक तौर पर तैयार है कि नहीं, परिवार का समर्थन है या नहीं, इन बातों पर गौर होता है. बड़े क्लीनिकों में सरोगेट, इच्छुक मां-बाप और संबंधित परिजनों को सारी बातों की बारीकी समझने के लिए वकीलों की टीम भी मौजूद होती है.
पश्चिमी दिल्ली में चाणक्य पैलेस के बीचोबीच एक छोटी-सी कॉलोनी में वाइजैक्स (डब्ल्यूवाइजेडएएक्स) सरोगेसी कंसल्टेंसी से जुड़ी सरोगेट मांएं रहती हैं. यहां नौ सरोगेट मां तीन बेडरूम के अपार्टमेंट में रह रही हैं. दो सीसीटीवी कैमरे और एक हंसमुख नेपाली सुरक्षा गार्ड उनकी सुरक्षा और विभिन्न क्लाइंट के निर्धारित विभिन्न नियमों के पालन को सुनिश्चित करने के लिए तैनात है. ये सभी दिल्ली की रहने वाली हैं. इनको पूर्व अनुमति लेकर बाहर जाने की आजादी है. साथ ही वे सरोगसी की अवधि के दौरान अपने बच्चों को अपने साथ रख सकती हैं. पति भी मिलने के लिए आ सकते हैं, लेकिन उन्हें वहां रात बिताने की मनाही है.
हर दिन भुनी हुई मछली और केले का शेक लेना, प्रसवपूर्व किए जाने वाले योग करना और गर्भावस्था के दौरान सेक्स से परहेज रखने जैसी शर्तों वाले कॉन्ट्रेक्ट पर हस्ताक्षर करने तक की मांग करने वाले जोड़ों से 46 वर्षीया अंजलि मदान (पहचान छिपाने के लिए नाम बदला है) का साबका पड़ चुका है. किराए की कोख देने के एवज में मिलने वाले 3-4 लाख रु. के सामने इन छोटी-मोटी मांगों को मानने से उन्हें कोई गुरेज नहीं. वे कहती हैं, ‘‘मुझे बच्चों के प्रति कोई लगाव नहीं महसूस होता. बच्चे के जन्म लेने पर न तो मैं उन्हें देखती हूं और न ही गोद में लेती हूं.’’
मुंबई के बांद्रा में स्थित रोटुंडा क्लीनिक ने मई, 2008 में दो इज्राएली समलैंगिक पुरुषों के लिए बच्चे को जन्म दिलवाने में सबसे पहली सफलता हासिल की थी. उसके बाद जल्द ही भारत समलैंगिक जोड़ों का पसंदीदा ठिकाना बन गया. लेकिन सरकार ने 2011 में कानून पेश कर ऐसी व्यवस्था कर दी कि सरोगेसी के जरिए बच्चा चाहने वाले जोड़ों की शादी की न्यूनतम अवधि दो साल होनी चाहिए. इससे समलैंगिक जोड़ों, एकल मां या पिता और मुंबई के लिव-इन जोड़ों की सरोगेसी से बच्चा पाने की इच्छा पर अंकुश लग गया. उनमें से कई ने क्लीनिक में अपने भ्रूण संरक्षित करवा रखे थे. जून, 2013 में सरकार ने घोषणा की है कि सरोगेसी के लिए भारत आने वाले एकल मां या पिता को वीजा देने पर वह विचार करेगी बशर्ते भारत से वापस जाते समय वे बच्चे का और अपना डीएनए जांच कराएं.
सरोगेसी से जुड़े सही कानून के अभाव में अच्छे इरादे से काम कर रहे लोगों-मां-बाप, फर्टिलिटी एक्सपर्ट और सरोगेट मदर्स-को भी बेजा परेशानी झेलनी पड़ रही है. डॉ. राजेश पारिख कहते हैं, ‘‘हमें साइंस के साथ चलने वाले सही कानून के सहारे की जरूरत है. आज एक बच्चे को जन्म देना सिर्फ मां-बाप का काम नहीं रह गया है. इसमें वकील, डॉक्टर, सरोगेट मदर, समाज और सरकार भी शामिल हैं. जब सब साथ मिलकर काम करेंगे, तब ही एक पूर्ण शिशु का जन्म होगा.’’