कोरोना वॉरियर्स को सलाम करने के लिए आयोजित ई-साहित्य आजतक में शुक्रवार को गीतकार जावेद अख्तर पहुंचे थे. उन्होंने अपनी जिंदगी से जुड़े किस्से आजतक के साथ शेयर किए. साथ ही बताया कि वे कैसे फिल्मी दुनिया में आए, क्या सपने लेकर आए थे. कैसे राइटर बनने? उन्होंने बचपन के किस्से सुनाए कि कैसे उन्हें शेर ओ शायरी से लगाव हुआ.
बचपन में से ही था शायरियों की तरफ झुकाव
पहली बार ऑफिशियल राइटिंग किसको मानते हैं? इस सवाल के जवाब में जावेद अख्तर ने कहा,'जहां मैं पैदा हुआ था, जिस घराने में वहां चारों तरफ शायरी ही शायरी थी. मेरे पिता और मामा मजाज बड़े शायर थे. उनको मैंने बचपन में सुना-देखा.'
जावेद ने कहा,'मुझे 8-10 साल तक मुझे हजारों शेर याद थे. 15 साल की उम्र तक तो मुझे लाख शेर याद थे. आज भी मैं आपको दूसरों की पोइट्री सुना सकता हूं.'
फिल्मी दुनिया में कैसे आए?
जावेद ने कहा- 'आठ-नौ साल की उम्र में मैंने उड़न खटोला, मुनीब जी जैसी फिल्में देखी थीं. उस उम्र में बच्चे को कहां पता होता है कि राइटर, स्क्रीन प्ले राइटर, डायरेक्टर कौन होता है. पहला आदमी को जो फिल्मों से दिलचस्पी होती है वो एक्टर से होती है. जब आप बड़े होते हैं तो फिर ये बातें समझते हैं.'
'गुरुदत्त का अस्सिटेंट बनना चाहते थे'
जावेद अख्तर कहते हैं,'मैं जब फिल्मों में आया तो मुझे पता नहीं था कि राइटर बनूंगा. ग्रेजुएशन के बाद जब यहां आया तो मैंने सोचा था कि मैं अस्सिटेंट डायरेक्टर बनूंगा. वो भी गुरुदत्त जी का. मैं उनका बड़ा फैन था और आज भी हूं. जब मैं आया उसके 8-10 दिन के अंदर ही उनकी डेथ हो गई, उनसे तो कभी मैं मिल नहीं पाया. लेकिन इसके बाद मैं कमाल अमरोही का अस्टिटेंट बन गया.
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जावेद अख्तर का कहना है,'जब कोई सीन गड़बड़ होता था तो स्क्रिप्ट में गड़बड़ होती थी तो मैं बोलता था कि लाइए मैं ठीक कर देता हूं. जब ठीक हो जाती तो डायरेक्टर कहते तुम भी लिखा करो. फिर धीरे धीरे ये चलता रहा. फिर एक फिल्म आई सरहदी लुटेरा, उसमें 100 रुपये महीने में अस्सिटेंट था. उसी सौ रुपये महीने में मैं डायलॉग भी लिख रहा था. तो वहां सब लोगों ने मेरी बहुत तारीफ की. उस फिल्म में सलीम साहेब रोमांटिक लीड थे. वहां उनसे दोस्ती हुई. उन्होंने मुझे कहा कि लिखना चाहिए, फिर हम साथ हो गए.'