कोलकाता में 'साहित्य तक' के सबसे बड़े मंच का आयोजन हुआ. साहित्य के इस मंच पर बड़े-बड़े लेखक-लेखिकाओं, राजनीतिज्ञ, सीने कलाकारों ने अपनी राय रखी. साहित्य तक के सत्र मुशायरा और कवि सम्मलेन में कई कवियों और शायरों ने बेहतरीन प्रस्तुति देकर श्रोताओं का खूब मनोरंजन किया. मुशायरे की शुरुआत डॉ शाहिद फारूकी ने की. उन्होंने पहला शेर पढ़ा...
शायरी करने का मौसम नहीं होता कोई
छोट लगती है है तो हम शेर कहा करते हैं
फारूकी ने आगे सुनाया...
हर एक खत का तुम्हारे जवाब भेजा था
जो हमपर गुजरी थी उसका हिसाब भेजा था
अभी भी रखा है उसको किताब में हमने
जो तुमने खत में छुपाकर गुलाब भेजा था
उन्होंने आगे पढ़ा...
जिंदगी आपको दे सकती है जीने का सिला
मौत के बारे में सोचेंगे तो फिर उलझेंगे
किसी भी राह में साया नहीं बदलता है
जहां जाता हूं साथ साथ चलता है
बिखरने लगता हूं खुद मैं धुंआ धुंआ होकर
दीये के जैसा जब वो मेरे दिल में जलता है
अगले शायर जितेंद्र धीर ने अपनी शायरी से दर्शकों का खूब मनोरंजन किया. उन्होंने शेर पढ़ा...
बदलके के भेष ग़ालिब सा कहां फुर्सत जो देखें हम जहां को
सुबह से शाम तक एक जंग लड़नी हर घड़ी यहां को
जितेंद्र धीर ने कोलकाता पर कहा कि...
बेघरों का घर यहां फुटपाथ है
ओढ़ना, बोरा बिछावन यहां साथ है
मंदिरों मस्जिद करोड़ों की नुमाइश
सामने फैले हजारों हाथ हैं
धर्म पर उन्होंने कहा...
ये कैसे लोग हैं दीवार नफरत की उठाते हैं
धर्म के नाम पर हमको जो आपस में लड़ाते हैं
बड़े शातिर खिलाड़ी हैं सयाने ये सियासत के
लगाते आग हैं पहले उसे ये फिर बुझाते हैं
जहां कातिल ही मुंसिफ हो वहां क्या फैसला होगा
तमाशा देखते रहिये तमाशा वो दिखाते हैं
हमें मालूम है हम जानते हैं उनकी फितरत को
उजागर 'धीर' है चेहरा मुखौटा क्यों लगाते हैं
उन्होंने आगे पढ़ा...
अंधो की अदालत में तहरीर दिखाना क्या
बहरें जहां बैठे हों कुछ उनको सुनाना क्या
बीते हुई बातें हैं ये गुजरी ज़माने की
इखलाख मोहब्बत का दौर जमाना क्या
मां बाप, बुजुर्गों की जहां नहीं कोई
उस दौर में जीने से बेहतर नहीं मरना जाना क्या
मतलब से जो मिलते हैं और भूल भी जाते हैं
ऐसों से भला यारी याराना निभाना क्या
गर्दिश में जो काम आये अपना वही होता है
ऐसों को भला कोई कहता है बेगाना क्या
जो आग में खुद अपनी जलते हैं ज़माने से
ऐसों को मेरे भाई अब और जलाना क्या
जो जानकर भी सब कुछ अंजान बने रहते
उनसे नहीं कुछ कहना, उनसे सुनना क्या
दुनिया तो हंसेगी, हंसना उसे आता है
बेदर्द ज़माने को अब जख्म दिखाना क्या
वाकिफ है सभी अपने चेहरे की हकीकत से
ऐसे धीर भला इनको आइना दिखाना क्या
मुस्ताक अंजुम ने भी बेहतरीन शेर पढ़कर खूब मनरोंजन कराया. उन्होंने सुनाया...
मैं जब आया था यहां कैनवस खाली ही था
आज भी खाली ही लगता है
आड़ी तिरछी कुछ लकीरें हैं जरूर धुंध में लिपटी हुई बेरंग से
कोई कैसे मान ले तस्वीर इसको
ये लकीरें सांस लेती हैं मगर इन लकीरों में छुपा है मेरी जिंदगी का राज
उन्होंने आगे पढ़ा...
हम जी रहे हैं यूं तेरे दरबार से अलग
जैसे गुले फ़सुर्दा चमनजार से अलग
कैसी रुकावटें हैं कि ओझल नजर से हैं
दीवार तो नहीं कहीं दीवार से अलग
यूसुफ के साथ आज जुलेखा भी बिक न जाए
बाजार है ये मिस्र के बाजार से अलग
आसिम शहनवाज ने सुनाया...
हर राह में तूफान यहां भी है वहां भी
हर शख्स परेशान यहां भी वहां भी
हर होंट पर मुस्कान यहां भी है वहां भी
हर दिल मगर अंजान यहां भी है वहां भी
हर ज़ात में शैतान यहां भी है वहां भी
हर ज़हर का सामान यहां भी है वहां भी
क्यों आग लगी शहर में क्यों गांव है वीरान
अगला शेर पढ़ा...
सच का चेहरा फीका पड़ा हो ऐसा भी हो सकता है
झूठ के मुंह पर रंग चढ़ा हो ऐसा भी हो सकता है
आवाजों से कैसे जाना घर में कोई रहता है
सन्नाटा ही चीख रहा हो ऐसा भी हो सकता है
नंदलाल रौशन ने साहित्य तक के सत्र मुशायरा में शेर पढ़ा...
बात की बात नई बात बना लेता है
अपने चेहरे का हर रंग छुपा लेता है
पहले लेता है वो हंसकर मेरी पलकों में पनाह
फिर मेरी आंख से काजल भी चुरा लेता है
नाम जब आया मेरा तो उसने हंसकर लिख दिया
इसके हिस्से में यही है दीद ए तर लिख दिया
नसीम अज़ीज़ी ने कहा...
कभी सूरज की किरणें बन के अंगारे बिछी रहती हैं राहों पर
कभी बारिश की बूंदे रास्तों के जिस्म पर ग़ालिब
अनवर हुसैन अंजुम का अंदाज अलग था. उन्होंने शेर पढ़ा..
हमारे खून में अपना वो निवाला तोड़ने लगे
मिला न खून तो जिस्म की नसें खखोड़ने लगे
हमारे खून से होलियां वो खेलते रहे मगर
जब आए वो चुनाव में तो हाथ जोड़ने लगे
कार्यक्रम में शिरकत करने वाले डॉ विनोद प्रकाश गुप्ता का शेर था...
कमर के टूटने तक ही झुका जा सकता है साथी
सब्र का बांध टूटे तो उसे हलके में मत लेना
कोई चिंगारी सुलगे तो उसे हलके में मत लेना
कोई मजबूर रोये तो उसे हलके में मत लेना