इसलिए ऐ शरीफ इंसानों
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आंगन में
शमा जलती रहे तो बेहतर है
साहिर लुधियानवी ने कभी यूं लिखा था. यह आदर्श स्थिति है, दुआ सरीखा कुछ, मगर इतनी गर्द है इस दुनिया में कि ऊपर वाले के पास दुआएं पहुंचती नहीं है, और यूं भी टालने से मसले खत्म कब होते हैं. पेशावर में बेकसूर मासूमों पर हमले के बाद शायद अब साहिर होते तो कुछ यूं लिखते, यकीनन बेहतर लिखते लेकिन लब्बोलुआब शायद ऐसा होता.
एक ख़त पाकिस्तान के सियासतदानों के नाम
ऐ शरीफों, इमरानों
जंग कब तक टलेगी ये तो कहो
शम्आ कब तक जलेगी ये तो कहो
कत्ल कर दे जो मासूमों का
सांस कब तक चलेगी ये तो कहो
हमने माना कि है ये ऐलान-ए-जिहाद
हमने जाना कि है इसमें ही नक्श-ए-सबाब
मौत और वो इस क़दर तपाक क्यों हो
बच्चे अवाम के ही हलाक़ क्यों हों
अब ये दीवार-ए-मुनक्कश भी ढह जाएगी
बुनियाद ये भी तो तुम्हारी है
जिबह हो चली क़ौम भी अब
अब हुक़्मरानों की बारी है
साहबे इंसाफ अब किसको मारेंगे
सहबतलब लोग अब तो रहे ही नहीं
अब जो ये जिन्नाते-गरां आएंगे
गोश्त तुम्हारा ही नोच खाएंगे
इसलिए ऐ शरीफों, इमरानों
ऐ सियासत के कूड़ादानों
जंग अब हो ही जाए मुनासिब है
कहर बन के बच्चों पे गिरे हैं जो
इंसाफ-ए-ख़ुदा पाएं यही वाजिब है..
यह कविता हमारे सहयोगी आदर्श शुक्ला ने लिखी है.