अट्ठारह सौ सत्तावन के प्रथम स्वाधीनता-संग्राम के उत्तरकाल में, क्रांति-पुरोधा मंगल पांडेय के सर्वथा नवीन, सर्वथा परिष्कृत, धीरोदात्त संस्करण की भाँति 'पं. रामप्रसाद बिस्मिल', भारतीय स्वाधीनता संग्राम के निमित्त प्रस्फुटित क्रांति की विक्रांत गाथा का ऐसा महानायक है, जिसके चारों ओर, विप्लव के तद्वर्ती अग्नि-पुंज, उसी प्रकार परिक्रमण करते हैं, जिस प्रकार विराट् सौर-मंडल के मांडलिक, अपने केंद्राधिपति मार्तंड के अहर्निश चक्कर लगाते हैं. वह भारत राष्ट्र की स्वतंत्रता और भारतीय संस्कृति के सुरक्षण, संरक्षण के प्रति सक्रिय चेतना तथा समर्पित भाव-श्रद्धा के अमृतोपम सौरभ का ऐसा अनिंद्य महाकोष रहा है, जिससे इस पुण्य पंथ पर चलनेवाले असंख्य महाप्राणों ने प्रेरक पाथेय ग्रहण किया है. बिस्मिल, प्रबल पराक्रमी जीवट का ऐसा विवस्वान् है, जिसके विकीर्णित प्रेरणांशुओं ने राष्ट्रीय स्वाभिमान के गिरि-गह्वरों में ध्यानस्थ, लता-प्रतानों में विन्यस्त, सरि-सरोवरों में किल्लोलित और विस्तृत भू-पटल पर विचरण करते प्राणियों, नभचरों को जागृति की संजीवनी दी थी.
आजादी की लड़ाई सुविधापूर्वक लड़नेवाले आभिजात्य वर्ग की अधिनायकवादी मनोवृत्ति वाले सत्ता-लुब्धकों से सर्वथा अलग, वस्तुतः सत्याग्रही किंतु विद्रोही तेवर और मिजाज रखनेवाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस एवं लौह-पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल की भाँति, सुनिष्ठ शब्द-साधकों के कमनैत कुंभा पं. रामप्रसाद 'बिस्मिल' भी मेरे परम प्रिय आग्नेय व्यक्तित्व, न केवल परम प्रिय, प्रत्युत मेरी भावनी श्रद्धा के पात्र महाप्राण, बोधिसत्व रहे हैं.
हिंदी के उद्दाम लेखन-पौरुष से संपन्न शब्द-रथी, समर्पित काव्य-साधक और विलक्षण सारस्वत प्रतिभा के धनी आचार्य श्री देवेंद्र देव ने स्वाधीनता-युग के इस अपराजेय योद्धा, अभिनव राणा हम्मीर पर भी एक महाकाव्य 'पं. रामप्रसाद बिस्मिल' की रचना की है, जो उनके द्वारा अब तक प्रणीत पंद्रह महाकाव्यों में एक और वह भी सर्वथा अद्भुत है. ऐसी विलक्षण महाकाव्य-कृति इससे पूर्व कभी मेरी दृष्टि और श्रुति-पथ में नहीं आई.
सोलह सर्गों में निबद्ध इस महनीय कृति में बिस्मिलजी के अग्निधर्मा व्यक्तित्व और उनके जुझारु, किंतु अत्यधिक संवेदनशील कृतित्व का चित्रण कवि देव ने अपनी पूरी क्षमता और प्राणवत्ता के साथ किया है, जिसमें महाकाव्य-विषयक लगभग सभी शास्त्र-सम्मत मानक निर्वाहित हैं. महाकाव्य का श्रीगणेश शास्त्रोक्त प्रथम मानक, नमस्कारात्मकता और वर्ण्यवस्तुनिर्देशात्मकता के साथ होता है. मातृस्तवन के प्रथम सर्ग में कवि माता शब्द-दा का विरुद बखानने के बाद उन्हीं से वीरों का वैशिष्ट्य निवेदित करने के साथ अपना प्रयोजन माँ के समक्ष रखते हुए वर्ण्यवस्तु का निर्देश भी करता है-
मैं तेरे उसी लाडले का गौरव लिखने को आतुर हूँ.
कर मुझ पर भी रख अंबे! मैं, तेरी ही वीणा का सुर हूँ. 37
महान् आत्माओं के अवतरण की भूमि धुर पठारी होती है, जिस पर हरियाली का दूर-दूर तक कहीं नामोनिशान नहीं होता. बुंदेलखंड में आभिजात्य वर्ग द्वारा प्रताड़ित दीन-हीनों को साँस लेने हेतु और प्रतिशोध की तैयारी करने का एक ही क्षेत्र था और वह था चंबल का बीहड़. यह सौभाग्य रहा बिस्मिल के पूर्वजों का कि उन्होंने यह राह नहीं अपनाई. उनके दादाश्री के स्थान बदलकर शाहजहाँपुर आ जाने पर संकट के बादल छँटे. अनुकूल परिस्थितियों और वातावरण में महाकाव्य के नायक के रूप में महान् आत्मा का अवतरण हुआ. फिर क्या, प्रतीकरूप में देखें तृतीय सर्ग में हर्षोल्लासों से भरा एक शब्द चित्र-
देहरी, द्वारों पर बजने लगी बधाई.
कोयल मुँडेर पर सोहर गाने आई. 42
कुल-पुरोहित द्वारा शिशु के 'राम प्रसाद' नामकरण के बाद उसकी बाल-लीलाओं में कवि की कल्पन-किल्लोल का कमाल देखने योग्य है. पिता की व्यसन-ग्रस्तता का परिणाम बिस्मिल के होनहार कैशोर्य को भोगना ही पड़ा.
यशोदानंदन कृष्ण और चणक-पुत्र आदि की भाँति महापुरुषों को संघर्षों की भट्ठी में तपना ही पड़ता है. षष्ठ सर्ग में, बिस्मिल को भी ऐसी विडंबनाओं से रू-ब-रू होना पड़ा-
रामप्रसाद का भी वह प्रारंभिक जीवन,
कंटकाकीर्ण पथ पर चलकर पक गया खूब.
खिल गया मातृ के, गुरुवर के संस्कारों से,
ज्यों हरे-भरे उद्यानों की हरियली दूब. 5
स्वामी सोमदेवजी के प्रभाव से वह आर्य समाज के निकट आए, जिसने उनके जीवन को क्रांतिकारी दिशा प्रदान की-
ऋिष दयानंद का जब 'सत्यार्थ प्रकाश' पढ़ा,
तब विषय-वस्तु की वस्तुस्थिति श्री ने जानी.
जिस प्रकार गुरु रामकृष्ण परमहंस के लोकांतरण के पश्चात् स्वामी विवेकानंद विराट् हिंदुत्व की वैश्विक प्राण-प्रतिष्ठा हेतु कटिबद्ध हुए, उसी प्रकार गुरुवर सोमदेवजी के महाप्रस्थान के पश्चात् बिस्मिल भारत देश की स्वतंत्रता हेतु सचेष्ट और समर्पित हो गए. इस अनुष्ठान में महात्मा लोकमान्य तिलक की अध्यक्षतावाले लखनऊ के कांग्रेस अधिवेशन ने विशेष भूमिका का निर्वाह किया. इस सबका जीवंत वर्णन कवि देव ने सप्तम सर्ग में कुछ इस प्रकार किया है-
धीरे-धीरे व्यथा, वेदना क्षीण हुई तो,
बिस्मिल ने गुरुवर की वह पीड़ा संज्ञानी.
अंग्रेजों की सत्ता उन्मूलित करने को,
लिया सुदृढ़ संकल्प तान मुष्टिका भवानी. 22
अस्त्र-शस्त्र खरीदने के लिए धन की आवश्यकता थी और धन के लिए संघर्ष की. किसी उन्नत लक्ष्य को अधिगत करने के लिए असुविधाओं का वरण तो करना ही पड़ता है. बिना उनको वरे कोई वीर सफल नहीं हो पाया. इस संदर्भ में बिस्मिल को केवल बाहरी लोगों से ही नहीं, अपितु अपने अपघाती साथियों से भी जूझना पड़ा. अष्टम, नवम और दशम सर्ग में इनके सजीव शब्द-चित्र देखने को मिलेंगे.
जिस दुस्साहसिक घटना ने पं. रामप्रसाद 'बिस्मिल' को इतिहास में अमरत्व प्रदान किया, उस काकोरी कांड का चित्रण महाकवि देव ने एकादशम सर्ग में कितनी स्वाभाविक सजीवता के साथ किया है, अवलोकनीय है-
ड्राइवर, गार्ड, दोनों प्राणी भारत के नहीं, ब्रितानी थे.
शक्लों से थे मक्कार बड़े, अक्लों से टरमंगानी थे. 31
पिस्तौल कनपटी पर रखकर ड्राइवर भूमि पर लिटा लिया.
संदूक गार्ड के डिब्बे से खींचकर जमीं पर गिरा दिया. 32
***
थैलियाँ चादरों में बाँधी, बक्सा वैसे ही छोड़ दिया.
फायर करते सब निकल गए, लखनऊ-ओर मन मोड़ लिया. 40
साथी बनारसीदास ने शॉल भूल आने की जो भूल की थी, उसका परिणाम तो भोगना ही था. सब पुलिस की गिरफ्त में आ गए, किंतु किसी के चेहरे पर कोई मलाल नहीं था. मुकदमा दर्ज हुआ. धाराओं का गट्ठर लदा, किंतु-
इस गट्ठर का अपने मन पर,
नहीं किसी ने माना भार.
वे तो आए इसीलिए थे
निजनिज घर से हो तैयार. 68
(द्वादशम सर्ग)
प्राणोत्सर्ग के लिए संकल्पित जो योद्धा समरांगण-मध्य उतरते हैं, उनके लिए कारावास, उसकी यातनाएँ बालकों के खेल जैसे लगते हैं. ये बलिदानी भी ऐसी ही मस्ती में खो गए-
भोर दैनिक कार्य से निवृत्ति पाकर,
राम, कर व्यायाम, खेला खेल करते.
बंदियों संग जेल के भी कुछ सिपाही,
युवकों संग कुश्ती, कबड्डी में उतरते. 16
करके फिर स्नान श्रद्धा-भावना से,
राम, दैनिक यज्ञ की बेदी रचाते.
बंदियों संग बंदी-रक्षक और जेलर,
दे कभी आहुति, अहैतुक पुण्य पाते. 17
(त्रयोदशम सर्ग)
इतिहास साक्षी है कि भारतीय वीरों ने बड़े-बड़े युद्ध यदि हारे हैं तो सम्मुख लड़नेवाले शत्रु से नहीं, प्रत्युत् पक्षघाती अपनों की करतूतों से हारे हैं. इस प्रकरण में भी ऐसा ही हुआ-
आकर लालच में कर बनारसी दास गया,
अपने साथी-जन से भारी विश्वासघात.
इस कारण ही हो गया सभी रण-रंगों की,
जिंदगियों पर वह अप्रत्याशित बज्रपात. 40
(त्रयोदशम सर्ग)
कवि का धर्म होता है कि वह वस्तुस्थिति का यथातथ्य वर्णन करे. चतुर्दशम सर्ग में महाकाव्यकार श्री देव ने भी जहाँगीरी न्यायप्रियता का ढोल पीटनेवाली अंग्रेजी सरकार, जिसके न्यायाधीशों ने पूर्वाग्रह और दुराग्रहवश क्रांतिकारियों की अपीलें निरस्त कर दी थीं, की पोल खोलकर रख दी.
उनके ही न्यायालय से ठुकरा दी गईं अपीलें.
जला दी गईं क्रांतिकरों के सपनों की कंदीलें. 12
***
उनके अन्यायी निर्णय को जग धिक्कार रहा था.
जो स्वतंत्रता के अधिकारों को संहार रहा था. 14
इसी सर्ग में कारागार में बंदी अपने बेटे बिस्मिल से मिलने आए उनके माता-िपता की मिलन-भेंट का दृश्य कितना कारुणिक बन गया है, देखें-
गौरव की अनुभूति पिता बेटे को करा रहे थे.
बात-बात पर, बे-मतलब कंधे थपथपा रहे थे. 46
इसी बहाने वह बेटे को चाह रहे थे छूना.
बूढ़े होकर भी बच्चों-से वह बन गए नमूना. 47
***
वह अधीर हृदय का टूटता धीरज देख रही थी.
गहराती साँझ में डूबता सूरज देख रही थी. 50
चिंघाड़ों को रोक कण्ठ में, सिंधु साध पलकों में.
लौट पड़े मन फाँस निशा की घुँघराली अलकों में. 53
और इसी प्रसंग में अवलोकनीय है, फाँसी के लिए तैयार होकर प्रस्थान करनेवाले काव्य-नायक की निर्विकार मनःस्थिति का भी हृदयविदारक यह चित्र-
पावन गीता करतल से दुलराई, मुख से चूमी.
भव्य दिव्य वह आकृति फिर झूले की दिशि में घूमी. 56
गायत्री मंत्र का किया उच्चारण धीमे स्वर से.
त्याग यकायक मोह दिया अपने उस तन नश्वर से. 57
मालिक! तेरी रजा सलामत रहे, यही, बस, माँगा.
आकांक्षा, अस्तित्व, सभी अपना, खूँटी पर टाँगा. 58
त्याग चले हर चिंता, चर्चा वह खुद के जीवन की.
सौंप दिया सब परम सत्व को, कर ले अपने मन की. 59
कविवर देवजी ने अपने काव्य-नायक बिस्मिल के प्राणाधिक प्रिय साथी अशफाक उल्ला खाँ के साथ भी पूरा न्याय किया है. उनके बलिदान-प्रसंग को भी उतनी ही स्वाभाविकता, कारुणिकता और प्राणवत्ता के साथ पंद्रहवें सर्ग में चित्रित किया है-
अशफाक वारसी 'हसरत', हसरत ले आजादी की.
यादें समेट अग्रज की, अपने गुरु बुनियादी की. 27
फैजाबादी पटले पर चढ़ फाँसी झूल गए थे.
था याद रखा सब ही को, बस, खुद को भूल गए थे. 28
किसी कवि ने कहा है-कवियों की बानी पे भवानी बोल जाती है. कवि भविष्य-दृष्टा भी होता है. बिस्मिल ने भी अपनी अंतश्चेतना और दिव्य दृष्टि के मिश्रित प्रभाव से स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात् राष्ट्र-भक्तों के समक्ष आनेवाली परिस्थितियों से अवगत कराते हुए आवश्यक दिशा-िनर्देश भारतीय युवाओं को दिए थे, जो आज भी उनकी सार्थकता सिद्ध कर रहे हैं. ऐसे संदेश देना एक स्वाभिमानी कवि का कर्तव्य भी है और फिर, कृतिकार तो स्वयं सिद्ध महाकवि है. वह इसमें भला क्यों चूकता-
संभव है स्वार्थी लोगों से फिर घिर जाए शासन तंत्र.
आएगा काम में क्रांति का तब भी यह ही मारण मंत्र. 43
इसको विस्मृत कभी न करना जब तक है जीवन-संग्राम.
दूर करेगा यही प्राणप्रिय भारत की उलझनें तमाम. 44
सूक्ष्मरूप में मैं भी दूँगा, अपने भ्रातृवर्ग का साथ.
बंधु! कभी झुकने मत देना अपने प्रिय भारत का माथ. 45
(षोडश सर्ग)
अंत में भरतवाक्य जैसी इन पद-पंक्तियों के साथ कवि अपनी महाकाव्य-कृति को समारोपित करता है-
उन्नति, प्रगति तभी तक अच्छी साथ रहें जब अपने लोग.
चाहे दुख हो अथवा सुख हो, बराबरी से भोगें भोग. 56
ऐसी उन्नति कौन काम की जो तज दे अपनों का साथ.
गाँव छुड़ा दे, देश छुड़ा दे, मातपिता को करे अनाथ. 57
***
रामप्रसाद बिस्मिल की, यह टीस अंत तक पहुँचे.
क्या धरती, क्या यह अंबर, हर दिग्दिगंत तक पहुँचे. 61
(षोडश सर्ग)
प्रस्तुत महाकाव्य-कृति में नातिदीर्घ, नात्यल्प अष्टाधिक संख्यावाले, षोडश सर्ग हैं, जिनमें प्रत्येक सर्ग में प्रायः एक ही सुष्ठु छंद का प्रयोग किया गया है और सर्गांत में आगामी कथा के संसूचक छंद के परिवर्तन की भूमिका भी अच्छे से निभाई गई है. इस काव्य का कथानक भारत देश के स्वाधीनता के इतिहास से संबद्ध है, जिसे हम इतिहासाश्रित कोटि में रख सकते हैं. कथा-िवस्तार की दृष्टि से बिस्मिल के कथानक का कलवेर, प्राकृतिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों से संबंिधत जीवन के विविध रूपों एवं वर्णनों से समृद्ध है, जिसमें मानव-जीवन के अधिसंख्य चित्र, उसके संपूर्ण वैभव, वैचित्र्य एवं विस्तार के साथ उपस्थित हैं. विन्यास की दृष्टि से कथानक की संघटना क्रमिक विकास लिये हुए है, जो नाट्य संधियों के विधान से युक्त होना सिद्ध करता है. इसकी आधिकारिक कथा एवं अन्य प्रकरणों का पारस्परिक संबंध उपकार्य-उपकारक-भाव से होने के साथ-साथ इनमें औचित्यपूर्ण पूर्वापर अन्विति भी है.
कृति में पं. रामप्रसाद बिस्मिल महासत्त्व, अत्यंत गंभीर, क्षमावान्, अवितथकथन वाला, स्थिरचित्त, सच्चरित्र, निगूढ़, स्वाभिमानी, निरहंकारी किंतु दृढ़व्रत हैं. गुरुदेव पं. सोमदेव शर्मा, गेंदालाल दीक्षित, अशफाक उल्ला खाँ और रोशनसिंह जैसे साथी पात्र भी उसी के अनुरूप राष्ट्र हेतु प्राणों का उत्सर्ग करनेवाले, वीर विक्रमी, विशिष्ट व्यक्तित्व के स्वामी हैं. आचार्य श्री देव का बिस्मिल महाकाव्य एक वीर रस-प्रधान महाकाव्य है, जिसमें वीभत्स रस के अतिरिक्त शृंगार, शांत, करुण आदि सभी रसों की सहयोगी रस के रूप में सम्यक् उपस्थिति दृष्टिगोचर होती है. एक समर्थ काव्याचार्य के रूप में महाकवि देव ने, शिव, सत्य बोधात्मक सद्वृत्ति-संपन्न अपनी इस कृति में, अर्थ से इतर, चतुर्वर्ग में 'धर्म' (राष्ट्र-धर्म का निर्वहन), 'काम' (जन-आकांक्षाओं की पूर्ति), 'मोक्ष' (देश की दासता से मुक्ति), इन तीन फलों की अधिगति का सफल दर्शन कराया है.
महाकाव्य के अन्य लक्षणों में भाषा-शैली एक महत्त्वपूर्ण, सर्वाधिक प्रभावशाली घटक होता है. भाषा-शैली कृतिकार की तप-साधना और शक्ति- सामर्थ्य का दर्पण भी होती है और दीपक भी. संस्कृत के आचार्यों, विशेषकर आचार्य भामह के अनुसार, उसकी भाषा अग्राम्य शब्दों से युक्त, सालंकार और शिष्ट नागर होनी चाहिए. संस्कृत का विद्यार्थी होने के कारण आचार्य श्री देव ने इन समस्त वैशिष्ट्यों का वैभव कृति में परोसा है. उक्त विद्वानों के अनुसार इसकी शैली विस्तारगर्भा, नानावर्णनक्षमा, श्रव्यवृत्तों से अलंकृत और महाप्राण है. नामकरण भी, लक्षणा, व्यंजना से सर्वधा परहेज रखते हुए, सीधा अभिधात्मक किया गया है, जो पाठक को उनके आग्नेय व्यक्तित्व से परिचित कराते हुए सीधे उनके सत्वसंपन्न कृतित्व से जोड़ता है.
इन सारे शिष्ट वैशिष्ट्यों के अतिरिक्त बिस्मिल महाकाव्य में पताका, प्रकरी आदि सभी नाट्य-संिधयों का भी समावेश है. उसमें संध्या, सूर्य, चंद्रमा, रात्रि, प्रदोष, अंधकार, दिन, प्रातःकाल, मध्याह्न, मृगया, पर्वत, ऋतु, वन, सागर, संयोग, विप्रलंभ, मुनि, स्वर्ग, नगर, यज्ञ, संग्राम, यात्रा और विवाह आदि का यथासंभव सांगोपांग वर्णन, अधिकांश प्रत्यक्ष तो कहीं लाक्षणिक रूप में मिलता है. प्रियवर आचार्य देव एक सफल महाकाव्यकार होने के साथ-साथ एक समर्थ गीतकार, गजलकार और छंदकार भी हैं. उनका एक प्रसिद्ध शे'र है-
पवित्र ग्रंथ लगाते हैं लोग होंठों से,
न उनको लोग मिले पलकों पर बिठाने को.
वस्तुतः बिस्मिल ऐसा ही एक महनीय व्यक्तित्व रहा है, जिसे, 'मानस' जैसी पवित्र ग्रंथ-सी महत्ता रखनेवाले ऐसे महाकाव्य अपनी पलकों पर बिठाना चाहते हैं. मुझे विश्वास है कि प्रियवर आचार्य देव की यह महनीय काव्यकृति हिंदी जगत् में अपना विशेष स्थान बनाएगी, एतदर्थ मेरी अनंत हार्दिक शुभ कामनाएँ.
अंतरराष्ट्रीय स्तर के ओज कवि प्रो सारस्वत मोहन 'मनीषी' ने काकोरी कांड के पुरोधा पं. रामप्रसाद 'बिस्मिल' की क्रांति-कथा पर आधारित आचार्य देवेन्द्र देव द्वारा रचित महाकाव्य पं. रामप्रसाद 'बिस्मिल' की भूमिका में उपरोक्त लेख लिखा है.
जश्न-ए-आजादी की 75वीं सालगिरह पर साहित्य आजतक देश और राष्ट्र के नाम अपना सर्वस्व निछावर कर देने वाले सेनानियों और अमरवीर जवानों से जुड़ी पुस्तकों के अंश दे रहा है. इसी कड़ी में आज पढ़िए 'काकोरी कांड के पुरोधा पं. रामप्रसाद 'बिस्मिल' महाकाव्य के अंश.
प्रथम सर्ग
वंदन
प्रस्तुत सर्ग में काव्य-शास्त्रों के अनुसार, महाकाव्य का शुभारंभ माता वीणापाणि के नमन, वंदन, उसके महिमा-गान के साथ-साथ वर्ण्यवस्तुनिर्देश के रूप में काव्य-नायक पं. रामप्रसाद 'बिस्मिल' जैसे देश के महान सपूतों को प्राप्त जगदंबा शारदा के आशीषों के प्रभाव का और उससे ऊर्जस्वित वीरों के त्याग, तप, बलिदान एवं साहसपूर्ण कृत्यों, पराक्रमों का वर्णन किया गया है. ऐसी ही भाव-भूमि पर महाकाव्य के सृजन का गुरुतर दायित्व, मनोरथ पूर्ण करने हेतु माँ के आशीर्वाद की कामना भी इस सर्ग में की गई है.
हे जन्म-भूमि! हे मातृभूमि!
तू वत्सलता की दिव्य धाम.
शत, सहस, लक्ष या कोटि नहीं,
तुझको पद्मों, शंखों प्रणाम. 1
तेरी ममता से रस-गंधित,
मदमाता फिरता है समीर.
जल-स्रोत उछलते फिरते हैं,
सरवर, सरिता, सागर गंभीर. 2
तूने अपने अंतस्थल में है,
पाल रखा पावक-प्रदाह.
उनचासों पवनों में कवि ने,
देखा तेरा प्राणित प्रवाह. 3
तेरा ममत्व पाने के हित,
क्षितिजों पर झुकता आसमान.
करते अभिनंदन महासत्त्व,
ये दृश्य दे रहे हैं प्रमाण. 4
सागर की लहरें उछल-उछल,
धोतीं तेरे चरणारविंद.
बालक बन-बनकर देव-वृंद,
करते किलोल तेरे अलिंद. 5
तेरी ममता ने उन समस्त,
प्रभुओं के शैशव दुलराए.
पाने आँचल की छाँव सुखद,
जो तेरी गोदी में आए. 6
मानवता करती गर्व सदा,
तेरे संवेदित भावों पर.
तेरी ममता, क्षमता लेकर,
टूटती सदैव अभावों पर. 7
विधि की उँगली पर घूम-घूम,
तू सृष्टि विहारा करती है.
है कौन दुखी, वेदना-ग्रस्त,
हर लोक निहारा करती है. 8
बच सका न कोई स्थान, पड़ी,
जिस पर तेरी खर दृष्टि न हो.
जिस पर पयोधरों ने तेरे,
की अनुकंपा की वृष्टि न हो. 9
तू निरख-निरख सबकी पीड़ा,
भर लाती अपनी झोली में.
बतलाती है अपने जातक,
पुत्रों को अपनी बोली में. 10
फिर तेरे वे लालित सपूत,
वह व्यथा, वेदना हरने को.
उठ पड़ते, हो कटिबद्ध सदा,
चल पड़ते जीने, मरने को. 11
सारी दुनिया के साथ-साथ,
अपने भी प्यारे आँगन में.
डाले रहते हैं दृष्टि प्रखर,
चिंता रखते अपने मन में. 12
अँधियारा हरते रहते हैं,
अज्ञान, अभाव, अविद्या का.
संस्कारों के बल पर सिर ऊँचा,
रखते हैं मानवता का. 13
अपनी स्वतंत्रता, स्वाभिमान,
की भी वे रक्षा करते हैं.
अपनी समस्त सामर्थ्यों संग,
समरांगण-मध्य उतरते हैं. 14
उनके बल-विक्रम के आगे,
बौने पड़ते मिथ्याभिमान.
अत्याचारों के बड़े-बड़े,
पर्वत होते कंपायमान. 15
अन्याय, अनय के महासिंधु
जिसको विलोक धारते मौन.
होकर विनीत बिछ-बिछ जाते,
उनके स्वागत में बन बिछौन. 16
आश्चर्यचकित होकर जग,
उनकी ओर देखने लगता है.
इतिहास विश्व का, उन सबका,
गौरव विरेखने लगता है. 17
राणा प्रताप, शिव राज वीर,
युवमन्यु विवेकानंद-सदृश.
नेता सुभाष, सरदार भगत,
शेखर, विक्रम के छंद-सदृश. 18
राजेंद्र चोल, नृप खारवेल,
केशव, माधव, अब्दुल कलाम.
राणा कुंभा, बिरसा मुंडा,
गोविंद सिंह गुरु धन्यनाम. 19
कौन्तेय, वृकोदर, भीष्म, व्यास,
पृथु, बलि, भृगुवंशी परशुराम.
रणजीत सिंह, नलवा, ऊधम,
सुखदेव, राजगुरु, यशोनाम. 20
तुलसी, नानक, नरसी, कबीर,
रविदास-सरीखे शूर, संत.
ऋषि दयानंद, अरविंद घोष,
अध्यात्म, ज्ञान के चिर वसंत. 21
भारवि, दंडी, बिल्हण, जल्हण,
कल्हण, कुंतक, कवि कालिदास.
भवभूति, भर्तृहरि, हर्ष, बाण,
माघादिक वाणी के विलास. 22
रसखान, सूर, दिनकर, प्रसाद,
मीरा, कंबन, श्री अश्वघोष.
श्री भाग्यचंद्र, रवि वर्मा-से
साहित्य, कला के अमित कोष. 23
ये सब तेरे सेवक, बालक,
कर रहे सृजित पौरुष प्रचंड.
पहले जैसा गुरु-गरिमामय,
करने को यह भारत अखंड. 24
तेरे ही पावन आँचल की,
छाया में, माते! खेले हैं.
ये तुझे भले शिशु लगते हों,
पर, दुनिया को अलबेले हैं. 25
जिनने अपनी शैली से माँ!
तेरी महिमा के गीत रचे.
हुँकारों की झंकारों से,
जन-जागृति के संगीत रचे. 26
जिसके अपराजित विक्रम ने,
कर डाले रिपु के दर्प चूर.
तृण दाँतों में दाबकर झुके,
जिनके चरणों में कुटिल, क्रूर. 27
सुन जिनका नाम सहम जातीं,
धूँ-धूँ करती ज्वालाएँ भी.
बन सुमन बलाएँ लेती हैं,
उल्काओं की मालाएँ भी. 28
और भी हुआ है एक मातु!
शिशु, ऐसे रचनाकारों में.
कुछ सबसे अलग रहा है जो,
शैली में और विचारों में. 29
विद्रोही संघर्षों में भी,
जो मान सत्य का तज न सका.
मर्यादा का कर तिरस्कार,
सुख-सुविधाओं को भज न सका. 30
अपनों से धोखे खाकर भी,
पाला न तनिक मन में विषाद.
गंभीर, वीर वह बालक था,
'बिस्मिल'-नामी रामप्रसाद. 31
बन प्रखर प्रेरणा-सूर्य रहा,
रोचने हेतु तेरा मस्तक.
लालिमा बिखेरी है जिसने,
उदयाचल से अस्ताचल तक. 32
प्रेरणा प्राप्त करके, जिससे,
स्वातंत्र्य हेतु चल पड़े वीर.
रोचकर भाल रक्तिम रोली,
सुख-सुविधाओं के वक्ष चीर. 33
संकेत मात्र पर ही जिसके,
युवकों ने यौवन वार दिए.
आगत दुविधाओं के यूथप,
मरघट के घाट उतार दिए. 34
सुनकर जिसके संकल्पों को,
भूधर डगमग डोलने लगे.
अपनी दुर्धर्ष धराधरता,
जिसके प्रण पर तोलने लगे. 35
सूरज के रथ के घोड़े भी,
सुन जिसका रोर बिदकते हैं.
जिसके यश की तुलना में शिश,
करतल से कमियाँ ढकते हैं. 36
मैं तेरे उसी लाड़ले का,
गौरव लिखने को आतुर हूँ.
कर मुझ पर भी रख अंबे! मैं,
तेरी ही वीणा का सुर हूँ. 37
तेरी ही अनुकंपा से माँ!
साधना पूर्ण मेरी होगी.
कृति भले 'देव' की कहलाए,
उपलब्धि, किंतु तेरी होगी. 38
***
करे याचना अंबिके!
िशशु तुमसे करबद्ध.
स्नेहाशीषी घट लिये,
रहो सदा सन्नद्ध. 39
अटके-भटके चिति जभी,
पथ को करो प्रशस्त.
सृजन-साध का, सूर्य, माँ!
हो न कभी भी अस्त. 40
***
पुस्तकः काकोरी कांड के पुरोधा पं. रामप्रसाद 'बिस्मिल
लेखकः आचार्य देवेन्द्र देव
भाषाः हिंदी
विधाः कविता
प्रकाशकः प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ संख्याः 240 , हार्डकवर
मूल्यः 500 रुपए