इब्ने इंशा के बारे में कहा जाता है कि वे पढ़ने वाले की वो नब्ज दबा जाते हैं जो कहीं धंसकर खो गई थी. याद दिलाते हैं कि ये धंसी हुई नब्ज भी तुम्हारी ही है, फिर शब्दों की डाल पर कलाबाजियां खिलाते हुए ज़मीन पर पटक देते हैं. पाठक आह करता है रचना सिद्ध होती है. उनकी पुण्यतिथि (11 जनवरी) पर पढ़िए उनकी एक नज़्म 'इक बार कहो तुम मेरी हो'...
हम घूम चुके बस्ती-बन में
इक आस का फाँस लिए मन में
कोई साजन हो, कोई प्यारा हो
कोई दीपक हो, कोई तारा हो
जब जीवन-रात अंधेरी हो
जब सावन-बादल छाए हों
जब फागुन फूल खिलाए हों
जब चंदा रूप लुटाता हो
जब सूरज धूप नहाता हो
या शाम ने बस्ती घेरी हो
हाँ दिल का दामन फैला है
क्यों गोरी का दिल मैला है
हम कब तक पीत के धोखे में
तुम कब तक दूर झरोखे में
कब दीद से दिल की सेरी हो
क्या झगड़ा सूद-ख़सारे का
ये काज नहीं बंजारे का
सब सोना रूपा ले जाए
सब दुनिया, दुनिया ले जाए
तुम एक मुझे बहुतेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो.
इब्ने इंशा को यूं तो 'फ़र्ज़ करो' और 'कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तेरा' जैसी रचनाओं के लिए जाना जाता है लेकिन उनकी रचनाओं के वटवृक्ष में 'यह बच्चा किसका बच्चा है' जैसी मजबूत डाल भी है. यह वृक्ष जितना ऊंचा है उतनी ही गहरी हैं इसकी जड़ें. इब्ने इंशा की पुण्यतिथि पर उन्हें नमन.