उस समय तक तो सब ठीक ही था,
सांस ले रहा था गांव
सभ्यता भी थी और टूटी-फूटी संस्कृति भी
घर आंगन पड़ोसियों के खुले रहते थे,
मुलाकातों में चेहरे खिले रहते थे
दालान, खेत-खलिहान मुस्कराते थे
रास्तों पर अदृश्य खतरे का बोर्ड नहीं टंगा था
वैसे, लड़ाइयां भी होती थीं और खेतों पर चढ़ाइयां भी
बोलियां बहस बनतीं,गालियों में तब्दील हो जातीं
और उपसंहार लाठियों से हो जाता
लोहा गांव में नहीं आया था
लेकिन लोहे को आना था, सो आया
उसके आते ही लाठियों के हिस्से की लड़ाई पर
लोहे का कब्जा हो गया
आबोहवा में ज़ंग लगने लगा
गंगा में बदले की नाव चली
तैरती देह तिरती दिखने लगी
मार दिए जाने की खबर जी उठी
सड़ांध फैली, एक टोले से दूसरे टोले जा पहुंची
मचान, टीलों पर बैठने लगी
लोग वहां से उठने लगे
घूमने का नया नक्शा फुसफुसाहटो में खींचा जाने लगा
भक्ति विभक्त हो गई
कीर्तन के काल जातियों के जाल में उलझा दिए गए ,
हारमोनियम पर फिरने वाले हाथ बदलने लगे
जिन्दगी बंटी तो उसके हिस्से भी बंटने लगे
रास्ते बंटे, बाड़ियां बंटी, बाजार बंटे
संस्कार बंटे और सरोकार भी बंटते चले गए
ये सिलसिला सालों तक चलता रहा,
अब सभ्यता में शुमार हो गया है
अब सब कुछ सुपरिभाषित है
बांट को लेकर कोई विवाद नहीं है
विवाद हो भी नहीं सकता
क्योंकि संवाद के कई वाघा बॉर्डर वहां खींच दिए गए हैं
मिलने का वक्त जैसे मुकर्रर है
सबको अपने अपने झंडे की बड़ी चिन्ता है
गांव का झंडा मुरझाया हुआ कोने में शरमाता है
यह कविता हमारे सहयोगी देवांशु झा ने लिखी है. अगर आप भी अपनी कविता 'आज तक' पर छपवाना चाहते हैं तो उसे booksaajtak@gmail.com पर भेजें.