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'क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा'

4 जनवरी 1925 को उत्तर प्रदेश के इटावा में जन्मे नीरज अपना 91वां जन्मदिन मना रहे हैं. पेश है उनकी कालजयी रचना 'कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे', जिसे फिल्म 'नई उमर की नई फसल' के लिए मोहम्मद रफी ने अपनी मधुर आवाज देकर अमर कर दिया.

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ऐ भाई जरा देख के चलो.. और दिल आज शायर है.. जैसे मशहूर गीत लिखने वाले गोपाल दास 'नीरज' का रविवार को जन्मदिन है. 4 जनवरी 1925 को उत्तर प्रदेश के इटावा में जन्मे नीरज अपना 91वां जन्मदिन मना रहे हैं. 2007 में पद्मभूषण से सम्मानित नीरज की शैली समझने में आसान और उच्च गुणवत्ता वाली रही है. उन्होंने एसडी बर्मन द्वारा कंपोज किए गए और राज कपूर, धर्मेंद्र, राजेश खन्ना जैसे नायकों पर फिल्माए गए कई सदाबहार गीत लिखे हैं. पेश है उनकी कालजयी रचना 'कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे', जिसे फिल्म 'नई उमर की नई फसल' के लिए मोहम्मद रफी ने अपनी मधुर आवाज देकर अमर कर दिया.

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'कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे!'

स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क़ बन गए,
छंद हो दफ़न गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँ-धुआँ पहन गये,
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे.

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली,
और हम लुटे-लुटे,
वक्त से पिटे-पिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे.

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हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरण-चरण,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी,
ग़ाज एक वह गिरी,
पुंछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी,
और हम अजान से,
दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे.
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे.

और अब रफी साहब की आवाज में ये रचना

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