दुनिया यही दुनिया है तो क्या याद रहेगी
नगरी मेरी कब तक यूं ही बरबाद रहेगी
शानदार ग़ज़लें कहने वाले जोश मलीहाबादी का आज (5 दिसंबर) जन्मदिन है. वह ब्रिटिश काल के मशहूर शायरों में से थे. 1958 तक वह भारत के नागरिक थे, लेकिन उसके बाद वह पाकिस्तान चले गए और वहीं बस गए. उन्होंने 'जोश' तख़ल्लुस से ग़ज़लें, नज़्में और मर्सिया लिखे. लखनऊ के मलीहाबाद में जन्मे थे तो इस तरह वह जोश मलीहाबादी हो गए.
वह आजादी की लड़ाई में बौद्धिक रूप से सक्रिय रहे. इसी तरह वह उस दौर के नेताओं खास तौर से, जवाहरलाल नेहरू के संपर्क में आए. 1947 में ब्रिटिशराज के खत्म होने के बाद वह 'आज कल' के संपादक हो गए. 1954 में उन्हें पद्म भूषण भी दिया गया. 22 फरवरी 1982 को उनका देहांत हो गया.
जन्मदिन के मौके पर आइए, उन्हें उनकी रचनाओं से याद करते हैं.
इबादत (गीत)
नगरी मेरी कब तक यूं ही बरबाद रहेगी
दुनिया यही दुनिया है तो क्या याद रहेगी
आकाश पे निखरा हुआ सूरज का है मुखड़ा
और धरती पे उतरे हुए चेहरों का है दुखड़ा
दुनिया यही दुनिया है तो क्या याद रहेगी
नगरी मेरी कब तक यूं ही बरबाद रहेगी
कब होगा सवेरा कोई ऐ काश बता दे
किस वक़्त तक, ए घूमते आकाश, बता दे
इंसान पर इंसान की बेदाद रहेगी
नगरी मेरी कब तक यूंही बरबाद रहेगी
चहकार से चिड़ियों की चमन गूंज रहा है
झरनों के मधुर गीत से बन गूंज रहा है
पर मेरा तो फ़रियाद से मन गूंज रहा है
कब तक मेरे होंठों पे ये फ़रियाद रहेगी
नगरी मेरी कब तक यूंही बरबाद रहेगी
इश्रत का उधर नूर, इधर ग़म का अंधेरा
साग़र का उधर दौर, इधर ख़ुश्क ज़ुबां है
आफ़त का ये मंज़र है, कयामत का समां है
आवाज़ दो इन्साफ को इन्साफ कहां है
रागों की कहीं गूंज, कहीं नाला-ओ-फरियाद
नगरी मेरी बरबाद है बरबाद है बरबाद
नगरी मेरी कब तक यूं ही बरबाद रहेगी
हर शै में चमकते हैं उधर लाख सितारे
हर आँख से बहते हैं इधर खून के धारे
हंसते हैं चमकते हैं उधर राजदुलारे
रोते हैं बिलखते हैं इधर दर्द के मारे
इक भूख से आज़ाद तो सौ भूख से नाशाद
नगरी मेरी बरबाद है बरबाद है बरबाद
नगरी मेरी कब तक यूं ही बरबाद रहेगी
ऐ चांद उमीदों को मेरी शमअ दिखा दे
डूबे हुए खोये हुए सूरज का पता दे
रोते हुए जुग बीत गया अब तो हंसा दे
ऐ मेरे हिमालय मुझे ये बात बता दे
होगी मेरी नगरी भी कभी ख़ैर से आज़ाद
नगरी मेरी बरबाद है बरबाद है बरबाद
नगरी मेरी कब तक यूं ही बरबाद रहेगी
दुनिया यही दुनिया है तो क्या याद रहेगी
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हिन्दोस्तां के वास्ते
मज़हबी इख़लाक़ के जज़्बे को ठुकराता है जो
आदमी को आदमी का गोश्त खिलवाता है जो
फर्ज़ भी कर लूं कि हिन्दू हिन्द की रुसवाई है
लेकिन इसको क्या करूँ फिर भी वो मेरा भाई है
बाज़ आया मैं तो ऐसे मज़हबी ताऊन से
भाइयों का हाथ तर हो भाइयों के ख़ून से
तेरे लब पर है इराक़ो-शामो-मिस्रो-रोमो-चीं
लेकिन अपने ही वतन के नाम से वाकिफ़ नहीं
सबसे पहले मर्द बन हिन्दोस्तां के वास्ते
हिन्द जाग उट्ठे तो फिर सारे जहां के वास्ते