हिंदी माह आरंभ हो चुका है. हिंदी दिवस भी आ ही गया. चारों ओर हिंदी की बात हो रही है. हर साल यह दिवस आता है. हर साल एक ही ढर्रे में हिंदी में काम करने के बड़े-बड़े संकल्प जारी किए जाते हैं. बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं. फिर भी बेशर्म है कि हिंदी फाइलों पर नहीं उतरती. हां इतना अवश्य होता है कि हर साल ईनाम बँटते हैं, विज्ञान भवन में...
उत्सव के साथ 14 सितंबर हर साल हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है. सरकारी कार्यालय, बैंक, उपक्रम, सरकारी निकाय के प्रमुखों को महामहिम पुरस्कृत करते हैं. यह हिंदी की ऐसी बारात होती है जिसका कोई दूल्हा नहीं होता. सभी बाराती होते हैं. खाये-पिये, अघाए और खिसके. हिंदी इस एक दिन की दुल्हन है, दूल्हा तो अंग्रेजी ही है. ठीक कहा है कविवर ज्ञानेन्द्र पति ने: हिंदी की गाय को दुहने वाले ज्यादा है, खिलाने वाले कम.
चिकने काग़ज़ पर निकलने वाले उपक्रमों, निगमों की पत्रिकाओं को देखें तो उसमें शुरुआती पन्ने अध्यक्ष की कलम से, कार्यपालक निदेशक की मेज से, प्रधान संपादक की ओर से, संपादक की ओर से इत्यादि इत्यादि नाना संदेश भरे होते हैं और फिर फोटो अलबम में मुख मुद्राएं देख कर ऐसा लगता है जैसे ये सभी विश्वयुद्ध के विजेता हों. एक टहनी भी लगाई तो उसकी फोटो खिंचवाई. एक लोन भी बांटा तो उसकी फोटो दानी इंद्र की मुद्रा में खिंचवाई चाहे वह कुछ दिनों में एनपीए ही न हो जाए. बैंक इसी तरह डूब रहे हैं, सरकारी विभाग इसी तरह नाकारा हो रहे हैं. चाहे देश में दुर्भिक्ष आ जाए, लालफीताशाही हमेशा सरसब्ज और शबाब पर होती है. मितव्ययिता का आदेश अधीनस्थ कार्यालयों के लिए होता है. इसी तरह हिंदी है.
14 सितंबर को मिलने वाले शाही ईनाम के लिए क्या न कुछ तुष्टीकरण होता है तब किसी सरकारी कार्यालय/ बैंक/ उपक्रम/ निकाय का प्रमुख राष्ट्रपति भवन की सीढ़ियां चढ़ पाता है. वर्षों से यही होता आ रहा है. समारोह में सूट-बूट के अभ्यस्त नौकरशाहों के गले में टाई और जेब में रूमाल की तुलना में हिंदी 'कविता' में 'दलित कविता' जैसी नजर आती है. कोई नामलेवा नहीं. वह केवल हिंदी दिवस के भरोसे है. हिंदी के कारोबार से जुड़ कर जो देखा है उसकी यह एक झलक है.
हिंदी दिवस पर अपनी इन भावनाओं के साथ कवि ओम निश्चल ने साहित्य आजतक के लिए यह कविता लिखी है. याद रहे कि डॉ ओम निश्चल हिंदी के सुपरिचित कवि, गीतकार, आलोचक और भाषाविद् हैं. 'शब्द सक्रिय हैं' कविता संग्रह, शब्दों से गपशप, कविता के वरिष्ठ नागरिक, समकालीन कविता: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, कुँवर नारायण: कविता की सगुण इकाई (आलोचना), 'भाषा की खादी' निबंध, कैलाश वाजपेयी विनिबंध, कुँवर नारायण विनिबंध, खुली हथेली और तुलसीगंध संस्मरण, बैंकिंग वाड्.मय सीरीज 5 खंड, द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी रचनावली 3 खंड सहित भाषा व आलोचना-समीक्षा की अनेक कृतियां प्रकाशित.
डॉ ओम निश्चल ने अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल, मलय, लीलाधर मंडलोई, रामदरश मिश्र सहित कई कवियों के कविता-चयन, अधुनांतिक बांग्ला कविता एवं कुंवर नारायण पर केंद्रित आलोचनात्मक पुस्तक 'अन्वय' एवं 'अन्विति' का संपादन किया है. कविता के लिए हिंदी अकादमी के युवा कविता पुरस्कार एवं आलोचना के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा आचार्य रामचंद्र शुक्ल आलोचना पुरस्कार से सम्मानित किए गए हैं. हाल ही में उन्हें प्रोफेसर कल्याणमल लोढ़ा साहित्य सम्मान से नवाजे जाने की घोषणा भी हुई है. तो पढ़िए यह कविता.
हिंदी के चेहरे पर चाँदी की चमक
-ओम निश्चल
कहने को जनता की
कितनी मुँहबोली है
सुख-दुख में शामिल है
सबकी हमजोली है
कामकाज में लेकिन रत्ती-भर धमक है
हिंदी के चेहरे पर चाँदी की चमक है.
ऊँचे आदर्शों के सपनों में खोई है
किये रतजगे कितनी रात नहीं सोई है
आजादी की खातिर बलिदानी वीरों की
यादों में यह कितनी घुट-घुट कर रोई है.
यों तो यह भोली है,
युग की रणभेरी है
लेकिन अंग्रेजी की
भृत्या है...चेरी है
हाथों में संविधान फिर भी है तुच्छ मान
आंखों में लेकिन पटरानी-सी ललक है
हिंदी के चेहरे पर चाँदी की चमक है.
कितने ईनाम और कितने प्रोत्साहन हैं
फिर भी मुखमंडल पर कोरे आश्वासन हैं.
जेबों में सोने के सिक्कों की आमद है
फाइल पर हिंदी की सिर्फ हिनहिनाहट है.
बैठक में चर्चा है
''दो...जो भी देना है.
महामहिम के हाथो
पुरस्कार लेना है.
कितना कुछ निष्प्रभ है, समारोह लकदक है
शील्ड लिये हाथों में क्या शाही लचक है!
हिंदी के चेहरे पर चांदी की चमक है.
इत्रों के फाहे हैं, टाई की चकमक है
हिंदी की देहरी पर हिंग्लिश की दस्तक है.
ऊँची दूकानों के फीके पकवान हैं
बॉस मगर हिंदी के परम ज्ञानवान हैं.
शाल औ दुशाला है
पान औ मसाला है.
उबा रहे भाषण हैं
यही कार्यशाला है.
हिंदी की बिंदी की होती चिंदी-चिंदी
गायब होता इसके चेहरे का नमक है.
हिंदी के चेहरे पर चॉंदी की चमक है.
हिंदी के तकनीकी शब्द बहुत भारी हैं
शब्दकोश भी जैसे बिल्कुल सरकारी हैं.
भाषा यह रंजन की और मनोरंजन की
इस भाषा में दिखते कितने व्यापारी हैं.
बेशक इस भाषा का
ऑंचल मटमैला है
राष्ट्रप्रेम का केवल
शुद्ध झाग फैला है.
दाग़ धुलें कैसे इस दाग़दार चेहरे के
नकली मुस्कानें हैं, बेमानी ठसक है.
हिंदी के चेहरे पर चांदी की चमक है.
हिंदी की सेवा है, हिंदी अधिकारी हैं
खाते सब मेवा हैं, गाते दरबारी हैं
एक दिवस हिंदी का, एक शाम हिंदी की
बाकी दिन कुर्सी पर अंग्रेजी प्यारी है.
कैसा यह स्वाभिमान
अपना भारत महान !
हिंदी अपने ही घर
दीन-हीन,मलिन-म्लान
पांवों के नीचे है इसके दलदल ज़मीन
नित प्रति बुझती जाती सत्ता की हनक है.
हिंदी के चेहरे पर चॉंदी की चमक है.
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