अटल बिहारी वाजपेयी भारत के दूरद्रष्टा राजनेता और प्रधानमंत्री तो थे ही वह एक साहित्यप्रेमी कवि के रूप में भी खूब चर्चित रहे. उन्होंने खूब लिखा और छपे भी. उनकी कई रचनाओं को खूब शोहरत मिली, जिनमें उनके कविता संग्रह 'मेरी इक्वावन कविताएं' की दो अनुभूतियां, दूध में दरार पड़ गई, कदम मिलाकर चलना होगा, मनाली मत जइयो, मौत से ठन गई, पंद्रह अगस्त का दिन कहता और एक बरस बीत गया आदि खूब चर्चित हुईं. पर इन सबके बीच इनसानियत और मनुष्यता को लेकर लिखी उनकी कविता 'पहचान' और 'ऊंचाई' की चर्चा अभी मौजू है. आखिर अपनी इस कविता से वह देश, समाज, नेताओं और आगे बढ़ गए लोगों को क्या संदेश देना चहते थे.
भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन पर साहित्य आजतक के पाठकों के लिए 'मेरी इक्वावन कविताएं' संकलन से उनकी वही दो कविताएं, इस सोच से कि आप भी पढ़ें और समझें उनके संदेशों को.
1.
पहचान
आदमी न ऊंचा होता है, न नीचा होता है,
न बड़ा होता है, न छोटा होता है.
आदमी सिर्फ आदमी होता है.
पता नहीं, इस सीधे-सपाट सत्य को
दुनिया क्यों नहीं जानती है?
और अगर जानती है,
तो मन से क्यों नहीं मानती
इससे फर्क नहीं पड़ता
कि आदमी कहां खड़ा है?
पथ पर या रथ पर?
तीर पर या प्राचीर पर?
फर्क इससे पड़ता है कि जहां खड़ा है,
या जहां उसे खड़ा होना पड़ा है,
वहां उसका धरातल क्या है?
Atal Bihari Vajpayee Birth Anniversary: पढ़ें- उनकी अटल कविताएं
हिमालय की चोटी पर पहुंच,
एवरेस्ट-विजय की पताका फहरा,
कोई विजेता यदि ईर्ष्या से दग्ध
अपने साथी से विश्वासघात करे,
तो उसका क्या अपराध
इसलिए क्षम्य हो जाएगा कि
वह एवरेस्ट की ऊंचाई पर हुआ था?
नहीं, अपराध अपराध ही रहेगा,
हिमालय की सारी धवलता
उस कालिमा को नहीं ढंक सकती.
कपड़ों की दुधिया सफेदी जैसे
मन की मलिनता को नहीं छिपा सकती.
किसी संत कवि ने कहा है कि
मनुष्य के ऊपर कोई नहीं होता,
मुझे लगता है कि मनुष्य के ऊपर
उसका मन होता है.
छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता,
टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता.
इसीलिए तो भगवान कृष्ण को
शस्त्रों से सज्ज, रथ पर चढ़े,
कुरुक्षेत्र के मैदान में खड़े,
अर्जुन को गीता सुनानी पड़ी थी.
मन हारकर, मैदान नहीं जीते जाते,
न मैदान जीतने से मन ही जीते जाते हैं.
चोटी से गिरने से
अधिक चोट लगती है.
अस्थि जुड़ जाती,
पीड़ा मन में सुलगती है.
इसका अर्थ यह नहीं कि
चोटी पर चढ़ने की चुनौती ही न मानें,
इसका अर्थ यह भी नहीं कि
परिस्थिति पर विजय पाने की न ठानें.
आदमी जहां है, वहीं खड़ा रहे?
दूसरों की दया के भरोसे पर पड़ा रहे?
जड़ता का नाम जीवन नहीं है,
पलायन पुरोगमन नहीं है.
आदमी को चाहिए कि वह जूझे
परिस्थितियों से लड़े,
एक स्वप्न टूटे तो दूसरा गढ़े.
किंतु कितना भी ऊंचा उठे,
मनुष्यता के स्तर से न गिरे,
अपने धरातल को न छोड़े,
अंतर्यामी से मुंह न मोड़े.
एक पांव धरती पर रखकर ही
वामन भगवान ने आकाश-पाताल को जीता था.
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धरती ही धारण करती है,कोई इस पर भार न बने,
मिथ्या अभियान से न तने.
आदमी की पहचान,
उसके धन या आसन से नहीं होती,
उसके मन से होती है.
मन की फकीरी पर
कुबेर की संपदा भी रोती है.
2.
ऊँचाईऊंचे पहाड़ पर,
पेड़ नहीं लगते,
पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है.
जमती है सिर्फ बर्फ,
जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और,
मौत की तरह ठंडी होती है.
खेलती, खिलखिलाती नदी,
जिसका रूप धारण कर,
अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है.
ऐसी ऊंचाई,
जिसका परस
पानी को पत्थर कर दे,
ऐसी ऊंचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे,
अभिनंदन की अधिकारी है,
आरोहियों के लिये आमंत्रण है,
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,
किन्तु कोई गौरैया,
वहां नीड़ नहीं बना सकती,
ना कोई थका-मांदा बटोही,
उसकी छांव में पलभर पलक ही झपका सकता है.
सच्चाई यह है कि
केवल ऊंचाई ही काफ़ी नहीं होती,
सबसे अलग-थलग,
परिवेश से पृथक,
अपनों से कटा-बंटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना,
पहाड़ की महानता नहीं,
मजबूरी है.
ऊंचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है.
जो जितना ऊंचा,
उतना एकाकी होता है,
हर भार को स्वयं ढोता है,
चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
मन ही मन रोता है.
ज़रूरी यह है कि
ऊंचाई के साथ विस्तार भी हो,
जिससे मनुष्य,
ठूंठ सा खड़ा न रहे,
औरों से घुले-मिले,
किसी को साथ ले,
किसी के संग चले.
भीड़ में खो जाना,
यादों में डूब जाना,
स्वयं को भूल जाना,
अस्तित्व को अर्थ,
जीवन को सुगंध देता है.
धरती को बौनों की नहीं,
ऊंचे कद के इंसानों की जरूरत है.
इतने ऊंचे कि आसमान छू लें,
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,
किन्तु इतने ऊंचे भी नहीं,
कि पांव तले दूब ही न जमे,
कोई कांटा न चुभे,
कोई कली न खिले.
न वसंत हो, न पतझड़,
हो सिर्फ ऊंचाई का अंधड़,
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा.
मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना,
ग़ैरों को गले न लगा सकूं,
इतनी रुखाई कभी मत देना.