देश में जब भूमि अधिग्रहण बिल और गजेंद्र सिंह के बहाने किसानों की हालत पर थोड़ी-बहुत चर्चा हो रही है, कवि और गीतकार ओम निश्चल ने इस मुद्दे पर यह कविता लिख भेजी है.
बदला देश चरागाहों में,
अब कैसी पाबंदी ?
खुद के लिए समूची धरती
गैरों पर हदबंदी
निज वेतन-भत्तों के बिल
पर सहमति दिखती आई,
जनता के मसले पर संसद
खेले छुपन-छुपाई
देशधर्म,जनहित की बातें,
आज हुईं बेमानी,
सड़कों पर हो रही
मान-मूल्यों की चिंदी-चिंदी
शस्य श्यामला धरती का
यह कैसा शील-हरण
उपजाऊ जमीन का देखो
होता अधिग्रहण
जिनके हाथों में हल-बल है
हैं किस्मत के खोटे
पूंजीपतियों के माथे पर
है समॄद्धि की बिन्दी
कहने को यह लोकतंत्र,
पर झूठे ताने-बाने
दिल्ली के मालिक बन बैठे
शाही राजघराने,
लंबे चौड़े रकबे पर
काबिज जनता के नायक
उनके ऊंचे सूचकांक हैं,
हम पर छाई मंदी
संविधान की अनुसूची में
शामिल कई जुबानें
पर अंग्रेजी हुकुम चलाती
अपना हंटर ताने
सीमित चौहद्दी में सिमटी
हैं देसी भाषाएं
जजमानी के सुख में डूबी
राजकाज की हिंदी
सूखा है विदर्भ का आंचल
मन की बुरी अवस्था,
आत्महनन को प्रेरित करती
वध में लगी व्यवस्था,
राहत के पैकेज पर पलते
सत्ता-सुख के न्यासी,
और सियासत करती है
जनता की बाड़ेबंदी
ओम निश्चल