विचारक, दार्शनिक और मानवतावादी रचनाकार, छायावाद के प्रमुख स्तम्भ सुमित्रानंदन पंत की काव्यचेतना का प्रतिबिम्बन है उनका काव्य संकलन ‘चिदंबरा’. इसके लिए वह ज्ञानपीठ सम्मान से नवाजे भी गए. 'चिदंबरा' में सुमित्रानंदन पंत की 1937 से 1957 तक की बीस वर्षों की विकास-यात्रा की झलक मिलती है. स्वयं पंत ने स्वीकार किया है कि ‘चिदंबरा’ में उनकी भौतिक, मानसिक, आध्यात्मिक संचरणों से प्रेरित आन्तरिक लयबद्धता व्याप्त है. ‘युगवाणी’ से लेकर ‘अतिमा’ तक की रचनाओं के इस संचयन में पंत की काव्य-चेतना का संचरण परिलक्षित होता है. पंत ने भौतिक और आध्यात्मिक दोनों दर्शनों से जीवनोपयोगी तत्त्वों को लेकर अपनी रचनाओं में भरे-पूरे मनुष्यत्व का निर्माण करने का प्रयास किया, जिसकी आवश्यकता आज भी बनी हुई है. इन कविताओं में महात्मा भी हैं, तो प्रेम भी, ग्राम्य जीवन भी है तो सृजन भी.
इस संग्रह के विषय में सुमित्रानंदन पंत ने स्वयं लिखा था, "चिदंबरा की पृथु-आकृति में मेरी भौतिक, सामाजिक, मानसिक, आध्यात्मिक संचरणों से प्रेरित कृतियों को एक स्थान पर एकत्रित देखकर पाठकों को उनके भीतर व्याप्त एकता के सूत्रों को समझने में अधिक सहायता मिल सकेगी. इसमें मैंने अपनी सीमाओं के भीतर, अपने युग के बहिरंतर के जीवन तथा चैतन्य को, नवीन मानवता की कल्पना से मण्डित कर, वाणी देने का प्रयत्न किया है. मेरी दृष्टि में युगवाणी से लेकर वाणी तक मेरी काव्य-चेतना का एक ही संचरण है, जिसके भीतर भौतिक और आध्यात्मिक चरणों की सार्थकता, द्विपद मानव की प्रकृति के लिए सदैव ही अनिवार्य रूप से रहेगी. पाठक देखेंगे कि (इन रचनाओं में) मैंने भौतिक-आध्यात्मिक, दोनों दर्शनों से जीवनोपयोगी तत्वों को लेकर, जड़-चेतन सम्बन्धी एकांगी दृष्टिकोण का परित्याग कर, व्यापक सक्रिय सामंजस्य के धरातल पर, नवीन लोक जीवन के रूप में, भरे-पूरे मनुष्यत्व अथवा मानवता का निर्माण करने का प्रयत्न किया है, जो इस युग की सर्वोपरि आवश्यकता है?"
साहित्य आजतक पर सुमित्रानंदन पंत की जयंती पर 'चिदंबरा' से ली गई उनकी तीन कविताएं, बापू, बंद तुम्हारे द्वार! और ग्राम कवि
1.
बापू
किन तत्वों से गढ़ जाओगे तुम भावी मानव को ?
किस प्रकाश से भर जाओगे इस समरोन्मुख भव को ?
सत्य अहिंसा से आलोकित होगा मानव का मन ?
अमर प्रेम का मधुर स्वर्ग बन जाएगा जग जीवन ?
आत्मा की महिमा से मंडित होगी नव मानवता ?
प्रेम शक्ति से चिर निरस्त हो जाएगी पाशवता ?
बापू ! तुमसे सुन आत्मा का तेजराशि आह्वान
हँस उठते हैं रोम हर से, पुलकित होते प्राण !
भूतवाद उस धरा स्वर्ग के लिए मात्र सोपान,
जहाँ आत्म दर्शन अनादि से समासीन अम्लान !
नहीं जानता, युग विवर्त में होगा कितना जन क्षय ,
पर, मनुष्य को सत्य अहिंसा इष्ट रहेंगे निश्चय !
नव संस्कृति के दूत ! देवताओं को करने कार्य
मानव आत्मा को उबारने आए तुम अनिवार्य !
2.
बंद तुम्हारे द्वार!
बंद तुम्हारे द्वार?
मुसकाती प्राची में उषा
ले किरणों का हार,
जागी सरसी में सरोजिनी ,
सोई तुम इस बार ?
बंद तुम्हारे द्वार ?
नव मधु में,-अस्थिर मलयानिल ,
भौरों में गुंजार,
विहग कंठ में गान,
मौन पुष्पों में सौरभ भार,
बंद तुम्हारे द्वार ?
प्राण ! प्रतीक्षा में प्रकाश
ओ प्रेम वने प्रतिहार !
पथ दिखलाने को प्रकाश ,
तुमसे मिलने को प्यार !
बंद तुम्हारे द्वार ?
गीत हर्ष के पंख मार
प्रकाश कर रहे पार,
भेद सकेगी नहीं हृदय
प्राणों की मर्म पुकार !
बंद तुम्हारे द्वार ?
आज निछावर सुरभि,
खुला जग में मधु का भंडार,
दबा सकोगी तुम्हीं आज
उर में मधु जीवन ज्वार ?
बंद तुम्हारे द्वार !
3.
ग्राम कवि
यहाँ न पल्लव वन में मर्मर ,
यहाँ न मधु विहगों में गुंजन,
जीवन का संगीत बन रहा
यहाँ अतृप्त हृदय का रोदन !
यहाँ नहीं शब्दों में बँधती
आदर्शों की प्रतिमा जीवित ,
यहाँ व्यर्थ है चित्र गीत में
सुंदरता को करना संचित !
यहाँ धरा का मुख कुरूप है ।
कुत्सित गर्हित जन का जीवन,
सुंदरता का मूल्य वहाँ क्या
जहाँ उदर है क्षुब्ध, नग्न तन ?
जहाँ दैन्य जर्जर असंख्य जन
पशु - जघन्य क्षण करते यापन ,
कीड़ों - से रेंगते मनुज शिशु ,
जहाँ अकाल वृद्ध है यौवन !
सुलभ यहाँ रे कवि को जग में
युग का नहीं सत्य शिव सुंदर,
कँप कँप उठते उसके उर की
व्यथा विमुर्छित वीणा के स्वर !
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पुस्तकः चिदंबरा
लेखक: सुमित्रानंदन पन्त
विधाः कविता
प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन
मूल्यः रुपए 795/-
पृष्ठ संख्याः 560