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मैं बनारस में हूं बनारस मुझमें... प्रकाश मनु की बनारस केंद्रित 5 कविताएं

वरिष्ठ साहित्यकार प्रकाश मनु ने कुछ बरस पहले बनारस की यात्रा की थी. बनारस प्रवास की उस दौर की कशिश भरी स्मृतियों पर उन्होंने ये 5 कविताएं लिखीं. प्रवास के दिनों के चित्र भी हैं।

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बनारस में वरिष्ठ साहित्यकार,कवि प्रकाश मनु
बनारस में वरिष्ठ साहित्यकार,कवि प्रकाश मनु

वरिष्ठ साहित्यकार प्रकाश मनु ने कुछ बरस पहले बनारस की यात्रा की थी. बनारस प्रवास की उस दौर की कशिश भरी स्मृतियों पर उन्होंने ये 5 कविताएं लिखीं. प्रवास के दिनों के चित्र भी हैं।
*
1.
घर से बनारस
...
घर से बनारस के लिए चला तो बनारस
मेरे भीतर चल रहा था
मेरे श्वास-श्वास में रुधिर में
हजारों हजार बरस पुरानी गैरिक स्मृतियों
की लीलानगरी बसाए...
मैं यान की गति से दौड़ रहा था
और वह दौड़ता हुआ 
मेरे पास आ रहा था
पास-और पास...
वही आकुलता जो मुझमें थी
वही उसमें थी...
बनारस की धरती पर पैर रखते ही
बनारस मुझे घेर लेता है
चारों ओर से भुजाएं बढ़ाता हुआ
सदियों से बिछुड़ा कोई दोस्त जैसे
*
2.
बनारस-प्रवास
...
मैं बनारस में हूं बनारस मुझमें
बनारस की टेढ़ी-मेढ़ी घुमावदार गलियों में चलते हुए
उड़ा जा रहा हूं मैं कहां से कहां...
बनारस मेरे आरपार बहता है
किसी ठंडी सनसनाती हवा की तरह
अनजानी छुअन लिए
मेरे रोम-रोम में प्रकंप जगाता...
बनारस में बहा जा रहा हूं मैं
किसी विह्वल, आत्म-विस्मृत पगले जोगी सा
गंगा के शीतल, हर्षाकुल पानियों 
में चुप-चुप खोया हुआ...
सूर्यनाथ और ब्रजेंद हंसकर छेड़ते हैं
गंगा तो अभी दूर है मनु जी,
पर गंगा की कल-कल सुन रहे हैं 
मेरे विह्वल प्राण,
उन्हें कैसे बताऊं गंगा तो मेरे भीतर बह रही है
मेरे भीतर बहते बनारस की तरह.
*
3.
मां गंगा
...
रात भर सपना
सपने में बह रहा था मैं
किसी भोले शिशु की तरह 
पानियों में हाथ-पैर मारता
खिलखिलाता...
मां गंगा मुझे गोद में उठाए
बह रही थी अनंत क्षितिजों के पार
अपनी अथाह जलराशि के विशाल वैभव के साथ
बह रही थी गंगा निर्द्वंद्व
निर्वाक्...
और मैं गंगापुत्र बह रहा था
बहता जा रहा था अपनी वत्सला मां गंगा 
के वक्ष से चिपका, ठिठुरा
जीवन के अनंत छोरों की तरफ
वहां जहां कहीं है मुक्ति...
*
बनारस में वरिष्ठ साहित्यकार एवं कवि प्रकाश मनु, साथ में ब्रजेंद्र त्रिपाठी और सूर्यनाथ सिंह
4
सुबहे बनारस
...
यह सुबहे बनारस है 
संगीत के बहते हुए ताजा सुरों के साथ
गुनगुनाती हुई भोर
कुछ आत्म-विस्मृत सी
डूबी-डूबी सपने में
डूबी अपने में...
बरस रहे हैं सुर
गंगा तट पर
बरस रही है सुबह बनारस में 
सितारा देवी के नृत्य की ताल
और अल्ला रक्खा खां के तबले की थाप पर..
बरस रही है सुबह
बनारस
में...
हम चार हैं यहां गंगा घाट पर 
मैं, सूर्य भाई, ब्रजेंद्र त्रिपाठी और सुरेश्वर
चार मित्र मिले जो बहुत दिनों बाद
सुबहे बनारस के रस में भीगते हुए भीतर तक
चुप-चुप निर्वाक्...
संगीत बस, संगीत बरस रहा है चतुर्दिक
हवाओं में बहते संगीत की गैरिक लय-तान 
विभोर करती हैं हमें
गंगा की लहरों की कल-कल, कुल-कुल की तरह 
और हम चुप-चुप बह रहे हैं
किसी अनहद नाद में
जो शब्दों से परे है, अछोर...
अभी कुछ अंधेरा है
पर बनारस जाग गया है नींद का लिहाफ
उतारकर
गंगा के घाट, गंगा की रेती और पानियों पर
उतर रही है सुबह 
और दूर तक सुनाई देती है उस्ताद बिस्मिल्लाह खां 
की शहनाई...
शहनाई के बोल
गंगा की लहरों पर कांपते हैं
हवा में लरजते हैं
और दूर क्षितिजों के पार उतरने लगते हैं...
केवल बनारस नहीं
बनारस की गंगा नहीं
अखिल ब्रह्मांड सुन रहा है
उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की शहनाई के बोल
जो गंगा घाट पर उतरते हैं
तो समय थम जाता है
और हर चीज कालातीत 
शिव के शांत, मृदुल हास्य की तरह...
देखिए गंगा के घाट अब कितने साफ हो गए हैं
पहले बुरा था हाल
उल्लसित सुरेश्वर का स्वर,
हां-हां-हां, भाई सुरेश्वर, हां!
मैं जवाब देता हूं
पर कान तो उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की शहनाई 
की तरफ लगे हैं
जिसके स्वर न जाने कब के हवा में बह रहे हैं
बहते रहेंगे अभी सदियों तक...
गंगा के संग-संग बहती नौका में हम चारों मित्र
केवट भी
बहे जा रहे हैं आह्लादित उर
कि अचानक किसी बात पर हंसते हैं साथ-साथ
तो हंसती है गंगा मैया भी 
उमगकर
असीसें देती है शीतल मन से
कि बेटे आए हैं आज बहुत दिनों बाद
जिएं
जीते रहें खूब आनंद मनाएं...
लौटते हुए फिर आंखों में भरता हूं मैं
गंगा का अनंत विस्तार
उसकी शीतल छुअन
उसकी असीसों पर असीसें
सिर और माथे पर उसकी उंगलियों की कंपकंपाहट...
लौटते हुए फिर-फिर देखता हूं
पीछे मुड़कर
मैं विह्वल सा
कि गंगा बह रही है
अपनी उमगती लहरों के साथ
आनंद लीला सी रचाए
एक गंगा मुझमें एक बाहर बह रही हैं...
गंगा के साथ-साथ बह रहा है पूरा बनारस भी
अनादि लय में
कि सुबह हो रही है
बनारस में सुबह.
*
5.
छन्नू महाराज
...
बनारस है तो छन्नू महाराज भी हैं
छन्नू महाराज हैं तो उनकी होरी भी 
कि खेलें मसाने में होरी दिगंबर
खेलें मसाने में होरी...
उमग रहे हैं स्वर उनके भीतर से
जैसे उमगती हैं लहरें गंगा की
शिव की जटाओं से विचित्र लास्य के साथ
वे बैठे हैं और गा रहे हैं
नहीं-नहीं, बैठे हैं और नाच रहे हैं
नाच रहे हैं उनके स्वर भी साथ-साथ-
खेलें मसाने में होरी दिगंबर,
खेलें मसाने में होरी...
चिता भस्म भर झोरी, दिगंबर खेलें मसाने में होरी...
नाच रहे हैं बोल छन्नू मिश्र के
मसाने में नाच रहे 
परम कौतुकी नटराज शिव की तरह
और हम सबके सब अवाक्...
अहा, छन्नू महाराज अब छन्नू महाराज नहीं हैं
अपने स्वरों में घुलते जा रहे हैं वे हर पल
केवल देह है जो सामने है...
और स्वरों के साथ-साथ नाचती मुक्त केशराशि
वे जैसे हैं भी और नहीं भी
वे भी जैसे मसाने में होरी खेलते शिव में समा गए हैं
शिव में शिव का डमरू नाच बनकर...
और उनके साथ-साथ हम सब भी
जो मसाने में खेल रहे थे होरी
और बनारस में
बनारस की आत्मा का देख रहे थे
यह सम्मोहक लीला नृत्य
विदेह,
एकदम विदेह होकर!...
गायन पूरा होते ही जैसे सब नींद से जागे हों
मंच से उतरे हैं छन्नू महाराज
और उनके साथ-साथ हम सब भी 
बंधे किसी जोदू की डोर से
बतियाते हुए मन की आनंद लीला में मगन
कि अचानक क्लिक,
किसी ने उनके साथ मेरा फोटो खींचा है...
किसने खींचा फोटो मुझे चाहिए,
मैं कहना चाहता हूं 
भीड़ में गर्दन उठाए
पर देखा तभी सब हंस रहे हैं 
हंस रहा बनारस भी मस्ती में खुदर-खुदर
साथ-साथ गंगा मैया हंस रही है-
तुम्हें तो साक्षात छन्नू मिश्र ही मिल गए
तो अब फोटो का क्या करोगे प्रकाश मनु?...
देर तक उनके साथ खाना खाते बतियाता हूं मैं
साथ में सूर्य भाई
उनकी बातें हैं कि थमती ही नहीं
और हमारी जिज्ञासाएं अनंत...
हम दुनिया के सबसे अलमस्त 
गायक से रूबरू हैं
मैं और सूर्य भाई इशारे से एक-दूसरे से कहते हैं
और छन्नू मिश्र हमसे बतियाते हुए
उसी आनंद से भोजन का रस ले रहे हैं
जिस रस के साथ गाया उन्होंने अभी-अभी
खेलें मसाने में होरी दिगंबर, 
खेलें मसाने में होरी...
अब तक दिशाओं में गूंज रहे हैं उनके स्वर 
दूर-दूर तलक
भीतर लहर पर लहर उठाते हुए...
यह बनारस तो बड़ा अद्भुत है महाराज
इसकी हवाओं में इतनी गूंज क्यों है
क्या हर पुराने शहर मे होती है ऐसी ही पुकार
यह इतिहास की पुकार है कि संस्कृति की...?
मैं पूछना चाहता हूं
पर इससे पहले ही
किसी बात पर ठहाका लगाकर 
हंस पड़े हैं छन्नू महाराज
उनके साथ-साथ हंसता है पूरा बनारस
हंसती है गंगा मैया भी 
बड़ी ही निर्मल मिठास से पगी हंसी...
पुत्र, बहुत भोले हो...
यह शिव का मृदुल हास्य है
जो पूरे बनारस में व्याप रहा है-
कहीं से कोई स्वर आता है
और मैं चकित सा चारों ओर देखता हूं...
हवाओं में फिर-फिर गूंजता है स्वर,
जैसे गाते-गाते एकाएक नाच उठे हों 
छन्नू मिश्र-
खेलें मसाने में होरी दिगंबर, खेलें मसाने में होरी...!
***
उत्तर प्रदेश के शिकोहाबाद में 12 मई, 1950 को जन्मे वरिष्ठ साहित्यकार प्रकाश मनु का मूल नाम चंद्रप्रकाश विग है. आपने आगरा कॉलेज से भौतिक विज्ञान में एम.एस-सी. की डिग्री हासिल की, पर साहित्यिक रुझान ने उनके जीवन का ताना-बाना बदल दिया. 1975 में आपने हिंदी साहित्य में एम.ए. किया और 1980 में यूजीसी की फेलोशिप के तहत कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से 'छायावाद एवं परवर्ती काव्य में सौंदर्यानुभूति' विषय पर शोध किया. मनु अब तक शताधिक रचनाओं का सृजन कर चुके हैं. कुछ वर्ष प्राध्यापक रहे और फिर लगभग ढाई दशक तक बच्चों की लोकप्रिय पत्रिका 'नंदन' के संपादन से जुड़े रहे. फिलहाल प्रसिद्ध साहित्यकारों के संस्मरण, आत्मकथा तथा बाल साहित्य से जुड़ी कुछ बड़ी योजनाओं पर काम कर रहे हैं. संपर्कः प्रकाश मनु, 545 सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008, मो- 09810602327, ईमेल- prakashmanu333@gmail.com
 

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