कविता में यथार्थ को देखने और पहचानने का वीरेन डंगवाल का तरीका बहुत अलग, अनूठा और बुनियादी किस्म का रहा है. सन् 1991 में प्रकाशित उनका पहला कविता-संग्रह 'इसी दुनिया में' अगर आज एक दशक बाद भी उतना ही प्रासंगिक और महत्त्वपूर्ण लगता है, तो इसलिए कि वीरेन की कविता ने समाज के साधारणजनों और हाशियों पर स्थित जीवन के जो विलक्षण ब्यौरे और दृश्य हमें दिये हैं, वे कविता में और कविता से बाहर भी सबसे अधिक बेचैन करने वाले दृश्य हैं.
कविता की मार्फ़त वीरेन ने ऐसी बहुत-सी चीजों और उपस्थितियों के संसार का विमर्श निर्मित किया जो प्राय: ओझल और अनदेखी थीं. उनकी कविता में जनवादी परिवर्तन की मूल प्रतिज्ञा थी और उसकी बुनावट में ठेठ देसी किस्म के, ख़ास और आम, तत्सम और तद्भव, क्लासिक और देशज अनुभवों की संश्लिष्टता थी.
वीरेन डंगवाल का जन्म 5 अगस्त, 1947 को टिहरी गढ़वाल के कीर्तिनगर में हुआ. उन्होंने शुरुआती शिक्षा मुजफ़्फ़रनगर, सहारनपुर, कानपुर, बरेली, नैनीताल ग्रहण की और उच्च शिक्षा के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय चले गए. वहां से उन्होंने हिंदी में एमए और आधुनिक हिंदी कविता के मिथकों और प्रतीकों पर डीलिट की उपाधि हासिल की.
साल 1971 में वीरेन डंगवाल बरेली कॉलेज में अध्यापन करने चले आये. उन्होंने अध्यापन के साथ ही हिंदी और अंग्रेज़ी में पत्रकारिता की. कई अखबारों के लिए स्तंभ-लेखन किया और एक हिंदी अखबार के संपादकीय सलाहकार भी रहे. इस बीच उन्होंने कविता-संग्रह इसी दुनिया, दुष्चक्र में स्रष्टा, स्याही ताल से खासी लोकप्रियता अर्जित की. उनके द्वारा तुर्की के महाकवि नाज़िम हिकमत की कविताओं के अनुवाद पहल पुस्तिका के रूप में छपे.
उन्होंने विश्व कविता के क्षेत्र के बेहद महत्त्वपूर्ण नाम पाब्लो नेरूदा, बर्टोल्ट ब्रेख्ट, वास्को पोपा, मीरोस्लाव होलुब, तदेऊष रूजे़विच आदि की कविताओं के अलावा कुछ आदिवासी लोक कविताओं के अनुवाद किए. डंगवाल की कई कविताओं के अनुवाद बांग्ला, मराठी, पंजाबी, मलयालम और अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुए हैं. डंगवाल को उनके कवि कर्म के लिए रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार, श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार, शमशेर सम्मान और साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा जा चुका है.
वीरेन डंगवाल की विलक्षण काव्य-दृष्टि पर्जन्य, वन्या, वरुण, द्यौस जैसे वैदिक प्रतीकों और ऊँट, हाथी, गाय, मक्खी, समोसे, पपीते, इमली जैसी अति लौकिक वस्तुओं की एक साथ शिनाख्त करती हुई अपने समय में एक जरूरी हस्तक्षेप करती थी.
विडम्बना, व्यंग्य, प्रहसन और एक मानवीय एब्सर्डिटी का अहसास वीरेन की कविता के जाने-पहचाने कारगर तत्त्व रहे हैं और एक गहरी राजनीतिक प्रतिबद्धता से जुड़कर वे हाशियों पर रह रही मनुष्यता की आवाज बन जाते हैं. उनकी कविताओं में काव्ययुक्तियों का ऐसा विस्तार है, जो घर और बाहर, निजी और सार्वजनिक, आन्तरिक और बाह्य को एक साथ समेटता हुआ ज़्यादा बुनियादी काव्यार्थों को सम्भव करता है.
विचित्र, अटपटी, अशक्त, दबी-कुचली और कुजात कही जाने वाली चीजें यहाँ परस्पर संयोजित होकर शक्ति, सत्ता और कुलीनता से एक अनायास बहस छेड़े रहती हैं और हम पाते हैं कि छोटी चीजों में कितना बड़ा संघर्ष और कितना बड़ा सौन्दर्य छिपा हुआ है. साधारण लोगों, जीव-जन्तुओं और वस्तुओं से बनी मनुष्यता का गुणगान और यथास्थिति में परिवर्तन की गहरी उम्मीद वीरेन डंगवाल की कविताओं का मुख्य स्वर है. इस स्वर के विस्तार को, उसमें हलचल करते अनुभवों को देखना-महसूस करना ही एक रोमांचक अनुभव है.
वीरेन डंगवाल से पहले शायद हिंदी कविता में इतने अनुराग के साथ कभी नहीं आये हैं. ख़ास बात यह है कि साधारण की यह गाथा वीरेन स्वयं भी एक साधारण मनुष्य के, उसी के एक हिस्से के रूप में प्रस्तुत करते हैं .जहाँ स्रष्टा के दुश्चक्र में होने की स्थिति मनुष्य के दुश्चक्र में होने की बेचैनी में बदल जाती है.
आज वीरेन डंगवाल के जन्मदिन पर उनके साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित काव्य संकलन 'दुष्चक्र में स्रष्टा' से पांच चुनी हुई कविताएं. डंगवाल का यह कविता संग्रह अपने विलक्षण नाम के साथ हमें उस दुनिया में ले जाता है, जो इन वर्षों में और भी जटिल और भी कठिन हो चुकी है और जिसके अर्थ और भी बेचैन करने वाले बने हैं.
1.
हमारा समाज
यह कौन नहीं चाहेगा उसको मिले प्यार
यह कौन नहीं चाहेगा भोजन-वस्त्र मिले
यह कौन न सोचेगा हो छत सर के ऊपर
बीमार पड़े तो हो इलाज थोड़ा ढब से
बेटे बेटी को मिले ठिकाना दुनिया में
कुछ इज्ज़त हो, कुछ मान बढ़े फल-फूल जाएँ
गाड़ी में बैठें, जगह मिले, डर भी न लगे
यदि दफ्तर में भी जाएँ किसी तो न घबराएं?
अनजानों से घुल-मिल भी मन में न पछतायें।
कुछ चिंता भी हों, हाँ कोई हरज नहीं
पर ऐसी नहीं कि मन उनमें ही गले घुने
हौसला दिलाने और बरजने आसपास
हो संगी-साथी, अपने प्यारे, खूब धने।
पापड-चटनी, आंचा-पांचा, हल्ला-गुल्ला
दो चार जशन भी कभी, कभी कुछ धूम-धाएँ
जितना सम्भव हो देख सकें, इस धरती को
हो सके जहां तक, उतनी दुनिया घूम आयें
यह कौन नहीं चाहेगा?
पर हमने यह कैसा समाज रच डाला है।
इसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला है।
वह क़त्ल हो रहा, सरेशाम चौराहे पर
निर्दोष और सज्जन, जो भोला-भाला है
किसने आखिर ऐसा समाज रच डाला है।
जिसमें बस वही दमकता है, जो काला है ?
मोटर सफेद वह काली है
वे गाल गुलाबी काले हैं
चिन्ताकुल, चेहराबुद्धिमान
पोथे कानूनी काले हैं
आटे की थैली काली है।
हर सांस विषैली काली है
छत्ता है काली बर्रों का
वह भव्य इमारत काली है।
कालेपन की वे सन्तानें
हैं बिछा रहीं जिन काली इच्छाओं की बिसात
व अपने कालेपन से हमको घेर रहीं
अपना काला जादू है हम पर फेर रही
बोलो तो, कुछ करना भी है।
या काला शरबत पीते-पीते मरना है?
2.
मोटरसाइकिल पर सैनिक
बत्ती पूरे इलाके की गुम
मैं टहलता था छावनी की एक पेड़ों भरी सड़क पर
सुनील के साथ
तभी सफेद हेलमेट पहना एक सैनिक पुलिस
कहीं से निकला
और मोटरसाइकिल स्टार्ट करने लगा।
तीसरी बार में ही गाड़ी चल पड़ी
वह थोड़ा सा बढ़ा
फिर कंधे तक घूमकर
पीछे खाँचे में फंसी
टीन की बक्सिया को उसने हाथ से
बल्कि दाहिने हाथ से टटोला
साथ ही हमें भी देखा
उस चाँदनी भरे अँधेरे में।
एक राजसी घोड़े की सी हरकत थी
यह पल-भर का घूरना
टटोलना, संदेहविहीन घूरना।
फिर वह चला गया
वसंत को स्वच्छ रात्रि में
पीछे धड़धड़ाती सड़क पर
उजाले की एक सुरंग बनाता
हेडलाइट से
साथ ही हम भी देखा
उस चाँदनी भरे अँधेरे में।
एक राजसी घोड़े की ऐसी हरकत थी
यह पल-भर-का घूमना
टटोलना, संदेह विहीन घूरना।
फिर वह चला गया
वसन्त की स्वच्छ रात्रि में
पीछे धड़धड़ाती सड़क पर
उजाले की एक सुरंग बनाता
हेडलाइट से।
सुशील बेरोजगार था
इसलिए शायद
ज्यादा सोचता रहा होगा इस घटनाक्रम पर।
3.
उजले दिन ज़रूर
आयेंगे, उजले दिन जरूर आयेंगे
आतंक सरीखी बिछी हुई हर ओर बर्फ़
है हवा कठिन, हड्डी हड्डी को ठिठुराती
आकाश उगलता अंधकार फिर एक बार
संशय-विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती
होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार
तब कहीं मेघ ये छिन्न-भिन्न हो पायेंगे।
तहखानों से निकले मोटे-मोटे चूहे
जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे
हैं कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें
चीं-चीं, चिक-चिक की धूम मचाते घूम रहे
पर डरो नहीं, चूहे आख़िर चूहे ही हैं,
जीवन का महिमा नष्ट नहीं कर पाएंगे ।
यह रक्तपात, यह मारपीट जो मची हुई
लोगों के दिल भरमा देने का ज़रिया है।
जो अड़ा हुआ है हमें डराता रस्ते में
लपटें लेता घनसोर आग का दरिया है।
सूखे चेहरे बच्चों के उनकी तरल हँसी
हम याद रखेंगे, पार उसे कर जायेंगे।
मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूँ
हर सपने के पीछे सच्चाई होती है
हर दौर कभी तो ख़त्म हुआ ही करता है
हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है।
आये हैं जब हम चलकर इतने लाख वर्ष
इसके आगे भी तब चलकर ही जायेंगे,
आयेंगे, उजले दिन ज़रूर आयेंगे।
4.
नींदें
नींद की छतरियाँ
कई रंगों और नाप की हैं।
मुझे तो वह नींद सबसे पसन्द है
जो एक अजीब हल्के-गरू उतार में
धप से उतरती है
पेड़ से सूखकर गिरते आकस्मिक नारियल की तरह
एक निर्जन में।
या फिर वह नींद
जो गिलहरी की तरह छोटी चंचल और फूर्तीली है।
या फिर वह
जो कनटोप की तरह फिट हो जाती है
पूरे सर में।
एक और नींद है
कहीं समुद्री हवाओं के आर्द्र परदे में
पालदार नाव का मस्तूल थामे
इधर को दौड़ी चली आती
इकलौती
मस्न अधेड़ मछेरिन।
5.
परम्परा
पहले उसने हमारी स्मृति पर डंडे बरसाये
और कहा असल में यह तुम्हारी स्मृति है
फिर उसने हमारे विवेक का सुन्न किया
और कहा अब जाकर हुए तुम विवेकवान
फिर उसने हमारी आँखों पर पट्टी बाँधी
और कहा चलो अब उपनिषद पढ़ो
फिर उसने अपनी सजी हुई डोंगी हमारे रक्त की
नदी में उतार दी
और कहा अब अपनी तो यही है परम्परा ।
***
पुस्तकः दुष्चक्र में स्रष्टा
लेखक: वीरेन डांगवाल
विधाः कविता
प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन
मूल्यः 300/- रूपए, हार्डबाउंड
पृष्ट संख्याः 116