लोकगीतों की तलाश में देश का चप्पा-चप्पा छान मारने वाले यायावर देवेंद्र सत्यार्थी के पास स्मृतियों का विलक्षण खजाना था. उनकी अंतहीन घुमक्कड़ी ने उन्हें असंख्य लोगों से मिलवाया, जिनके मानस चित्र और छवियां सत्यार्थी जी की स्मृतियों के कोठार में जमा होती जातीं. इनमें राह चलते मिल जाने वाले मामूली किसान-मजदूर थे तो बड़े से बड़े साहित्यकार, कलावंत, चिंतक, सामाजिक आंदोलनकारी और उस दौर के दिग्गज राजनेता भी थे. पर सत्यार्थी जी तो मुक्त हवाओं की तरह, मुक्त हृदय वाले दरवेश ठहरे. उनके लिए मनुष्य और मनुष्य में कोई फर्क नहीं था.
जिस सहज स्नेह और आत्मीयता से वे केएम मुंशी, राजगोपालाचार्य, दीनबंधु एंड्रूयूज और सरोजिनी नायडू से मिलते, उसी अनुरागी भाव से गांव के साधारण चरवाहे से भी मिलते, जिसके पास लोकगीतों का अऩमोल खजाना और जीवन की मस्ती होती थी. सत्यार्थी जी को उनकी बातें भा जाती और वे सबकुछ भूलकर उससे घंटों बतियाते रहते.
ऐसे क्षणों में लोकयात्री देवेंद्र सत्यार्थी के लिए समय का बोध ही नहीं, सारी दूरियां भी खत्म हो जातीं. ठीक वैसे ही, जैसे खेतों में हुमचती फसलों की तरह धरती फोड़कर निकले अलग-अलग अंचलों के लोकगीत किसी एक के नहीं, सबके थे. छोटे-बड़े और ऊंच-नीच के सारे भेदभाव को भूलकर वे हर किसी को गले लगाते थे, और आनंद से भर देते थे.
सत्यार्थी जी में खानाबदोशों सरीखी मस्ती और बेफिक्री थी. किसी पहाड़ी झरने या जंगल की उन्मुक्त हवा की तरह वे सारे बंधनों से मुक्त होकर, जिधर मन होता, उधर बह जाते. शायद इसीलिए उनकी बातों से भी आनंद झरता था. उनसे जो भी मिलता, उनका अपना हो जाता. घड़ी-दो घड़ी की बातचीत में ही सत्यार्थी जी की यादों के काफिले लगातार उसे अपनी आंखों के आगे से गुजरते हुए महसूस होते थे. इसलिए कि उनसे मिलने का मतलब ही था, बीसवीं सदी के साहित्य, कला और संस्कृति के बड़े से बड़े शिखर व्यक्तित्वों से हमारी मुलाकात, जो उनके साथ मानो हमेशा ही रहते थे.
...और मजे की बात यह कि सत्यार्थी जी जहां भी आते-जाते, उनके साथ-साथ संस्मृतियों का यह मेला भी चलता, जो किसी अच्छे, सहृदय श्रोता की प्रतीक्षा में रहता. फिर जहां वे बैठते, वहां एक अद्भुत समां उपस्थित हो जाता. सत्यार्थी जी सुर में आते और बोलना शुरू करते, तो उनकी वाग्धारा देश और काल की दीवारों को तोड़कर बहना शुरू हो जाती. ऐसे क्षणों में उनका व्यक्तित्व किसी महा समंदर सरीखा लगता, जिसमें अनेक धाराएं उठतीं और एक-दूसरे में समाहित होती हुई आगे बढ़तीं, तो समय भी जैसे उनकी शानदार उजली दाढ़ी के बालों में छिपकर बैठ जाता, और उनसे इजाजत मांगता कि वे कहें, तो वह आगे चले! ऐसे में उन्हें सुनने वालों पर जो जादू तारी होता था, उसकी कल्पना की जा सकती है.
हवा में झूलती सफेद लंबी दाढ़ी और खुशगवार व्यक्तित्व में किसी दरवेश सरीखे लगते सत्यार्थी जी के भीतर जैसे देश-दुनिया की एक से एक विलक्षण शख्सियतों का डेरा था, और जैसे ही वे बोलना शुरू करते, इन युगनायकों के व्यक्तित्व के बड़े अद्भुत प्रसंग और अनजाने कोण हमारी आंखों के आगे खुलने लगते, 'जब मैं गांधी जी से मिला...', 'एक बार गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने मुझसे कहा...', 'उन दिनों जब मैं के.एम. मुंशी के यहां रुका हुआ था...', 'महामना मालवीय ने मेरे धूल भरे पैर देखे तो...!' इन क्षणों में महसूस होता था, जैसे हम इतिहास के उन चक्करदार गलियारों में जा पहुंचे हैं जहां एक साथ बहुत कुछ घट रहा है. यहां तक कि हम खुद भी उसी महावृत्तांत का एक हिस्सा बन जाते थे. और कुछ-कुछ ठगे हुए, सम्मोहित से, हम खुद को एक विराट परिदृश्य का हिस्सा महसूस करते थे.
सच पूछिए तो सत्यार्थी जी कभी अकेले न होते. यादों के काफिले हर वक्त उनके भीतर चलते और आवाजाही करते रहते. इसलिए उनसे मिलना एक साथ वर्तमान, भूत और भविष्यत से मिलना था. सत्यार्थी जी ने अपनी कहानी और उपन्यासों में अपने कुछ कल्पित नाम रखे थे, जिनकी छाया में वे स्वंय भी उपस्थित हो जाते थे. इनमें दो नाम मुझे बहुत आकर्षित करते हैं. एक बाबा देवगंधार, और दूसरा फादर टाइम. दोनों में ही सत्यार्थी जी की आदमकद शख्सियत और ऊंचे कद के विहंगम व्यक्तित्व की छाप है. और दोनों का संबंध यादों के काफिले से है, जो उन्हें औरों से अलग, और दूर-दूर तक फैले किसी जंगल सरीखा एक अद्भुत महाकाय व्यक्तित्व बना देता.
सत्यार्थी जी लोकगीतों की तलाश में घर से निकले, पर इसके साथ ही लोकजीवन और कलाओं के प्रति उनका गहरा आकर्षण भी था, जो उन्हें जगह-जगह घूमकर जीवन के तमाम रंगों और छवियों को कुछ और करीब से देखने के लिए ललचा रहा था. लोककलाओं के प्रति उनका आकर्षण धीरे-धीरे कला के विविध रूपों के प्रति एक गहरी ललक में बदलता चला गया. वे अपने मन की अकूत जिज्ञासाओं के साथ, जगह-जगह भारतीय कला जगत के दिग्गज कलाकारों से मिले. यों शांतिनिकेतन तो उनका बार-बार जाना होता ही था, जो अपने आप में कला और कलाकारों की सभी धाराओं का पवित्र धाम था. एक ऐसा निराला संगम, जहां कला के बहुमुखी रूपों की तमाम नदियां आकर मिलती थीं. लिहाजा साहित्य और कलाओं का वह एक पुण्य तीर्थ ही बन गया था.
लोक यायावर सत्यार्थी जी के संवेदना से छलछलाते संस्मरण पढ़ें तो पता चलता है कि उन्होंने बार-बार इस संगम में स्नान किया, और भाव गद्गद होकर, अपनी स्मृतियों को शब्दों में पिरोया. 'एक युग: एक प्रतीक' की भूमिका में वे बड़े विनम्र भाव से कलाओं के प्रति अपने आकर्षण के बारे में लिखते हैं-
"कला की परख पर मेरा कहां तक अधिकार है, यह बात मैं विशेष आग्रहपूर्वक नहीं कह सकता. कला के प्रति मेरे हृदय में आकर्षण है, अनेक कला वस्तुओं को देखने के लिए मैंने परिश्रम किया है, अनेक कलाकारों के साथ मेरा संपर्क रहा है, इसी से मुझे इस संबंध में कुछ कहने का साहस हुआ."
'क्या गोरी, क्या सांवरी' भी सत्यार्थी जी के संस्मरणों की बहुचर्चित पुस्तक है. इसकी भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है. इसमें सत्यार्थी जी ने साफ-साफ कहा है कि वे कुलीनतावादी कलाओं के समर्थक नहीं हैं, और केवल वे ही कलारूप उन्हें आकर्षित करते हैं, जो आम जनता और लोकजीवन से गहराई से जुड़े हैं, और जिनमें गरीब आदमी की भावनाएं और दुख-दर्द नजर आता है. यही बात साहित्य और साहित्यकारों के प्रति उनके दृष्टिकोण में झलकती है. वे एकदम बेलाग शब्दों में कहते हैं कि उन्हें लिखने की प्रेरणा इस देश की गरीब जनता और आम लोगों से मिलती है. कुलीन साहित्य और साहित्यकारों से उन्हें कोई प्रेरणा नहीं मिलती-
"अतीतप्रिय परंपरावादी औ बुद्धिजीवी साहित्यकारों की कुलीन गोष्ठी में बैठे रहने को अब मन नहीं होता. ये लोग वर्तमान और भविष्य के बारे में कोई खुशखबरी नहीं सुना सकते, न ही किसी प्रकार की क्रांतिचेतना को स्वीकार करते हैं. कलानिष्ठा, सत्यप्रियता और सौंदर्य-बोध का राग अलापा जाता है अवश्य, पर ये लोग तो कला और साहित्य को केवल प्रसाधन और परंपरा की वस्तु बनाकर रखना चाहते हैं. इसीलिए मैं कहता हूं कि मुझे इनसे प्रेरणा नहीं मिलती."
सत्यार्थी जी का मानना है कि कुलीन साहित्यकारों में सच कहने और सच्चाई का सामना करने का साहस नहीं है. इसीलिए वे हमेशा भमित दिखते हैं, और एक छोटे से गोल दायरे में घूमते रहते हैं. उससे निकलकर जीवन के खुले विस्तार में आने का साहस उनमें नहीं है. सत्यार्थी जी उनकी इस बंद और घुटन भरी दुनिया की सच्चाई कहने से भी नहीं चूकते. वे बड़े आत्मविश्वास के साथ, दृढ़ शब्दों में कहते हैं-
"सत्य तो यह है कि कुलीन किस्म के साहित्यकार ठीक बात कहने से चूक जाते हैं, क्योंकि बात कहने से पहले इसे समझना होता है. और यह बात इनके बस का रोग नहीं."
इससे इतना जरूर पता चल जाता है कि सत्यार्थी जी का साहित्य और कलाओं के प्रति दृष्टिकोण औरों से अलग है, और उनके पास एक अचूक मूल्यवादी नजरिया है, जिससे वे आम जन से जुड़े साहित्य को न सिर्फ कुलीन और अभिजनवादी साहित्य से अलगाते हैं, बल्कि एक गहरी ललक और उत्साह के साथ जगह-जगह उसके महत्त्व की चर्चा भी करते हैं. यहां तक कि कला और कलाकारों को लेकर उनके ऐसे बहुत से भावनात्मक संस्मरण भी हैं, जिनमें जन-जन से जुड़ी सच्ची कला के प्रति उनका आकर्षण मानो शब्द-शब्द में उतर आता है. जाहिर है, इससे सत्यार्थी जी के संस्मरणों को एक अलग पहचान और अर्थवत्ता भी मिलती है.
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सत्यार्थी जी मेरे गुरु हैं, जिनसे मिलने के बाद मेरा पूरा जीवन ही बदल गया. आज मेरे लिए कल्पना कर पाना मुश्किल है कि मेरे जीवन में सत्यार्थी जी न आए होते तो मैं क्या होता, कैसा होता. सत्यार्थी जी ने साहित्य और जीवन की छोटी हदों और सीमाओं से ऊपर उठकर चीजों को देखना सिखाया, और जीने के नए मानी दिए. इस लिहाज से उऩके निकट आने पर मैंने खुद को एक व्यक्तित्वांतर से गुजरता पाया. शायद इसी को पुनर्नवा होना कहते हों.
आज भी मुझे याद है, सत्यार्थी जी से मेरा मिलना सन् 1986 के अगस्त महीने में हुआ. दिन तो अब याद नहीं. उन दिनों मैं 'नंदन' पत्रिका में था और पत्रिका के उपहार विशेषांक के लिए एक कहानी लेने के लिए उनके पास गया था. यायावर देवेंद्र सत्यार्थी से पहली-पहली मुलाकात तभी हुई. उनके बारे में इतनी बातें मैंने सुनी थीं कि उनकी प्रतिभा से मैं कुछ आतंकित सा था. पर वे मुझे एक बच्चे से भी ज्यादा सीधे-सरल और निश्छल लगे. उन दिनों दिल्ली से मैं कुछ डरा-डरा सा रहता. मन में हमेशा कोई कहता, 'भाग जाओ प्रकाश मनु. जितनी जल्दी हो सके, तुम यहां से दूर चले जाओ. यह शहर तुम्हारे लायक नहीं, तुम यहां टिक नहीं पाओगे.'
पर सत्यार्थी जी से मिला तो लगा कि अरे, ये तो मुझसे भी ज्यादा सीधे-सरल हैं. दुनियादारी का लेश मात्र नहीं. बिल्कुल अपने में खोए-खोए से. चौबीसों घंटे बस साहित्य, साहित्य, साहित्य. हर वक्त जैसे साहित्य में ही समाधि लगाए बैठे हों. अगर ये यहां रह सकते हैं तो मैं क्यों नहीं?
मुझे याद है कि पहली बार में ही सत्यार्थी जी ने बातों-बातों में मुझे स्मृतियों और जज्बात के 'अंतहीन अंतरिक्ष' में काफी ऊंचा उछाल दिया था. और इससे पहले कि मैं कुछ होश में आऊं या समझ पाऊं कि यह क्या तमाशा हो रहा है मेरे आगे-पीछे, उन्होंने दया करते हुए मेरी उंगली पकड़ ली थी और बड़ी आश्वस्ति और आत्मीयता से मुझे इतिहास के उन भव्य, विशाल बरामदों में घुमाने ले गए थे, जहां एक ओर महात्मा गांधी, गुरुदेव टैगोर, के.एम. मुंशी, काका कालेलकर, ठक्कर बापा, दीनबंधु ऐंड्र्यूज, सरोजिनी नायडू जैसे इतिहास-पुरुष और बड़े राजनयिक थे तो दूसरी ओर मंटो, बेदी, कृश्न चंदर, इस्मत चुगताई, मुल्कराज आनंद, राहुल सांकृत्यायन, नंदलाल बसु, रामकिंकर, अज्ञेय, अमृता प्रीतम, साहिर, बलराज साहनी, अश्क, बलवंत सिंह और कृष्णा सोबती जैसे दिग्गज लेखक और कलावंत!
ये सब और इन जैसे ही तमाम और लेखक, कलाकार, संगीतकार, नाट्यकर्मी, चिंतक-विचारक, इतने सजीव रूपों में वहां उपस्थित थे और सत्यार्थी जी इतने अनौपचारिक अंदाज में हंस-हंसकर उनसे मिलवा रहे थे कि मैं चमत्कृत और लगभग भौचक्का रह गया था.
फिर सत्यार्थी जी से निकटता हो जाने और एक तरह से उनके परिवार का ही एक हिस्सा हो जाने पर मैंने थोड़ी छूट ले ली और उनसे उनकी पुस्तकें मांगकर पढ़ने के लिए ले जाने लगा. उन दिनों लोक साहित्य संबंधी उनकी किताबों के अलावा उनकी कहानियों, आत्मकथा और संस्मरणों ने ही मुझे ज्यादा प्रभावित किया. इनमें भी सत्यार्थी जी के संस्मरण मुझे खास तौर से पसंद थे. इसलिए कि एक लोकयात्री के रूप में उन्होंने कहां-कहां की खाक छानी है और निहायत मामूली लोगों से लेकर अपने समय के एक से एक दिग्गज युग-प्रवर्तकों और इतिहास-निर्माताओं से बड़ी अंतरंगता और अनौपचारिक अंदाज में मिले हैं, वह कहीं न कहीं चमत्कृत तो करता ही है. और एक सीधे-सरल लोकयात्री के रूप में उनके ये अनुभव उनके संस्मरणों में जैसे छलछलाकर सामने आते हैं.
पर मैंने गौर किया कि सत्यार्थी जी के संस्मरणों की ये किताबें ज्यादातर सन् 50 के आसपास ही छपी हैं और तब से लगभग अनुपलब्ध हैं.
मुझे थोड़ा दुख और हैरानी हुई. लिहाजा मैंने उनसे पूछा, "इतने अच्छे और सजीव संस्मरण! क्या ये फिर नहीं छपे? क्यों भला?"
जवाब में सत्यार्थी जी ने कुछ नहीं कहा. सिर्फ एक गहरी विषादपूर्ण मुसकान.
मुझे हैरानी हुई. इतने दिग्गज लेखकों, कलाकारों, जननायकों के बारे में सत्यार्थी जी के 'फर्स्ट हैंड' अनुभव, जिन्हें हम अब तक किताबों में ही देखते-पढ़ते आए हैं. खुद में कई युगों का इतिहास समेटे इन संस्मरणों की तरफ लोगों का ध्यान क्यों नहीं गया?
'क्या ही अच्छा हो कि सत्यार्थी जी के ये सभी संस्मरण दोबारा छपकर एक ही जिल्द में सामने आएं!' मैंने मन ही मन दोहराया. और फिर यह नाम एक गहरी अर्थपूर्ण लय के साथ दोबारा मेरे भीतर गूंजा, 'यादों के काफिले'! लगा जैसे इसके अलावा इस किताब का नाम और कोई हो ही नहीं सकता. आखिर ये घाट-घाट का पानी पी चुके और लोकसाधना में तपे एक यात्री की यादें ही तो हैं, जो इस अवस्था में उन्हें चारों ओर से आकर घेर लेती हैं.
सत्यार्थी जी से जिक्र किया तो फिर वही क्षीण-सी मुसकान, "हां-हां, सुझाव तो अच्छा है. देखेंगे!"
जब बहुत आग्रह किया तो शायद आजिज आकर ही उन्होंने कहा, "ठीक है, तो तुम ही कर डालो यह काम. मेरे पुराने पन्नों की धूल झाड़कर जो भी काम का लगता है, ले लो. तुम्हें पूरी छूट है." फिर उन्होंने जोड़ा, "और संस्मरण ही क्यों, इसके अलावा भी जो कुछ तुम्हें ठीक लगता है, तुम कर डालो संपादन."
लेकिन आश्चर्य! सत्यार्थी जी की और किताबें तो एक-एक कर छपती और सामने आती रहीं, संस्मरण फिर कहीं छूट गए. हां, यह काम करना है और उसका नाम होगा, 'यादों के काफिले'. यह बात दूर अंधेरे में किसी दीए की तरह लगातार टिमटिमाती और भीतर आत्मा को बल देती रही. इस बीच एक और बात मन में कौंधी- सत्यार्थी जी के जो संस्मरण इधर-उधर पत्र-पत्रिकाओं में बिखरे हैं, उन्हें भी क्यों न शामिल किया जाए?
बीच में कुछ समय भावनात्मक उलझनों और परेशानियों का रहा और बात इधर-उधर हो गई. और सत्यार्थी जी तो अपनी आत्मकथा के लय साधने में इतने लीन थे कि इसके अलावा कोई और बात उनके ध्यान में अंटती ही नहीं थी....यानी तुम्हें किताब निकालनी है तो निकाल लो, पर मुझे तो मुक्त ही रहने दो भाई!
उधर सत्यार्थी जी के संस्मरणों से झांकते गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर, महात्मा गांधी, अवनींद्र बाबू, नंदलाल बसु, यामिनी राय, रामकिंकर, शचिन देव वर्मा, बलराज साहनी, अमृता शेरगिल, मुल्कराज आनंद, अज्ञेय, अमृता प्रीतम, पाब्लो नेरूदा, जोश साहब...एक से एक बड़े लोग और उनकी यादें. भीतर तक भेदती यादें! मैं अपनी जगह विवश और भावविद्ध, ठिठका हुआ-सा.
कुछ समय बाद युवा सहयात्री संजीव ठाकुर ने फिर से जोश दिलाया, "क्या मुश्किल है, मैं साथ हूं न!" और सचमुच उसी का उत्साह रंग लाया. यों लोकयात्री देवेंद्र सत्यार्थी की यादों के काफिले खुद चलकर पाठकों तक आ सके.
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सत्यार्थी जी के ज्यादातर संस्मरण 'एक युग : एक प्रतीक', 'रेखाएं बोल उठीं', 'क्या गोरी क्या सांवरी' तथा 'कला के हस्ताक्षर' पुस्तकों में शामिल हैं. लेकिन मजे की बात यह है कि ये खाली संस्मरणों की ही किताबें नहीं हैं. इनमें संस्मरणों के अलावा रेखाचित्र, यात्रा-वृत्तांत तथा निबंध भी हैं. सत्यार्थी जी को बहुत ज्यादा सीमाओं में बंधकर लिखना और काम करना पसंद नहीं है. यह इसी बात से पता चल जाता है. वाल्ट ह्विटमैन की तरह वे बहुत-कुछ भावावेगी और स्वच्छंद मिजाज के हैं और जरूरत से ज्यादा कठोर अनुशासन की दीवारों में उनका दम घुटने लगता है. शायद इसी का परिणाम यह है कि उनके ये संस्मरण कहीं रेखाचित्र, कहीं निबंध और कहीं यात्रा-वृत्तांत से इस कदर सटकर चलते हैं कि कई बार तो उन्हें अलगाना तक मुश्किल हो जाता है.
सत्यार्थी जी से इस बारे में जब-जब बात होती थी, वे विधाओं की शुद्धता के सवाल पर खूब हंसते थे. कभी-कभी व्यंग्य की तीखी मुसकराहट के साथ कहते थे, "भई, मैं तो ऐसा शुद्धतावादी नहीं हूं!"
अपनी पुस्तक 'एक युग: एक प्रतीक' की भूमिका में भी सत्यार्थी जी ने बड़े मनमौजी अंदाज में ऐसे शुद्धतावादियों को जवाब दिया है, "किसी एक शैली में बंध जाना मुझे कभी रुचिकर नहीं हुआ. मैं एक सब्जी को दूसरी में मिलाकर खाने का शौकीन हूं और जहां तक दही का संबंध है, इसे मैं हर सब्जी में मिलाकर खाने का समर्थक हूं. अत: यदि मैंने निबंध को रेखाचित्र में मिला दिया, तो इसमें भी मुझे अपराधी न ठहराया जाए."
एक और मजे की बात यह है कि 'एक युग: एक प्रतीक' तथा 'कला के हस्ताक्षर' में ही लेखकों और युग-निर्माताओं के बारे में सत्यार्थी जी के सर्वाधिक संस्मरण मिलते हैं, जबकि सत्यार्थी जी दोनों ही जगह इन्हें संस्मरण न कहकर 'रेखाचित्र' कहते हैं. 'कला के हस्ताक्षर' की तो भूमिका ही 'ये रेखाचित्र' शीर्षक से है. लेकिन सत्यार्थी जी जिन्हें रेखाचित्र कहते हैं, वे अपनी मूल प्रकृति में संस्मरण ही हैं जिनमें एक घुमक्कड़ लोकयात्री के रूप में तरह-तरह के लोगों- लेखकों, कलाकारों, राजपुरुषों, समाजकर्मियों और तमाम मामूली लोगों की यादें और प्रभाव-छायाएं समाई हुई हैं. लिहाजा निबंध, यात्रा-वृत्त और कहीं-कहीं रेखाचित्र से घुले-मिले होने के बावजूद ये बुनियादी रूप से संस्मरण ही हैं, इसमें दो राय नहीं हो सकतीं.
यही बात 'कला के हस्ताक्षर' की भूमिका में उभरकर आती है, जहां सत्यार्थी जी बड़े अनोखे अंदाज में अपनी घुमक्कड़-वृत्ति की तुलना मधुमक्खी के 'मधु-संचय' से करते हैं. शब्द-शब्द में यहां सत्यार्थी जी की सादगी झलकती नजर आती है-
"मधुमक्खी को फूलों पर बैठते और मधु-संचय करते देखकर मुझे हमेशा यह ध्यान आता है कि एक लेखक भी अपनी कला के लिए इसी प्रकार मधु जुटा सका है. मेरा यही दृष्टिकोण मुझे समय-समय पर अनेक व्यक्तियों के निकट ले गया जो अपनी साधना में लगे हुए थे और जिन्होंने किसी प्रकार मेरा ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था. मैं उनसे मिला, उनकी बातें सुनीं, उनका काम देखा, व्यक्तित्व की रेखाएं उभरीं. मैंने हमेशा कुछ न कुछ प्राप्त किया."
'क्या गोरी क्या सांवरी' पुस्तक का नाम ही नहीं, उसमें शामिल स्मृति-चित्र भी कुछ अलग भंगिमा लिए हुए हैं. इस पुस्तक की भूमिका में अपने भावावेगपूर्ण अंदाज में सत्यार्थी जी कहते हैं-
"किसी नए व्यक्ति से मिलकर मुझे उतनी ही खुशी होती है जो किसी को नया देश देखकर होती है. चलते-चलते मैंने यह अनेक बार अनुभव किया है कि मेरे पैरों के नीचे की धरती मुझसे बोल रही है." सत्यार्थी जी ने माना है कि वर्षों की घुमक्कड़ी के कारण खानाबदोशी उनका स्वभाव बन गया है. और इसीलिए जगह-जगह भटकने और लोगों से मिलने का जैसे उन्हें चस्का है, "लिखने में बिल्कुल मन न लगे, तो मैं कैमरा उठाकर फोटो लेने के लिए चल पड़ता हूं. पढ़ने में मन न लगे तो किसी नए-पुराने दोस्त से मिलने के लिए चल पड़ता हूं. कोई ढंग का दोस्त भी न मिले तो लोगों की भीड़ में चक्कर लगा लेता हूं. नए चेहरे देखने का मुझे खब्त है."
जाहिर है, सत्यार्थी जी की लोकयात्राओं और जगह-जगह जाकर लोगों से मिलने के खब्त ने ही इन संस्मरणों को जन्म दिया है, जिनमें सत्यार्थी जी का हृदय बहा आता है और जिनमें लीक से हटकर इस दुनिया की बेहतरी के लिए कुछ सोचने, कुछ करने वाले लोगों के लिए उनके हृदय का आदर बार-बार छलक पड़ता है.
'यादों के काफिले' संचयन में सत्यार्थी जी के ये चुनिंदा संस्मरण पहली बार एक जिल्द में सामने आए हैं. इनमें महात्मा गांधी और गुरुदेव टैगोर को लेकर सत्यार्थी जी के अंतरंग संस्मरण तो हैं ही, ठक्कर बापा, के.एम. मुंशी, प्रेमचंद, पाब्लो नेरूदा, राहुल सांस्कृत्यायन, रामानंद चटर्जी, बनारसीदास चतुर्वेदी, मुल्कराज आनंद, अमृता प्रीतम, बलराज साहनी, अज्ञेय और बलवंत सिंह पर सत्यार्थी जी के लाजवाब संस्मरण भी शामिल हैं.
चित्रकारों में अवनींद्रनाथ ठाकुर, नंदलाल बसु और यामिनी राय ने उनका ध्यान आकृष्ट किया, तो संगीतकारों में शचिन देव बर्मन की बड़ी अनूठी, अंतरंग छवियां उन्होंने संजोईं. जो लोग शचिन देव बर्मन को सिर्फ एक फिल्मी संगीतकार समझते हैं वे इस संस्मरण को पढ़ लें तो उनकी आंखें खुल जाएंगी. उन्हें लगेगा कि वे पहली बार संगीतकार शचिन देव बर्मन की उस 'आत्मा' को देख पा रहे हैं जो परंपराओं के स्पर्श से मानो दीप्त और आलोकित हो उठी है.
लेकिन ऐसा नहीं कि मामूली लोगों को सत्यार्थी जी ने एकदम भुला ही दिया हो. 'एक नीग्रो सैनिक से भेंट' पढ़कर पता चलता है कि कैसे वे बातों-बातों में उस नीग्रो सैनिक का हृदय पढ़ लेते हैं और अमरीका में काले लोगों की दुख और अपमानपूर्ण जिंदगी से हमें गहरे जोड़ देते हैं. ठीक यही अहसास 'नावागई के हुजरे' में पठान लोगों के गीत-उल्लास के बीच उन्हें रमते देखकर मन में पैदा होता है. 'जोग प्रपात' में वे प्रकृति के छंदों के अकूत सौंदर्य को समेटते नजर आते हैं और काका कालेलकर की यादों के जरिए जोग प्रपात के कुछ अमिट बिंब हमारे मन में अंकित कर देते हैं.
यह सत्यार्थी जी की भीतरी ऊष्मा का ताप ही है कि प्रकृति भी किसी लोकगीत की हंसती-नाचती तथा सौंदर्याभिरुचि संपन्न छबीली नायिका की तरह हमारे सामने उपस्थित हो जाती है. यहां गद्य में भी जैसे सत्यार्थी जी की कविता बही चली आती है. और उनके लोकप्रवाही गद्य का एक-एक शब्द जैसे जीवंत हो उठता है!
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सत्यार्थी जी अपने संस्मरणों में ज्यादातर विस्तार में नहीं जाते और चाहे जो भी उनका नायक हो, कुछ गिनी-चुनी रेखाओं में ही उसके स्वभाव और व्यक्तित्व की अंतरंग रेखाओं को उभारने का गुर उनसे सीखा जा सकता है. एक और खास बात यह है कि अपने संस्मरणों में वे जबरन खुद को थोपने की कोशिश नहीं करते और न ही कुछ असाधारण बटोरने के चक्कर में जीवन की सीधी-सादी, छोटी-छोटी बातों की उपेक्षा करते हैं. इसके बजाय उनकी कोशिश बगैर ज्यादा शब्दों का अपव्यय किए, कुछ छोटी-छोटी मामूली बातों से ही सामने उपस्थित व्यक्ति का एक यादगार बिंब गढ़ देने की होती है.
हालांकि सत्यार्थी जी के सभी संस्मरण तासीर में एक जैसे हरगिज नहीं हैं. सत्यार्थी जी के शब्दों में उनके नायक का कैसा चित्र उभरेगा, यह अकसर उस दूरी पर निर्भर करता है जहां से खड़े होकर वे उसे देख रहे हैं. मसलन महात्मा गांधी, गुरुदेव टैगोर, अवनींद्रनाथ ठाकुर, भाई वीरसिंह, वल्लातोल और ठक्कर बापा के संस्मरणों में एक सम्मानजनक दूरी है और लगता है, वे बहुत संभल-संभलकर बड़े आदर से एक-एक रेखा को छूकर उसे शब्दों में ढाल रहे हैं. जाहिर है, यहां छूट की गुंजाइश बिल्कुल नहीं है, या है भी तो बहुत कम. तो भी सत्यार्थी जी गुरुदेव टैगोर के अंग्रेज मित्र के साथ उनका फोटो लेने के चक्कर में हलकी-सी शरारत कर ही जाते हैं.
या फिर उन्हें उनकी पसंद का संथाल कन्या का फोटो भेंट करते समय उनकी सौंदर्याभिरुचि की एक हलकी-सी चंचल छवि उकेर देते हैं.
"उन्हें देखकर मुझे कई बार अनुभव हुआ कि एक साथ हिमालय और गंगा का चित्र सजीव हो उठा है, एक मुक्तवाक् युगपुरुष अंगुली उठा-उठाकर हमें यह चित्र दिखाए जाता है, जैसे पद्मा का पानी सजग हो उठा हो, जैसे युग-युग की भाषा बोल उठी हो, जैसे अतीत और आगत एक सूत्र में पिरो दिए गए हों."
गुरुदेव टैगोर से भिन्न साहित्यिक अभिरुचियों वाले लोग भी उन दिनों बंगाल में थे. पर गुरुदेव की महानता सभी स्वीकार करते थे. साहित्य के हिमालय के रूप में दूर-दूर तक उनकी कीर्ति थी, और बंगाल के लोगों को इस पर गर्व था. सत्यार्थी जी उस दौर की स्मृतियों को उकेरते हुए लिखते हैं-
"गुरुदेव के जीवन काल में ही बंगला साहित्य में दूसरे युग की गतिविधि प्रारंभ हो गई थी. काजी नजरुल ने काव्य क्षेत्र में और शरतचंद ने उपन्यास जगत में गुरुदेव से भिन्न प्रकार की सृजन शक्ति का परिचय दिया. गुरुदेव की महानता यहां भी पीछे-पीछे नहीं रही. उन्होंने स्वयं अपनी रचना में अपने ऊपर व्यंग्य कसने में संकोच नहीं किया. वे नए युग को आता देख रहे थे."
इसी तरह गांधी जी पर लिखे गए संस्मरण में सत्यार्थी जी कुछ ही शब्दों में उनकी महत्ता का पूरा चित्र आंखों के आगे उपस्थित कर देते हैं. जन-जन के हृदय में गांधी जी के सीधे-सरल व्यक्तित्व की गहरी छाप थी. इसलिए जो वे कहते थे, उसे लोग कानों के कान खोलकर सुनते थे. और जो वे नहीं कहते थे, उसे उनका मौन कह देता था, जिसका प्रभाव शब्दों से भी कहीं गहरा था-
"बापू की लेखनी की देश-देश में धाक बंध चुकी है. उनकी वाणी का भी कुछ कम प्रभाव नहीं पड़ता. परंतु उनका मौन लेखनी और वाणी से कहीं बढ़कर है. श्री सीतारमैया की यह बात कि बापू की दृष्टि एक्सरे की भांति आपके हृदय तक पहुंच जाती है, सोलह आने ठीक है. उनकी मुसकान का भी सीधा प्रभाव पड़ता है. वे घुमाकर बात नहीं करते. उनकी फैलती-सिमटती आंखें आपको नवजगत का स्वर दिखाने लगती हैं. लाखों की भीड़ में जब बापू की अंगुली उठ जाती है तो भयंकर कोलाहल नीरवता के आंचल में सिमट जाता है. उनकी एक ही व्यंग्योक्ति बड़ों-बड़ों के दिल-दिमाग हिलाकर रख देती है, क्योंकि कोई आसानी से उनकी निगाह से बच नहीं सकता."
ऐसे ही महात्मा गांधी के 'महात्मापन' को अपने संस्मरण में उभारते हुए, वे उनके विनोदी स्वभाव की कुछ अनूठी झलकियां पेश करना भी नहीं भूलते.
गांधी जी की मृत्यु के महाशोक के समय उन्हें वह तांगेवाला भी याद आता है, जो कहा करता था, "जब कभी शाम के समय कोई मुझे बिरला हाउस जाने के लिए कहता है, तो मैं भाड़ा ठहराए बिना चल पड़ता हूं. क्योंकि इस बहाने मुझे गांधी जी की प्रार्थना-सभा का रस मिल जाता है."
इसी तरह कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी पर लिखते हुए, वे उनके आतिथ्य-प्रेम की चर्चा करना नहीं भूलते. एक बार सत्यार्थी जी मुंबई स्थित (तब बंबई) मुंशी जी के आवास पर कोई महीना भर रुके थे. और इसकी व्यवस्था स्वयं गांधी जी ने की थी. हुआ यह कि कांग्रेस के फैजपुर अधिवेशन में गांधी जी ने सत्यार्थी के लोक साहित्य संबंधी काम को देखते हुए, उन्हें विशेष रूप से बुलाया था. बाद में अधिवेशन की समाप्ति पर गांधी जी ने उनसे विदा लेते हुए बताया कि लोकगीतों वाले अपने काम के लिहाज से वे अब मुंबई जाएंगे, तो गांधी जी को फिक्र हुई कि वे भला मुंबई में रहेंगे कहां. उन्होंने उसी समय केएम मुंशी को बुलाकर कहा, 'यह दाढ़ी वाला मुंबई जा रहा है. इसे अपने निवास स्थान पर उसी कमरे में ठहराना, जो तुमने खास तौर से मेरे लिए रिजर्व्ड रखा हुआ है.'
मुंशी जी ने बड़े प्रेम और आदर से उन्हें रखा और सत्यार्थी जी यह बात कभी भूल नहीं पाए.
इसी तरह गांधी जी की प्रेरणा से पूरे समर्पण भाव के साथ आदिवासियों और दलित जातियों के उत्थान के लिए अहर्निश काम कर रहे ठक्कर बापा पर लिखा गया सत्यार्थी जी का संस्मरण बिल्कुल अलग किस्म का है, जिसमें ठक्कर बापा के खुरदरे व्यक्तित्व की सीधी-सहज और निर्मल रेखाएं एकदम साफ नजर आती हैं.
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लेखकों, कलाकारों से मिलते समय, जाहिर है, सत्यार्थी जी को कुछ ज्यादा छूट मिल जाती है. यहां तक कि प्रेमचंद पर लिखते हुए वे कहकहा लगाकर बड़ी से बड़ी चिंताओं को एक और रख देने के उनके मुक्त स्वभाव को नहीं भूलते. राहुल सांकृत्यायन के संस्मरण में बार-बार नागार्जुन से सुनी बातें एक बिंब के रूप में सामने आती हैं और यह संस्मरण एक साथ राहुल और नागार्जुन दोनों का मिला-जुला संस्मरण बन गया है.
महादेवी वर्मा की गुरु गंभीरता का चित्र है तो उनकी उस 'चौंकाने वाली हंसी' का भी, जो मानो आखिरर तक सत्यार्थी जी के भीतर कहीं अटकी रही और वे इस पहेली को सुलझा नहीं पा रहे थे. शचिन देव बर्मन का होटल में अकेले बैठे-बैठे ताश खेलने का प्रसंग वाकई दिलचस्प है. मगर यही व्यक्ति जब संगीत-निर्देशक के रूप में अपनी जगह खड़ा होता है तो जैसे उसका समूचा व्यक्तित्व ही बदल जाता है. शचिन देव बर्मन के संस्मरण में वह प्रसंग भी लाजवाब है जब वे किसी गांव में जाते हैं और वहां के अनपढ़ और सीधे-सादे लोगों को एक अनोखी लय में 'अल्ला मेघ दे, पानी दे...!' गाते हुए सुनते हैं और बस, उसी दिन से जैसे उनके जीवन का दर्शन ही बदल गया. उन जैसे शास्त्रीय संगीतकार ने मानो लोक संगीत के आगे हार मान ली. कुछ-कुछ इसी ढंग का कल्पांतर पाश्चात्य रंग-ढंग में ढले यामिनी राय का हुआ और पाश्चात्य कला को तिलांजलि देकर आखिर उन्होंने लोककला में ही अपनी कला का चरम उत्कर्ष खोज लिया.
नंदलाल बसु का बड़ा गंभीर चित्र सत्यार्थी जी के संस्मरण से उभरता है. लेकिन इस गंभीर चित्रकार का हृदय कितना आर्द्र था, अपने शिष्यों को कुछ देने की तड़प उसमें कितनी अधिक थी तथा उनकी सौंदर्यानुभूति कैसे उनके जीवन से सटकर चलती थी, इस संस्मरण में ऐसी बहुत झलकियां मिल जाएंगी. और उनके कलाकार की यह एक अजीब-सी झक भी कि जब उनकी कुछ शिष्याएं जरूरत से कुछ बड़ी बिंदी लगाकार कक्षा में आने लगीं तो उन्होंने टोका कि आखिर माथे की बिंदी आंखों की पुतली से तो हरगिज बड़ी नहीं होनी चाहिए! परिहास कितना बारीक हो सकता है और उसे सहेजने वाली दृष्टि कैसी होनी चाहिए, यह सत्यार्थी जी के निकट रहकर खुद-ब-खुद सीखा जा सकता था.
सत्यार्थी जी के संस्मरणों का असली रंग बलराज साहनी, बलवंतसिंह और मुल्कराज आनंद के संस्मरणों में है, जहां संस्मरणकार के रूप में वे अपने पूरे रंग और मस्ती में नजर आते हैं. बलराज साहनी सत्यार्थी जी के अभिन्न मित्रों में से थे और उनकी अनेक लोकयात्राओं में उनके हमसफर भी बने. सत्यार्थी जी ने बलराज साहनी का वह रूप भी देखा था, जब अंग्रेजी से ताजा एम.ए. कर लेने के बाद वे लेखक बनने के लिए हाथ-पैर मार रहे थे. 'विशाल भारत' से वापस लौटी उनकी कहानी 'शहजादों का ड्रिंक' को सत्यार्थी जी ने ही 'सुबह का एक प्याला चाय पी लेने के बाद इसे फिर से एक बार पढ़ जाने' के अनुरोध के साथ बनारसीदास चतुर्वेदी को भिजवाया था. और यह कहानी छपकर खासी चर्चित हुई थी. बलराज साहनी इसके लिए सत्यार्थी जी के कृतज्ञ थे.
एक अभिनेता के रूप में बलराज साहनी के कड़े संघर्ष, दीवानगी तथा उनकी भीतरी कसक का भी सत्यार्थी जी ने बड़ी अनौपचारिक रेखाओं में चित्रण किया है. वे प्रसंग तो खैर खासे रोचक हैं ही, जब बलराज साहनी और उनकी पत्नी दमयंती सत्यार्थी जी की लोकयात्राओं के बारे में सुन-सुनकर हैरत में पड़ जाते हैं और बलराज साहनी के मुंह से बार-बार निकलता है-
"दम्मो, इस आदमी ने घाट-घाट का पानी पिया है. हमें भी जिंदगी बंधकर नहीं गुजारनी चाहिए."
यही अनौपचारिकता मुल्कराज आनंद से सत्यार्थी जी की शांतिनिकेतन के सातई पौष के मेले में हुई. इस मुलाकात में मुल्कराज आनंद एक छोटे, शरारती बच्चे की तरह एक छोटा-सा लकड़ी का रेढ़ा खड़खड़ाते हुए आगे बढ़ते जा रहे हैं और सत्यार्थी जी उनकी दीवानगी पर कभी रीझते, कभी खीजते हैं. इस संस्मरण में मुल्कराज आनंद के क्रोध और प्यार की तमाम अनछुई लकीरें हैं और खुद सत्यार्थी जी की शख्सियत के छिपे हुए रंग पता चलते हैं.
अमृता प्रीतम के संस्मरण में हलकी-सी रोमानियत और सत्यार्थी जी के छिपे हुए लगाव की बात भी पता चलती है और यह अमृता प्रीतम से हुई सत्यार्थी जी की पहली मुलाकात के इस पहले वाक्य से ही खुल जाती है कि "अरे, आप तो अपनी फोटो से भी ज्यादा सुंदर हैं!" हालांकि अमृता प्रीतम के कवि रूप और खासकर उनकी शाहकार कविता 'अज आक्खाँ वारस शाह नूँ' को भी सत्यार्थी बार-बार खुले दिल से 'ट्रिब्यूट' देने से नहीं चूकते.
लेकिन सत्यार्थी जी की कला का एक अनोखा अंदाज बलवंत सिंह वाले संस्मरण में है, जिसमें सत्यार्थी जी अपने पूरे रंग में हैं और वे बलवंत सिंह को ठीक बलवंत सिंह वाले अंदाज में पेश करने के लिए, जैसा उन्होंने देखा-इतने शरारती वार करते हैं कि ताज्जुब होता है. सच तो यह है कि बलवंत सिंह वाला संस्मरण एक चुलबुली कहानी का-सा रस भी देता है.
सत्यार्थी जी के 'यादों के काफिले' में एक संस्मरण ऐसा है जिसमें नायक सामने उपस्थित नहीं है, लेकिन फिर भी वही सबसे ज्यादा उपस्थित लगता है. यह संस्मरण है, 'यदि मेघाणी जी मिले होते' और यह गुजराती लोकगीत संग्रहकर्ता झबेरचंद मेघाणी पर लिखा गया है. सत्यार्थी जी के संस्मरणों में यह एकदम अलग है और रामू भाई और गुलबदन की वजह से बेहद जीवंत हो उठा है.
मेघाणी जी की इतनी आत्मीय और आदमकद छवि इस संस्मरण में नजर आती है कि उनसे मिल लेने के सुख के साथ-साथ उनके रचना-संसार और लोक साहित्य में उनके व्यापक योगदान की भी एक झलक हम पा लेते हैं.
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बेशक सत्यार्थी जी के सभी संस्मरण कला के लिहाज से 'संपूर्ण' नही हैं. कुछ ऐसे भी हैं जैसे तात्कालिकता के दबाव में लिख दिए गए हों. तो भी इससे उनका ऐतिहासिक महत्त्व कम नहीं होता. और फिर इस लिहाज से तो वे लाजवाब हैं ही कि सत्यार्थी जी बात की बात में यहां भी सामने उपस्थित व्यक्तित्व की केंद्रीय रेखाएं पकड़कर आंखों के आगे रख देते हैं और उन पर कोई चाहे तो एक भव्य प्रासाद खड़ा कर सकता है.
दिलचस्प बात यह है कि कभी-कभी यायावर सत्यार्थी के लेखक में उनका 'पत्रकार' भी आ मिलता है और तब उनकी चुस्ती-फुर्ती कुछ और बढ़ जाती है. तब वे कई बार बहुत छोटे-छोटे और निरे अनावश्यक से लगते प्रसंगों के सहारे भी कुछ ऐसी भव्य निर्मिति कर डालते हैं कि उनकी लोकग्राही प्रतिभा पर ताज्जुब होने लगता है. मसलन मुल्कराज आनंद वाले संस्मरण का असली प्रभाव उभरा है आनंद की हर खासियत पर निछावर होने वाली गुजराती महिला की बातों से.
ऐसे ही जैंनेद्र कुमार पर लिखे गए संस्मरण 'दागा वई वई वई' में प्रकाशन विभाग के पूर्व उप निदेशक डॉ. श्रीकृष्ण सक्सेना की उपस्थिति गजब की है, जिनके कमरे में अकसर जैनेंद्र कुमार से सत्यार्थी जी की मुलाकातें हुआ करती थीं तथा जो जैनेंद्र को 'दागा वई वई वई' कहकर प्रेम से खिजाते थे. इस संस्मरण में 'चाबी वाले खिलौने' की चाबी की तरह एक फाइल का जिक्र आता है, जिसके बारे में जैनेंद्र बार-बार सवाल पूछते हैं, "क्या उस फाइल को दीमक चाट गई?"
इस फाइल के पीछे वाकई एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक संदर्भ छिपा है. इसलिए कि यह वह फाइल है जिसमें 'आजकल' संपादक के रूप में सत्यार्थी जी द्वारा सरकार से गुजारिश की गई थी कि हिंदी के साथ बेइंसाफी न की जाए. अगर अंग्रेजी के लेखक को एक लेख के सौ रुपए मिलते हैं तो हिंदी के लेखक को महज साठ रुपए क्यों? यह फाइल आगे बढ़ा दी गई, मगर सरकारी जंतर-मंतर में उलझकर रह गई. मजे की बात यह है कि यह फाइल जब मंजूरी के साथ वापस आई, तो सत्यार्थी जी 'आजकल' के संपादक पद से मुक्त हो चुके थे.
इस संस्मरण में सत्यार्थी जी और जैंनेद्र कुमार उर्फ आनंदीलाल के बीच की छेड़छाड़ की तमाम रेखाएं हैं. एकाध रेखा गोपीनाथ अमन की ओर बढ़कर 'आनंदीलाल उर्फ शतरंज के खिलाड़ी' में बदल जाती है. और एक बारीक-सी रेखा में सत्यार्थी जी बगैर किसी भावुकता के अपनी फटेहाली और असफलता का जिक्र कर डालते हैं. ऊपर से देखने पर हलका-फुलका अंदाज, लेकिन हाथ में लो तो हर शब्द अंगारा, "अब जैनेंद्र कुमार से मिलने के लिए उनके घर की सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं. अपनी वही आवारगी. हर बात सेकेंडहैंड, आवरकोट मैला-कुचैला, कोहनियां फटी हुईं. बीवी का सलूक तना-तना-सा. हाथ में पांडुलिपि आधी-अधूरी. हर बात पास की दूरी. दिल बेचैन हमसफर के लिए. तुमसे तो कुछ भी छिपा नहीं हमदम!....अब कोई शिकवा बाकी न रहा. कैसी टूटन, कैसा बिखराव और कैसी चिंता."
लेकिन जरा गौर कीजिए, इस हालत में भी बस, एक ही केंद्र के चारों ओर उनके विचार दौड़ रहे हैं कि "मोह छोड़ना है, ताकि पांडुलिपि महक सके.'
इस संस्मरण में जैनेंद्र के साथ-साथ डॉ सक्सेना का व्यक्तित्व भी उभरा है और खासा उभरा है. ये वही डॉ. सक्सेना हैं जो सत्यार्थी जी के मन की उथल-पुथल को गहराई तक समझाते हैं तथा एक तरह से उनके 'राजदार' है. सत्यार्थी जी के भीतर जब-जब पहले की तरह स्वच्छंद घुमक्कड़ी की इच्छा जोर पकड़ती है और वे यायावरी के लिए 'आजकल' के संपादन-दायित्व से मुक्त होने की बात करते हैं, डॉ. सक्सेना बार-बार उन्हें समझाते हैं, "अरे भई, कहीं सचमुच त्यागपत्र न दे बैठना!"
इसी तरह पाब्लो नेरूदा वाले संस्मरण में पाब्लो नेरूदा ही नहीं, जोश साहब के जिंदादिली से भरपूर व्यक्तित्व की भी बड़ी ही आत्मीय स्मृतियां समाई हुई हैं. इसे पढ़कर आपको लगेगा, आफ वाकई पाब्लो और जोश साहब से मुखातिब हैं, और पूरी कशिश के साथ उनसे मिल रहे हैं.
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यही अनौपचारिकता सत्यार्थी जी के संस्मरणों की खासियत है. कई बार लगता है, कहीं वे राह से भटक तो नहीं गए. और कुछ संस्मरण शुरू में बिखरे-बिखरे भी लग सकते हैं. लेकिन संस्मरण पूरा होते ही उसमें ऐसी गजब की प्रभावान्विति और भाव-दीप्ति नजर आने लगती है कि सारे इतर प्रसंग जैसे किसी बारीक धागे में पिरो दिए गए हों. वह धागा नजर नहीं आता, लेकिन शुरू से आखिर तक उसकी उपस्थिति महसूस जरूर होती है.
सत्यार्थी जी ने 'यात्री के संस्मरण' शीर्षक संस्मरण में अपने भीतर पालथी मारकर बैठे एक भावुक यात्री की सोच का थोड़ा खुलासा किया है. वे बताते हैं कि, "यात्रा से रक्त में नवीन जीवन तो आता ही है, प्राणों में एक नई स्फूर्ति भी आती है. यात्री के सम्मुख धरती अपना मुख खोल देती है."
इसीलिए उनका प्रेरणा-वाक्य है, "यह यात्रा थमने न पाए!"
वे इस यात्रा में मिलने वाले मामूली से मामूली लोगों और उनकी बातों को दिल में मणियों की तरह संजोकर रखते हैं. सब पर चाहे अलग-अलग उन्होंने नहीं लिखा, लेकिन इन संस्मरणों में बीच-बीच में अपनी गरमजोशी और ऊष्मिल झलक दिखा जाने वाले व्यक्तित्व तमाम हैं. एकदम मामूली लोगों से लेकर असाधारण और बहुचर्चित शख्सियतों तक.
'यात्री के संस्मरण' में सुप्रसिद्ध अभिनेता और अंग्रेजी कवि हरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय का जिक्र है जो दिल्ली में रेडियो स्टेशन के पास मिले, तो कार रोककर उन्होंने सत्यार्थी जी को बांहों में भींच लिया, तो दूसरी ओर विलियम जी. आर्चर की गरमजोशी और जिंदादिली को भी वे नहीं भूले. उनकी दिल की डायरी में अंकित प्रसिद्ध चित्रकार देवीप्रसाद रायचौधुरी का यह चंचल, चुलबुला चित्र भी गजब का है-
"प्रसिद्ध चित्रकार देवीप्रसाद रायचौधुरी उमर खैयाम के रंग में बैठे थे. यह आर्ट स्कूल की प्रदर्शिनी का अंतिम दिन था. प्रदर्शिनी के समय के अंतिम दो घंटे शेष रह गए थे. मुझे देखते ही उन्होंने शांतिनिकेतन पर व्यंग्य कसने शुरू किए. यह उनकी आदत है. इतने में कुछ महिलाओं ने प्रवेश किया- चित्रकार ने उन्हें कनखियों से देखा और मुझसे कहा, 'घुमक्कड़ महोदय, तनिक उधर घूम जाओ. आखिर मैं कब तक इस घनी दाढ़ी पर जी सकता हूं. उस सुंदर दृश्य से यह दाढ़ी मुझे वंचित क्यों रखे!"'
सत्यार्थी जी का एक अलग-सा संस्मरण अज्ञेय के बारे में भी है. इस संस्मरण की पृष्ठभूमि यह है कि सत्यार्थी जी ने अज्ञेय पर एक कहानी लिखी थी 'लीलाभूमि', जिसे पढ़कर अज्ञेय कुछ खिंच-से गए. उसी नाराजगी को दूर करने के लिए सत्यार्थी जी अपनी पत्नी शांति सत्यार्थी और नन्ही बेटी अलका के साथ उन्हें अपने घर आमंत्रित करने के लिए पहुंचे.
इस संस्मरण की खासियत यह है कि इस पूरी मुलाकात में मेजबान अज्ञेय के मुंह से मुश्किल से पांच या सात वाक्य निकले होंगे. वे सिर्फ मुसकराते हैं और पूरे संस्मरण में उनका मौन तना रहता है.
यह दो भिन्न जमीनों के लेखकों की मुलाकात है, जिनमें एक खुले जीवन से आया हुआ है और दूसरे का अहं एक रूखी-सूखी, बौद्धिक, नखरीली दुनिया का अहं है. सत्यार्थी जी अपने अपमान की पीड़ा को शब्दों में ढालने से गुरेज करते हैं और उसे चुपचाप तहाकर रख लेते हैं. लेकिन कोई संवेदनशील पाठक चाहे तो उसे आसानी से महसूस भी कर सकता है.
जो भी हो, यादों के लंबे काफिले की शक्ल में ढले सत्यार्थी जी के ये संस्मरण उन्हें एकदम नए सिरे से, बल्कि कहना चाहिए-भीतर से जानने के लिए जरूरी साक्ष्य उपस्थित करते हैं, इसमें शक नहीं. इतना ही नहीं, ये हमारे जाने हुए साहित्यिक व्यक्तित्वों और साहित्य के इतिहास को नए सिरे से जानने-परखने के लिए भी जमीन तैयार करते हैं.
दुर्भाग्य से बहुत-से संस्मरण सत्यार्थी जी से कई बार सुने होने के बावजूद अब उपलब्ध नहीं हो सके. इनमें बेदी, मंटो और अश्क के संस्मरण तो बेहद महत्त्वपूर्ण और मार्मिक हैं. अब जबकि सत्यार्थी जी नहीं हैं, उनकी खोज-खबर आसान नहीं. लेकिन अगर ये स्मृति-चित्र मिल सकें, तो यकीनन सत्यार्थी जी के साथ-साथ साहित्य की इन प्रमुख शख्सियतों को जानने-समझने की एक नई दृष्टि हमें मिलेगी.
अलबत्ता सत्यार्थी जी की यादों के काफिले के साथ हो लेना साहित्य की चिर नूतन, निर्मल और प्रांजल भावधारा में डुबकी लगा लेने सरीखा है. और यह सुख भी अपने आप में कुछ कम नहीं है.
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