राष्ट्रवादी लेखकों की कड़ी में गणेश शंकर विद्यार्थी, माखन लाल चतुर्वेदी, सुभद्रा कुमारी चौहान, सोहनलाल द्विवेदी व बालकृष्ण शर्मा नवीन का नाम लिया जाता रहा है. इनमें रामधारी सिंह दिनकर एक अग्रगण्य कवि थे. उन्होंने सत्ता से जुड़ कर और नेहरू के निकट होकर भी अवसर आने पर सत्ता को चुनौती देने वाली कविताएं लिखीं. वे एक तरफ 'रसवंती' जैसी सरस स्नेहिल कविताओं और 'उर्वशी' की श्रृंगारिक सघनता के कवि थे तो दूसरी तरफ 'कुरुक्षेत्र' व 'रश्मिरथी' जैसे ओजरस से भरे काव्य के प्रणेता भी. उनकी जयंती पर उनकी प्रासंगिकता पर विचार कर रहे हैं कवि, समालोचक डॉ ओम निश्चल
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आजादी के संग्राम के दौर के साहित्य पर नज़र डालें तो जहां एक ओर साम्राज्यवादी ताकतों और पूंजीवादी शक्तियों से लोहा लेने वाले कवि हमारे बीच रहे हैं वहीं देशवासियों में देशभक्ति का जज़्बा जगाने वाले कवियों की कमी भी नहीं रही. इन दिनों जब राष्ट्रवाद सबसे ज्यादा बहस में हो, रामधारी सिंह दिनकर जैसी कवि-प्रतिभा बरबस याद आती है. इसलिए नहीं कि आज उनका जन्मदिन है बल्कि इसलिए भी कि ऐसे कवि बार-बार पैदा नहीं होते. ऐसे कवियों के अवतरण से पूरी माटी सुगंधित हो जाती है.
दिनकर ने युद्ध काव्य रचे और श्रृंगार से ओतप्रोत 'उर्वशी' भी. यह एक तरह से उनके ही भीतर विरुद्धों का सामंजस्य है कि वे जितने अच्छे कवि थे- महाकाव्यात्मक प्रतिभा के पर्याय, उतने ही आवेगी और चिंतनपूर्ण गद्य के सर्जक भी. भारत की सांस्कृतिक ज़मीन को समझने के लिए उनकी पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्याय' एक विलक्षण कृति है तो रश्मिरथी, उर्वशी, कुरुक्षेत्र, परशुराम की प्रतीक्षा उनके काव्य की अप्रतिम कसौटियां हैं.
दिनकर का आलम यह कि उन जैसे ओज और उदात्त के कवि के अंत:करण में गांधी के लिए भी एक अहम स्थान था. आजादी के पहले जून, 1947 में दिनकर ने 'बापू' नामक काव्य की रचना की थी. चार विशिष्ट कविताओं के इस संग्रह में गांधी के प्रति उनकी संवेदना निम्न पदों से प्रकट है-
बापू जो हारे, हारेगा जगती तल पर सौभाग्य क्षेम
बापू जो हारे, हारेंगे श्रद्धा मैत्री विश्वास प्रेम.
बापू मैं तेरा समयुगीन, है बात बड़ी, पर कहने दे
लघुता को भूल तनिक गरिमा के महासिंधु में बहने दे
यही नहीं, इस रचना के छह महीने बाद ही गांधी की जब हत्या हो गयी तो शोक और पश्चाताप में भर कर दिनकर ने पुन: लिखा था-
लौटो, छूने दो एक बार फिर अपना चरण अभयकारी
रोने दो पकड़ वही छाती जिसमें हमने गोली मारी
यह थी राष्ट्रपिता के प्रति एक राष्ट्रकवि की करुण काव्य रचना. गांधी से अहिंसा के मामले में असहमत होते हुए भी दिनकर गांधी के व्यक्तित्व से प्रभावित थे और राष्ट्र के निर्माण में राष्ट्रभाषा, राष्ट्रपिता की क्या भूमिका होती है इस बात से पूरी तरह अवगत थे.
गांधी की 150वीं वर्षगांठ पर अभी हाल ही में देश ने उन्हें याद किया है. गांधी ने केवल राजनीति को नहीं, साहित्य, धर्म, कला व संगीत को भी दूर तक प्रभावित किया है. यही वजह है कि अंत तक आकर दिनकर जैसा क्रांतिकारी व्यक्ति गांधीवादी विचारों का समर्थक हो चला था. दिनकर जी मानते थे कि कविता और युद्ध का संबंध कविता और राष्ट्रीयता के संबंध जैसा है. पर वे यह भी कहा करते थे कि युद्ध का असली वक्तव्य वह है जिसे नीरवता में केवल हमारी आत्मा सुना करती है. दिनकर के मन में अपने विराट कवि व्यक्तित्व के बावजूद कहीं न कहीं मैथिलीशरण गुप्त, पंत व प्रसाद जैसे कवियों का यश प्राप्त करने की अभीप्सा रही है. आलोचकों ने दिनकर को प्राय: वीर रस के कवि के रूप में रिडयूस कर देखा. हालांकि उनके काव्य के दो छोर हैं और दोनों अपनी अपनी तरह महत्त्वपूर्ण. एक तरफ वे युद्ध काव्य रश्मिरथी, हुंकार, कुरुक्षेत्र, व परशुराम की प्रतीक्षा के कवि हैं तो दूसरी तरफ रसवंती व उर्वशी के ख्यात कवि. उन्होंने कहीं अपनी डायरी में लिखा भी कि 'मेरे प्राण तो रसवंती में बसते हैं हालांकि लोग मुझे ओज व वीर रस का कवि ही मानते आए हैं.'
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दिनकर ने मनवाया अपने गद्य का लोहा
दिनकर ने जितना प्रभूत काव्य लिखा उससे कम उनके गद्य का परिमाण नहीं है. 'मिट्टी की ओर', 'संस्कृति के चार अध्याय', 'काव्य की भूमिका', 'भारत की सांस्कृतिक कहानी' एवं 'शुद्ध कविता की खोज' लिख कर उन्होंने अपने गद्य का लोहा मनवाया. उनका उद्भव ओज के कवि के रुप में हुआ तथा छात्र जीवन में ही वे अमिताभ उपनाम से कविताएं लिखने लगे थे; यानी अपने को कविता के सूर्य के रूप में देखने का स्वप्न तभी से दिनकर ने देखना शुरू कर दिया था. अचरज नहीं कि उनके इन्हीं गुणों के कारण बिहार के ही कवि आरसीप्रसाद सिंह ने उन्हें साधना का सूर्य और शक्ति का रणतूर्य कहा और फणीश्वरनाथ रेणु ने 'अपनी ज्वाला से ज्वलित आप जो जीवन' कह कर उनके वैशिष्ट्य का स्मरण किया.
मुझे याद है, आत्मीय बैठकी में उनके काफी निकट रहे डॉ कुमार विमल उनके बारे में बताते थे कि वे जीवन भर परिवार व रोग के जंजालों में घिरे रहे. 70 के आसपास एक कल्कि नामक काव्य की योजना बनाई थी, साथ ही वे महात्मा गांधी पर एक विश्वकाव्य भी लिखना चाहते थे. पर यह संभव नहीं हो सका. बुद्ध व सीता पर भी दिनकर जी लिखना चाहते थे पर यह भी संभव न हुआ. हालांकि केवल 66 वर्षों के जीवन में तमाम व्यस्त भूमिकाएं निभाते हुए भी सैकड़ों ग्रंथ रचे और अपने काव्य को विजय संदेश की ढीली ढाली भाषा से उर्वशी की शानदार आध्यात्मिक ऊंचाई तक गए.
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राष्ट्रकवि के पद पर दिनकर
जहां गांधी को राष्ट्रपिता के रूप में मान्यता मिली, दिनकर को वैसी ही मान्यता एक राष्ट्रकवि में रूप में मिली. वे राष्ट्रीय चेतना के संवाहक थे व गांधी की तरह निर्भय. गुलाम भारत में रहते हुए राष्ट्रप्रेम की कविताएं लिखते थे और अपने युद्ध काव्य से जनता को गुलामी के बंधन को तोड़ने का आह्वान करते थे. यह निर्भयता गांधी सरीखी थी उनमें. आजादी के बाद कवियों में खासा मोहभंग का दौर चला. उधर दिनकर जो राष्ट्रप्रेम से भरे थे, 'कुरुक्षेत्र' व 'हुंकार' जैसा काव्य लिख कर अंग्रेजों को भी सावधान कर चुके थे, नेहरू के सन्निकट माने जाते थे. जनता और जवाहर जैसी प्रशस्तिमूलक कविता भी वह नेहरू पर लिख चुके थे, पर 62 के चीनी आक्रमण में सरकार के रुख से वह खासे परेशान हुए थे. चीनी आक्रमण पर क्षुब्ध होकर उन्होंने कहा था कि इस देश को और देश की जनता को उसके नेता ने धोखा दिया है और यह भी कहा कि अब रक्त स्नान से ही भारत शुद्ध हो सकता है. दिनकर में यह आक्रोश तब था जब वे कांग्रेस के टिकट पर दो बार राज्यसभा के सदस्य बन चुके थे. उन्होंने कहा:
हम मान गए जब क्रांति काल होता है
सारी लपटों का रंग लाल होता है.
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सामाजिक न्याय का काव्य: रश्मिरथी
दिनकर के काव्य की अपनी सामाजिक उपयोगिता भी स्वयंसिद्ध है. हम न भूलें कि 'रश्मिरथी' लिख कर कर्ण के प्रति उन्होंने सामाजिक न्याय की गुहार लगाई. मातृत्ववंचित कर्ण को जो स्नेह दिनकर ने दिया है वैसा स्नेह उसकी मां भी न दे सकी. वह तो केवल अपने पुत्रों अर्जुन इत्यादि के मोह से बंधी रहीं. गांधी से दिनकर की तुलना का एक छोर राष्ट्रभाषा हिंदी भी है जिसके वे कवि थे. गांधी हिंदुस्तानी के समर्थक थे तो दिनकर उस भाषा के कवि थे जो राष्ट्रभाषाओं में सबसे ज्यादा बोली जाती है. गांधी के लिए भाषा भी खादी की तरह थी. दिनकर इसी ताकतवर भाषा के कवि थे. यहां तक कि 'हारे को हरिनाम' तक आकर दिनकर भी जैसे गांधीवादी हो चले थे. उस वक्त के अनेक कवियों ने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया और जेल गए. माखन लाल चतुर्वेदी, सुभद्रा कुमारी चौहान, सोहनलाल द्विवेदी व बालकृष्ण शर्मा नवीन आदि. दिनकर यद्यपि जेल तो नहीं गए पर अपनी रचनाओं से अंत तक स्वतंत्रताकामी भारतीय मानस को झकझोरते रहे. वे अंत तक हिंदी के अधिष्ठाता भारतेन्दु हरिश्चंद्र के उस कथन के अनुगामी रहे जिसमें उन्होंने हिंदी के लिए कहा था, निज भाषा उन्नति अहै, सब भाषा को मूल.
आज जिस तरह के हालात देश में हैं, राजनीति जिस दलगत कीचड़ का पर्याय बनती जा रही है, सांप्रदायिकता जिस तरह सिर चढ़ कर बोल रही है, विश्व व्याधि कोरोना ने पूरे विश्व को चपेट में लिया है. दुनिया मनुष्यों से दूरी बनाकर चल रही है, ऐसे में दिनकर होते तो कितना दुखी होते. इस घमासान में राष्ट्रप्रेम के मनके जैसे बिखर गए हैं. मनुष्य के शाश्वत संबंधों पर प्रश्नचिह्न लगता जा रहा है. ऐसे में दिनकर की फटकार फिर सुनाई देती है:
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध.
सच तो यह है कि आज दिनकर जैसा ललकारने वाला, प्रेम से पुकारने वाला और देश के प्रति प्रेम जगाने वाला सच्चा कवि हमारे बीच नहीं है.
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डॉ ओम निश्चल हिंदी के सुधी आलोचक कवि एवं भाषाविद हैं. शब्दों से गपशप, भाषा की खादी, शब्द सक्रिय हैं, खुली हथेली और तुलसीगंध, कविता के वरिष्ठ नागरिक, कुंवर नारायण: कविता की सगुण इकाई, समकालीन हिंदी कविता: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य व कुंवर नारायण पर संपादित कृतियों 'अन्वय' एवं 'अन्विति' सहित अनेक आलोचनात्मक कृतियां प्रकाशित हैं. वे हिंदी अकादेमी के युवा कविता पुरस्कार एवं आलोचना के लिए उप्र हिंदी संस्थान के आचार्य रामचंद शुक्ल आलोचना पुरस्कार, जश्ने अदब द्वारा शाने हिंदी खिताब व कोलकाता के विचार मंच द्वारा प्रोफेसर कल्याणमल लोढ़ा साहित्य सम्मान से सम्मानित हैं. संपर्कः जी-1/506 ए, उत्तम नगर, नई दिल्ली 110059, फोनः 9810042770, मेलः dromnishchal@gmail.com