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संयोग ही है कि यदि एक लेखक दल के साथ दक्षिण अफ्रीका के डरबन, जोहान्सबर्ग और मेरित्सीबर्ग जैसे नगरों में जाना नहीं हुआ होता और वहां दक्षिण अफ्रीका की आजादी के बीस साल की उत्सवता का साक्षी बनने के साथ यदि गांधी द्वारा स्थापित प्रिंटिंग प्रेस का दिग्दर्शन नहीं हुआ होता, जिस स्टेशन पर वे प्रथम श्रेणी से दुत्कार कर उतारे गए उस स्टेशन की नीरवता में उनके अपमान के भाव को आत्मसात नहीं किया होता तो शायद दक्षिण अफ्रीका में गांधी द्वारा इक्कीस वर्ष के दौरान किए गए कामों के पीछे गांधी के समर्पण, जिद और साधना की समावेशिता को नहीं जान पाता. लोगों की स्मृति आज बहुत क्षीण हो चली है, बड़े-बड़े नायक विस्मृति के गर्भ में विलीन हो जाते हैं, पीढ़ियां अक्सर पीछे मुड़ कर नहीं देखतीं. सब कुछ जैसे इतिहास के जीवाश्म का अंश होकर रह जाता है. इस देश में गांधी को याद करने की ही नहीं, भुलाने की भी अनेक कोशिशें हुई हैं पर वे आज भी अतीत और वर्तमान के बीच एक पुल की तरह हमारी स्मृति में रचे बसे हैं.
ऐसा क्या है कि एक राष्ट्र के निर्माण के पीछे, उसकी आजादी के पीछे, उसके आत्मगौरव के पीछे एक ऐसे शख्स का संघर्ष तरोताज़ा है जिसने अफ्रीका जाकर भारतीयों को उनके आत्म गौरव का बोध कराया तथा वहां की आजादी का पथ प्रशस्त किया. एक तरफ अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस का रंगभेद के खिलाफ संघर्ष, दूसरी ओर गांधी द्वारा नागरिक अधिकारों को लेकर की गयी जद्दोजेहद, दक्षिण अफ्रीका से विदा होते गांधी और कस्तूरबा के लिए तब तक की अप्रत्याशित भीड़ की आंखें नम थीं. वे दक्षिण अफ्रीका छोड़ कर जा रहे गांधी को रोक लेना चाहते थे, क्योंकि गांधी अफ्रीकियों के मन में बस चुके थे. वहां के प्रवासी भारतीयों के मन में बस चुके थे. वहां गोरे लोगों से अनेक मानवीय अधिकारों के लिए संघर्ष किया तथा भारत आकर यहां अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया.
गांधी के अफ्रीकी जीवन का यह विराट आख्यान जाने-माने उपन्यासकार, कथाकार गिरिराज किशोर लिखित 'पहला गिरमिटिया' के पन्नों में दर्ज है. एक साधारण से लगते इंसान के जीवन और विचारों का क्षितिज बहुत बड़ा है -लगभग अनंत विस्तार लिए. गांधी-जीवन, गांधी दर्शन, गांधी की दिनचर्या, गांधी की अहिंसा, गांधी का सत्य , गांधी का अपरिग्रह, गांधी का अस्तेय, यम, नियम, प्रत्याहार सब कुछ चिंतन का विषय है. गांधी बीसवीं शताब्दी के ऐसे विराट वैश्विक व्यक्तित्व थे जिनके बारे जितना लिखा जाए, कम है. देश-दुनिया के अनेक आख्यानों, काव्यों, वृत्तांतों में गांधी के वृहत्तर मानवीय दर्शन का बखान किया गया है. हिंदी और भारतीय साहित्य में गांधी एक उपजीव्य शख्सियत हैं जैसे सर्जनात्मक साहित्य के लिए महाभारत एवं रामायण जैसे आदि ग्रंथ. हमारी साहित्य की परंपरा ने अपने समय के उदात्त चरित्रों को सदैव अपनी सर्जना के केंद्र में रखा. यहां तक कि सदियों में फैले प्रख्यात काव्य-नायकों की तरह गांधी भी अपनी लोकप्रियता, त्याग और संघर्ष की बदौलत आधुनिक जीवन के महान काव्य-नायक बनते गए. उनकी एक एक सामान्य मानवीय गतिविधि कौतूहल का विषय बन गयी. उनमें भी उनके सूक्ष्म. जीवन-प्रयोग की बारीकियां खोजी जाने लगीं. सच कहें तो लघुता में विराटता का ऐसा कोई उदाहरण विश्व में दूसरा नहीं है. उनकी वाणी में अपौरुषेय शक्ति निहित है.
गांधी अपने युग के चरित नायक बने, काव्य नायक बने, आख्यानों के नायक बने तो इसके पीछे उनकी वह उदात्त साधना थी जो शासकों के आगे निर्भय थी. वह झुकना नहीं जानती थी. वह ईश्वर से सदाचरण पर कायम रखने की प्रार्थना करती थी, जनता को सत्य, अहिंसा और त्याग की सीख देती थी तो सांप्रदायिक सद्भाव के लिए उन्हें मनोबल प्रदान करती थी. इसलिए काव्य तो अपार लिखे गए. अपने समय के अनेक वीरपुरुष, शीलवान साहित्य में नायक बने और बनाए गए किन्तु गांधी का नायकत्व किसी समूह, किसी संगठन, किसी निकाय द्वारा प्रायोजित न था. जनता गांधी बाबा की जरा सी बात को मूल-मंत्र मान लेती थी. गांधी ने यह कहा, गांधी ने वह कहा, यह घरों में चर्चा का विषय हुआ करता था. कवियों ने गांधी को हाथोंहाथ लिया. गांधी के जीवन दर्शन, स्वातंत्र्य संघर्ष और रहन-सहन में उन्हें सादगी नजर आती थी. गांधी एक साथ नेहरू और पटेल, नेहरू और सुभाष को साध कर रख सकते थे. वे एक साथ हिंदुओं और मुसलमानों को समभाव से देखते थे. प्रार्थना प्रवचन के अंश गवाह हैं कि बंटवारे के बावजूद वे भाईचारे की नींव पुख्ता करने में संलग्न थे. वे हिंदू धर्म को हेय दृष्टि से नहीं देखते थे. वे उसमें व्याप्त बुराइयों को धीरे-धीरे प्रक्षालित कर दूर करना चाहते थे. वे सभी धर्मों के समन्वय का केंद्र-बिंदु थे. वे पीर पराई से विचलित होने वाले वैष्णव थे. उनकी वैष्णवता सभी धर्मों पर भारी थी.
गांधी: अपने युग के काव्यनायक
एक दौर में गांधी पर हजारों काव्य, खंड काव्य एवं प्रबंध काव्य लिखे गए. संकलन किया जाए तो हजारों कविताएं उन पर लिखी गयी होंगी. कितने अभिनंदन-ग्रंथ उन पर निकाले गए. 1944 में कविवर सोहनलाल द्विवेदी ने उन पर अभिनंदन-ग्रंथ प्रकाशित किया था. उन्हें जितने विशेषण दिए गए कदाचित विश्व के किसी दूसरे महामानव को ऐसे विशेषण नहीं दिए गए. यथा- युग सारथी, युगपुरुष, विराट तीर्थ, मुक्तिदूत, विश्वात्मा, महात्मा, बापू, आत्म निग्रही, ज्योतिर्पुंज आदि-आदि. अपने समय के सुपरिचित कवि रघुवीर शरण मित्र ने उन पर जननायक महाकाव्य लिखा, जिसकी भूरि-भूरि सराहना डॉ राजेंद्र प्रसाद, राजर्षि टंडन, विनोबा भावे, मैथिलीशरण गुप्त, हजारीप्रसाद द्विवेदी, निराला, बनारसी दास चतुर्वेदी व गुलाब राय जैसे मनीषियों ने की है. उन्होंने लिखा, ''जिनकी चरण धूलि चंदन है, दीपक उनके चरणों में जल. जिनकी पूजा में प्रसाद है वाणी, उनके मंदिर में चल.'' तुलसीकृत श्री रामचरित मानस की तर्ज पर विद्याधर महाजन ने श्री गांधीचरित मानस नामक महाकाव्य लिखा. नटवरलाल स्नेही ने तुम बन गए राम नामक प्रबंध काव्य लिखा तथा सिद्ध किया कि बापू तुम अपने आचरण से श्रीराम बन गए. मर्यादा पुरुषोत्तम की तरह ही स्नेही ने बापू को मानव के रूप में ही चित्रित किया और यह उपस्थापित किया कि--
सांसों के सुरभित मनकों पर तुम राम राम रटते अकाम,
अहरह अणु अणु अभिनंदनीय बापू, तुम ही बन गए राम.
काशी वासी वंशी और मादल के चर्चित कवि ठाकुर प्रसाद सिंह ने गांधी पर 15 भागों में महामानव नामक प्रबंध काव्य लिखा. इसे उन्होंने जन-जागरण की महागाथा कहा है. यह काव्य गांधी के जीवित रहते लिखा गया था. ठाकुर गोपाल शरण सिंह ने जगदालोक नाम से एक प्रबंध काव्य लिखा तथा बीस सर्गों में गांधी के जन्म से लेकर उनके अवसान तक की घटनाओं को उपनिबद्ध किया. बदरीनारायण सिन्हा ने गांधी पर 'अब वहु से सब जन हिताय' काव्य लिख कर गांधी के जीवन दर्शन को बारीकी से उकेरा है. छोटे छोटे छंदो में सिन्हा ने काव्य माला के मनके सजाए हैं. बड़े विनय से उन्होंने लिखा :
यह कौन पुरुष आया है छिटकी अद्भुत माया है
उतना ही तेज अतुल है जितनी दुर्बल काया है.
इसी तरह महेशचंद प्रसाद लिखित गांधी चरित व डॉ दिनेश लिखित विश्व ज्योति बापू, गेय व सरल छंदों की मंजूषा से संपन्न हैं. इन सब ग्रंथों में जो दो काव्य बहुत महत्त्वपूर्ण हैं, वे हैं सियारामशरण गुप्त की 'बापू' एवं रामधारी सिंह दिनकर की 'बापू'. दोनों अपने युग के महान कवि थे. कहा जाता है कि 'बापू' कृति कवि की अंतरात्मा का संगीत है. पूरे काव्य में गांधी का नाम लिए बिना जिस तरह मानवता के विराट व्यक्तित्व के चित्र आंके गए हैं वे हिंदी काव्य में दुर्लभ हैं. दिनकर को हमारे समय का क्रांतिकारी कवि माना जाता है. वे युगकवि कहे गए. राष्ट्रकवि माने गए. वे आजादी के संघर्ष में भले ही गांधी की अहिंसा नीति के आलोचक रहे हों, उनकी आलोचना भी की है किन्तु एक राष्ट्रकवि ही राष्ट्रपिता का महिमा का उचित बखान कर सकता है. वे जानते थे कि वे गांधी के विचारों के आलोचक रहे हैं इसलिए विनत भाव से उन्होंने कहा कि-
बापू मैं तेरा समयुगीन, है बात बड़ी पर कहने दे.
लघुता की भूल तनिक गरिमा के महासिंधु में बहने दे.
वे जानते थे कि बापू कृष्ण की तरह विकलमन हैं. भारत मां पर संकट आया तो वे वैसे ही दौड़ पड़े जैसे कृष्ण द्रौपदी की लज्जा को बचाने दौड़ पड़े थे. जिस महामानव के लिए कवि सोहनलाल द्विवेदी ने लिखा-
चल पड़े जिधर दो डग मग
चल पड़े कोटि पग उसी ओर' उसके लिए यह पद लिखते हुए राष्ट्रकवि का दिल भी रो उठा होगा-
यह लाश मनुज की नहीं मनुजता के सौभाग्य विधाता की
बापू की अरथी नहीं, चली अरथी यह भारतमाता की.
इन काव्यों के अलावा 'खादी के फूल' नामक संग्रह में पंत व बच्चन की कविताएं संग्रहीत हैं. गांधी के निर्वाण के बाद सूत की माला लिख कर बच्चन ने उन्हें काव्यांजलि अर्पित की. प्रसिद्ध कवि गीतकार पं. नरेंद्र शर्मा ने रक्त चंदन लिख कर व हरिकृष्ण प्रेमी ने वंदना के बोल लिख कर गांधी का मानवर्धन किया. शिवमंगल सिंह 'सुमन' ओज के अनन्य कवि थे. उन्होंने अपने संग्रह पर आंखें नहीं भरीं में गांधी पर कई कविताएं लिखी हैं. सौराष्ट्र के कवि श्री दुलेराय काराणी ने गांधी बावनी लिख कर बापू के चरणों में शब्द-सुमन चढ़ाए. युगांत में पंत ने उन्हें शुद्ध-बुद्ध आत्मा कह कर पुकारा, युगवाणी में गांधी पर उनकी दो कविताएं हैं.
गांधी का औपन्यासिक जीवन
जैसाकि मैंने कहा वे उन उपजीव्य शख्सियतों में आते हैं जिन पर और जिनके विचारों पर केंद्रित कई उपन्यास लिखे गए. 'भारत सेवक' नाम से यज्ञदत्त शर्मा ने एक उपन्यास लिखा. ऋषभचरण जैन ने 'सत्याग्रह' नाम से उपन्यास लिखा. गांधी पर कई चर्चित नाटक लिखे गए जिनमें आचार्य चतुरसेन शास्त्री कृत 'पगध्वनि', लक्ष्मीनारायण मिश्र कृत 'मृत्युंजय', सेठ गोविंददास कृत 'राम से गांधी', मोहनलाल महतो वियोगी कृत 'दांडीयात्रा', रामनरेश त्रिपाठी कृत 'बा और बापू' आदि प्रमुख हैं. बापू पर अनेक स्फुट ग्रंथ भी लिखे गए हैं जिनमें रामनाथ सुमन कृत 'युगाधार', घनश्यामदास बिड़ला कृत 'बापू', कमलापति त्रिपाठी कृत अमर बापू, हरिभाऊ उपाध्याय कृत मेरे हृदय देव, तन्मय बुखारिया कृत मेरे बापू, प्रभाकर माचवे कृत 'गांधी की राह पर', भोलानाथ तिवारी कृत 'हे बापू, हे राष्ट्रपिता' व विष्णु, प्रभाकर कृत 'रामनाम की महिमा' आदि प्रमुख हैं.
बापू के जन्म के 152 साल हो चुके हैं. आज तक उन पर हजारों कृतियां लिखी गयीं. गांधी और उनकी विचारधारा पर अब तक ऐसा कौन सा महापुरुष या कवि है जिसने गांधी पर न लिखा हो. आचार्य कृपलानी, महादेव भाई देसाई, देवेंद्र सत्यार्थी, काका कालेलकर, सोहनलाल द्विवेदी, लुई फिशर, रामनरेश त्रिपाठी, सत्यकाम विद्यालंकार, सर्वपल्ली राधाकृष्णनन, राम नारायण उपाध्याय, पं. नेहरू, श्री मन्नारायण अग्रवाल, चतुरसेन शास्त्री, संपूर्णानंद, सनेही, विश्वंभर नाथ उपाध्याय से लेकर आज तक मधुकर उपाध्याय, अरविंद मोहन, सुजाता, अशोक कुमार पाण्डेय, सुशोभित आदि द्वारा लिखा जा रहा है, किन्तु् आज भी गांधी के जीवन चरित्र, विचार दर्शन एवं मानव जीवन के लिए दिए संदेश की परतें नहीं खुल पाई हैं. एक बड़ा मनुष्य वही होता है, वही काव्य नायक होता है जिस पर हर बार लिखने पर कुछ न कुछ छूट जाता है. जिस पर हर बार सोचने पर नईे-नई बातें ध्यान आती हों. गांधी में ऐसा कुछ है कि उनके आलोचक भी उनकी इस विशेषता को लक्षित करते हैं. कबीर ने कहा था, हम न मरब, मरिहै संसारा. गांधी मर कर भी अमर हैं. उन्हें कोई मार नहीं सकता. नास्तिम येषां यश: काये जरामरणंभयम्. वे स्वर्गगत होकर भी उस आलोकपुंज में समा गए हैं जहां से मनुष्यता को सदैव रोशनी मिलती रहेगी.
गांधी-जीवन का पहला बड़ा उपन्यास
हमारे यहां शास्त्रकारों ने काव्य के हेतु बताए हैं. किसी भी काव्य के पीछे उसके प्रयोजन होते हैं. काव्य हेतु होते हैं. बिना हेतु के कोई काव्य हो नहीं सकता. इसी तरह यदि गांधी जीवन को एक विराट आख्यान या किस्सागोई में समेटा जा रहा है तो इसके पीछे कोई हेतु है. कोई प्रयोजन है. इसलिए कि गांधी पर अभी तक जो भी लिखा गया वह कहीं न कहीं अधूरा है. 'पहला गिरमिटिया' गांधी जीवन को फिर से एक किस्सागोई में ढालने बुनने और रचने का उपक्रम है जिसे केवल गिरिराज किशोर ही संभव कर सकते थे. उन्होंने गांधी को अपने उपन्यास के केंद्र में रखने से पहले उनके जीवन, उनसे संबंधित स्थलों, राजनीति में उनकी विभिन्न गतिविधियों, स्वतंत्रता संघर्ष में उनकी संलग्नता को गौर से देखा व समझा. इस उपन्यास के पीछे एक व्यापक तैयारी झलकती है जो आसानी से पहचाने जा सकने वाले गांधी की अलक्षित जटिलताओं के मनोविज्ञान को बारीकी से उरेहती है. यह केवल गांधी जीवन की कथा मात्र नहीं है यह पूरे गांधी युग को एक लेखक के नजरिए से देखने का उपक्रम भी है. यह राजनीति में एक लघु मानव की प्रतिष्ठा के आधारों को तलाशने की एक प्रक्रिया भी है. यह गांधी संस्कारों को गांधी के भीतर उतर कर देखने का सलीका है. यह गांधी के उन सूत्रों को पकड़ कर आगे चलने का उपक्रम भी है कि आखिर क्या वजह थी कि तमाम आलोचनाओं के बावजूद गांधी एक सदी तक भारतीय राजनीति के केंद्र में रहे. उन पर सबकी निगाह रही. विश्व में सबसे ज्यादा मूर्तियां आज गांधी की लगी हैं तो इसलिए नहीं कि उनके भौतिक जीवन में ऐसा कुछ खास था कि वे पूरे विश्व में ध्यान और आकर्षण का केंद्र बने, इसके पीछे भारत जैसे एक अविकसित और पिछड़े देश के आध्यात्मिक दार्शनिक चिंतन की विराट फलश्रुति को महत्व के साथ आंका गया. जहां आजादी का इतिहास रक्तरंजित समरगाथाओं का इतिहास रहा हो, ऐसे में भारत की आजादी के पीछे उसके स्वातंत्रय संघर्ष के नायक का एक मात्र कारगर हथियार अहिंसा रहा हो, यह पूरे विश्व में एक कौतूहल का विषय रहा है. कोई अहिंसा से कैसे आजादी का समर जीत सकता है. कैसे ब्रितानी शासकों के अंत:करण को विचलित कर सकता है. गांधी का यह स्वरूप पूरे विश्व में एक चुनौती के रूप मे देखा गया. सत्य और अहिंसा की बुनियाद गांधी ने सदियों के भारतीय दर्शन से पाई थी. उस वैष्णवता से पाई थी जो पीर पराई जानने को ही परम जीवन लक्ष्य मानती आई है.
गांधी के दक्षिणी अफ्रीकी जीवन एक अनूठे और मार्मिक समर्पण से शुरू होता है: ''उन भारतीयों को और उनकी संतति को जो उन्नीसवीं शताब्दी में समृद्धि का पुल बन कर गिरमिटिया और यात्री के रूप में दूसरे देशों में फैल गए थे फिर कभी नहीं लौटे. उन भारतीयों को जिन्हें वो समुद्र लील गया और उनकी संतानों को, जिनके लिए सागर की लहरों में भी वे जीवन भर जिन्दा रहे....अगली पीढ़ी को यह पुस्तक समर्पित करते हुए उपन्यासकार ने लिखा कि ''जिनके लिए मोहनदास को जानना शायद ज्यादा जरूरी होगा. मोहनदास के रूप में वह अपने देश के लोगों की आजादी के लिए परायी धरती पर खटा और महात्मा गांधी के रूप में अपनी धरती पर गोली खाकर राम राम कहता चल बसा.''
गांधी का जीवन जितना खुला और स्पष्ट है उतना ही जटिल भी है. जिसके जीवन के सारे पन्ने ऐसे खुले हों उनमें अलक्षित को निकाल कर जीवनी के ताने-बाने में बुनना आसान नहीं है. खास कर दक्षिण अफ्रीका के उनके बिताए कालखंड को समझना बहुत ही कठिन है. यह कह देना आसान है कि वहां एक मुकदमे के सिलसिले में गांधी पैरवी के लिए गए. पर वहां गोरे लोगों के बीच दक्षिण अफ्रीकियों की जो स्थिति थी वह बहुत भयावह थी. भारतीयों के लिए जो वहां मेहनत मजदूरी के लिए ले जाए गए उनके लिए बहुत यातनाप्रद जीवन था. हम मारीशस के अप्रवासी घाट पर देख चुके हैं कि कैसे यहां से ले जाए गए भोल-भाले भारतीयों को पीटा व मारा जाता था, यातनाएं दी जाती थीं. यातनाओं का यह स्मारक गिरमिटिया मजदूरों की करुण कहानी बयान करता है. इस तरह दक्षिण अफ्रीका भी उन दिनों भारतीयों के लिए एक यातना शिविर से कम न था, जहां केवल गोरों के नियम चलते थे, काले लोगों पर जुल्म की दास्तान बयान करना मुश्किल है. अपनी आजादी के लिए दक्षिण अफ्रीका के निवासियों ने जो संघर्ष किया वह कविताओं व कहानियों में वर्णित है. ऐसे में गांधी का वहां जाना, पग-पग पर अपमान सहना, भिन्न भाषा व संस्कृति, रहन-सहन, खानपान के वातावरण में रहते हुए न केवल अपने उद्दिष्ट कार्य को सिद्ध करना था बल्कि वे भारतीय नागरिकों के लिए उबारनहार भी बने. नागरिकता के अधिकारों से वंचित भारतीयों को मताधिकार दिलाने में गांधी ने अनथक परिश्रम किया. वहां जागरूकता के प्रसार के लिए प्रिंटिंग प्रेस स्थापित किया. राहें बहुत कठिन थीं पर गांधी ने अपनी चाल ढाल और जिद नहीं छोड़ी. गिरिराज किशोर कहते हैं जैसे कृष्ण के जीवन के तीन पक्ष हैं- कान्हा पक्ष, कृष्णा पक्ष एवं योगिराज कृष्ण पक्ष. उसी तरह गांधी के तीन पक्ष थे- मोहनिया पक्ष, मोहनदास पक्ष व महात्मा गांधी पक्ष. उन्होंने उपन्यास में गांधी का मोहनदास पक्ष लिया है. उन्होंने इसके लिए गांधी को समझने के लिए दक्षिण अफ्रीका व मारीशस की यात्राएं कीं. पहले संपूर्ण गांधी जीवन पर उपन्यास का ताना बाना बुना जा रहा था पर वह उनके ही शब्दों में संसार के समस्त सागरों को तैर कर पार करने जैसा उपक्रम होता. उन्होंने, जैसे तुलसीदास ने राम के लौकिक पक्ष को लिया, मानवीय पक्ष को लिया, गांधी के मोहनदास पक्ष को लिया जो आम आदमियों के संघर्ष में शामिल रहा, जो नैतिक जीवन का अभ्यासी बना, जिसने भारतीय नागरिकों की पीड़ा को अपने भीतर जिया. वे कहते हैं मोहनदास का पूरासंघर्ष एक बेगानी धरती पर एक अनजाने और आम आदमी का संघर्ष था.
एक सामान्य व्यक्ति के रूप में गांधी के कर्मठ जीवन को उकेरते हुए गिरिराज ने उनके उस रूप को चुना जो पत्नी के जेवर बेचकर लंदन बार एट लॉ करने गया. वहां से लौटा तो पिता न थे, चाचा ने अंगूठा दिखा दिया. बेरोजगारी के इस आलम में अल्पभाषी होने के कारण वकालत भी न चल पाती थी, सो एक साल के एग्रीमेंट पर उन्हें भी दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा. वहां दादा अब्दुल्ला के साथ वकालत की पायदान पर अपने पैर जमाए. प्रिटोरिया जाते हुए मेरिट्जबर्ग के स्टेशन पर प्रथम श्रेणी टिकट होते हुए भी डिब्बे से उतार दिए गए. अपमान के घूंट पीकर भी गांधी हार नहीं माने. अपने भीतर भारतीय नैतिक कथाओं के बताए आत्म निग्रह, क्षमा, दया, करुणा और सत्य को हृदय में बसाए वे धीरे-धीरे गिरमिटियों के स्वाभिमान की लड़ाई में शामिल हो गए. गिरिराज दक्षिण अफ्रीका की यात्रा में अनेक लोगों से मिले, श्री हासिम सादात के जरिए गांधी द साउथ अफ्रीकन एक्सपीरियंस और द साउथ अफ्रीकन गांधी पुस्तकें हासिल कीं. उनकी पत्नी फरीदा बेन, गांधी की पौत्री श्रीमती इला गांधी ने बहुत मदद की. फीनिक्स को उजाड़ देख वे बहुत आहत हुए. हासिम जी दादा अब्दुरल्ला की पेढ़ी पर उन्हें ले गए. वह कोर्टरूम देखा जहां गांधी को अपनी पगड़ी उतारनी पड़ी थी. डरबन जेल देखी जहां गांधी व कस्तूरबा बंद रह चुके थे. वे नेटाल की राजधानी पीटरमेरिटजबर्ग भी गए. टॉलस्टॉय फार्म का बियाबान भी देखा.
गांधी को मुड़ कर देखना
किसी गांधी जैसे व्यक्ति के जीवन को पीछे मुड़ कर देखना बहुत आसान नहीं है. बहुत सारी छोटी-मोटी घटनाएं जो उनके जीवन में घटीं उनके साक्ष्य नहीं मिले. उस समय के लोग नहीं मिले. जहां कहानी अधूरी लगी उसे लेखकीय कल्पना से रचना पड़ा कि वह गांधी के दक्षिण अफ्रीकी जीवन क्रम को व्यवस्थित रूप दे सके. दक्षिण अफ्रीका व मारीशस की यात्राएं आसान न थीं. वहां गांधी के बारे में जानने के लिए लोगों से संपर्क चीजों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने व एक निष्कर्ष तक पहुंचने का रास्ता सरल न था पर अंतत: दशक भर के परिश्रम के बाद छपा उपन्यास 'पहला गिरमिटिया' गांधी के मानवीय पक्ष को अत्यंत करीने व कृतज्ञता के साथ प्रस्तुत करता है. उपन्यास इस एक वाक्य से शुरू होता है: "गोरों के सपने थे. यहां भी धरती वतनी लोगों की, सपने गोरों के थे. संख्या में ज्यादा वतनी लोग अल्पसंख्यक गोरों को देखकर ही सहम जाते थे. उन्हें अपनी ताकत का पता न था. शीतोष्ण जलवायु में फसलें उगाना हिकमत का काम है जो काम वतनी भी नहीं कर सकते थे. लिहाजा यह सोचा गया कि यदि फसलों के काम के लिए बाहर से कुली बुलाए जाएं तो वे फसलें भी उगा लेंगे और इन वतनियों से निपट भी लेंगे. लिहाजा 16 नवंबर, 1860 में हिंद महासागर की अथाह जलराशि को चीरता हुआ एक जहाज एडिंग्टान बंदरगाह से कुछ दूर उतरा. इस तरह इस महाद्वीप पर कुलियों के आने की शुरुआत हुई. उनकी स्वास्थ्य की जांच, उनकी मजबूती को परखना, उनसे काम करवाने की प्रक्रिया बहुत दहशत भरी है. कुली गोरे डचों के लिए चूहों से ज्यादा हैसियत न रखते थे." गिरमिटिया मेंकुलियों के त्रासद आख्यान का जीवंत वर्णन है.
गोरों के सपने थे तो मोहनदास के भी थे. दादा अब्दुल्ला के काम से अनुबंध पर जाना था. सुविधाएं यथोचित मिल रही थीं. सो एक दिन मोहनदास दक्षिण अफ्रीका की यात्रा पर रवाना हो गए. फर्स्ट क्लास केबिन में जगह न होने के बावजूद चीफ आफिसर ने अपने केबिन में एक बर्थ दी और इस तरह उनका आगमन एडिंग्टिन बंदरगाह पर हुआ. समुद्र के वक्ष पर अनेक पड़ावों पर ठहरते पार करते आखिर मंजिल आ ही गयी. रास्ते के रोमांचक सफर का क्या जीता जागता वृत्तांत उकेरा है गिरिराज ने. उनके लिए मोहनदास एक यात्री एक गिरिमिटिया भर न थे, वह जीवन चरित थे जिनके हर पहलू को क्षण-प्रतिक्षण महसूस करना व उसे आख्यान में दर्ज करना था. बीस साल पहले डरबन आए दादा अब्दुल्ला की अब्दुल्ला एंड कंपनी नेटाल का सबसे पुराना बड़ा भारतीय प्रतिष्ठान था. वे खासा पैसे वाले थे. तमाम भाषाओं के जानकार. वाकपटु. गांधी आ तो गए दक्षिण अफ्रीका पर दादा अब्दुल्ला के मुकदमों की पैरवी में क्या कुछ सहयोग कर पाएंगे. नई जगह नए लोग. गोरे लोगों के बीच एक हिंदुस्तानी वकील. यह सब असंभव सा था पर हो रहा था. तमाम कश्मकश चलती रही बातचीत में, अब्दुल्ला व मोहनदास के बीच. एक दिन मोहनदास कांवर लादे एक फेरीवाले को देख ही रहे थे कि अब्दुल्ला बोले, हिंदुस्तानी जहां जाता है अपना हिंदुस्तान बना लेता है.'' डरबन कोर्ट रूम देखने के सिलसिले में जब गांधी ने जानना चाहा कि क्या यहां कोई हिंदुस्तानी वकील नहीं है? तो दादा अब्दुल्ला बोले, ''हिंदुस्तानी! पहले तो कोई हिंदुस्तानी ही नहीं जो वकील बनने के काबिल हो, अगर हो तो गोरे उसे रहने नहीं देंगे. रह भी जाए तो कोई मुवक्किल उसके पास नहीं फटकेगा.'' उन्होंने कहा, ''गांधी भाई, हमारे लोगों के लिए कचहरी मृगतृष्णा' है. हर आदमी को लगता है, पानी वहां है, पर पानी कहीं नहीं होता.''
अस्तित्व की एक लंबी लड़ाई
एक नई जगह, वकालत, गोरों के बीच अपने अस्तित्व की एक लंबी लड़ाई लड़नी थी. यह सहज न था. इस पूरी उधेड़बुन से गुजरते हुए गांधी अपने को तैयार कर रहे थे. पहले ही दिन मजिस्ट्रेट ने गांधी का फेटा उतरवा दिया था. अब्दुल्ला का स्वभाव काफी धीरज वाला था. गांधी ने यह पहले ही भांप लिया था जब उन्होंने यह बात कही थी कि ''जिसके सामने फर्ज साफ हो, उसके लिए गुस्से की कहां गुंजाइश है.'' और फिर एक दिन गाड़ी से धक्के देकर उतार देने की घटना. आज भले वह एक छोटा सा स्टेशन एक ऐतिहासिक धरोहर की तरह है. वह वेटिंग रूम भी है जहां गांधी ट्रेन से उतार दिए जाने के बाद बैठे थे. वह बेंच भी है जहां वे कुछ देर बैठे थे. लेकिन यह घटना बैरिस्टर किन्तु गोरों की दृष्टि में कुली, मोहनदास के जीवन की एक निर्णायक घटना बन गयी. अब क्या करेंगे. तमाम सवाल मोहनदास को झकझोर रहे थे. हालांकि अगली एक प्रिटोरिया यात्रा में एक अश्वेत यात्री ने उनकी मदद भी की जब गार्ड ने उन्हें उस कोच से उतर कर वैन में बैठने को कहा. बाद में भी उन्हें ऐसी यात्राएं करनी पड़ीं और जद्दोजहद से गुजरना पड़ा पर कुछ ऐसे भी लोग मिले, जिनसे कुछ आसानियां भी पैदा हुईं. मि. बेकर, नानबाई ये जीवन के प्रारंभिक सोपान भी हैं.
इधर मोहनदास दक्षिण अफ्रीका में उधर कस्तूरबा गुजरात में. मोहनदास के संदेश उन्हें मिलते तो यादों में खो जातीं. गांधी का ध्यान भी कस्तूरबा में लगा रहता. मेटिल्डा की मेहमाननवाजी खुश करने वाली थी. पर ट्रेन की यात्रा में होने वाला अपमान असह्य था. एक महीने बीतने को आए कि तैयब सेठ ने प्रिटोरिया में रह रहे हिंदुस्तानियों की एक मीटिंग बुलवाई जिसमें मोहनदास बोले. इस बैठक का लब्बोलुआब गांधी के इस कथन में था कि आचरण की सत्यता ही सम्मान की कसौटी बनेगी वरना हम हर जगह जानवरों की तरह दुत्कारे जाते रहेंगे. उन्होंने हिंदुस्तानियों से अंग्रेजी सीखने की गुजारिश भी की, उसकी कक्षाएं लगाईं. अपमान तो रोजमर्रा की नियति बन चुके थे. प्रेसीडेंट क्रूगर के सामने की फुटपाथ पर कुलियों का चलना वर्जित था. ऐसा करने पर मोहनदास की बुरी तरह पिटाई हुई पर अपने ऊपर ज्यादतियों के खिलाफ उन्होंने कानून का सहारा नहीं लिया. मुकदमे में तैयब सेठ के खिलाफ 40,000 पौंड की देनदारी के फैसले के बाद यों तो गांधी का उद्देश्य समाप्त हो जाना चाहिए था पर गांधी की मुहिम अभी पूरी नहीं हुई थीं. गांधी को सब रोक लेना चाहते थे. वे चाहते थे कि गांधी उनका नेतृत्व करें. गांधी विचारों के दोराहे पर थे एक तरफ अपना घर याद आता था दूसरी तरफ हिंदुस्तानियों की जमात जो वहां कुलियों का नागरिकता वंचित जीवन जी रहे थे. उन्हें मताधिकार न था. इस सबके खिलाफ एक बड़ी जमीन तैयार करनी थी. उन्हीं दिनों नेटाल उपनिवेश के भारतीय प्रवासी संसद में मताधिकार बिल पेश होने वाला था. गांधी ने संसद के अध्यक्ष को तार दिया कि इस बिल का वाचन अविलंब रोका जाय. अखबारों में इस बात की चर्चा होने लगी. लोगों में जिज्ञासा हुई, हू इस दिस गैंदी? फिर तो एक लंबा प्रकरण है इस बात का कि गांधी ने कैसे प्रवासियों को मताधिकार दिलवाया और कैसे वे दक्षिण अफ्रीकी सत्ता के विरुद्ध के उत्तरोत्तर एक बड़ी नैतिक और निडर आवाज में बदलते गए.
गोरों का यह रास न आ रहा था कि एक कुली बैरिस्टर कोर्ट कचहरी के मामलों में निर्णायक बनने लगा है. नेटाल लॉ सोसाइटी के विरोध के चलते नेटाल सुप्रीम कोर्ट में मोहनदास का रजिस्ट्रेशन मुश्किल था किन्तु एडवोकेट जनरल मि. ऐस्कम्बी ने इस काम में उनकी मदद की. अखबारों में अगले दिन की सुर्खियां थी: एक कुली एडवोकेट बना. यह उनकी पहली जीत थी. प्रवासियों के बीच वे धीरे-धीरे मोहनदास से गांधी भाई बन गए थे. फिर तो नेटाल इंडियन कांग्रेस की स्थापना ने यूरोपीय समाज में खलबली मचा दी. गांधी की प्रैक्टिस भी चल पड़ी थी. एक गिरमिटिया को एक गोरे रईस द्वारा बेरहमी से पीटे जाने पर गांधी ने कोर्ट से उसके नाम सम्मन जारी करा दिया था. गांधी भारतीय गिरमिटियों के नायक बन चुके थे. अब गांधी का नाम और काम दोनों बढ़ने लगा था. साल भर का एग्रीमेंट भी खत्म होने वाला था पर अब गांधी के सामने और तमाम चुनौतियां थीं. मताधिकार संशोधन बिल की अस्वीकृति का ही परिणाम था कि नेटाल सरकार द्वारा यह प्रावधान किया गया कि एग्रीमेंट खत्म होने पर जो रहना चाहे उसे प्रति आदमी पच्चीस पौंड देने होंगे. कठिनाई बढ़ रही थी पर कई मामलों में गिरमिटियों केपक्ष में निर्णय भी हो रहे थे. पर दूसरी तरफ गांधी के खिलाफ माहौल भी बनाया जा रहा था कि वे गिरमिटियों को आंदोलन के लिए उकसा रहे हैं उनसे पैसे वसूल कर मौज मजे कर रहे हैं. अखबारों में भारतीय समुदाय को एक उभरती हुई ताकत के रूप में स्वीकार किया जा रहा था. छह महीने बाद वे एक पैरवी के सिलसिले में भारत आए और इलाहाबाद होते हुए राजकोट पहुंचे. यह वह समय था जब राजकोट प्लेग की चपेट में था. राजकोट से वे भारत की अन्य जगहों पर गए. जगह-जगह भाषण दिए और नेटाल में कुलियों की दुर्दशा की बात बताई. कई संपादकों से मिले. फिर डरबन वापस हुए कस्तूरबा और बच्चों के साथ. इस बीच कस्तूरबा और गांधी में कई बार तकरार भी होती साफ सफाई को लेकर. इंडियन ओपीनियन के माध्यम से वे अपनी बात भारतीय समुदायों तक पहुंचाते थे. जोहानसबर्ग में रिहाइश की अलग समस्याएं थीं. कस्तूरबा की तबीयत भी कई बार बिगड़ी. गांधी उन्हें फीनिक्स आश्रम ले आए.
सत्याग्रह की राह
इस बीच ट्रांसवाल सरकार का हिंदुस्तानियों के खिलाफ लाया गया नया कानून आया जिसमें हर हिंदुस्तानी को जरायमपेशा समुदाय का सदस्य करार दिया गया था. इस कानून के विरोध में गांधी ने एम्पायर थियेटर में एक सभा को संबोधित किया तथा कहा कि यदि यह कानून लागू हुआ तो यह सभी उपनिवेशों के लिए नजीर बन जाएगा और यह भारतीयों की नस्ल को खत्म कर देगा. यहीं से गांधी ने अपने संघर्ष को सत्याग्रह का नाम दिया. इसके चलते ट्रांसवाल संसद द्वारा पारित अध्यादेश नामंजूर हो गया. पर आगे का रास्ता और कठिन था. सत्याग्रहियों को जेलों में डाला गया. गांधी भी जेल गए. एशियाटिक बिल के विरोध का रास्ता तय हो रहा था. ट्रांसवाल की जेलें भरती जा रही थीं और सरकार की दिक्कतें भी. गांधी जेल में होते तो उसके सारे कायदों का पालन करते. जेल से बाहर आते तो फिर सत्याग्रहियों के साथ हो लेते. वे अपने ही अंदर के सवालों से जूझते. जैसे कि स्वराज आखिर क्या है फिर खुद ही इसका उत्तर देते कि स्वराज मन और आत्मा का होता है, संकल्प का होता है. राष्ट्रीयता का सवाल भी उन्हें मथता. वे कहते, बाहर से आने वाले लोग राष्ट्रीयता को नहीं मिटाते, वे राष्ट्र में घुल मिल जाते हैं. जब ऐसा होता है तब कोई देश राष्ट्र कहलाता है. एक राष्ट्र का अर्थ एक धर्म नहीं. इस तरह स्वराज का अर्थ सूझता: अपने मन पर अपना शासन. कैसे? सत्याग्रह, आत्मबल और दयाबल से. उनका काम सत्याग्रहियों व जेल में डाले गए कैदियों की हालचाल लेते रहना भी था. यह एक सामूहिक मुक्ति की लड़ाई थी.
जो जोहांसबर्ग गए होंगे वहां से थोड़ी दूर पर उन्होंने टॉलस्टॉय फार्म जरूर देखा होगा. यह भी गांधी की कर्मभूमि रही है. कभी यहां हजारों दरख्त थे अब नहीं हैं. यह जमीन ग्यारह सौ एकड़ में फैली है. इसे कैलनबाख ने गांधी के लिए खरीदा था. यह सत्याग्रहियों का एक सामुदायिक ठीहा जैसे था. यहां वे पढ़ाई के लिए स्कूल भी लगाते थे. यहीं दो लड़कियों के साथ एक जरा सी घटना हुई तो गांधी का व्यवहार देखने लायक था. बच्चों को अनुशासित करने का गांधी का तरीका बहुत अलग होता था. एक लड़के ने जरा सा उन लड़कियों के बाल क्या छू लिए, गांधी ने दंडस्वरूप लड़कियों के बाल कटवा दिए. वे जानते थे कि लड़कियां निर्दोष हैं पर बाल उन्हीं के काटे गए जिनके कारण लड़के के मन में पाप उपजा. सॉंप बहुल इलाका होने के बावजूद गांधी ने उन्हें मारने के हामी न थे. उनके दंड देने का तरीका बहुत जुदा था. एक लड़की द्वारा एक कम उम्र के लड़के के साथ व्यभिचार करने का मामला सामने आया तो उपवास ठान कर बैठ गए. अंतत: लड़की ने अपना अपराध कुबूल किया और गांधी ने तब अपना उपवास तोड़ा. गांधी के दक्षिण अफ्रीका रहते गोपाल कृष्ण गोखले वहां गए. टॉलस्टॉय फार्म भी आए. उनके प्रयासों से एशियाटिक और इमिग्रेशन रेस्ट्रिक्शन कानून निरस्त किए जाने व पोल टैकस वापसी के वायदे किए गए. वैवाहिक प्रमाणपत्र के बिना स्त्रियों को ब्याहता न मानने के कानून के खिलाफ सत्याग्रहियों का लंबा संघर्ष चला.
आजादी हर आदमी के अंदर
टॉलस्टॉय फार्म और फीनिक्स आश्रम सत्यााग्रहियों की गतिविधियों का अड्डा था. इस बीच गांधी और कस्तूयरबा जेल गए. पर भारतीय समुदायों में अपने अधिकारों को लेकर चेतना जागने लगी थी. एक बार एक लंबी पद यात्रा में गांधी डरबन से चार्ल्सलटाउन पैदल लौट रहे थे तो एक गोरे के यह पूछने पर कि आप क्यों जा रहे हैं? वे बोले ''आजादी की तलाश में.'' उसने फिर पूछा ''अगर न मिली तो?'' गांधी बोले- ''वह तो हर आदमी के अंदर होती है -उसे जगाना पड़ता है.'' तमाम सत्याग्रहियों को जेल हुई. इंडियन ओपीनियन भी बंद करने की कोशिशें हुईं. इधर गोखले को चिंता हुई. वे सोचते थे सरकार बर्बर हुई तो इन निहत्थे और बेसहारा लोगों का क्या होगा. गांधी के सारे साथी अनुयायी किसी न किसी जेल में थे. उन पर जुल्म भी होता था पर गांधी के नाम पर चुप रहते थे. भारत तक ये घटनाएं पहुंचती थीं. मजदूर वहां के कारखानों को छोड़ कर सत्याग्रही बन गए. सारे विश्व में निहत्थे गिरमिटियों पर वहां की सरकार के जुल्म की भर्त्सना हो रही थी. कुछ मुद्दों पर मोहनदास व जनरल स्मट्स के बीच समझौता हुआ पर कुछ लिखत-पढ़त में नहीं. हालांकि बाद में इस बारे में गठित एक कमीशन ने भारतीयों के पक्ष में सिफारिशें कीं. माहौल गिरमिटियों के पक्ष में था. मोहनदास व कस्तूरबा की भारत वापसी की तारीख भी सुनिश्चित हो चुकी थी. एक लंबे संघर्ष का बेहतर नतीजा देकर गांधी केपटाउन से जहाज में बैठ कर वापस लौट रहे थे. सब की आंखें नम थीं. 21 साल बाद वे यहां से जा रहे थे. इंडियन ओपीनियन के संपादकीय का शीर्षक उन्होंने दिया था: संघर्ष और परिणाम जिसकी शुरुआत कुरान की एक आयत से करते हुए कहा कि कितनी बार खुदा की मर्जी से छोटी-छोटी सेनाओं ने बड़ी-बड़ी सेनाओं को पराजित किया, 'वह' उन्हीं के साथ है जो धैर्यपूर्वक संघर्ष करते हैं.''
पहला गिरमिटिया के नायक के जीवन का यह पहला चरण है. यहां रह कर गांधी ने केवल अपनी स्थिति ही मजबूत नहीं की, गिरमिटियों के जीवन स्तर में सुधार का यत्न ही नहीं किया बल्कि स्वाभिमान के साथ वहां मेहनत मजदूरी करने के लिए भी एक न्यूनतम मानवीय स्थिति बहाल करने के लिए सत्याग्रह का रास्ता सुझाया. तीन घातक बिलों को निरस्त करने के लिए संगठित रास्ता अख्तियार कर अपने सत्याग्रह एवं शांतिपूर्ण रवैये से प्रिटोरियाई शासन को नरम रुख अख्तियार करने पर विवश किया. कितने साथी संगी उनके साथ रहे. प्रेस को चलाने वाले लोग, टॉलस्टॉय फार्म व फीनिक्स आदि को गुलजार करने वाले सत्याग्रहियों से गांधी ने वह बल अर्जित किया जिसका एक परिष्कृत प्रयोग उन्होंने भारत लौट कर किया.
उपन्यासकार गिरिराज किशोर ने पूरे उपन्यास में जैसे गांधी-मन को पढ़ लिया है. देखत तुमहिं तुमहिं होइ जाई वाले भाव से उन्होंने गांधी के एक-एक पल के मनोविज्ञान को यहां निरूपित किया है. गांधी लंदन में रहते हुए डायरी लिखा करते थे जो क्रम यहां भी बना रहा. उनकी आत्मकथा सत्य के प्रति उनके अडिग व्यवहार और सदाचरण की राह पर चलने की जिद का रोजनामचा हैं. गिरिराज किशोर ने गांधी जीवन के अफ्रीका प्रवास की सारी घटनाओं को बारीकी से क्रमबद्धता में बांधते हुए उपन्यास में पिरो दिया है. देखा जाए तो जीवनपरक उपन्यासों में यदि बहुत डिटेल्स होते हैं तो उनका नैरेटिव एक किस्म की ऊब पैदा करता है किन्तु गांधी के जीवन को विवेचित करते हुए घटना बहुलता को जिस रोचक आख्यानक में गिरिराज किशोर ने रखा वह साधारण काम नहीं है. कुल 904 पृष्ठों की यह कृति आदि से अंत तक उत्सुकता जगाए रखती है. कहा जा सकता है जैसे नाना पुराण निगमागम सम्मतं यद् से तुलसी ने रामचरित मानस का प्रणयन किया, ठीक उसी तरह गांधी जीवन के तमाम प्रसंगों खास तौर पर दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए डरबन, जोहांसबर्ग, केपटाउन, नेटाल आदि में उनकी जो गतिविधियां रहीं उन्हें तमाम स्रोतों से छान कर जिस सहज किस्सागोई में उन्होंने पिरोया है वह उनकी गहन औपन्यासिक दृष्टि का परिचय देता है तथा यह भी कि जहां प्रामाणिक तथ्य उपलब्ध नहीं थे, उन प्रसंगों में लेखकीय कल्पना से खूबसूरत अल्फाज में बांधा है कि पूरा का पूरा विन्यास प्रवाही गद्य का उदाहरण बन गया है. गांधी जीवन और दर्शन पर हजारों ग्रंथ उपन्यास, काव्य, विवेचन, विश्लेषण एवं वृत्तांत लिखे गए हैं. पर पहला गिरमिटिया अलग तरह की कृति है. इसकी तुलना ओड़िआ में शरत कुमार मोहंती द्वारा लिखे उपन्यास 'गांधी मानुष' और रामचंद्र गुहा की अंग्रेजी में लिखी वृहत जीवनी 'गांधी' से ही की जा सकती है. 'गांधी मानुष' को तो साहित्य अकादेमी पुरस्कार भी मिला था, जिसका हिंदी अनुवाद सुजाता शिवेन ने किया है और साहित्य अकादेमी से ही उसका प्रकाशन भी हुआ है. इसी तरह 'गांधी' का पहला खंड भी सुशांत झा के अनुवाद की मार्फत हिंदी संसार को उपलब्ध है.