बॉलीवुड की महानतम हस्ती दिलीप कुमार का जीवन संघर्ष, सफलता, सम्मान और समझ की वह कहानी है, जिससे हमारी भारतीय सभ्यता, परिवार, समाज और आदर्श का गठन हुआ. सपनों से भरे एक युवा के जीवन की इस यात्रा को अंकित करने का श्रेय जाता है, चर्चित पत्रकार और लेखक उदय तारा नैयर को. अंग्रेजी में दिलीप साहब के शब्दों को उन्होंने लिखा और उनके जीवनकाल में ही यह Dilip Kumar- The Substance and the Shadow: An Autobiography नाम से प्रकाशित हुई. हिंदी में वाणी प्रकाशन ने इसे 'दिलीप कुमार: वजूद और परछाईं' नाम से प्रकाशित किया.
दिलीप कुमार की इस आधिकारिक आत्मकथा में उनके जन्म से लेकर अब तक की जीवन-यात्रा का वर्णन है. इस प्रक्रिया में दिलीप कुमार से बातचीत और उनके संबंध, जो समाज में व्यापक स्तर पर, केवल पारिवारिक ही नहीं, अपितु फ़िल्मी दुनिया से जुडे़ लोगों के साथ-साथ राजनीतिज्ञों सहित विविध लोगों से रहे हैं को भी शामिल किया गया था. इस पुस्तक से पता चलता है कि दिलीप साहब के बारे में जो बहुत कुछ लिखा जा चुका है, वह मिथ्या और भ्रामक है. वह स्पष्ट रूप से बताते हैं कि उन्होंने कैसे सायरा बानो से शादी की, जो कि एक परीकथा की तरह है. यही नहीं उनका बचपन किस तरह के माहौल में बीता था, कि कैसे जब उन्होंने अपनी पहली कमाई, जब अपनी मां के हाथों में रखी थी, तो उन्होंने दिलीप साहब को 'कुरान ए पाक' की कसम दिलाई थी.
अब जब दिलीप साहब इस दुनिया में नहीं हैं, तो उन्हें श्रद्धांजलि स्वरूप इसी पुस्तक से एक अंश
पुस्तक अंश - दिलीप कुमार: वजूद और परछाईं, शाहख़र्च की वापसी
'वे इस बात से ख़ुश थे कि उनके एक लड़के में यह
हुनर था कि वह उनके फलों के कारोबार को आगे बढ़ा
सके. मेरे अन्दर यह भाव भी उठ रहा था कि यह बहुत
अच्छा होगा कि मोहम्मद सरवर ख़ान, जो एक कामयाब
फल व्यापारी है उनसे हुनर सीखकर परिवार के काम को
आगे बढ़ाया जाये, लेकिन मैं इसके लिए नहीं बना था.'
जब हालात ख़राब हुए तो कुछ अवश्यंभावी घटित हुआ. क्लब के अधिकारी बदल गये और ठेकेदार ताज मोहम्मद ख़ान की जगह नयी कार्यकारिणी ने नया ठेकेदार चुन लिया. मैनेजर भी यह नहीं चाहता था कि आगे काम किया जाये इसलिए उसने मुझे छोड़ देने के लिए कहा. तब तक मैं कई बण्डल नोट कमा चुका था, जिनको मैंने पहली दफ़ा गिना. मेरे पास पूरे पांच हज़ार रुपये थे जो उस ज़माने में काफ़ी होते थे. पास के मस्जिद में मैं जिस मौलवी साहब और अन्य लोगों के सम्पर्क में रहता था उन्होंने मुझे बताया कि रमज़ान का महीना समाप्त होने वाला था. तब मैंने सोचा कि अब बम्बई लौट कर जाने का समय हो गया है और वहां जाकर वह काम करूंगा जो आगाजी को पसन्द आयेगा या फल के काम में उनकी मदद करूँगा. मैं अब पहले से कुछ अधिक खुले विचारों वाला और आत्मविश्वास से भरा इंसान बन गया था. लेकिन मुझे यह समझ में नहीं आ रहा था कि मैं आगाजी को किस तरह से यह समझा पाऊंगा कि मैं घर छोड़कर क्यों भागा था. मुझे यक़ीनन यह लग रहा था कि वे तब तक मुझे माफ़ नहीं करेंगे जब तक कि अम्मा उनको अच्छी तरह से समझा नहीं देंगी. असल में, अगर मैं एक छोटी-सी बात पर आगाजी के इस तरह ग़ुस्से में आने के कारण घर छोड़कर नहीं गया होता तो अगले दिन सब कुछ सामान्य हो चुका होता, अम्मा अपने दिमाग़ से और समझाने के अन्दाज़ से इस मसले को सुलझा लेतीं. यह महज़ क़िस्मत की बात थी कि मैंने न ख़ुद को न अम्मा को हालात को सुलझाने का मौक़ा दिया.
अब मैं ख़ुश था कि मैं अपने बूते पर निकल पड़ा और मैंने बहुत कुछ महत्त्वपूर्ण सीखा, लेकिन मैंने थोड़ी-बहुत आज़ादी को भी महसूस किया था, अब मैं इस बात को लेकर पक्का नहीं था कि आगाजी के कहे मुताबिक़ आगे भी काम करता या नहीं.
मैं ईद से कुछ दिन पहले बम्बई आ गया. अयूब साहब को यह पता था कि मैं किस दिन आने वाला था लेकिन उन्होंने अम्मा से यह बात छिपाकर रखी. मेरे छोटे भाई नासिर और मेरी बहनों को भी पता था कि भगोड़ा वापस आने वाला है लेकिन उन्होंने भी चुप्पी बनाये रखी. मेरी सबसे छोटी बहन इतनी छोटी थी कि उसे भूख लगने पर रोने के सिवा कुछ भी नहीं आता था. जब मैं चौथे माले के अपने फ्लैट की सीढ़ियां चढ़ रहा था तो मैं अपने दिल की धड़कनों को सुन सकता था. जानी-पहचानी आवाज़ें, हमेशा की तरह ताक-झांक करते पड़ोसी, सड़कों पर कार की आवाज़ें और आराम से चलते पैदल मुसाफ़िर, यह सब देखकर बहुत अच्छा लग रहा था. मैंने महसूस किया कि मैं जब एक ऐसे शहर में था जहां मुझे कोई भी नहीं जानता था तो इन सबको किस क़दर याद कर रहा था, जबकि सच्चाई में, मैं अवचेतन में अपने घर और आसपास की अवर्णनीय सुरक्षा की कमी को बेतरह महसूस कर रहा था.
जब मैं घर में घुसा, मेरी छोटी बहन ने मुझे सबसे पहले देखा और वह अम्मा को ख़बर करने भागी. वह तेज़ी से आयीं, लेकिन मैं वहीं खड़ा रह गया, मैं आगे क़दम नहीं बढ़ा पा रहा था क्योंकि मैं राहत और ख़ुशी के मारे कांप रहा था. अगले ही पल, मैं अम्मा के गले लग गया, जो बेआवाज बातें कर रही थी जबकि मेरे भाई-बहन शोरगुल में लगे थे. मैंने दरवाज़े के पास क़दमों की आवाज़ सुनी, जिससे मैं डर गया क्योंकि मुझे लगा कि वह आगाजी की थी. वह चाचू उमर के पैरों की निकली, जिनको पहले माले पर लोगों ने बताया था कि मैं वापस आ गया था और वे इस बात की पुष्टि करने आये थे. संक्षेप में कहें, तो वह पुनर्मिलन ऐसा लग रहा था जैसा कि हम सब पारिवारिक फ़िल्मों में देखते हैं जो हम सब एक बार बनाते हैं जिसमें कोई भी यह नहीं जानता कि कौन किससे क्या कह रहा होता था और कोई हंस रहा होता था और कोई शोर मचा रहा होता था कि उसकी बात को सुन लिया जाये. अम्मा के आँसू हंसी में बदल गये और फिर आदतन उनको फ़िक्र हुई और उन्होंने पूछा कि क्या मैंने रोज़ा रखा हुआ था. मैंने नहीं कहा. उस क्लब में रोज़ा रखना मुश्किल था क्योंकि वहां काम का कभी अन्त ही नहीं होता था.
मैंने जल्दी ही ख़ुद को महीनों की बिछड़न के बाद अम्मा के कमरे में पाया. मुझे यह विश्वास कर पाने में कुछ वक़्त लग गया कि मैं सचमुच वापस लौट आया था और अम्मा के पास उनके प्यारे बड़े से बिस्तर पर बैठा था. वह कमज़ोर और थकी-थकी लग रही थीं और उन्होंने अपने काले बालों को लेस वाले दुपट्टे से ढंक रखा था. मुझे याद आया कि यह वही दुपट्टा था जो उन्होंने उस दिन ओढ़ रखा था जिस दिन मैं घर से निकला था. मैंने उनके लिए यह लेस क्रॉफर्ड मार्किट के पास की एक दुकान से ख़रीदी थी जहां से अंग्रेज़ और पारसी महिलाएं अपने कपड़ों को सुन्दर बनाने के लिए बॉर्डर और लेस ख़रीदते थीं. अम्मा को अपने कपड़ों को सजाने-संवारने का ज़रा भी शौक़ नहीं था मगर मेरी फूफियों को था. वे हमेशा मुझे कपड़ों की दुकानों में ले जाती थीं जहां से रेशमी या सूती कपड़ों के थान के थान ख़रीदा करती थीं. उनको मेरी पसन्द अच्छी लगती थी लेकिन उनकी शिकायत रहती थी कि मैं सबसे अच्छे रंग के कपड़े अम्मा के लिए ख़रीदता था. सच्चाई यह है कि मैं हमेशा वही रंग अम्मा के लिए चुनता था जो उनकी रंगत के मुताबिक़ होता था, और बावजूद इसके कि अम्मा को इसकी ज़रा भी परवाह नहीं थी कि वह क्या पहनती थीं, वह हमेशा सुन्दर और शालीन लगती थीं. जब मैं उनकी बगल में बैठा तो मुझे लगा कि यही सही वक़्त है पैसे निकालकर उनके सामने रख कर उनको हैरान कर देने का. मैंने अपना बैग खोला और उसमें से वह पैकेट निकाला जिसमें पैसे रखे थे. मैंने उसे निकालकर उनके मुलायम हाथों में रख दिया जबकि वह मुझे उत्सुकता से देखने लगीं. मैं इन्तज़ार करता रहा यह देखने के लिए कि जब वह पैकेट खोलेंगी तो किस तरह से अपनी ख़ुशी को ज़ाहिर करेंगी. उन्होंने नोटों के बण्डल की तरफ़ देखा और डर तथा चिन्ता के साथ मुझे देखने लगीं. 'यह क्या है? यह तुमको कहां से मिला?' उन्होंने महीन आवाज़ में पूछा, जिसमें उनकी चिन्ता झलक रही थी. मैं इस बात के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं था. मैंने उनको बताया कि यह पैसा मैंने अपनी मेहनत और हुनर से कमाया है. उन्होंने मुझे घूरकर देखा और बिना एक लफ़्ज़ कहे क़ुरान शरीफ़ के पास गयीं. उन्होंने मुझसे कहा कि मैं क़ुरान की क़सम खाकर कहूं कि मैंने जो पैसा कमाया है वह ईमानदारी से कमाया है. मैंने इस बात को स्वीकार करते हुए कि मुझे तकलीफ़ पहुंची है उस पाक किताब को लेकर क़सम खाई. मैंने देखा कि वह सन्तुष्ट हो गयी थीं. आगाजी हमेशा की तरह शाम में उस समय घर आये जब परिवार के लिए रोजे खोलने का समय हुआ. मैं तब तक अपने कमरे में था, नहा-धोकर झक्क सफ़ेद पैंट-शर्ट पहने, माँ ने जो पकाया था उसको खाने के लिए तैयार. मैंने सुना कि वह आगाजी से कह रही थीं कि मैं वापस आ गया था और मैंने उनको यह कहते हुए सुना कि उनको इस बात का पता था, यह आगाजी का अन्दाज़ था यह जताने का कि उनके अन्दर किसी तरह की भावना नहीं थी या उनको कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. उनके अन्दर की ऊष्मा और चिन्ता तब उभरकर आयी जब अम्मा को दमे का गम्भीर दौरा पड़ा था और उनकी साँस रुक रही थी. वह चिल्ला रहे थे कि कोई सामने की सड़क तक जाये और डॉक्टर को बुला कर ले आये. उस समय वे बहुत असहाय लग रहे थे. मुझे अब भी याद है कि वह लहीम शहीम क़द मेरी बीमार अम्मा को अपनी बांहों में थामे बैठा हुआ था.
पुस्तकः दिलीप कुमार: वजूद और परछाईं
लेखकः दिलीप कुमार ( अंग्रेजी में जैसा उन्होंने उदय तारा नैयर से कहा)
विधाः जीवनी
अंग्रेजी से अनुवादः प्रभात रंजन
संपादनः युगांक धीर
भाषाः हिंदी
प्रकाशकः वाणी प्रकाशन
पृष्ठ संख्याः 422
मूल्यः 495 रुपए, पेपर बैक संस्करण