आज मशहूर नग़मानिग़ार क़तील शिफ़ाई का जन्मदिन है. वह 24 दिसंबर, 1919 को हरिपुर हज़ारा में जन्में थे. उनका असली नाम औरंगज़ेब ख़ान था. क़तील उनका तख़ल्लुस था, क़तील यानी वो जिसका क़त्ल हो चुका है. उन्होंने रावलपिंडी में हाईस्कूल तक की पढ़ाई की, पर पिता की असमय मौत के चलते स्कूली पढ़ाई छूट गई. कामधाम के सिलसिले में रावलपिंडी पहुंचे और घर चलाने, पेट पालने के लिए तरह-तरह का काम करने लगे.
पर उनके मुकद्दर ने उनके लिए कुछ और ही लिखा था. संघर्ष के दौर में उनका लिखना-पढ़ना जारी रहा. पढ़ते क्या, उर्दू और अपने वक्त के आलिम शायरों को. लिखते भी वही शायरी. इसी चक्कर में हज़रत शिफ़ा को उस्ताद बनाया और त्रिलोकचंद महरूम, जगन्नाथ आज़ाद, अब्दुल अज़ेज़ फ़ुरसत और अब्दुल हमीद अदम से दोस्ती की. इसका फायदा भी हुआ.
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साल 1947 में जब देश का बंटवारा हुआ और दंगे फैले तो वह रावलपिंडी छोड़ लाहौर चले गए. वहां उन्होंने शायरी में ही हाथ आजमाना चाहा, पर पाकिस्तान में बंटवारे के पहले साल तो कोई फ़िल्म बनी नहीं. वह निराश से होने लगे, पर मेहनत रंग लाई. 1948 में जब पहली फ़िल्म 'तेरी याद' बनी, तो तनवीर नक़वी और सैफ़ुद्दीन सैफ़ के साथ क़तील शिफ़ाई को भी गीत लिखने का मौका मिला. उनका वह गीत चल निकला, और लाहौर की साहित्यिक जमात में उठक-बैठक बढ़ गई. यहीं वह साहिर लुधियानवी, ए. हमीद और अहमद राही के दोस्त बने. सबब बना फि़ल्मी रिसाला 'अदाकार', जिसके संपादन से शिफ़ाई जुड़ चुके थे.
फिल्मी पत्रिका का संपादन और फिल्मों में गीत लिखने का उन्हें बहुत फ़ायदा हुआ. मौके मिलने लगे, माली हालत मजबूत हुई और शोहरत भी मिली. 1955 की फिल्म 'क़ातिल' में इक़बाल बानो का गाया 'उल्फ़त की नई मंज़िल को चला, यूं डाल के बाहें बाहों में....1957 की फिल्म 'इश्क़-ए-लैला' में क़तील-इक़बाल बानो और संगीतकार सफ़दर हुसैन का 'परेशां रात सारी है, सितारों तुम तो सो जाओ' खूब चर्चित हुआ. इस गीत को बाद बाद में हिंदुस्तानी गज़ल गायक जगजीत सिंह और चित्रा सिंह ने भी अपनी आवाज दी.
1980 में जगजीत सिंह और चित्रा सिंह ने जब अपना अलबम 'ए माईलस्टोन' रिकॉर्ड किया, तो क़तील शिफ़ाई की गज़लों को अपनी आवाज से घरघर में पहुंचा दिया. इसमें 'अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको, मैं हूं तेरा, तू नसीब अपना बना ले मुझको'; 'परेशां रात सारी है सितारों तुम तो सो जाओ'; 'मिल कर जुदा हुए तो ना सोया करेंगे हम, इक दूसरे की याद में रोया करेंगे हम'; 'ये मौज़्ज़ा भी मुहब्बत कभी दिखाए मुझे, कि संग तुझ पे गिरे और ज़ख्म आए मुझे'; 'तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहां जाते, जो वाबस्ता हुए तुमसे वो अफ़साने कहां जाते'; 'पहले तो अपने दिल की रज़ा जान जाइए, फिर जो निगाहे यार कहे मान जाइए' जैसी गज़लें शामिल हैं.
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हिंदुस्तानी फ़िल्मों में क़तील ने फिल्म 'पेंटर बाबू', 'फिर तेरी कहानी याद आई', 'सर', 'नाराज़', 'नाजायज़' आदि के लिए गीत लिखे. इनमें से कई फिल्म चाहे न चली हों, पर उनके लिखे नगमें, 'तेरे दर पर सनम चले आए, तू ना आया तो हम चले आए'; 'आज हमने दिल का हर किस्सा तमाम कर दिया'; 'कब तलक शमा जली याद नहीं' 'दिल देता हैं रो रो दुहाई, किसी से कोई प्यार ना करे' और 'जब याद की बदली छाती है' काफी मशहूर हुए.
उनकी कामयाबी का आलम यह था कि उन्होंने एक गीत 'ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं, मैं तो मरकर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा,' 1973 में रिलीज़ हुई पाकिस्तानी फिल्म 'अज़मत' के लिए लिखा था, जिसे बाद में मेहंदी हसन ने इतने मन से गाया कि लोग इसे उन्हीं की मानने लगे. इसी तरह ग़ुलाम अली की आवाज़ में 'मेरी नज़र से न हो दूर एक पल के लिए, तेरा वज़ूद है लाज़िम मेरी ग़ज़ल के लिए,' इतनी मशहूर हुई का क्या कहना. उनकी गज़लों को कितने लोगों ने कितने अंदाज में, कितनी-कितनी बार गाया, लिखना मुश्किल है. उन्हीं में से एक है 'जब भी आता है मेरा नाम तेरे नाम के साथ, जाने क्यों लोग मेरे नाम से जल जाते हैं.'
क़तील दर्द और प्यार के शायर हैं. वह 17 साल के थे जब शादी हो गई, पर आशिकी ताउम्र बनी रही. दिल टूटता और गज़ल बन जाती. एक दौर में उनका इश्क़ हीरोइन चंद्रकांता से चला. मुंबई में रश्मि थी. मशहूर गायिका इक़बाल बानो से तो इश्केमज़ाजी का आलम शादी की खबरों तक जा पहुंचा. क़तील शिफ़ाई ने इसे नकारा भी नहीं. हालांकि उनका निकाह नहीं हुआ, पर दोनों उस मुहाने तक जा ही पहुंचे थे. साहिर लुधियानवी और क़तील के बीच खासा दोस्ताना था. साहिर ने क़तील की एक ग़ज़ल का मतला 'जब भी चाहें इक नई सूरत बना लेते हैं लोग, एक चेहरे पर कई चेहरे सजा लेते हैं लोग' को फिल्म 'दाग़' में थोड़ा बदलकर इस्तेमाल किया था.
यादें - पंकज सिंह, वह मुलाकात जो हुई नहीं
11 जुलाई, 2001 को क़तील शिफ़ाई का निधन हुआ, पर उससे पहले वह एक मशहूर शायर और गीतकार के अलावा पत्रकारिता के क्षेत्र में अपनी छाप छोड़ चुके थे. वह लाहौर के मासिक अदबे-लतीफ़, साप्ताहिक अदाकार, साप्ताहिक उजाला और पेशावर के मासिक संगे-मील के संपादकीय विभाग से जुड़े रहे. इसके अलावा वह दोबार पाकिस्तान राइटर्स गिल्ड के सचिव भी बने. उनकी चर्चित किताबों में हरियाली, गजर, जलतरंग, रौज़न, झूमर, मुतरिबा, छतनार, गुफ़्तगू, पैराहन, आमोख्ता, अबाबील, बरगद, बरगद, घुँघरू और समंदर में सीढ़ी शामिल था... इस अज़ीम शायर को साहित्य आजतक की श्रद्धांजलि!