हिंदी के अनन्य सेवकों में ही नहीं, हिंदी के सम्मान और स्वाभिमान की रक्षा के लिए लड़ने वाले महारथियों में भी राजर्षि टंडन जी का नाम सबसे आगे आता है. किसी भी अकेले व्यक्ति ने हिंदी को आगे बढ़ाने में उतना काम नहीं किया या हिंदी के लिए वैसी दुर्धर्ष लड़ाइयां नहीं लड़ीं, जैसी राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन ने. इसके लिए राजनीतिक क्षेत्र में कदम-कदम पर मिलने वाले विरोध के अलावा निजी तौर पर भी उन्हें कोसने वाले कम न थे. पर टंडन जी तो किसी और ही मिट्टी के बने थे. वे हर आंधी-तूफान में हिमगिरि की तरह अडिग खड़े रहे और हिंदी की सेवा के लिए जो कटुतम आलोचनाएं और अपशब्द सुनने को मिले, उन्हें हिंदी का प्रसाद समझकर झोली में डाल लिया.
कहना न होगा कि टंडन जी आधुनिक हिंदी के सबसे बड़े अलंबरदारों में से थे, पर विनयी इतने कि न कभी उन्होंने अपने मुंह से अपनी हिंदी-सेवा की चर्चा की और न यह कभी चाहा कि लोग उनके सिर पर प्रशंसाओं के पुलिंदों का ताज रखकर अभिनंदन करें. यहां तक कि हिंदी के लिए जो उन्हें जो विकट शूल सहने पड़े, उन्हें लेकर अपनी विपदाओं का बखान करना भी उन्हें कतई प्रिय नहीं था. हिंदी उनके लिए भाषा नहीं, सचमुच मां ही थी और बेटे को मां की सेवा में अगर अथक कष्ट झेलने भी पड़ें, तो उसकी चर्चा कर वह स्वयं को या अपनी वत्सला जननी की ममता और बड़प्पन को क्यों छोटा करेगा?
ऊपर से देखने पर टंडन जी के जीवन में बड़ी विरोधाभासी स्थितियां नजर आती हैं. उनका परिवार राधास्वामी का अनुयायी था. टंडन जी पर भी इसका प्रभाव पड़ा. उनके रहन-सहन, वेश और खानपान में जो सादगी और सरलता थी तथा उनके मन में जो करुणा और परदुखकातरता थी, वह भी संभवतः वहीं से आई. उन्होंने अपने बेटों के नाम संतप्रसाद, स्वामीप्रसाद, गुरुप्रसाद आदि रखे, इस पर भी राधास्वामी संप्रदाय का ही प्रभाव था. और एक बार तो वे मठाधीश होते-होते बचे. आगरा के राधास्वामी संप्रदाय की गद्दी के लिए चुनाव हुआ, तो कुछ मित्रों के कहने पर उन्होंने भी अपना नाम दे दिया. चुनाव हुआ तो बहुत कम मतों से वे हार गए, वरना शायद उनकी नियति कुछ और होती.
टंडन जी सादगी और सरलता की मिसाल थे और अपनी बहुत सादा कुरते-धोती वाली वेशभूषा से ही उनकी पहचान थी, पर बहुतों को शायद पता न हो कि कॉलेज के दिनों में वे क्रिकेट के बहुत अच्छे खिलाड़ी और अपनी क्रिकेट टीम के कप्तान थे. इसी तरह टंडन जी हिंदी के अनन्य भक्त होने के साथ ही फारसी के बहुत अच्छे विद्वान थे और अंग्रेजी भी उनकी बहुत अच्छी थी. पर इन सबके बावजूद उनका हिंदी प्रेम एक अनोखी मिसाल बन गया. इसकी कुछ-कुछ प्रेरणा उन्हें स्वदेशी आंदोलन से मिली. फिर बालकृष्ण भट्ट सरीखे हिंदी के विद्वान साहित्यकार उनके गुरु थे, जिनके सान्निध्य में उनका हिंदी-प्रेम परवान चढ़ा. उनके पुत्र संतप्रसाद टंडन ने टंडन जी के व्यक्तित्व का विश्लेषण करते हुए लिखा है-
"बाबू जी के जीवन को बनाने में चार व्यक्तियों का प्रमुख हाथ रहा है- उनके माता-पिता अर्थात हमारे पितामह और दादी, पंडित मदनमोहन मालवीय और पंडित बालकृष्ण भट्ट. हमारे पितामह से उन्हें सत्य पर अडिग रहने की शिक्षा मिली, दादी से स्वभाव की दृढ़ता मिली, मालवीय जी से समाज और हिंदी की सेवा और भट्ट जी से हिंदी में लिखने की प्रेरणा मिली."
यही नहीं, टंडन जी घर-परिवार में कैसे थे, यह जानना और भी दिलचस्प है. घर पर भी उनकी छवि के साथ ईमानदारी और कठोर अनुशासन इस कदर जुड़ा हुआ था कि बच्चों और घर-परिवार के दूसरे सदस्यों पर इसका गहरा असर पड़ा. टंडन जी बड़े पदों पर रहे हैं, और उनका वह रोब-रुतबा रहा है, जिसकी बड़े से बड़े राजनेता कभी कल्पना भी नहीं कर सकते. पर मजाल है कि घर का कोई प्राणी उनसे जुड़े किसी पद से लाभ उठाने की बात सोच भी ले. ऐसे में वे अंगार हो जाते थे. उनके बड़े बेटे डॉ संतप्रसाद टंडन ने 'मेरे पिता जी' शीर्षक से लिखे गए लेख में घर-परिवार में टंडन जी के गुणों, दिनचर्या और ऐसी बहुत सी बातों के बारे में लिखा है, जिन्हें पढ़कर मन चकित होता है, अभिभूत भी.
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एक संत, एक आदि विद्रोही
टंडन जी के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वे ऊपर से संत सरीखे सरल नजर आते थे, पर उनके भीतर एक आदि विद्रोही भी बैठा था, जो किसी भी अन्याय के विरोध में तनकर खड़ा हो जाता था. एक बार वे कोई फैसला कर लेते तो कोई उन्हें सत्य पथ से डिगा नहीं सकता था. जिन दिनों टंडन जी वकालत कर रहे थे, तब की एक घटना है, जिससे उनकी असाधारण दृढ़ता का पता चलता है. उन दिनों इस तरह की बहुत घटनाएं हो रही थीं, जिनमें लोगों को झूठे सपने दिखाकर लोभ-लालच से या फिर जबरदस्ती फिजी आदि मुल्कों में भेजा जाता. वहां उन पर भीषण अत्याचार होते. बहुत कठिन और अमानवीय स्थितियों में उन्हें रहना पड़ता था.
एक दिन टंडन जी को पता चला कि शहर में बहुत से गरीब लोगों को इसी तरह बहला-फुसलाकर या फिर जोर-जबरदस्ती से किले में ले जाया जा रहा है, ताकि उन्हें बंधुआ मजदूर बनाकर दूसरे मुल्कों में भेजा जा के. इस पर टंडन जी इसके विरोध में पूरे इलाहाबाद में एक बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया. हर तरफ उसकी चर्चा थी. बाद में यह खबर अंग्रेज जिलाधिकारी तक भी पहुंची. उसने टंडन जी को बुलाकर समझाया कि अभी तुम्हारे सामने पूरा भविष्य पड़ा है. इसलिए इस तरह की बातों से तुम्हें दूर रहना चाहिए. पर टंडन जी ने बड़ी विनम्रता और दृढ़ता के साथ कहा, "अगर कहीं अन्याय हो रहा हो, तो उसका विरोध किए बिना मैं हरगिज नहीं रह सकता."
जितनी बार उस अंग्रेज अधिकारी ने उन्हें भला-बुरा समझाने की कोशिश की, उतनी ही बार टंडन जी से अविचलित भाव से यही उत्तर दिया. इस पर अंग्रेज जिलाधिकारी ने बिगड़कर कहा, "लगता है, तुम अंग्रेज हुकूमत के विरोधी हो?"
टंडन जी ने उसी दृढ़ता से कहा, "आपको यह बात बहुत देर से पता चली!" सुनकर वह अंग्रेज अधिकारी भौचक्का रह गया. कोई हिंदुस्तानी अंग्रेज अधिकारी के मुंह पर ऐसी बात कहे, उस समय कोई यह कल्पना भी नहीं कर सकता था. पर टंडन जी मन से निर्भीक थे और जहां सच्चाई का प्रश्न हो, वहां कोई तिल भर उन्हें झुका नहीं सकता था.
इस घटना से पता चलता है कि उनकी विनम्रता के भीतर कैसा चट्टानी मन था, जो बड़े से बड़े खतरे उठा सकता था.
इसी तरह का एक प्रसंग टंडन जी की छात्रावस्था का है जिसका जिक्र अमृतलाल नागर ने अपने संस्मरण में किया है. जब टंडन जी विद्यार्थी थे, तो छात्रनेता के रूप में उनका बड़ा नाम और सम्मान था. एक बार की बात, उनके स्कूल में खेल आयोजित किए गए. एक अंग्रेज अध्यापक मि. हिल को खेलों के निरीक्षण का जिम्मा सौंपा गया. पर उस अंग्रेज अध्यापक की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी. इसलिए उसने पुलिस को यह जिम्मा सौंप दिया कि वह अपनी देखभाल में ठीक से छात्रों के खेल कराए. छात्रों को यह बात पसंद नहीं आई कि पुलिस को इस काम में लगाया जाए. उन्होंने विरोध किया. टंडन जी खेल-सचिव थे. उन्होंने छात्रों से बात की तो सभी का यह कहना था कि, "यह तो हमारे लिए बहुत अपमानजनक है. अगर मि. हिल खेलों की व्यवस्था नहीं देख सकते थे तो उन्हें छात्रों को यह जिम्मा सौंप देना चाहिए था. पुलिस यह व्यवस्था देखे, यह हमें मंजूर नहीं है."
खुद टंडन जी का भी यही विचार था. लिहाजा छात्र-नेता के रूप में वे अंग्रेज अध्यापक मि. हिल से मिले और कहा, "आप खेलों की व्यवस्था नहीं देखना चाहते तो इसे छात्रों को सौंप दीजिए. छात्र स्वयं सारा इंतजाम कर लेंगे. पुलिस का दखल हमें मंजूर नहीं है और छात्र उसका बिल्कुल सहयोग नहीं करेंगे."
यह सुनकर अंग्रेज अध्यापक को बड़ा गुस्सा आया और उसने उलटा टंडन जी को ही उलटा-सीधा कहा. साथ ही फैसला सुना दिया, "जो मेरा निर्णय है, वह बदला नहीं जा सकता." इतना ही नहीं, उसने पुलिस अधिकारियों को शह देते हुए कहा, "इस छात्र को पकड़कर तुम इसके साथ जो भी सलूक करना चाहो, कर सकते हो."
इस पर टंडन जी ने छात्रों से कहा, "हम इस अंग्रेज अध्यापक को ही स्कूल से निष्कासित करने की मांग करते हैं." वही हुआ. इतना भीषण विरोध कि हर कोई भौचक्का. बाद में उस अंग्रेज अध्यापक के कहने पर टंडन जी को स्कूल से निकाल दिया गया. उनका पूरा एक साल बरबाद हो गया, पर चेहरे पर जरा भी शिकन नहीं थी. अपने निर्णय पर उन्हें जरा भी अफसोस नहीं था. उन्होंने एक सही बात के लिए कष्ट सहा, तो भला वे दुखी क्यों हों?
शायद यही कारण है कि टंडन जी की ऊपरी सरलता के बावजूद उनका मन इस्पाती था. भीतर की पूरी दृढ़ता और टंकार के साथ वे कहते थे, "देश की सेवा बाजार की चीज नहीं है. वह बेची नहीं जाती है. जिस देश में दूध नहीं बेचा जाता था, कन्या नहीं बेची जाती है, देशभक्ति भी वहां बिकती नहीं है. देशभक्ति तो देश के लिए है. उसके लिए कष्ट उठाना ही अपना संतोष है. यही आनंद है." और इसीलिए देश के लिए जूझने और कष्ट उठाने का अवसर आया, तो टंडन जी हमेशा अग्रिम पंक्ति में खड़े दिखाई दिए. वे निर्भीक मन और निर्भीक आत्मा वाले देशरत्न थे. कोई उन्हें भयभीत नहीं कर सकता था और न किसी तरह के किंतु-परंतु के लिए वहां कोई जगह थी.
वियोगी हरि ने राजर्षि टंडन जी पर लिखे अपने भावपूर्ण संस्मरण में इस बात का जिक्र किया है कि महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद और भगतसिंह से उनके बहुत करीबी संबंध थे और टंडन जी हर खतरा उठाकर भी उनकी मदद के लिए आगे रहते थे-
"लाहौर में भगत सिंह उनके पास गए और कहा हमें प्रश्रय दीजिए. लाला लाजपतराय का जब लाठी से सिर फूट गया, तो सभी लाहौरवासी उमड़ पड़े. उस समय लालाजी ने कहा कि हर लाठी जो मेरे सिर पर मारी गई है, वह अंग्रेजी राज्य के विनाश की एक-एक कील है. तभी भगत सिंह ने यशपाल से कहा कि इसका जवाब देना है. यह बात आज जानना जरूरी है कि बाबू जी ने क्रांतिकारियों को भी प्रश्रय दिया था. यह इतिहास में आना चाहिए कि चंद्रशेखर आजाद गोली खाने से एक दिन पहले बाबू जी से मिलने गए. जब मालूम पड़ा के चंद्रशेखर शहीद हो गए हैं, तो टंडन जी दुख के मारे पागल से हो गए. बाबू जी की अध्यक्षता में इलाहाबाद के पार्क में सभा हुई. उस समय बाबू जी फूट-फूटकर रो पड़े थे."
इसी तरह जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी भी टंडन जी के कारण हिंदी से जुड़े, इसका जिक्र वियोगी हरि ने किया है, "अभी मेरे हाथ में एक फाइल पड़ गई. टंडन जी बहुत बीमार पड़े तो नेहरूजी मिलने गए. दोनों में सैद्धांतिक झगड़े हुए किंतु आत्मीयता रही. तुम का प्रयोग करते थे....टंडन जी ने सदैव नेहरू से कहा कि हिंदी में पत्र लिखा करो. जनवरी 53 के पत्र में जिसमें नेहरूजी ने अंग्रेजी में लिखने के लिए क्षमा मांगी है....1918 में इंदौर के हिंदी साहित्य सम्मेलन में सबसे पहले गांधीजी ने घोषणा की कि राष्ट्रभाषा हिंदी होगी. इसी सम्मेलन में उन्होंने अपने-अपने पुत्र देवदास गांधी को दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार करने के लिए भेजा."
राधास्वामी होने के नाते बहुत सादा संयमित भोजन और जीवन में कठोर अनुशासन को उन्होंने किसी तप की तरह अपनाया और सचमुच एक संत और तपस्वी जैसा जीवन जिया. पर हिंदी के सम्मान और स्वाभिमान के लिए जहां लड़ने की बात आई, वे हमेशा अपार धीरज और कर्तृत्व के साथ मोरचे पर सबसे आगे खड़े नजर आते थे. इस मामले में अपने गुरु महात्मा गांधी, जिनका वे सबसे अधिक सम्मान करते थे- से भी झगड़ने में उन्होंने संकोच नहीं किया. और यहां वे सही मायने में राजर्षि ही थे- राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन.
यहां इस बात का उल्लेख जरूरी है कि गांधीजी ने टंडन जी के एक पत्र के उत्तर में बड़ी स्पष्टता और दृढ़ता से कहा था कि, "मेरे लिए हिंदी का प्रश्न तो स्वराज्य का प्रश्न है." टंडन जी ने हिंदी के प्रश्न को इस तरह हवाओं में गुंजा दिया था कि पराधीनता के काल में देशसेवा के साथ-साथ राष्ट्रभाषा हिंदी की सेवा का भी राजनेताओं ने प्रण कर लिया. हिंदी स्वदेशी का मूलमंत्र थी और आत्मगौरव, आत्मसम्मान की भाषा. अपनी जमीन, अपनी धरती की भाषा, जो पूरे देश को एकता के सूत्र में बांधती थी. लिहाजा आजादी की लड़ाई जिन हथियारों से लड़ी गई उनमें हिंदी भी थी, जिसने पूरे देश के जनमानस को भावांदोलित कर दिया. टंडन जी के अनुरोध पर ही गांधीजी इंदौर में हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष बने. कुछ अरसे बाद इंदौर में ही वे फिर से हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष बने. दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए गांधीजी के अनुरोध पर दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना की गई. ये सभाएं हिंदी साहित्य सम्मेलन के अंतर्गत ही काम कर रही थीं, जिन्होंने दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार-प्रसार में बड़ी उल्लेखनीय भूमिका निभाई. इसी तरह नगालैंड, मिजोरम, और कश्मीर सरीखे राज्यो में भी हिंदी के प्रचार-प्रसार में सम्मेलन ने काम किया. इस सबके पीछे टंडन जी के कर्मठ और तेजस्वी व्यक्तित्व का ही बल था.
इसी तप और निःस्वार्थ साधना ने उन्हें बड़ा बनाया. यही कारण है कि उनका कद बड़े से बड़े राजनेताओं से ऊंचा था. सब उन्हें बहुत आदर-मान देते थे. नेहरूजी और डॉ राजेंद्र प्रसाद सरीखे राष्ट्रनायक हों, मैथिलीशरण गुप्त सरीखे बड़े साहित्यकार या डॉ. रघुवीर सरीखे भाषाविद् और विद्वान, सभी अपने पत्रों में उन्हें 'श्रद्धेय टंडन जी' कहकर संबोधित करते थे. डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने टंडन जी के लिए बिल्कुल सही लिखा है कि "उनका महान व्यक्तित्व इतना बड़ा है कि वह राजनीति और साहित्य की परिधियों में समा नहीं सकता."
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हिंदी-सेवा के लिए छोड़ा पद
पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी ने जो टंडन जी के बेहद निकट थे, उन पर बड़ा आत्मीय संस्मरण लिखा है. इसमें टंडन जी की फूलों सरीखी कोमलता और बज्र सरीखी कठोरता दोनों का ही चित्रण है. उनका अनुशासन कितना कठोर था और वे जनता की कितनी चिंता करते थे, इसका एक उदाहरण उन्होंने प्रस्तुत किया है. उन्होंने बताया कि टंडन जी प्रयाग नगरपालिका के पहले गैर-सरकारी अध्यक्ष थे. इससे पहले हमेशा आईसीएस अंग्रेज ही इसके अध्यक्ष हुआ करते थे. पर फिर सरकार ने निर्णय किया कि गैर-सरकारी अध्यक्ष हुआ करेंगे और टंडन जी प्रयाग नगरपालिका के पहले अध्यक्ष नियुक्त हुए.
उन दिनों छोटे लाट इलाहाबाद में रहते थे और उनके घर एक बहुत बड़ा स्विमिंग पूल था. उत्तर प्रदेश का पहला वाटर वर्क्स इलाहाबाद में ही बना था. शुरू में तो उससे पानी की पर्याप्त मात्रा लोगों को मिलती थी, पर फिर आबादी बढ़ने के साथ-साथ लोगों को किल्लत होने लगी. छोटे लाट का स्विमिंग पूल भी इसी पानी से भरता था. टंडन जी ने देखा कि लोग तो पीने के पानी के लिए भी तरस रहे हैं और इतना पानी स्विमिंग पूल भरने में चला जाता है. उन्होंने फौरन आदेश जारी किया कि स्विमिंग पूल के लिए पानी नहीं मिलेगा. जब पीने के लिए पानी की इतनी किल्लत है तो स्विमिंग पूल के लिए पानी देना मैं विलासिता समझता हूं. लिहाजा उन्होंने स्विमिंग पूल को पानी देने से साफ इनकार कर दिया. छोटे लाट बहुत झुंझलाए. टंडन जी पर तमाम दबाव भी पड़े. उस समय अंग्रेजों और छोटे लाट की जो पोजीशन थे, उसमें टंडन जी के लिए कैसी मुश्किलें आई होंगी, इसकी कल्पना की जा सकती है. पर टंडन जी एकदम अडिग थे और एक बार जो निर्णय कर लिया, उस पर जरा भी झुके नहीं.
जिस समय टंडन जी राजनीति में आए, उस समय मोतीलाल नेहरू और जवाहरलाल नेहरू ने अभी राजनीतिक पटल पर शुरुआत तक नहीं की थी. उस समय जवाहरलाल को राजनीति की शुरुआती दीक्षा देने के लिए मोतीलाल नेहरू को भला टंडन जी से अच्छा कौन व्यक्ति मिल सकता था? उन्होंने जवाहरलाल से कहा कि वे टंडन जी से सार्वजनिक जीवन की समस्याएं और वहां कैसे काम करना चाहिए, यह समझ लें. श्रीनारायण चतुर्वेदी ने इसकी तसदीक की है कि जवाहरलाल नेहरू अकसर टंडन जी के पास राजनीति के तौर-तरीके सीखने के लिए आते थे. इसका दिलचस्प वर्णन उन्होंने अपने संस्मरण में किया है-
"जब जवाहरलालजी ने तय कर लिया कि मैं वकालत न करूंगा और सार्वजनिक जीवन में कार्य करूंगा, तब पंडित मोतीलालजी ने उनसे टंडन जी के साथ रहकर सार्वजनिक जीवन की कार्य-प्रणाली सीखने के लिए कहा. टंडन जी के मुख्य कमरे के बगल में एक छोटा कमरा था. उसमें अन्य कुर्सियों के अतिरिक्त एक पुराने ढंग की लंबी आरामकुर्सी भी पड़ी रहती थी. जवाहरलालजी बहुधा उनके पास जाते और उसी आरामकुर्सी पर लेट जाते तथा टंडन जी से नगर, प्रांत और देश की समस्याओं के संबंध में विचार-विनिमय किया करते थे. मुझे कई बार ऐसे अवसरों पर टंडन जी से मिलने जाने का अवसर मिला और मैंने उन दोनों की चर्चाएं सुनी थीं."
टंडन जी त्याग की मूर्ति थे. हिंदी के लिए उन्होंने बड़े से बड़े पद और सम्मान की परवाह नहीं की. यहां तक कि राज्यपाल का पद भी उन्हें इसके आगे तुच्छ लगा और उन्होंने एक क्षुद्र तिनके की तरह उसका परित्याग कर दिया. श्रीनारायण चतुर्वेदी बताते हैं कि एक बार मिलने पर टंडन जी ने उनसे कहा, "मुझसे उड़ीसा का राज्यपाल होने को कहा जा रहा है. तुम्हारी क्या सम्मति है. मैं उसे स्वीकार करूं या न करूं?"
श्रीनारायण चतुर्वेदी को टंडन जी सरीखे सिंह पुरुष का राज्यपाल बनना सोने के पिंजड़े में बंद होने के समान मालूम हुआ. उस समय हिंदी और साहित्य सम्मेलन पर अनेक संकट थे. टंडन जी के राज्यपाल हो जाने से इन दोनों को हानि पहुंचने की आशंका थी. उन्होंने यह बात भी कही. टंडन जी अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कुछ देर मौन रहे. फिर बोले, "मेरी अंतरात्मा भी यही कहती है और कुछ अन्य मित्रों की भी यही सम्मति है. तुम भी इन्हीं विचारों के हो. शायद तुम ठीक कहते हो." बाद में श्रीनारायणजी को मालूम हुआ कि उन्होंने राज्यपाल पद अस्वीकार कर दिया है. यों भी टंडन जी का कद इतना बड़ा था कि राज्यपाल पद पाने या न पाने से उसमें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था.
यह बात गौर करने लायक है कि नेहरू जी और उनकी सरकार इस महान हिंदीभक्त से कुछ-कुछ आतंकित थी. वे ऊपर-ऊपर से दिखावटी सम्मान के बावजूद भीतर से उनकी निरंतर उपेक्षा ही करते रहे. पर हां, यह डर उन्हें बराबर था कि टंडन जी सरीखे निःस्वार्थ हिंदी-सेवी को सारे भारत की जनता पूजती है. इसलिए कहीं जनकोप का शिकार न होना पड़े, इसका जतन भी वे करते रहे. जब हिंदी का यह भीष्म पितामह मृत्युशैया पर था, तो भारत सरकार ने अपने भीतर के अपराध-बोध से मुक्त होने और 'अपनी अंतरात्मा को संतुष्ट करने के लिए' उन्हें भारत-रत्न की उपाधि दी थी. इसका जिक्र भी श्रीनारायण चतुर्वेदी ने किया है-
"शायद भारत सरकार ने बहुत बाद में जब वे मृत्युशैया पर थे, अपनी अंतरात्मा को संतुष्ट करने के लिए उन्हें भारत-रत्न की उपाधि दी थी. तब वे इतने बीमार थे कि चारपाई से उठ नहीं सकते थे. अतएव दिल्ली जाकर राष्ट्रपति से वह सम्मान ग्रहण नहीं कर सकते थे. अंत में केंद्रीय मंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री ने प्रयाग जाकर उनकी मत्युशैया पर उन्हें उस सम्मान से विभूषित किया."
श्रीनारायण जी ने टंडन जी से जुड़े एक और प्रसंग का जिक्र किया है. आखिरी दिनों में जब टंडन जी गंभीर रूप से बीमार पड़े तो उनके विवेक ने गंवारा नहीं किया कि अपनी इस हालत में भी वे संसद सदस्य बने रहें. उन्होंने संसद-सदस्यता त्याग दी. यह भी अपने आप में एक विरला ही उदाहरण है. टंडन जी का कहना था कि जब मैं संसद में भाग नहीं ले सकता तो एक जगह घेरे रहना अनैतिक है. आज के समय को देखते हुए तो यह एक दुर्लभ और अविश्वसनीय घटना ही कही जाएगी.
टंडन जी ने राजनीति से लेकर भाषा और समाजनिर्माण के कार्यों तक एक से एक बड़ी जिम्मेदारियों का निर्वहन किया. पर उनका तेज, दृढ़ता और ईमानदारी की कड़क सच्चाई ऐसी थी कि उनके राजनीतिक विरोधी भी उनकी तारीफ करने पर बाध्य हो जाते. देश के आम चुनावों के बाद जब उत्तर प्रदेश सरकार बनी, तो टंडन जी विधान सभा अध्यक्ष चुने गए. उस समय उन्होंने जिन आदर्शों को सामने रखा और विधान सभा अध्यक्ष पद के लिए जो प्रतिमान गढ़े, आज भी बड़े आदर से उनकी चर्चा होती है. उन्होंने निष्पक्षता और तटस्थता की मिसाल कायम की और एक पल के लिए भी अपने कर्तव्य से नहीं चूके. इसके लिए मंत्रियों तक को उनका कोपभाजन होना पड़ता था और वे अपने आचरण या अनुशासन में कोई दोष होने पर टंडन जी के आगे क्षमाप्रार्थी होते थे.
विधान सभा अध्यक्ष के रूप में टंडन जी इतने निष्पक्ष और समदर्शी थे कि कोई उन पर भेदभाव का आरोप नहीं लगा सकता था. एक बार उन्हें पता चला कि मुस्लिम लीग के कुछ सदस्य उन पर भेदभाव का आरोप लगाते हुए अविश्वास प्रस्ताव लाने जा रहे हैं. इस पर टंडन जी ने विधानसभा में जो शब्द कहे, वे हैरान कर देने वाले हैं. उन्होंने एक नैतिक ललकार के साथ कहा-
"मैंने सुना है कि कुछ लोग मुझ पर अविश्वास का प्रस्ताव लाना चाहते हैं. इस सदन में वे अल्पमत में हैं और उनका पस्ताव पारित नहीं हो सकेगा. और मैं अध्यक्ष बना रहूंगा. किंतु बहुमत के बल पर अध्यक्ष बना रहना मुझे इष्ट नहीं है. मैं इस पद पर तभी रह सकता हूं, जब सदन के प्रत्येक सदस्य को मेरी निष्पक्षता में पूरा विश्वास हो. अतएव अविश्वास का प्रस्ताव लाने की कोई आवश्यकता नहीं है. मैं बहुमत के बल पर इस पद पर नहीं रहना चाहता. यदि इस सदन में तीन सदस्य खड़े होकर या लिखकर कह दें कि उन्हें मुझमें विश्वास नहीं है, तो मैं तत्काल त्यागपत्र दे दूंगा. मैं तभी अध्यक्षता कर सकता हूं, जब प्रत्येक सदस्य का मुझ पर विश्वास हो."
अनेक वषों तक टंडन जी के सान्निध्य में रहे भाषाविज्ञानी उदयनारायण तिवारी ने उन पर लिखे गए संस्मरण में कई अंतरंग प्रसंगों की चर्चा की है. वे लिखते हैं कि उनके निकट रहकर किसी की निंदा नहीं की जा सकती थी. टंडन जी न तो किसी की निंदा करते थे और न सुन सकते थे. उनका मानना था कि हर आदमी बुनियादी रूप से अच्छा है. अगर वह कभी अपने रास्ते से डिगता या भटकता है तो यह तो निंदा या चुगली नहीं, बल्कि करुणा का विषय है. हालत यह थी कि जब स्वयं टंडन जी के निकट का कोई व्यक्ति उनके मानदंड से गिरता हुआ दिखाई पड़ता, तो उनका हृदय दुख से भर जाता था. वे अत्यंत व्याकुल हो उठते थे. ऐसे अवसर पर उनके मुख से फारसी का एक वाक्य सुनाई देता था, 'नागुफ्ता बेह...!' यानी कुछ न कहना ही बेहतर है.
एक बार की बात, टंडन जी ने डॉ. उदयनारायण तिवारी को अपनी कार देकर किसी को लिवा लाने के लिए कहा. डॉ. तिवारी को रास्ते में टंडन जी के पुत्र संतप्रसाद और उनकी पत्नी नजर आए जो स्टेशन जाने के लिए किसी सवारी की प्रतीक्षा में थे. डॉ. तिवारी के बहुत आग्रह करने पर उनके बेटे ने उनकी गाड़ी का इस्तेमाल कर लिया. टंडन जी को पता चला तो वे बड़े क्षुब्ध हुए. उन्होंने उसी समय सरकारी खजाने में पेट्रोल और गाड़ी का पूरा खर्च जमा कराया. फिर डॉ. तिवारी को समझाते हुए तनिक रोष से जो शब्द कहे थे, वे भीतर एक थरथराहट सी पैदा करते हैं. साथ ही एक सच्चे राजनेता और समाजसेवी को उसके कर्तव्य का भान कराते हैं. टंडन जी के अत्यंत उद्वेग भरे शब्द थे, "तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि यह सरकारी गाड़ी है और इसमें जनता का पैसा लगा है....यह मेरे पुत्र और पुत्रवधू के उपयोग के लिए नहीं है."
सच तो यह है कि टंडन जी की सरलता, सादगी और कठोर कर्तव्यपरायणता एक मिसाल बन बई थी, जो उन्हें सतयुग के ऋषियों सरीखा बना देती थी. उनका बानक सबसे अलग था. उसमें साधुओं जैसी सधुक्कड़ी और फक्कड़ता थी, पर उतना ही ऊंचा स्वाभिमान भी. उनके पास गिनती के दो-तीन कपड़े होते थे. निरंतर चरखा चलाकर वे खुद खद्दर तैयार करते, जिनसे कपड़े सिलते. कपड़े फट जाने पर फिर से सी लेते. डॉ. उदयनारायण तिवारी ने टंडन जी के त्याग और स्वदेशी बानक की यह छवि पेश की है-
"बाबू जी बंगाल के स्वदेशी आंदोलन के दिनों से ही स्वदेशी धारण करते थे. वे नियमित रूप से चरखा चलाते थे तथा उसे खद्दर तैयार करा लेते थे. उनके पास खद्दर के तीन कुरते थे जो कई वषों के उपयोग के लिए पर्याप्त थे. खद्दर के कुरते प्रायः पीठ पर फटते हैं. अतः बाबू जी पीठ पर दोहरी पट्टी लगवा लेते थे. धोतियां भी उनके पास प्रायः दो ही होती थीं, जिन्हें वे स्वयं साबुन से धोते थे. वे गमछे तथा जांघिया भी रखते थे. धोती के फटने पर वे उसे बीच से कटवाकर जुड़वा लेते थे. उनके पास पुराने ढंग की सींक से बनी एक पिटारी थी, जिसमें वे अपने वस्त्र रखते थे. वे न तो चमड़े का जूता पहनते थे और न उनके पास आधुनिक ढंग का होलडाल या बिस्तरबंद था. उनका अति साधारण बिस्तर एक कंबल में लपेटा रहता था और वह रस्सी से बंधा रहता था."
हिंदी की मूर्धन्य कवयित्री महीयसी महादेवी वर्मा ने भी अपने अलग अंदाज में टंडन जी के व्यक्तित्व की कुछ ऐसी ही झलक प्रस्तुत की है. वे लिखती हैं, "कुछ दुर्बल, लंबी देह-यष्टि, कुछ लंबी मुखाकृति, नुकीली नासिका, नुकीली श्मश्रु, कुछ बड़े केश, पीठ पर पैबंद लगा खादी का कुरता, घिसी सूत वाली पुरानी धोती, चर्मरहित रबर के अस्तव्यस्त सिले चप्पल आदि मिलकर एक ओर संत पुरुषोत्तमजी को संत विनोबा के समीप बैठा देते थे और दूसरी ओर अति-साधारण और चिर दरिद्र भारतीय जन का प्रतिनिधि बना देते थे."
इसी तरह टंडन जी का भोजन प्राचीन ऋषियों की तरह एकदम सादा होता था. इस बारे में बहुत सी कथाएं चल पड़ी हैं. पर हिंदीसेवी भगवतीशरण सिंह ने इस बारे में बड़ा दिलचस्प संस्मरण लिखा है. हुआ यह कि हिंदी को राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन करने के लिए टंडन जी के नेतृत्व में जो बड़ा आंदोलन चल रहा था, भगवतीशरण सिंह उससे जुड़े थे. इस नाते उन्हें मार्गनिर्देशन लेने के लिए बार-बार टंडन जी से मिलना होता था. इसी तरह नरेंद्रदेव भी उनसे विचार-विमर्श करने और मार्गदर्शन लेने आते. एक बार आचार्यजी से बातें करते-करते दिन के प्राय डेढ़ बज गए. नरेंद्रदेव ने आज्ञा मांगी तो टंडन जी को ध्यान आया कि भोजन का समय हो गया है. उन्होंने कहा, "नरेंद्रदेव अब भोजन करके जाओ. भोजन करते हुए और भी बातें हो जाएंगी."
तीनों जाकर खाने की मेज पर बैठ गए. सामने छोटी-छोटी तीन थालियां लाकर रख दी गईं. फिर उऩमें छोटी-छोटी दो ककड़ियां, एक-एक डली गुड़ आया. दूध या दूध से बनी चीज तो टंडन जी के घर में हो ही नहीं सकती थी. भगवतीशरण सिंह ने सोचा, 'दाल और रोटी तो आएगी ही.' पर यहां तो खाना शुरू हो गया था. आचार्यजी और बाबू जी प्रेम से भोजन कर रहे थे. भगवतीशरण असमंजस से उन ककड़ियों और गुड़ के डले को निहार रहे थे. टंडन जी ने यह देखा तो परसने वाले से कहा, 'भगवती के लिए रोटी भी अगर हो तो ले आओ.' वह एक रोटी ले आया. भगवतीशरण ने ककड़ी, गुड़ और रोटी को बड़े स्वाद से खाया. उनका कहना है कि "उस प्यार के भोजन की याद आने पर सारे पकवान झूठे और फीके लगते हैं."
टंडन जी की ईमानदारी भी एक मिसाल थी, जिससे प्रसिद्ध साहित्यकार और राजनेता कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी भी आतंकित हो उठे थे. मुंशीजी जब खाद्यमंत्री थे, तब उन्हें टंडन जी का एक पत्र मिला था, जिससे वे अवाक् रह गए. मुंशीजी टंडन जी के 'विनम्र अनुयायी' थे, पर उस विकट पत्र ने उन्हें परेशानी में डाल दिया. हुआ यह कि जब मुंशीजी खाद्य मंत्री थे, तब उन्हें टंडन जी का एक पत्र मिला, जिसमें उन्होंने लिखा था, "गुड़ का जो भाव समाचार-पत्रों में प्रकाशित हुआ है, उस भाव पर बाजार में नहीं मिलता. अधिक दाम देकर गुड़ खरीदना मैं समीचीन नहीं मानता. यह कानून के भी विरोध में है. किंतु मुझे अधिक पैसे देकर गुड़ खरीदना पड़ा. यह अपराध है. अतएव आप मुझे इसके लिए दंडित करें." पत्र पढ़कर मुंशीजी बेहद परेशान हुए, पर टंडन जी की समस्या का हल उन्हें नहीं मिला.
ऐसे एक नहीं, दर्जनों प्रसंग हैं. उन्हें पढ़कर लगता नहीं कि वे सचमुच इसी दुनिया के आदमी हैं. अलबत्ता, टंडन जी को भले ही कोई गैर-दुनियादार कहे, पर सार्वजनिक क्षेत्र में ईमानदारी, निर्मलता और स्वच्छता की जो मिसाल उन्होंने कायम की, उसका दूसरा कोई उदाहरण मिलना मुश्किल है.
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हिंदी का काम देशसेवा का काम है
टंडन जी हिंदी-प्रेमी थे. हिंदी के महान साधक और अथक सिपाही, जिनकी सांस-सांस में हिंदी-अनुराग बसा था. पर उनके हिंदी-प्रेम का यह अर्थ न था कि वे उर्दू के विरोधी हैं. वास्तव में वे हिंदी और उर्दू को दो अलग-अलग भाषाएं न मानकर एक ही भाषा की दो शैलियां मानते थे, जिनकी लिपि अलग-अलग है. लिपि की भिन्नता न हो, तो कई बार तो यह तय करना भी कठिन हो जाता है कि यह हिंदी है या उर्दू? टंडन जी ने बहुत स्पष्ट शब्दों में लिखा है-
"आज हिंदी और उर्दू दो भिन्न सभ्यताओं की दो पृथक भाषाएं बन गई हैं. उनका धार्मिक प्रोत्साहन भी भिन्न उपमाओं और रूपकों तथा भिन्न दिव्य पुरुषों द्वारा होता है. किंतु वास्तव में भाषा का आधार एक ही है और अभी ये दोनों स्रोत इतनी दूर एक-दूसरे से नहीं हए हैं कि फिर मिलकर एक प्रबल धारा में परिणत हो, भारतवर्ष भर को अपनी शक्ति से उर्वरा कर सुसज्जित न कर दें. मुझे तो आधुनिक हिंदी और उर्दू भाषाओं के पोषक देशभक्तों का यही तात्कालिक कर्तव्य जान पड़ता है. कुछ हिंदी-प्रेमी मेरे इस कथन को सुनकर संभव है, भयभीत हों और समझें कि मैं हिंदी भाषा के रूप को मानो विकृत करने की सम्मति दे रहा हूं. और यह कहें कि इस प्रकार के विकृत रूप में न हिंदी भाषा का माधुर्य, न प्रसाद, न प्रौढ़ता ही रह जाएगी. हिंदी भाषा के आधुनिक रूप के विकृत होने से उसकी गति रुक जाएगी, यह मैं नहीं मानता. प्रतिभाशाली कवि और प्रौढ़ लेखक उर्दू की मिली हुई भाषा में भी वही शक्ति उत्पन्न कर देंगे, जो सदा आपको अपभ्रष्ट किंतु जीवित भाषाओं में मिलती आई है."
हिंदी की सेवा और उसके प्रचार-प्रसार के लिए निर्मित इलाहाबाद का हिंदी साहित्य सम्मेलन तो एक तरह से टंडन जी का पर्याय ही बन गया था. उस समय जब हिंदी पठन-पाठन के अधिक अवसर नहीं थे, टंडन जी ने देश भर में हिंदी साहित्य सम्मेलन के जरिए हिंदी की पताका लहराकर कितना बड़ा काम किया, आज इसकी कल्पना करना भी मुश्किल है. हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार्य बनाने के लक्ष्य को लेकर बनाई गई इस अत्यंत प्रतिष्ठित अखिल भारतीय संस्था के जिम्मे बहुत काम थे. इनमें एक था देश में जगह-जगह हिंदी की परीक्षाएं आयोजित करना, ताकि हिंदी सीखने वालों को मुश्किल न हो. हिंदी की परीक्षाएं उत्तीर्ण करके वे आगे आएं और उन्हें आगे विभिन्न क्षेत्रों में काम करने का अवसर मिले.
हिंदी साहित्य सम्मेलन के महामंत्री के रूप में टंडन जी ही उसके प्राण और आत्मा थे, जिन्होंने किसी तपस्वी की तरह संस्था के लिए अहर्निश काम किया. हिंदी का काम उनके लिए देशसेवा का ही काम था. संस्था के पास बहुत मामूली से साधन थे, उन्हीं से संगठन और परीक्षाएं आयोजित करने के खर्च की पूर्ति होती. हालाँकि सम्मेलन और साथ ही टंडन जी का इतना बड़ा नाम था कि लोग स्वयं ही निशुल्क सेवाएं देते. टंडन जी की पूरी कोशिश होती कि संस्था का एक पैसा भी बर्बाद न हो और एक-एक पैसे का हिसाब लिखा जाए, ताकि हिंदी की सेवा के नाम पर बनी इस संस्था की शुचिता पर कोई दाग न आ सके.
इसी बात को लेकर टंडन जी एक बार विजयेंद्र स्नातक से भी रुष्ट हो गए. कारण सैद्धांतिक था. उनका विचार था कि सम्मेलन एक सेवाभावी संस्था है, अतः परीक्षा के लिए संस्था का कम से कम धन खर्च होना चाहिए, जबकि स्नातकजी ने संस्था के लिए परीक्षा लेने की व्यवस्था करते समय तय राशि से कुछ अधिक खर्च कर दिया. टंडन जी को यह बात पसंद नहीं आई और उन्होंने अपनी नाराजगी प्रकट की. इस पर स्नातकजी ने उन्हें बताया कि जो थोड़ी सी राशि खर्च हुई है, वह इसलिए की गई, ताकि सम्मेलन द्वारा आयोजित परीक्षा की प्रतिष्ठा बनी रहे और वह अव्यवस्था का शिकार न हो. अगर सम्मेलन द्वारा आयोजित परीक्षाओं की गुणवत्ता पर प्रश्नचिह्न लगते हैं तो सम्मेलन की प्रतिष्ठा भी नहीं बची रह सकती. टंडन जी को बात समझ में आ गई और स्नातकजी के प्रति उनका स्नेह-भाव अंत तक बना रहा.
यह खुद में बड़ी दिलचस्प बात है कि टंडन जी जो शुरू में हिंदी साहित्य सम्मेलन के प्रधानमंत्री थे, वे अंत तक उसी पद पर रहे. डॉ रामकुमार वर्मा टंडन जी से तुलना के लिए पुष्यमित्र का जिक्र करते हैं, जिसने सम्राट होने के बाद भी सेनापति की पदवी नहीं छोड़ी-
"ईसा की पहली शताब्दी में जब पुष्यमित्र सम्राट हुए, तब उन्होंने अपने नाम के साथ सेनापति की उपाधि कभी नहीं छोड़ी और इतिहास में सम्राट होने पर भी वे सेनापति पुष्यमित्र के नाम से प्रसिद्ध हुए. उसी प्रकार पुरुषोत्तमदास टंडन ने आरंभ में सम्मेलन के प्रधानमंत्री पद को स्वीकार कर जीवन भर सम्मेलन का दायित्व स्वीकार किया और विदेशी शासन में भी उन्होंने हिंदी को जो गौरवपूर्ण पद प्राप्त कराने में एक सैनिक की भांति कार्य किया, वह राष्ट्रभाषा के इतिहास में सदैव ही स्मरण किया जाएगा."
हालांकि टंडन जी बहुत सरल स्वभाव के व्यक्ति थे. वे नहीं जान सके कि निकटस्थों में ही बहुत से महत्वाकांक्षी लोगों की राजनीति कैसे-कैसे रूपों में सामने आती है. टंडन जी जिन्हें बहुत अपना और भरोसेमंद समझते थे, उन्हीं के कारण उन्हें बहुत चोटें भी सहनी पड़ीं. ऐसे लोग भी थे जो सेवा के लिए आए थे, पर देखते ही देखते वे संस्था पर काबिज हो गए. कुछ आगे चलकर जब संस्था के पास कुछ पैसा हो गया तो बहुत से लोगों की नजर पैसे पर पड़ी और एक अच्छी संस्था में भी कुछ विकार नजर आने लगे. सम्मेलन टंडन जी के लिए प्राणों बढ़कर था. इस हालत में उन्हें कितना कष्ट सहना पड़ा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है. रामकुमार वर्मा, जिन्होंने कुछ समय तक टंडन जी के साथ बड़े उत्साह से काम किया, गहरे दुख के साथ लिखते हैं-
"दलबंदियों के कारण धीरे-धीरे सम्मेलन अपनी मर्यादा से स्खलित होता गया. जिस सम्मेलन के बिरवे को उन्होंने अपने संकल्पों से सींचकर वटवृक्ष के रूप में खड़ा किया, उसमें जर्जरता के चिह्न दृष्टिगत होने लगे. समेलन मंच से उनका जो उद्घोष श्रोताओं के हृदय में शक्ति का संचार करते हुए उन्हें हिंदी का महारथी बनाता था, वह उद्घोष क्रमशः दिशाओं की शून्यताओं में तिरोहित हो गया और जिन पर पूज्य टंडन जी का अविचल विश्वास था, वही उनके विश्वास में अपने स्वार्थ का विष मिलाकर उनके विरोधी बन गए. धीरे-धीरे सम्मेलन पर से उनका प्रभुत्व समाप्त होने लगा. जिन टंडन जी ने राजनीति और हिंदी दोनों के लिए दोहरी लड़ाई लड़ी, वे विपरीत परिस्थितियों में अपने स्वर्ण स्वप्नों के अवसान पर जैसे अस्त-व्यस्त होकर शैयाग्रस्त हो गए."
हिंदी के बहुत से मूर्धन्य सहित्यकारों ने, जिन्हें टंडन जी का नैकट्य मिला, अत्यंत भावविभोर होकर उनके सरल स्नेह और अथक हिंदीसेवा को याद किया है. ऐसा सम्मान दुर्लभ है. पर इसके पीछे टंडन जी का ममतालु व्यक्तित्व भी है. उहोंने सच ही हिंदी के लेखकों, साहित्यकारों और देश भर में हिंदी के प्रचार में जुटे हिंदीसेवियों को मां जैसी ममता दी. किसी का जरा भी कष्ट को देखकर वे विगलित हो जाते थे, और जो भी उनसे संभव होता, तन-मन से मदद करते थे. पं. विद्यानिवास मिश्र के शब्दों में कहें तो, "सचमुच कबीर के चोले में उनके भीतर मां का हृदय था!"
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बिना मातृभाषा के देश आगे नहीं बढ़ सकता
टंडन जी हिंदी के झंडाबरदार थे, पर हिंदी और हिंदी साहित्य को लेकर उनका ज्ञान अगाध था और चिंतन एकदम खुला हुआ. सभी संकीर्ण हदबंदियों से परे. वे दूरदृष्टा थे और हिंदी के जरिए राष्ट्रनिर्माण का स्वप्न देख रहे थे. वे जानते थे कि पराई भाषा अंग्रेजी के जरिए नहीं, बल्कि हिंदी के जरिए भारतीयों की आत्मिक उन्नति और देश का सर्वमुखी विकास हो सकता है. वे हिंदी को सामंजस्य और समरसता की भाषा मानते थे, जिसके साथ स्वदेशी गौरव का भाव जुड़ा है. लिहाजा हिंदी को लेकर टंडन जी के विचार आज भी हमें दिशा दे सकते हैं.
टंडन जी ने हिंदी के लिए जीने-मरने की जो कसम खाई, वह उन्हें अपने स्वाधीनता संघर्ष से अलग कतई नहीं जान पड़ी. इसलिए कि उनका मानना था कि "मनुष्य की मातृभाषा उतना ही महत्त्व रखती है जितनी उसकी माता और मातृभूमि रखती है." यानी मातृभाषा की सेवा भी मातृभूमि की सेवा ही है. बिना अपनी भाषा के मातृभूमि का विकास और संवर्धन भी नहीं हो सकता. यहां तक कि बहुत कठोर शब्दों में उन्हें यह भी कहना पड़ा कि "जो अंग्रेजियत में लिप्त हो गया, वह अपनी मातृभूमि की कदापि उन्नति नहीं कर सकता."
यही नहीं, टंडन जी का मानना था कि हर मुल्क और हर सभ्यता का उसकी भाषा से उतना ही गहरा ताल्लुक है, जितना उसकी आबोहवा से. उन्होंने साफ-साफ देशवासियों को यह बात भी समझाई कि "राष्ट्रीयता और हिंदी दो चीजें नहीं, एक हैं." और इसीलिए वे मानो गहरे आवेश और दीवानगी के साथ कहते हैं, "मातृभाषा को तिरस्कृत करना अपने प्राचीन इतिहास को भूल जाना, परंपरा का ज्ञान खो देना, मानो अपने बुजुर्गों को मिट्टी में मिला देना और अपने को नपुंसक बना देना है."
टंडन जी बड़ी दृढ़ता के साथ यह बात कहते थे कि किसी देश के सामाजिक और बौद्धिक विकास के लिए भी मातृभाषा जरूरी है. बिना मातृभाषा के कोई देश या समाज आगे नहीं बढ़ सकता. उनके शब्दों में, "हमारी संतान के लिए मस्तिष्क की स्फूर्ति को बढ़ाने का उपाय मातृभाषा के अध्ययन से बढ़कर दूसरा नहीं है." इसी तरह एक अन्य स्थान पर वे बड़े आत्मविश्वास के साथ कहते हैं, "मनुष्य का मनोविकास अथवा मानसिक प्रवृत्तियों का प्रसार मातृभाषा ही के दारा संभव है, अन्यथा नहीं."
हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का विरोध कर रहे लोगों का कहना था कि हिंदी को पूरे देश में नहीं समझा जाता. तो फिर भला वह राष्ट्रभाषा कैसे हो सकती है? इसका सीधे-सादे अल्फाज में जवाब देते हुए टंडन जी कहते हैं, "हिंदी संस्कृत की पुत्री है. इस कारण समस्त देश में किसी न किसी रूप में समझी जाती है." हिंदी ही नहीं, उत्तर भारत की सभी भाषाएं हिंदी से बहुत गहराई से जुड़ी हैं तो दक्षिण भारत की तमिल, तेलुगु, मलयालम और कर्नाटक भी. और मराठी, गुजराती सरीखी भाषाएं तो संस्कृत के बेहद करीब हैं ही. तो फिर संस्कृत की पुत्री होने के कारण हिंदी का सभी से सहज रिश्ता हुआ. यही वजह है कि पूरे देश में कहीं भी जाएं, कामचलाऊ हिंदी बोलने और समझने वाले लोग जरूर मिल जाते हैं. यही समूचे भारत में हिंदी की सर्व व्याप्ति का दर्शन है, जिसकी ओर बड़ी विनम्रता से टंडन जी ने इशारा किया है.
एक भाषा के रूप में हिंदी की सीमाओं को दरशाने वाले तर्कों के अग्निबाण भी कम नहीं छोड़े गए. हिंदी के भीष्म पितामह टंडन जी को भी इनका सामना करना पड़ा. पर उन्होंने बड़ी मर्यादित भाषा में उनका जवाब दिया. उनका कहना है कि "राजनीतिक दृष्टि से जनता की शक्ति जैसे-जैसे विकसित होती है, वैसे-वैसे जनता की भाषा की शक्ति बढ़ती जाती है." यहां तक कि देश के लिए काम करने वाले लोगों, राजनीतिकों, शिक्षाशास्त्रियों और सामाजिक कर्मियों को भी उनकी सलाह है कि "हमें जनता की भाषा में ही जनता के पास जाना होगा." नहीं तो हमारी बड़ी से बड़ी बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा. अधिकांश जनता जो भाषा समझती है, हमें उसी भाषा में बोलना होगा और वह भाषा निस्संदेह हिंदी ही है.
इसी तरह टंडन जी देवनागरी लिपि की सरलता और वैज्ञानिकता के कारण उसके बड़े पैरोकार हैं. उनका मानना है कि हिंदी ही नहीं, अन्य भाषाओं को भी देवनागरी लिपि को अपनाना चाहिए, ताकि वे अधिक से अधिक लोगों तक पहुंच सकें. देवनागरी के बारे में टंडन जी ने बड़े आत्मविश्वास के साथ कहा कि- "हमारी लिपि देवनागरी सबसे अधिक वैज्ञानिक है." इसलिए "अगर मुल्क भर के लिए एक प्रकार के हरूफ काम में लाए जाएं तो वे देवनागरी हरूफ ही हो सकते हैं." यह बात गौर करने लायक है कि हिंदी और लिपि के प्रश्न को राजनीति की सरहदों से ऊपर रखते हुए उन्होंने एक नैतिक साहस के साथ कहा कि यह देश की अस्मिता का सवाल है, लिहाजा "हिंदी तथा देवनागरी लिपि की समस्या सभी राजनीतिक प्रश्नों एवं सीमाओं से अलग है."
हिंदी के प्रति टंडन जी के अनुराग का एक बड़ा कारण यह भी है कि वे अच्छी तरह समझते हैं कि अपनी भाषा में दी गई शिक्षा ही बच्चे के मन पर गहरा असर डालती है और इसी से उसका बौद्धिक और आत्मिक विकास होता है. इसलिए वे किसी राजनेता की तरह नहीं, बल्कि परिवार के किसी समझदार बुजुर्ग या मुखिया की तरह बहुत आग्रहपूर्वक कहते हैं कि शिक्षा अपनी भाषा में हो, यह जरूरी है. बगैर किसी किंतु-परंतु के वे दोटूक लहजे में कहते हैं कि "हमारी अपनी भाषा के माध्यम दारा ही हमारा शिक्षण हो, यह आवश्यक सिद्धांत है."
इन शब्दों के पीछे उनकी सच्चाई और दृढ़ता दोनों की ही गहरी छाप नजर आती है.
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टंडन जी हिंदी के प्रतीक हैं
टंडन जी के जीवन का एक-एक क्षण देशसेवा और हिंदी के लिए समर्पित रहा. संपूर्णानंद के शब्दों में, "किसी एक व्यक्ति ने हिंदी के लिए इतना काम नहीं किया, जितना कि टंडन जी ने किया." सच तो यह है कि टंडन जी हिंदी को भी देशसेवा का ही एक प्रबल माध्यम मानते हैं, क्योंकि उसी से देश का सांस्कृतिक विकास हो सकता है और देश की एकता भी उसी से संभव है. बगैर हिंदी के आप देश की समूची जनता से संवाद नहीं कर सकते और न एक साथ करोड़ों लोगों के सुख-दुख और भावनाओं से एकाकार हो सकते हैं. इसीलिए आगे चलकर सक्रिय राजनीति की डगर छोड़कर, टंडन जी ने अपने लिए एक अलग राह चुनी और खुद को पूरी तरह हिंदीमय बना लिया. मानो हिंदी भाषा नहीं, उसके जीवन की धड़कन थी. इसी ओर संकेत करते हुए राहुल सांकृत्यायन ने एकदम सही कहा कि, "टंडन जी हिंदी के प्रतीक हैं."
'एक भारतीय आत्मा' कहे जाने वाले माखनलाल चतुर्वेदी टंडन जी की हिंदी सेवा की चर्चा करते हुए भावमग्न हो जाते हैं, "हिंदी की सेवा और उसकी रक्षा के लिए किए गए प्रण, प्रयत्न, पुरुषार्थ और प्राणाहुति का सम्मिलित नाम ही पुरुषोत्तमदास टंडन है." अंबाप्रसाद सुमन के शब्दों में, "राजर्षि हिंदी के लिए सर्वतोभावेन समर्पित थे." किशोरीदास वाजपेयी भावुक होकर कहते हैं, "जब तक पृथ्वी पर हिंदी भाषा का एक भी शब्द रहेगा, तब तक उस पर माननीय टंडन जी का ऋण रहेगा." इसी तरह उदयनारायण तिवारी उन्हें 'राष्ट्रभाषा पिता' कहते हैं. उनका मानना है कि "गांधीजी जिस रूप में राष्ट्र पिता थे, टंडन जी उसी रूप में राष्ट्रभाषा पिता थे."
विजयेंद्र स्नातक टंडन जी के हिंदी प्रसार की योजनाओं में सहयोगी रहे हैं. उन्होंने देखा कि टंडन जी के अहर्निश तप और हिंदी प्रचार का बीड़ा उठाने से भी बहुत से लोगों को परेशानी होने लगी थी और वे टंडन जी से चिढ़ते थे. उन दिनों को याद करते हुए वे कहते हैं कि "राजषि टंडन जी ने भारतीयता की रक्षा के लिए भाषा के प्रश्न पर इतना अधिक बल दिया कि उस समय के राजनेताओं की दृष्टि में वे एक फैनेटिक व्यक्ति बन गए." हालाँकि टंडन जी अपने जीवनकाल में ही निंदा और प्रशंसा आदि से इस कदर निस्पृह और मुक्त हो चुके थे कि उनके कदम अंत तक रुके नहीं और हिंदी की सेवा का जो बीड़ा उन्होंने उठाया था, उसे आखिरी सांस तक निभाया.
यही वजह है कि टंडन जी के लिए हिंदी के लेखकों, पाठकों और साहित्यिकों के मन में जो प्रेम, आदर और सम्मान है, वह शायद ही किसी और राजनेता को प्राप्त हुआ हो. इसीलिए पं. विद्यानिवास मिश्र उन्हें याद करते हुए कहते हैं, "श्रद्धेय टंडन जी राजनीति वालों के लिए कुछ भी रहे हों, साहित्यकारों के लिए और सभी हिंदी वालों के लिए वे बस केवल बाबू जी थे."
महामना मदनमोहन मालवीय ने उचित ही सारी दुनियादारी और सांसारिक मोह-ममता से ऊपर उठ चुके टंडन जी को 'ऋषि' की संज्ञा दी है. श्रीनारायण चतुर्वेदी ने भी मिलते-जुलते शब्दों में कहा, "राजर्षि संत थे जिनका जीवन आरंभ से अंत तक त्याग की सुंदर और मनमोहक कविता थी." पर टंडन जी कैसे ऋषि थे और सादगी व सरलता के बावजूद उनका व्यक्तित्व कैसा जुझारू था? इसकी चर्चा करते हुए पद्मकांत मालवीय लिखते हैं, "एक बार किसी ने मुझसे पूछा कि मालवीयजी और टंडन जी में क्या फर्क था? मैंने उत्तर दिया था कि भेद केवल इतना मात्र था कि एक ब्रह्मर्षि था, दूसरा राजर्षि और एक वशिष्ठ था, दूसरा विश्वामित्र." इससे समझ में आ जाता है कि हिंदी अनुरागी पुरुषोत्तमदास टंडन के साथ हमेशा जुड़ने वाला 'राजर्षि' विशेषण खुद में कितना अर्थपूर्ण और सारवान है.
इसी तरह दिनकर ने भी अपनी एक ओजस्वी कविता में हिंदी के लिए सर्वस्व दान कर चुके इस निस्पृह ऋषि के लिए भावमग्न होकर कहा-
जनहित निज सर्वस्व दान कर तुम तो हुए अशेष,
क्या देकर प्रतिदान चुकाए ऋषे, तुम्हारा देश.
राजदंड, केयूर, छत्र, चामर, किरीट, सम्मान,
तोड़ न पाए यती, ध्येय से बंधा तुम्हारा ध्यान!
हिंदी की सेवा के लिए सांस-सांस गिरवी रख चुके टंडन जी के 'राजर्षि भाव' के अभिनंदन में कहे गए सोहनलाल द्विवेदी के ये शब्द भी एक गहरी कचोट लिए हुए हैं—
आज युगों के बाद राष्ट्र में जनता की हुंकार उठी,
जय गांधी की, जय जननी की अंबर तक झंकार उठी.
मेरा कौन, कौन है तेरा-चोटी तक ललकार उठी,
कोटि करों ने तुझे वर लिया, हर्षध्वनि की ज्वार उठी.
जय यह तेरी नहीं, विजय है यह बहुमत के जनमत की,
जय यह तेरी नहीं, विजय है जाग्रत, निर्भय भारत की.
विनोबा भावे कभी किसी मूर्ति की स्थापना के समारोह में नहीं जाते थे. पर इलाहाबाद में हिंदी साहित्य सम्मेलन के प्रतीक-पुरुष टंडन जी की मूर्ति का अनावरण करने के लिए उनसे कहा गया, तो बड़ी खुशी से राजी हो गए. इस मूर्ति स्थापना समारोह में टंडन जी के बहुत से गुणों की चर्चा करते हुए उन्होंने उनकी सत्यनिष्ठा को सबसे ऊपर माना-
"एक बात मैं और कहना चाहता हूं कि मैंने अनावरण करना स्वीकार किया, वह टंडन जी की जो विविध सेवाएं राजनीतिक क्षेत्र में, रचनात्मक क्षेत्र में और हिंदी के क्षेत्र में भी, लेकिन उससे आकर्षित होकर मैं यहां नहीं आया हूं. मैं आया हूं तो टंडन जी की सत्यनिष्ठा थी, वह जो उनका महान गुण था, उससे मेरा हृदय खिंच गया....यह जो उनमें सत्य की उपासना का गुण था, उससे मैं अधिक से अधिक प्रभावित हुआ हूं और इसीलिए आया हूं."
इलाहाबाद में स्थापित टंडन जी की मूर्ति अकेले एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि हिंदी के समूचे आंदोलन की मूर्तिमान प्रतीक है. आंखों से हर क्षण स्नेह बरसाती यह मूर्ति हर आते-जाते को टंडन जी की धवल कीर्ति का स्मरण कराती है. रामकुमार वर्मा ने बहुत भावुक होकर होकर लिखा है—
"इलाहाबाद के रामबाग स्टेशन के समीप सम्मेलन मार्ग के चौराहे पर उनकी विशाल मूर्ति स्थापित है, जो निश्चय ही अपने नेत्रों से सम्मेलन भवन पर अपने आशीर्वादों की अजस्र वर्षा कर रही है. मैं उस ओर जब कभी जाता हूं, तो उस मूर्ति के सामने खड़े होकर स्वर्गीय टंडन जी के मुखमंडल की ओर एकटक देखता हूं और श्रद्धा से प्रणाम कर लौट आता हूं."
हिंदी के लिए निरंतर काम करना ही टंडन जी का जीवन-तप था. उनके जीवन की सर्वोत्तम साधना भी. सार्वजनिक जीवन में काम करते हुए, छोटी से छोटी चीजों की वे परवाह करते थे. इसलिए कभी उनकी धवल कीर्ति में कोई दाग नहीं लगा. वे इसी धरती के थे, पर इससे कुछ ऊपर भी. राजनीति में खूब सक्रिय रहे, बड़े से बड़े पदों पर रहे. पर दलों के दलदल से ऊपर ही रहे. हिंदी के लिए पूरा जीवन खपाया और बड़ा आंदोलन चलाया, पर और भाषाओं का विरोध करके नहीं. उनका सपना आज भी हिंदी जगत को हिम्मत बंधाता है और निःस्वार्थ भाव से हिंदी के लिए बड़े काम करने की प्रेरणा देता है. हिंदी दिवस की बधाई!
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प्रकाश मनु, 545 सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008, मो. 09810602327, ईमेल – prakashmanu333@gmail.com