आज ठाकुर की जयंती है. ठाकुर! जिन्हें जगत स्वामी रामकृष्ण परमहंस के नाम से जानता है. ठाकुर को मानने वाले उन्हें ईश्वर का अवतार व अंश मानते हैं. परमहंस महान संत, विचारक, चिंतक व मानवता के पुजारी थे. उन्होंने कठोर साधना और भक्ति से ईश्वर के हर रूप का दर्शन किया. उन्हें ईश्वर की प्रतीति का आलम यह था कि ईश्वर उन्हें कटने वाले बकरे, काटने में प्रयुक्त होने वाली छूरी और कसाई के साथ ही उस काठ या पत्थर पर भी दिखता था, जिस पर उसे काटा जा रहा हो. कहते हैं, स्वामी रामकृष्ण परमहंस की छाया भी यदि लुटेरे व कातिलों पर पड़ जाती तो उसका हृदय परिवर्तित हो जाता था. धर्म और जाति से परे, सनातन धर्म के मूल, परम तत्व को जीवन में अपनाने वाले, महान आध्यात्मिक संत, समाजसेवी, मानवता के परमपोषक, मां काली के उपासक, स्वामी विवेकानंद के गुरु, दक्षिणेश्वर काली मंदिर के पुजारी स्वामी रामकृष्ण परमहंस की जयंती पर पढ़िए साहित्य आजतक की विशेष प्रस्तुति.
रामकृष्ण परमहंस
1881 में केशब चन्द्र सेन अपने दामाद, कूचबिहार के महाराजा नृपेन्द्र नारायण भूप की भाप से चलने वाली नाव पर काफी सारे लोगों को लेकर रामकृष्ण परमहंस से मिलने दक्षिणेश्वर गए. मेरा सौभाग्य था कि मुझे भी इस दस्ते में शामिल कर लिया गया था.
हम इस नाव से वहां उतरे नहीं, बल्कि अपने भतीजे हृदय के साथ परमहंस ही नाव पर आ गए और हम सोमरा की तरफ निकल गए. परमहंस अपने साथ एक टोकरी मूढ़ी और सन्देश लाए थे. वे लाल किनारा वाली धोती और कमीज पहने हुए थे जिसके बटन नहीं लगे थे. जब वे नाव पर चढ़े तो हम सबने खड़े होकर उनका स्वागत किया और केशब ने हाथ पकड़कर उन्हें ऊपर खींचा और अपने पास बैठाया. केशब ने फिर मुझे बुलाया और उनके पास ही बैठने को कहा. मैं उनके पांवों के पास बैठा.
परमहंस सांवले से थे, दाढ़ी थी और आंखें कभी पूरा खुला नहीं लगीं. वे मध्यम ऊंचे और दुबले पतले कमजोर से दिख रहे थे. दरअसल वे एकदम संवेदनशील स्वभाव वाले थे और बहुत छोटी-छोटी चीजों का दर्द बर्दाश्त नहीं कर पाते थे. वे एकदम सामान्य बांग्ला में बहुत धीमी आवाज में बोल रहे थे और हर बात में 'तू' बोला करते थे. लगभग पूरी बात वे अकेले कर रहे थे और केशब समेत हम सब लोग हाथ जोड़े सिर्फ श्रोता बने रहे. यह काफी समय पहले की बात हुई लेकिन परमहंस ने जो कुछ कहा वह आज भी मेरे मन में अंकित है.
मैंने उनकी तरह बोलते हुए पहले किसी को नहीं सुना था. वे अपने अनुभवों और सच्चाई को धाराप्रवाह ढंग बताते जा रहे थे और इसमें उनका अपना अनुभव और भक्ति भाव भी समाया हुआ था. उनकी मुस्कान और शब्द एकदम मौलिक बनते जा रहे थे. वे बोलते-बोलते केशब के करीब खिसकते जा रहे थे और फिर एकदम पास आकर अचेत से हो गए और उनका शरीर केशब की गोद में गिर पड़ा. लेकिन केशब अपनी जगह से जरा भी नहीं हिले और अपने शरीर को शांत बनाए रहे. कुछ देर बाद परमहंस उठकर बैठ गए और अपने आसपास चारों तरफ नजर दौडाई, मानो वे जानना चाहते थे कि कोई गैर तो नहीं आ गया है और 'भालो, भालो' बोलते हुए अपनी खुशी जाहिर की. उनके मुंह से निकला, 'सब की नजर अच्छी और बड़ी है.'
फिर उन्होंने कैप्टन के पास अंगरेजी पोशाक में बैठे एक नौजवान पर नजर डाली और पूछा, 'ये कौन है? यह कोई साहब लग रहा है.' केशब ने मुस्कुराते हुए बताया कि यह बंगाली नौजवान ही है और अभी-अभी विलायत से लौटा है. परमहंस हंसे, 'ठीक है. साहब से डर कर रहना चाहिए.' यह नौजवान था कूचबिहार का दूसरा राजकुमार कुमार गजेन्द्र नारायण, जिसकी शादी बाद में केशब की दूसरी लड़की से हुई.
लेकिन अगले ही पल परमहंस का ध्यान इस बात से ऊपर उठ गया कि वहां कौन बैठा है और वे बताने लगे कि उनकी साधना किस किस तरह से होती है. 'कई बार मुझे लगता है कि मैं ब्राह्मनी बत्तख हूं और उसी भाव से मैं अपने जोड़ीदार को आवाज देने लगता हूं.' संस्कृत साहित्य में यह कहानी प्रचलित है कि ब्राह्मणी बत्तख का जोड़ा नदी के अलग-अलग किनारों पर रहता है और रात भर वे एक दूसरे को आवाज देते हैं. वे आगे बोले, 'मैं बिल्ली का बच्चा होकर मां को आवाज लगाता हूं और उधर से मां भी आवाज देती है.' वे इसी धुन में कुछ देर तक बोलते रहे और अचानक सम्भल कर बोले, 'गोपनीय साधना के बारे में हर चीज नहीं बतानी चाहिए.'
उन्होंने कहा कि जब आत्मा और परमात्मा का मिलन हो जाता है तब क्या बात होती है इसे सामान्य भाषा में बता पाना असम्भव है. फिर उन्होंने आसपास के कुछ चेहरों पर नजर डाली और मुखाकृति से आदमी की पहचान कैसे करते हैं इस बारे में देर तक बोलते रहे. मानव मुखमंडल का हर हिस्सा उसके चरित्र के बारे में कुछ न कुछ जरूर बताता है. इस मामले में आंखें सबसे महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन मस्तक, कान, नाक, होंठ और दांत से भी आदमी के बारे में काफी कुछ पता चलता है. और यह दिलचस्प एकालाप तब तक चलता रहा जब तक परमहंस निरंकार ब्रह्म की बात नहीं करने लगे.
उन्होंने इसी क्रम में दो या तीन बार 'निराकार' शब्द उच्चारित किया और समाधि में जा पहुंचे. परमहंस उसी अवस्था में रहे और केशब चन्द्र सेन ने बताया कि इधर उनकी परमहंस के साथ निरंकार ब्रह्म को लेकर कुछ बातचीत हुई थी और लगा कि परमहंस उससे काफी प्रभावित हुए.
हम बड़े ध्यान से और उत्साह से परमहंस की समाधि को देखते रहे. पूरा शरीर पहले एकदम शिथिल हुआ और फिर थोड़ा खिंच सा गया. पर मांसपेशियों या नसों में किसी किस्म की ऐंठन न थी, किसी अंग में कोई हरकत न थी. दोनों हाथ गोद में थे और उंगलियां हल्के से एक दूसरे में उलझी थीं. चेहरा हल्का झुका हुआ था और टिका हुआ था. आंखें बन्द थीं पर पूरी तरह नहीं. लेकिन पुतलियां ऊपर नहीं आई थीं और टिकी हुई थीं जो इस बात का प्रमाण था कि दिमाग में बाहर से कुछ नहीं हुआ है. होंठ हल्का खुले थे और उन पर एक परम मुस्कान बिराज रही थी और उनके पीछे से सफेद दांत चमक रहे थे. उस मुस्कान में कुछ ऐसे बात थी जिसे कोई फोटोग्राफर कभी नहीं पकड़ पाया. हम कई मिनट तक निश्चल पड़े परमहंस को निहारते रहे.
फिर केशब चन्द्र के गिरिजे के गायक/पुजारी त्रैलोक्य नाथ सान्याल ने साधना पूरी होने वाला एक भजन गाया जिसके साथ ढोल और करताल भी बजा. जब संगीत का स्वर ऊंचा हुआ तो उन्होंने आंखें खोली और चारों ओर नजर दौड़ाई जैसे पता कर रहे हों कि मैं कहां आ गया.
संगीत रुक गया. परमहंस ने हमारी तरफ देखते हुए पूछा, 'ये लोग कौन हैं?'. फिर उन्होंने जोर-जोर से अपने सिर पर अपने हाथों से कई बार मारा और बोले, 'नीचे जाओ! नीचे जाओ!' किसी ने भी समाधि का जिक्र नहीं किया.
परमहंस पूर्ण चेतन हुए और गाना गुनगुनाने लगे, 'मां काली ने भी क्या खूब बनाया है.' गाने के बाद उन्होंने फिर लम्बा प्रवचन दिया कि गाने के लिए आवाज को किस तरह सुधारा जाए और फिर यह बताया कि अच्छी आवाज के क्या क्या गुण हैं. परमहंस को दक्षिणेश्वर उतारते हुए जब हम कलकत्ता लौटे तो काफी देर रात हो चुकी थी. अहीरटोला घाट पर कोई सवारी नहीं मिली और केशब को मस्जिद बाड़ी स्ट्रीट स्थित काली चरण बनर्जी के यहां पैदल ही जाना पड़ा जिन्होंने उनको रात के खाने का न्यौता दिया था.
मास्टर महाशय रामकृष्ण को देखने और सुनने के बाद मैं अपने एक रिश्तेदार महेन्द्रनाथ गुप्त से मिलने गया जो रिश्तेदार होने के साथ मुझ से कई साल सीनियर थे. मैंने उन्हें सारा किस्सा बताया और आग्रह किया कि वे खुद भी दक्षिणेश्वर जाएं. वे वहां अगले साल ही जा पाए और जब उन्होंने परमहंस को बोलते हुए सुना तो इतने प्रभावित हुए कि फिर अपने साथ एक डायरी लेकर जाने लगे और रामकृष्ण परमहंस जो कुछ कहते थे उसका एक-एक शब्द लिखकर रखने लगे. उन्हें जीवन यापन के लिए दूसरे काम करने होते थे और वे पहले स्कूल अध्यापक और बाद में प्रोफेसर हो गए थे. रामकृष्ण मिशन में उनको मास्टर महाशय के नाम से जाना जाता है. इन्हीं डायरियों के आधार पर 'द गोस्पेल आफ परमहंस रामकृष्ण अकार्डिंग टू 'एम' का प्रकाशन शुरू हुआ. मूल बांग्ला में यह 'श्री रामकृष्ण कथामृत' नाम से छपा. रामकृष्ण के कथनों का यही एकमात्र सही और काफी हद तक पूरा रिकार्ड है.
महेन्द्रनाथ न तो हर दिन वहां जा पाते थे ना ही वे ठाकुर के साथ लगातार रहते थे. इसलिए यह सम्भव है कि उनके कथन के कुछ और महत्वपूर्ण अंश रिकार्ड न हुए हों. मुझे रामकृष्ण को देखे और उनका कथन सुने अभी ज्यादा दिन नहीं हुए थे कि मुझे भारत के दूसरे छोर कराची से बुलावा आ गया.
मुझे फिर जीवन में उन्हें देखने का अवसर नहीं मिला लेकिन 16 अगस्त, 1886 को जब उनका स्वर्गवास हुआ तो मैं संयोग से कलकत्ता में ही था. जब तीसरे पहर मैं घर से निकल रहा था तो कोई मेरे हाथ में एक छपी हुई पर्ची पकड़ा गया कि परमहंस रामकृष्ण ने 'महा समाधि' ले ली है. मैं सीधे कोस्सीपुर के उस बाग वाले मकान में पहुंचा जहां इस महापुरुष ने अपने आखिरी दिन गुजारे थे. उनके शिष्य, प्रशंसक और भक्त आखिर तक उनको घेरे उनकी सेवा करते रहे और ये दिन उन्होंने बड़ी शांति से व्यतीत किए थे. वहां पोर्टिको में खुले में एक साफ सुथरे बिस्तर पर उनका पार्थिव शरीर रखा हुआ था. सफेद चादर पर फूल भरे थे. वे दायीं करवट लेटे हुए थे और एक तकिया सिर के नीचे था तो दूसरा पांव के नीचे. गले के कैंसर की घोर पीड़ा के समय भी उनके जो होंठ कभी बन्द न होते थे वे अब शांत पड़े थे. उनके चेहरे पर परम शांति विराज रही थी और कहीं कोई पीड़ा या तनाव का लक्षण न था. होंठों की मन्द मुस्कान बता रही थी कि आत्मा रूपी पंछी समाधि की अवस्था में ही निकल चुका है. नरेन्द्रनाथ (विवेकानन्द), महेन्द्रनाथ, दूसरे शिष्य, ब्रह्म समाज के त्रैलोक्यनाथ और दूसरे लोग नीचे जमीन पर बैठे थे. जैसे ही मैं उनके निकट बैठा और उस परम शांति वाली मुखाकृति पर गौर किया, तो मुझे रामकृष्ण के वे शब्द याद आए कि शरीर तो आवरण मात्र है और उसके अन्दर बसने वाले वास्तविक आत्म का अनुभव करना मुश्किल है.
और जब हम बैठे यह इंतजार कर रहे थे कि धूप और गर्मी कुछ कम हो तो अंतिम संस्कार करने के लिए श्मशान ले चला जाए, तभी बादल का एक टुकड़ा कहीं से आया और हल्की बूंदा बांदी करता चला गया. जो लोग वहां थे सबने कहा कि आकाश से पुष्प वृष्टि हुई है. और शास्त्रों में कहा गया है कि जब कोई नश्वर शरीर वाला नश्वरता से अमरता पाते हुए जमीन से स्वर्गलोक आता है तो देवता गण पुष्प वृष्टि करते हैं मुझे पक्का लगता है कि ईश्वर ने मुझे इतनी लम्बी उम्र यही बात बताने के लिए दी है कि मैं लोगों को बता सकूं कि मैंने रामकृष्ण को जीवित देखा और सुना था और उन्हें मौत को भी शांति के साथ अपनाते हुए देखा था.
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‘गंगा की लहरों पर हल्की नाव में परमहंस (रामकृष्ण) और केशब की संगति में आपने अपने अविस्मरणीय दिन बिताने के सौभाग्य का जो संस्मरण लिखा है वह मेरे लिए धरोहर है और आपने उसका वर्णन भी इतनी अच्छी तरह से किया है. आपकी किताब में अन्य संस्करणों, खासकर उनके स्वर्गवास के बाद उनके मृत शरीर को सभी प्रियजनों की निगरानी में रखने वाले प्रसंग के साथ इसे फिर से पढ़कर मैं बहुत आनन्दित हुआ.
‘मेरे लिए यह बहुत हर्ष का विषय है कि मुझे रामकृष्ण के बचे हुए करीबी लोगों में से एक के साथ पत्राचार का सौभाग्य मिल रहा है. मुझे लगता है कि आपके माध्यम से मैं परमहंस को देख रहा हूं. मैं आपके लम्बे और सुखद जीवन की कामना करता हूं. मेरी स्नेहपूर्ण भक्ति में भरोसा करने लायक प्रेम बनाए रखें. 'माडर्न रिव्यू' में रामकृष्ण परमहंस की समाधि वाली रपट पढ़ने के बाद नगेन्द्रनाथ गुप्त को लिखी रोमा रोलाँ की चिट्ठी के अंश.
# करीब पौने दो सौ साल पहले जन्मे नगेन्द्रनाथ गुप्त देश के पहले बड़े पत्रकारों में एक थे और उन्होंने अठारह सौ सत्तावन के बाद से लेकर गांधी के उदय के पूर्व का काफी कुछ देखा और बताया है. वे ट्रिब्यून के यशस्वी सम्पादक थे तो गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के दोस्त और विवेकानन्द के क्लासमेट. उनके संस्मरणों की किताब वरिष्ठ पत्रकार और चम्पारण के मूल निवासी अरविन्द मोहन ने ढूंढ निकाली और हिंदी संपादित व अनूदित कर प्रकाशित कराया है. रज़ा फ़ाउण्डेशन के सहयोग से इस पुस्तक को सेतु प्रकाशन ने 'पुरखा पत्रकार का बाइस्कोप' नाम से छापा है. यह अंश 'रामकृष्ण परमहंस' नाम से पुस्तक में संकलित है. 239 पेज की यह पुस्तक ऐसे ही अनमोल संस्मरणों से भरी है, जिसका मूल्य ₹235.00 है.