विष्णु खरे की कविता से मेरी दोस्ती पुरानी है. बहुत पुरानी. कोई अड़तालीस बरस लंबी. और आज भी मैं दौड़-दौड़कर उनके पास जाता हूं, तो एक ऐसी विलक्षण दुनिया मेरे आगे खुल पड़ती है, जिसमें हमारे दौर की भीषण सच्चाइयों के साथ बहुत-बहुत दुर्दमनीय आकर्षण भी है. शायद इसलिए कि वे सब तरह के खतरे उठाते हुए भी, निरंतर सत्य का पीछा करती हुई कविताएं हैं. नितांत अपनी तरह की कविताएं. सबसे अलग, सबसे विलक्षण भी. कई बार अपनी कोशिशों में वे टूटती, बिखरती बल्कि लहूलुहान होकर हांफती सी भी नजर आ सकती हैं, पर अपनी जिद नहीं छोड़तीं, कि कहेंगी तो सत्य ही. फिर चाहे इसके लिए जो भी मुश्किलें झेलनी पड़ें.
यहां विष्णु खरे अन्यतम हैं. अपनी मिसाल खुद. आप हिंदी का पूरा साहित्य खंगाल डालिए, विष्णु खरे सरीखा कोई और कवि आपको नहीं मिलेगा. वे सबसे अलग हैं. सबसे विलक्षण, और उनकी कविता और शख्सियत, दोनों के ही दुर्दम्य आकर्षण से बच पाना कठिन है.
यही कारण है कि विष्णु खरे को गुजरे पूरे पांच बरस हो गए, पर वे इतना मेरे आत्म में बस चुके हैं कि मैं आज तक यकीन नहीं कर पाया कि वे नहीं हैं. जब वे थे तो उनसे निरंतर बतकही होती थी. न वे रह पाते थे, न मैं. अब वे नहीं हैं, तो भी सच तो यह है कि उनसे निरंतर वैसी ही बतकही होती है. हां, अब यह उनकी कविता के जरिए होती है. उनकी कविताएं पढ़ते हुए लगता है, मैं किसी और ही दुनिया में पहुंच गया हूं, और एक बार वहां पहुंचने पर अकसर लौटना याद नहीं रहता. लगता है, विष्णु खरे की कविताएं आपको थोड़ा-थोड़ा विष्णु खरे तो जरूर बना देती हैं, जिसमें चीजें ही नहीं, चीजों के पीछे की दुर्वह सच्चाइयां भी आपको नजर आने लगती हैं, जो निरंतर विस्थितियों से आपको लड़ने और जूझने के लिए तैयार करती हैं.
इस लिहाज से विष्णु खरे सच ही, हिंदी के दुर्जेय कवि हैं. अद्वितीय, और एक दुर्निवार बेचैनी के कवि, जिनके साथ यात्रा खासी असुविधाजनक हो सकती है. इसलिए भी कि विष्णु खरे सिर्फ कविता लिखते ही नहीं हैं, वे कविता के साथ-साथ बहुत कुछ तोड़ते और रचते हैं. कभी अनायास तो कभी सायास भी. और उनकी कविता कभी कविता होने की कोशिश नहीं करती. बल्कि जैसी वह है, कुछ खुरदरी, सख्त और दूर तक फैली-फैली सी-अपनी असाधारण रुक्षता के बावजूद वह कविता है-वही कविता है, इस धमक के साथ सामने आती है और देखते ही देखते एक पूरी आदमकद शख्सियत में हमारे सामने आ खड़ी होती है.
सच पूछिए तो विष्णु खरे की कविता केवल कविता नहीं. वह पूरी जिंदगी की जद्दोजहद, पूरी जिंदगी के महाभारत के बीच आपको ले जाती है, और आपसे कैफियत माँगती है, आप किन शर्तों पर जीते हैं और क्यों जीते हैं? आप कहां मरते-खपते, पिटते और लहूलुहान होते हैं? और नहीं होते तो आप क्यों हैं, कैसी जिंदगी आप जीते हैं और क्या उसे सचमुच जिंदगी कहा जा सकता है?
यों उनकी कविता हमारे भीतर एक जंग छेड़ देती है और हाथ पकड़कर कई कठिन मोरचों पर ले जाती है, जिसके लिए अगर हम तैयार न हों तो वह खाद-पानी देने काम भी करती है.
इसीलिए मुझे कई बार लगता है, विष्णु जी की लगभग सारी कविताएं कविता को नेगेट करके ही कविता बनती हैं...या कि कविता बनना चाहती हैं. वे कविताई के ढंग पर चलकर कविता नहीं होना चाहतीं. बल्कि उनकी जिद है-बड़ी सख्त और अपूर्व जिद कि वे कविता के अभी तक बने-बनाए रास्ते के एकदम उलट चलकर ही खुद को कविता साबित करेंगी. आप अंदाजा लगा सकते हैं- यह कितनी कठिन और खतरनाक जिद है?
इस लिहाज से केवल मुक्तिबोध से ही विष्णु खरे की तुलना हो सकती हैं. दोनों की कविताएं कविता के कटे-तराशे फ्रेम या आकारों को तोड़-फोड़कर अजस्र बहती लंबी कविताएं हैं-बनाई हुई लंबी कविताएं नहीं हैं, जैसी बाद में बहुत से नकलची कवियों ने लिखीं. बल्कि बहुत सहज स्फूर्त लंबी कविताएं हैं. फिर दोनों की कविताएं खासी गद्यात्मक या वर्णनात्मक होकर भी... गद्य के एकदम कठिन और अप्रयुक्त शब्दों का इस्तेमाल करते हुए भी, कविताएं हैं-वे न सिर्फ अपना कविता होना साबित करती हैं बल्कि वे हमारे समय की सबसे ज्यादा प्रतिनिधि और शक्तिशाली कविताएं भी हैं. यह चमत्कार कोई छोटा-मोटा चमत्कार नहीं है. मगर यह चमत्कार या तो हम मुक्तिबोध में देख पाते हैं या फिर विष्णु खरे में.
फिर मुक्तिबोध और विष्णु खरे दोनों ही कवियों की एक खासियत यह है कि उनके यहां बीहड़ता या रुक्षता का सौंदर्य है. हालांकि इस बीहड़ता या रुक्षता के भीतर बहुत गौर से देखें तो बहुत कोमलता भी छिपी नजर आ सकती है. मुक्तिबोध की कविताओं में प्रेम और सौंदर्य का बहुत खुला वर्णन नहीं है. लेकिन जहां-जहां भी वह आया है, भले ही सांकेतिक रूप में, दो-चार पंक्तियों में, तो उससे पूरी कविता मानो प्रकाशमान हो उठती है. मसलन याद करें, उनकी वह कविता जिसमें बहसों और वैचारिक लड़ाइयों में खोया कवि जब देर रात को घर लौटता है, तो दरवाजा खटखटाने पर भीतर से 'आई...' की आवाज सुनाई देती है और इसी से गृहस्थी के सौंदर्य का मानो एक आलोकित चित्र आंखों के खिंच जाता है. ऐसे ही मुक्तिबोध की एक और कविता में 'ऐसी यह बुद्धिमती मेरे घर आई है' सिर्फ इस एक पंक्ति में स्त्री की सुंदरता की जो छवि है जिसमें मानो उसकी बुद्धिमत्ता ही सुंदरता बनकर दिपदिपाती है- सचमुच अनुपम है.
इसी तरह विष्णु खरे की कई कविताओं में पत्नी और गृहस्थी के सौंदर्य की छवियां हैं. 'हमारी पत्नियां' जैसी उनकी कविताएं तो बेजोड़ हैं, जिनमें स्त्री की अस्मिता की बहुत बारीक छवियां हैं. उनके निजीपन के सौंदर्य और अस्मिता को व्यक्त करती ये पंक्तियां तो मुझे कभी नहीं भूलतीं-
सबसे भयावह तो है पत्नियों का
कभी-कभी अकेले अपना आप से बात करना
और उसके बीच एकाध बार हलके से हंसना-
उनका अचानक चुप हो जाना और घर के एक कोने में बैठकर
अकेले धूप या बारिश या न कुछ को देखना भी
हमें व्यग्र करता है-
याद होगा कितने ही बार हमें उनसे अधिक लाड़ करने का नाटक
उनके ऐसे निजीपन को नष्ट करने के लिए भी करना पड़ता है
विष्णु खरे के संग्रह 'काल और अवधि के दरमियान' में भी 'अनकहा' शीर्षक से पत्नी के लिए एक सुंदर कविता है, जिसे मैं कभी भूल नहीं पाता. हालांकि यहां प्रेम और सुंदरता का बहुत खुला चित्रण नहीं है, पर संकेतों में...बल्कि कहना चाहिए कि कुछ लकीरों में ही एक बड़ी बात कह दी गई है.
यहीं विष्णु जी की 'सरोज स्मृति' कविता का भी जिक्र किया जा सकता है. निराला की 'सरोज स्मृति' से बिल्कुल भिन्न ढंग की कविता, जिसमें बचपन का एक प्रीतिपूर्ण रागात्मक चित्र है. बिल्कुल अलग सा. वे बाहर पढ़ने गए थे, खंडवा में. कविता में इसका जिक्र है. लौटे तो उन्हें वह किशोरी दिखाई दी, जो अब थोड़ी बड़ी होकर अपनी माँ देउकी और पिता लक्खू गोंड की तरह ही सिर या कांवड़ पर मीठे कुओं से लोगों के घर पानी लाया करती थी. कभी वे लोग विष्णु जी के घर में किराए पर रहते थे, फिर कहीं और चले गए. बचपन में विष्णु उसे सरौता कहकर चिढ़ाया करते थे.
समय बीता, पर स्मृति तो मन में थी ही. इसलिए बीच रास्ते में अचानक उससे मिलना हुआ, तो थोड़ी झिझक के बावजूद बहुत कुछ था उनके पास कहने के लिए. किशोरावस्था का यह प्रसंग विष्णु जी की 'सरोज स्मृति' कविता में कुछ इस तरह आया है कि उसे पढ़ते हुए आंखों के आगे एक अछूता बिंब आ जाता है. दो किशोर हृदयों का एक अव्यक्त सा प्रीतिपूर्ण क्षण, जो यथार्थ जीवन स्थितियां के बीच किसी जंगली फूल की तरह गुँथा हुआ है-
किशोरी वह वही काम कर रही थी
जो उसकी माँ देउकी और बाप लक्खू गोंड करते थे
सिर या कांवड़ पर मीठे कुओं से
घरों में पीने का पानी भरने का...
कनकछरी जैसी अब वह
उसका चेहरा और गरदन कांपते थे हलके-हलके
चुम्बरी पर रखी भरी गगरी के छलकने से
किसी नर्तकी या गुड़िया सरीखे
हां में या ना में समझना मुश्किल...
पहचान लेने पर जो कुछ भी आंखों में आ जाता है
उससे उसने पूछा
कहां चला गया तू
जरा गौर करें, मिलने पर पहले ही संवाद में आया यह 'तू' कितनी गहरी-गहरी सी आत्मीय पहचान की परतें खोल जाता है. फिर इसी तरह की और भी छोटी-छोटी सरल बातें, पर उनमें किशोरावस्था के एक प्रेमिल अनुभव की सुगंध बसी हुई है. कुछ इस कदर कि-
उसके मन में आया
कि चुम्हरी समेत उसकी गागर अपने सिर पर रख ले
और उसके साथ बरौआ बनकर उस घर तक चला जाए
जहां उसे यह पानी भरना था
लेकिन उससे तमाशा खड़ा हो जाता
एक ओर किशोरावस्था का आकर्षण, दूसरी ओर समाज के लोगों द्वारा देखे जाने की झिझक. इस बीच एक छोटा सा अनुभव भी किस तरह हमेशा के लिए मन में टँका रह जाता है, यह कविता पढ़कर अच्छी तरह जाना जा सकता है. इस दृष्टि में विष्णु जी की 'सरोज स्मृति' एक विरल कविता है, और बगैर किसी रोमानियत के जिस लाघव के साथ वे उन स्थितियों का वर्णन करते हैं, उसकी तारीफ करनी होगी.
जीवन के अनंत प्रवाह में एक बिल्कुल छोटा सा लगता अनुभव भी किस तरह एक बड़ी कविता में बदला जा सकता है, इसे विष्णु जी की 'सरोज स्मृति' पढ़कर जाना जा सकता है. और बेशक विष्णु जी की कवि-सामर्थ्य यहां बड़े अनूठे रूप में सामने आ जाती है.
आश्चर्य की बात यह है कि जो प्रेम और ऐंद्रिक अनुभवों में ही खोए रहने वाले कवि हैं, उनकी कविताओं में प्रेम बासी और पिटा हुआ लगता है, जबकि मुक्तिबोध या विष्णु खरे सरीखे रूखे समझे जाने वाले कवियों की कविताओं में जीवन-समर के बीच प्रेम और सुंदरता की ये जो सादा छवियां हैं, वे कभी नहीं भूलतीं और मन पर उनका कहीं ज्यादा गहरा असर पड़ता है.
***
विष्णु खरे का व्यक्तित्व और उनकी कविता कुछ ऐसे समझ ली गई है- और सच मानिए तो वह ऊपर से कुछ-कुछ ऐसी दिखती भी है- कि वह भावुकता से बहुत दूर निकल आई है...या कि वह और चाहे कुछ भी हो, पर भावुक तो हो ही नहीं सकती.
पर मेरा यह कहना शायद बहुतों को बड़ा अजीब लगेगा कि विष्णु खरे को आप नजदीक से जानें, तो वे खासे भावुक व्यक्ति हैं. और उनकी कविता को भी नजदीक से देखें तो उसकी भावुकता से रू-ब-रू हुए बगैर हम नहीं रह पाते. बल्कि लगता है, बाकी कवि जीवन के जिन दृश्यों और स्थितियों को रूटीन मानकर नजरंदाज करने के आदी हैं, विष्णु खरे उनकी अंतर्हित करुणा तक जा पहुंचते हैं, और हम पाते हैं कि वे जाने-अनजाने हमारे भाव-संसार और संवेदना का विस्तार कर रहे हैं.
मुझे याद है, विष्णु जी से हुई एक लंबी अनौपचारिक बातचीत में उन्होंने रघुवीर सहाय और राजेंद्र माथुर का इतना भावुक होकर जिक्र किया था कि मैं प्रश्न पूछना भूलकर अवाक् उन्हें देखता रह गया था. राजेंद्र माथुर के अंतिम दिनों का स्मरण करते हुए उनकी आंखें आर्द्र और स्वर गीला-गीला-सा हो आया था. इसी तरह रघुवीर सहाय के एक प्रसंग का वे जिक्र करते हैं. हुआ यह था कि विष्णु जी ने रघुवीर सहाय की कविताओं के एक संग्रह पर लिखते समय कहीं यह टिप्पणी की कि ये कविताएं सौ में से पंचानबे अंकों की हकदार हैं. बाद में रघुवीर सहाय विष्णु जी से साहित्य अकादेमी में मिले तो उन्होंने पूछा-आपने मेरे पांच अंक क्यों काट लिए...? विष्णु जी इस प्रसंग का जिक्र कर रहे थे तो उनकी आंखें आंसुओं से लबालब थीं और उनके लिए आगे बोल पाना मुश्किल हो गया था.
जैसे विष्णु खरे के व्यक्तित्व में, वैसे ही उनकी कविता में भी ये बेहद भावुक, आर्द्र क्षण आते हैं और बीच-बीच में हमें भिगो जाते हैं. हां, उसकी ऊपरी रुक्षता के भीतर संवेदना के इन आर्द्र क्षणों को डिस्कवर करना पड़ता है. इसलिए कि विष्णु जी की तरह ही उनकी कविता भी भावुक जरूर है, पर वह उस भावुकता का अनावश्यक प्रदर्शन करना भद्दी चीज मानती है और खुद को सायास उससे दूर रखती है.
विष्णु जी के संग्रह 'खुद अपनी आंख से' की कई कविताएं ऐसी हैं जिनमें कवि की रुक्षता के भीतर छिपी बेतरह भावुकता से मिलने के मौके आते हैं. खासकर 'अकेला आदमी' तो उनकी ऐसी कविता है जिसे कभी भूला ही नहीं जा सकता. ऊपर से खासे खुरदरे दिखाई देने वाले इस आदमी की अकेली और वीरान-सी जिंदगी के भीतर एक अंतर्धारा भी है-प्रेम और भावुकता की अंतर्धारा, जो इन रूखे, रसहीन दिनों में भी उसे जिलाए रखती हैं. यहां पत्नी, नन्ही दो बेटियों और एक अबोध बेटे की यादें हैं. पत्नी के पुराने खत और फोटो हैं और एक सपना है कि वह उन्हें अपने साथ रेलगाड़ी में बिठाकर वापस आ रहा है. शायद इससे वर्तमान का उजाड़ थोड़ा कम रूखा और सहनीय हो जाता है-
अकेला आदमी अपना आपा खो चुका है
खुद पर तरस खाने की हदों से लौट-लौट रहा है
उसे याद आने लगी है पांचवीं क्लास की उस साँवली लड़की की
जो एक मीठी पावरोटी पर खुश
पैदल स्कूल जाती है निर्मम चौराहे पार करती हुई
याद आती है उससे छोटी की
जो उसे हाथ पर काटकर पिटी थी
और हमेशा ख़ुश उसकी जो अब चलना सीख रहा है
और अचानक थककर कहीं भी सो जाता है
अकेला आदमी छटपटाकर पाता है
कि वह उन सबसे बहुत प्यार करता है
बहुत-बहुत माफ़ी माँगता है
पूरे कपड़े पहने हुए सो जाता है
बिस्तर पर जिसमें उन सबकी गंध है
जिन्हें वह सपने में अपने साथ रेलगाड़ी में आते हुए देखता है
इन पंक्तियों में पत्नी और तीन छोटे-छोटे चंचल बच्चों की यादों के साथ-साथ इस खुरदरे आदमी के स्नेह से डब-डब करते जो अक्स हैं, उन्हें आप चाहेंगे भी तो भूल नहीं पाएंगे. मैंने जितनी बार इस कविता को पढ़ा है, आंखें भीग गई हैं. ऊपर से कुछ-कुछ रूखी और बेरस नजर आती इस कविता में कितनी भावुक तड़प और आर्द्रता है, इसे कहा नहीं, बस समझा ही जा सकता है.
इसी तरह 'सबकी आवाज के पर्दे में' संग्रह की 'चौथे भाई के बारे में', 'दिल्ली में अपना फ्लैट बनवा लेने के बाद एक आदमी सोचता है', 'लालटेन जलाना', 'बेटी', 'मिट्टी, 'जो टेंपो में घर बदलते हैं' कविताएं ऐसी हैं जो मानवीय और पारिवारिक रिश्तों की ऊष्मा में सीझी हुई हैं.
मुझे याद है, 'चौथे भाई के बारे में कविता' का जिक्र आने पर विष्णु जी ने एक दफा खुद बताया था कि इस कविता को वे पिछले कोई बीस सालों से लिखना चाह रहे थे. वह उनके भीतर ही अटकी हुई थी, पर बन नहीं पा रही थी. कोई बीस साल बाद उसने ठीक-ठीक वही शक्ल ली, जिस रूप में विष्णु खरे इसे लिखना चाहते थे, तो वह उनके संग्रह में आ सकी. और यह कविता सचमुच गुजरे चौथे भाई की स्मृतियों से डब-डब करती कविता है.
ऐसे ही 'दिल्ली में अपना फ्लैट बनवा लेने के बाद एक आदमी सोचता है' कविता में घोर आर्थिक तकलीफों में घर-परिवार के जो लोग गुजर गए, उन्हें स्मृतियों के साथ-साथ एक छोटे-से फ्लैट में बसाने की बड़ी मार्मिक कोशिश है-
इस तरह माता-पिता और बुआओं से और भर जाता घर
इस घर में और जीवित हो जाता एक घर बयालीस बरस पुराना
वह और उसकी पत्नी और बच्चे तब रहते
बचे हुए एक कमरे में
जिसमें बेटियों के लिए थोड़ी आड़ कर दी जाती
कितने प्राण आ जाते इन कमरों में चार और प्राणियों से
हालांकि वह यह भी जानता है कि अब यह मुमकिन नहीं है. जो गुजरा है, वह गुजर गया और अब कभी वापस नहीं आएगा. लेकिन इसके बावजूद उस गुजरे हुए अतीत के साथ-साथ उन सबको आवाज लगाए बिना भी वह रह नहीं पाता, जिनके बिना उसकी घर की कल्पना कभी पूरी नहीं होती-
इसलिए वह सिर्फ बुला सकता है
पिता को माँ को छोटी बुआ बड़ी बुआ को
सिर्फ आवाज दे सकता है उस सारे बीते हुए को
पितृपक्ष अमावस्या की तरह सिर्फ पुकार सकता है आओ आओ
यहां रहो इसे बसाओ
अभी यह सिर्फ एक मकान है एक शहर की चीज एक फ्लैट
जिसमें ड्राइंग रूम डाइनिंग स्पेस बैडरूम किचन
जैसी अनबरती बेपहचानी गैर चीजें हैं
आओ और इन्हें उस घर में बदलो जिसमें यह नहीं थीं
फिर भी सब था और तुम्हारे पास मैं रहता था
जिसके सपने अब भी मुझे आते हैं
कुछ ऐसा करो कि इस नए घर के सपने पुराने होकर दिखें
और उनमें मुझे दिखो
बाबू भौजी बड़ी बुआ छोटी बुआ तुम
मुझे कहना चाहिए कि यह पुकार सचमुच मर्मभेदी है. और क्या यह किसी ऐसे व्यक्ति की पुकार हो सकती है, जो भावुक नहीं है? भला इधर की कविताओं में पारिवारिकता की इतनी विकल कर देने वाली उपस्थिति आपको और कहां मिलेगी? साथ ही ऐसी करुणा जो अंदर तक थरथरा देती है.
ऐसे ही 'बेटी' कविता में दफ्तर में नौकरी पाने के लिए आई महानगर की एक गरीब लड़की की पीड़ा है, जो कवि विष्णु खरे के मन में जैसे छप जाती है-
जाने से पहले उसने कहा
अपनी बेटी समझकर ही मुझे रख लीजिए...
वह सूखी साँवली लड़की
जिसके पसीने में बहुत पैदल चलने
कई बसें बदलने की बू थी
जिसके बहुत पहने कपड़ों से धूपहीन खोली के सीले गूद़ड़ों
और आम के पुराने अचार की गंध उठती थी...
उसे मैं वह नौकरी दे न सका
बाद में मेरे वे नितांत अस्थायी अधिकार भी रहे नहीं...
मैं उसे यह तो नहीं कह सका
कि वह कैसे उस नौकरी के लायक नहीं थी-
जैसे हर जगह लायक लोग ही बैठे हों-
लेकिन मन ही मन मैंने उसे बेटी जरूर कहा
पचास बरस की उम्र में यह पहली बार था
कि बाईस साल की किसी पराई लड़की को मैंने वैसा माना...
'जो टेंपो में घर बदलते हैं' कविता में बगैर किसी दिखावटी सहानुभूति के एक मध्यवर्गीय आदमी की डांवाडोल जिंदगी की समूची तसवीर उकेर दी गई है. जरा गौर करें तो पता चलेगा कि यह केवल टेंपो में घर बदलने की ही तसवीर नहीं, बल्कि उस बेरंग जिंदगी की तसवीर है, जिसके हिस्से बस भागमभाग ही आई है. विष्णु खरे अंदर तक धँसकर इसे देखते और लिखते हैं. पर यह क्या बगैर भावुक हुए संभव था? हालांकि यह दीगर बात है कि न तो कविता में भावुकता का अनावश्यक प्रदर्शन है और न विष्णु खरे ही ऐसा चाहते हैं. उनकी भावुकता अकसर कई परतों के नीचे छिपी नजर आती है, इसलिए बहुतेरे लेखक और पाठक उसे नजरअंदाज कर देते हैं और शायद ठीक-ठीक समझ भी नहीं पाते.
विष्णु जी के बहुचर्चित संग्रह 'काल और अवधि के दरमियान' में भी ऐसी कई कविताएं हैं जिनमें थोड़ा-सा कुरेदते ही आप एक बेतरह भावुक आदमी से मिलते हैं. पत्नी के लिए लिखी गई अपने ढंग की 'अनकहा' कविता तो इसमें है ही, जिसमें एक स्त्री का होना है. अपनी समूची अस्मिता और गरिमा के साथ होना है. और एक अव्यक्त किस्म का प्रेम भी, जिसमें हिंदुस्तानी दांपत्य की एक मीठी झलक है-
मैं उसे छिपकर देखता हूं कभी-कभी
अपने निहायत रोजमर्रा के कामों में तल्लीन
जब उसकी मौजूदगी की पुरसुकून चुप्पी छाई रहती है
उसकी हलकी से हलकी हरकत संपृक्त
ऐसा एक उम्र के अभ्यास से आता है...
उसके दुबले हाथों को देखता हूं मैं
कितनी वाजिब और किफायती गतियों में
अपने काम करते हैं वे
और उसका चेहरा जो अभी भी सुंदर है
इस तरह अपने में डूबा और भी सुंदर बल्कि उद्दाम
भले ही समय ने उस पर अपनी लकीरें बनाई हैं
और वह बीच-बीच में स्फुट कुछ कहती है
पता नहीं किससे किसके बारे में
स्त्री की सुंदरता को व्यक्त करने के जितने भी बने-बनाए ढंग है, यह कविता सबको नकारकर चलती है, और फिर भी अपनी बात इतने असरदार और पुरसुकून लहजे में कहती है, कि पढ़ते हुए कविता मन पर जैसे छप सी जाती है.
इसके अलावा 'उपचार' और 'अमीन' सरीखी कविताएं भी हैं जिनमें विष्णु खरे एक ऐसे भावुक कवि के रूप में दिखाई देते हैं जिन्हें अपने रोगों के उपचार के लिए बार-बार जनता के बीच जाना पड़ता है. और एक कठोर अमीन को लगातार इस सवाल का जवाब देना होता है कि उन्होंने अब तक क्या किया या कि उनका हासिल क्या है! 'गुंग महल' और 'शिविर में शिशु' जैसी बड़े कैनवस की कविताएं हों या 'इग्ज़ाम' जैसी एक छोटी और विलक्षण कविता या फिर हिंजड़ों पर लिखी गई 'जिल्लत' कविता, 'विदा' में एक निम्न मध्यवर्गीय प्रेम-विवाह का दृश्यांकन हो या फिर पूरी जिंदगी सपना देखने के बाद एक मध्यवर्गीय आदमी के हाथ आए खालीपन की विडंबना को दर्शाती कविताएं, विष्णु खरे के भावुक कवि से कहीं न कहीं हमारी मुलाकात जरूर हो जाती है. हालांकि वे ऐसे क्षणों में सतर्कता से हमसे आंख बचाते नजर आते हें. या खुद पर अनजाने ही कुछ और रुक्ष आवरण चढ़ा लेते हैं, ताकि ऐसे विकल और विह्वल क्षणों में वे पकड़े न जाएं.
इनमें 'गुंग महल' तो बहुत विरल और असाधारण कविता है, जिसमें बादशाह अकबर से जुड़ी एक सच्ची घटना है. उसने यह जानने के लिए कि ईश्वर की बनाई हुई सबसे उम्दा पैदाइशी जुबान कौन सी है, जिसे खुद उसने बनाया है-एक बड़ा दारुण और दिल दहला देने वाला प्रयोग किया. कुछ बच्चों को आगरे में दूर नीम बियावान में बनवाए गए एक महल में रखा गया, जहां उन्हें कोई भाषा सुनाई नहीं पड़ सकती थी. यहां तक कि सेवकों से भी कहा गया कि वे मुंह से कोई शब्द न निकालें. पूरे अड़तालीस महीने बाद अकबर उस महल में यह देखने पहुंचा कि भला ये बच्चे कौन सी जुबान बोलते हैं. पर वहां जो कुछ उसने देखा, उससे वह भौचक्का सा रह गया-
अब बच्चों की आंखें निकल आई थीं
उनके कांपते बदन ऐँठ रहे थे वे मुंह से झाग निकालने लगे
कुछ ने दहशत में पेशाब और पाखाना कर दिया
फिर वे दीवार के सहारे दुबक गए एक कोने में पिल्लों की तरह
और उनके मुंह से ऐसी आवाजें निकलने लगीं
जो इनसानों ने कभी इनसान की औलाद से सुनी न थीं
इस पर अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए, कौतुक से भरकर यह नायाब किस्म का प्रयोग करने वाले अकबर की क्या हालत हुई, कविता में इसका वर्णन पढ़कर मन उदासी से भर जाता है.
मुझे याद है, विष्णु जी से हुई एक लंबी बातचीत में उन्होंने कहा था कि कवि होने के नाते वे भावुकता को एकदम खारिज नहीं कर सकते और भावुक कवियों जैसा अति भावुकता का प्रदर्शन भी नहीं करना चाहते. यह उनकी एक अजब-सी लाचारी हैं.
मैं समझता हूं, विष्णु जी की तरह ही यह लाचारी या कहिए भावुक-अभावुक का द्वंद्व उनकी कविताओं में भी है. इसीलिए उनकी कविताओं में भावुकता यहां-वहां बिछी नहीं पड़ी, उसे डिस्कवर करना पड़ता है. पर यह भी तय है कि भावुकता विष्णु खरे की कविताओं की प्राण-शक्ति है जिसके बगैर न वे 'गुंग महल' और 'शिविर में शिशु' जैसे बड़ी उथल-पुथल वाली अति संवेदी कविताएं लिख सकते थे और न 'चौथे भाई के बारे में', '1991 के एक दिन', 'दगा की' और 'कितना आदमी' जैसी विलक्षण निजता वाली कविताएं, जिनसे विष्णु खरे के कविता-संसार में एक आत्मीय रस आता है.
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इसी तरह विष्णु खरे शायद हिंदी के उन विरले कवियों में से हैं जिनकी कविताओं में काफी ज्यादा आत्मकथा है. हो सकता है, कविता में इतनी आत्मकथा लिख पाने वाला कोई दूसरा कवि हमारे यहां हो ही नहीं. इसका जिक्र करना इसलिए जरूरी लगा कि कहानी में आत्मकथा लिखना तो आसान है. इसकी तुलना में कविता में आत्मकथा लिखना कठिन है-एक बहुत दुष्कर काम. पर विष्णु खरे बगैर कोई दावा किए-और यहां तक कि बगैर कोई दिखावा किए यह काम करते हैं.
कविता में निजी जिंदगी के अक्स यकीनन आते हैं-और निजी अहसास या अनुभूतियां आएंगी तो भला निजी जिंदगी कैसे बच रहेगी? तो भी कविता में निजी जिंदगी के कुछ इधर-उधर छिटके अक्स ही ज्यादातर दिखाई देते हैं. मानो समझ लिया गया हो कि कविता का पेटा इतने से ही भर जाता हो. जबकि विष्णु खरे की कविताओं में उनकी आत्मकथा ज्यादा खुलकर और अपने पूरे वर्णनात्मक विस्तार के साथ आती हैं. सच कहूं तो उनकी कविताओं के एक पाठक के तौर पर मुझे यह बहुत अच्छा और सुखद लगता है.
विष्णु खरे जिस नास्टेलजिया या कहूं कि गहरी भावनात्मक तड़प के साथ अपने जीवन में आए या आवाजाही करते लोगों, घटनाओं और चीजों का जिक्र करते हैं, वह मुझे सचमुच उनकी कविताओं का एक मुग्ध कर देने वाला फिनोमिना लगता है. और कहीं-कहीं तो घटनाओं या हादसों के ठीक-ठीक सन् ही नहीं, दिन, तारीख और स्थानों के इतने सीधे-सीधे ब्योरे भी हैं कि उनकी कविताएं 'एक और आत्मकथा' जान पड़ती हैं. कोई सतर्क लेखक या पाठक चाहे तो इन कविताओं में छिपी हुई आत्मकथा न सिर्फ डिस्कवर कर सकता है, बल्कि इनके आधार पर विष्णु खरे की एक अच्छी जीवनी भी लिखी जा सकती है.
विष्णु खरे के 'खुद अपनी आंख से' संग्रह में ऐसी कई कविताएं हैं. खासकर 'टेबिल', 'अव्यक्त', 'गरमियों की शाम', 'हंसी', 'प्रारंभ', 'अकेला आदमी' काफी ब्योरों से भरी ऐसी कविताएं हैं, जिनकी निजता पर ध्यान जाए बगैर नहीं रहता. इनमें हम एक किशोर को जो अपनी उम्र से ज्यादा समझदार और संवेदनशील है, धीरे-धीरे आगे बढ़ते और एक अलग सी शख्सियत हासिल करते देखते हैं. याद कीजिए, 'हंसी' कविता का वह बच्चा जो एक साथ तीन शील्ड जीतकर निस्तब्ध रात के सन्नाटे में पैदल घर लौट रहा है और एक शील्ड के अचानक गिर जाने पर पैदा हुई आवाज और रात गश्त लगाते सिपाही के सवालों से वह कुछ अचकचा गया था. फिर किस असाधारण आत्मविश्वास से वह सिपाही के सवालों का जवाब देने के बाद घर जाता है-
एक हाथ में तीन इनाम और दूसरे हाथ से
जेब में पड़ी मूँगफली और पेठे के टुकड़ों से
कशमकश करते हुए एक फील्ड फिसली
और ग्यारह बजे रात के सुनसान में धमाके की तरह गिरी
बंद होटल के पास घूरे पर से चौंका हुआ कुत्ता भौंकने लगा
पास के घर से ऊपर की खिड़की खुली
और एक भर्राई आवाज ने पूछा कौन है रे रामसरन
गश्त लगाता हुआ कानिस्टबिल टार्च फेंकता
साइकिल पर फुर्ती से उस तरफ आया...
क्या मामला है उसने घबराए हुए रोब में पूछा
कुछ नहीं यह गिर पड़ी थी
क्या है ये सामान कहां लिए जा रहे हो
इनाम मिला है घर जा रहा हूं
कैसा इनाम है ये क्या चाँदी जड़ी हुई है
नहीं चाँदी नहीं है शायद पीतल पर पालिश है
रहते कहां हो कहीं पढ़ते हो क्या
यहीं पास में रामेश्वर रोड पर गवर्नमेंट स्कूल में
उस लड़के के साफ और निर्भीक जवाबों से सिपाही थोड़ा अचकचाया और लड़का घऱ की ओर चल पड़ा. वहां पहुंचकर सावधानी से तीनों शील्ड को नीचे रखकर उसने ताला खोला. यह सोचते हुए कि कल किताबों के साथ-साथ इन्हें भी स्कूल ले जाना होगा, और वहां ये हेडमास्टर जी के कमरे में रखी जाएंगी. एक अकेले छोटे बच्चे का यह आत्मविश्वास और समझदारी दोनों ही चकित जरूर करते हैं. वह किशोरवय बच्चा उम्र से पहले ही बड़ा हो गया है और चीजों को समझने लगा है, यह भी पता चलता है.
इस संग्रह की 'अव्यक्त', 'गरमियों की शाम', 'प्रारंभ' और 'दोस्त' जैसी कविताओं में विष्णु खरे के बचपन, किशोरावस्था और तरुणाई के कुछ न भूलने वाले अक्स हैं. यहां तक कि इन कविताओं को पढ़ना विष्णु जी के बचपन, किशोर काल और तरुणाई के चेहरे को देख लेने की मानिंद है.
ऐसे ही 'सबकी आवाज के पर्दे में' संग्रह की 'दिल्ली में अपना फ्लैट बनवा लेने के बाद एक आदमी सोचता है', 'चौथे भाई के बारे में', 'अपने आप', 'मंसूबा', 'स्कोर बुक', 'खामखयाल' सरीखी कविताओं को जरा याद करें. आपको लगेगा, यह कविताओं में लिखी गई सीधी-सीधी आत्मकथा है और इनके साथ जुड़े पारिवारिक प्रसंगों, पात्रों और घटनाओं का दर्द या विडंबना इतनी गहरी है कि वह कविताओं को भी कहीं अधिक मार्मिकता दे देती है. 'चौथे भाई के बारे में' कविता की शुरुआत किसी औचक कथा की तरह होती है, जो धीरे-धीरे हमें अपने प्रभाव की गिरफ्त में ले लेती है-
यह शायद 1946 की बात है जब हम तीन भाई
घर में पड़े रामलीला के मुकुट पहनकर खेल रहे थे
तब अचानक विह्वल होकर हमें बताया गया
कि मेरे और मुझसे छोटे के बीच तुम भी थे
और यदि आज तुम होते तो हम चार होते
राम लक्ष्मण भरत शत्रुघन की तरह...
बतलाने के बाद माँ या बुआ सहम गई थीं
और कुछ न समझने के बावजूद हमारा खेल
मंद सा पड़ गया था लेकिन तब से लेकर आज का दिन है
कि मैं कई बार तुम्हारे बारे में सोचता हूं.
और फिर पिछली बातों के स्मरण के साथ कविता दूर तक फैलती जाती है, जिसमें परिवार का वर्तमान और अतीत भी चला आता है और करुणा की एक गहरी गूंज हमें दूर तक सुनाई देती है.
विष्णु जी की बेहद सख्त किस्म की कविताओं के बीच इन भावुक प्रसंगों को पढ़ना मानो पाठक के लिए अपनी-अपनी आत्मकथाओं के बंद द्वार खोल देता है और उनका अपना बचपन या किशोरावस्था भी कहीं साथ ही साथ दस्तक देने लगती है. इसी से समझा जा सकता है कि विष्णु जी अपनी कोशिश में कितने सफल हुए हैं या कि कविता में आई उनके आत्म की अनुभूतियां-दूसरे शब्दों में आत्मकथा के ये पन्ने कितने मार्मिक हैं.
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इसके अलावा विष्णु जी की कविताओं की एक खास बात यह है कि यहां मध्यवर्गीय समाज या कहें कि मध्यवर्गीय आदमी की इच्छाओं का पसारा बहुत है. कई तरह के दबावों और अभावों में जी रहे मध्यवर्गीय आदमी की इच्छाओं का अतृप्त संसार है-उसकी बहुत-सी असफलताएं, दुख, शोक और अपमान, उसके बहुत-से भय और जानी-अनजानी लड़ाइयां, उसके बहुत-से संदेह और बनती-मिटती आस्थाएं...या घोर संकट के समय भी किसी धुँधली-सी उम्मीद के सहारे जीने की ललक-विष्णु खरे की कविताओं में यह सब है और बहुतायत के साथ है.
लेकिन विष्णु जी की कविताओं में मध्यवर्गीय जिंदगी का इस कदर पसारा उनकी विलक्षणता के साथ-साथ शक्ति भी है. शायद इसलिए कि इन चीजों का वर्णन उनके यहां इस कदर सच्चा और निर्मम है तथा उसके पीछे एक आलोचनात्मक आंख लगातार सक्रिय रहती है जो उसे सतही किस्म की भावुकता में नहीं बदलने देती. लिहाजा हमारे इधर तेजी से बदले समाज का जो एक नया समाजशास्त्र रचा जा रहा है, विष्णु खरे की कविताएं उसके लिए जरूरी साक्ष्य जुटाती हैं. बल्कि चाहें तो हम यह कह सकते हैं कि इन कविताओं के जरिए हमारे तेजी से बदलते और बनते मध्यवर्गीय समाज का नया और सही-सही समाजशास्त्र गढ़ा जा सकता है. शायद इसलिए कि विष्णु जी की कविताओं में पुराने कस्बाई समाज के मद्धिम अँधेरे-उजाले और बू-बास है तो एक नए बनते समाज की आहटें भी.
'लालटेन जलाना' सरीखी ठेठ देसी राग-रंग की कविताएं वे लिखते हैं तो कई दशकों पहले के कस्बाई दिन निकलकर हमारे आसपास बैठ जाते हैं और अजीब-सी मिठास से भरकर बतियाने लगते हैं. यों 'लालटेन जलाना' में अतीत है-अतीत की एक खूबसूरत झाँकी, और इस कविता को पढ़ते हुए एक मध्यवर्गीय परिवार का यह गुजरा हुआ अतीत मानो लालटेन की मद्धिम पीली रोशनी में धीरे-धीरे फिर से हमारी आंखों के आगे एक विश्वसनीय आकार लेने लगता है-
लालटेन जलाना उतना आसान बिल्कुल नहीं है
जितना उसे समझ लिया गया है...
अव्वल तो तीन-चार सँकरे कमरों वाले छोटे-से मकान में भी
कम से कम तीन लालटेनों की ज़रूरत पड़ती है
और रोज़ किसी को भी राज़ी करना मुश्किल है कि
वह तीनों को तैयार करे
और एक ही आदमी से हर शाम
यह काम करवा लेना तो असंभव है...
घर में भले ही कोई औरत न हो
सिर्फ़ एक बाप और तीन संतानें हो तो भी न्यायोचित ढंग से
बारी-बारी तीनों से लालटेनें जलवाना कठिन नहीं
यह ज़रूरी है कि जब दिया-बत्ती की बेला आए
तो यह न मालूम हो कि लालटेन पीपे या शीशी में तेल नहीं है
और शाम को साढ़े छह बजे निकलना पड़े मिट्टी के तेल के लिए
कविता में इस बात का भी जिक्र है कि मिट्टी का तेल दो तरह का आता था, एक सस्ता, दूसरा महंगा और उनमें क्या फर्क था. इसी तरह बत्ती कैसे सही ढंग से काटी जाए, या कि लालटेन का शीशा कैसे सावधानी से चमकाया जाए और ऐसा करके जलाने पर लालटेन का कैसा धीमा-धीमा सा निर्मल उजाला चारों ओर फैलता था-इसका पूरा सौंदर्य इस कविता में है. और विष्णु खरे के यहां लालटेन का सौंदर्य सिर्फ लालटेन का सौंदर्य नहीं, बल्कि उसके साथ-साथ मध्यवर्गीय जीवन की सुंदरता भी सामने आ जाता है. तमाम सीमाओँ और आर्थिक विवशताओं के बावजूद मध्यवर्गीय जीवन में जो रस-आनंद था, वह 'लालटेन जलाना' कविता में बड़े अनोखे ढंग से उभरकर आता है.
दूसरी ओर विष्णु खरे के यहां 'होनहार', 'सेवामहे' सरीखी कविताएं भी हैं, जिनमें मध्यवर्गीय जीवन की करुण विडंबनाएं हैं, और एक फटी चादर के अंदर सब कुछ छिपाए रखने और अपनी जरूरतों को किसी तरह सिकोड़कर, जिंदगी की गाड़ी को आगे ठेलने की कशमकश भी. ये दोनों कविताएं कविता होते हुए भी, एक समूची जीवन कथा की तरह सामने आती हैं और बड़े विश्वसनीय तरीके से समय के साथ आगे चलती जाती हैं. फिर 'बेटी' सरीखी कविता तो है ही, जिसका पहले भी जिक्र हो चुका है. इसमें एक गरीब कालोनी से एक लड़की आती है और दफ्तर में नौकरी पाकर अपने जीवन को बदलने की इच्छाओं से वह भरी हुई है. लेकिन वह नहीं जानती कि उसके सब ओर जो अदृश्य दीवारें हैं, वे उसे आसानी से अपने हालात से निकलने नहीं देंगी.
आप थोड़ा गौर करें तो पाएंगे कि मध्यवर्गीय आदमी का यह भीतरी द्वंद्व और अनकही विवशता विष्णु जी की कविताओं में जगह-जगह है, और हर बार वह एक बिल्कुल नए और अछूते रूप में सामने आती है.
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विष्णु खरे की कविताएं पढ़ते हुए बार-बार महसूस होता है कि अपने स्वभाव में ये रूखी, खुरदरी और चटियल कविताएं हैं. बेशक विष्णु जी अपनी कविताओं को वैसा बनाते नहीं है, पर उनका जो कविता को जीने और देखने का नजरिया है, उसमें कविताएं स्वभावत: इसी रूप में उनके निकट आती हैं. 'काल और अवधि के दरमियान' संग्रह में एक कविता है 'वाक्यपदीय', जिससे विष्णु जी की कविता लिखने की ख्वाहिश और लक्ष्य का बहुत कुछ पता चल जाता है. यों तो इसमें एक वाक्य-एक प्रभावशाली और उथल-पुथल कर देने वाला वाक्य लिखने की इच्छा का बयान है, जिसकी गूंजें-अनुगूंजें सारे ब्रह्मांड में भर जाएं. पर गौर से देखें तो कैसी कविता वे बनाना चाहते हैं-या अपनी कविता के जरिए क्या काम वे करना चाहते हैं, इसकी भी पूरी झलक यहां मिल जाती है-
वह एक वाक्य बोलना चाहता था...
जिसके प्रत्यय और अव्यय इस धरती से उठें
इसके सारे आवरणों से गुजरते हुए
चंद्रमा से टकराएं
सूर्य तक परावर्तित होकर उसकी प्रदक्षिणा करती शेष संतति तक छिटकें
उनसे होते हुए पार कर जाएं नीहारिकाएं श्वेत वामन कृष्ण विविर
और वे सारी दुनियाएं जो हुई थीं और बनेंगी...
कहते हैं ध्वनि दरअसल कभी मरती नहीं
सिर्फ दूर चली जाती है अनंतता में
वह चाहता है कि उसका वह वाक्य महान आदिविस्फोट का पीछा करे...
एक बहुत लंबा वाक्य होगा वह
और वह चाहता था कि केवल बह्मांड को ही न जोड़े
वह प्रत्येक जीवित और दिवंगत के बीच से भी गुजरे
रघुवीर सहाय की एक कविता है जिसमें अपनी कविता के बारे में वे कहते हैं कि सन्नाटा-सा खिंच जाए, जब मैं अपनी कविता पढ़कर उठूँ. विष्णु खरे का कविता लिखने और पढ़ने का ढंग भी कुछ-कुछ वही है.
इसी तरह 'और अन्य कविताएं' संग्रह में शामिल विष्णु जी की 'सरस्वती वंदना' ऐसी कविता है, जो उनके भीतर की तल्खी के साथ-साथ सच कहने की कूवत को भी सामने रख देती है. इस कविता में वे सरस्वती का चित्र आंकते हैं, तो आज की साहित्यिक स्थितियों की विडंबना और विद्रूप भी कहीं न कहीं उसमें दर्ज हो जाता है-
तुम अब नहीं रहीं चमेली, चंदमा और हिम जैसी श्वेत
तुम्हारे वस्त्र भी मलिन कर दिए गए
यदि तुम्हारी वीणा के तार तोड़े नहीं गए
तो वह विस्वर हो गई है
जिस कमल पर तुम अब तक आसीत् हो वह कब का विगलित हो चुका है
जिस ग्रंथ को तुम थामे रहती थीं
वह जीर्ण-शीर्ण होकर बिखर गया
तुम्हारा हंस गृधों का आखेट हुआ
मयूर ने धारण किया काक का रूप
जिस सरिता के किनारे तम विराजती थीं वह हुई वैतरणी
सदैव तो क्या कदाचित भी कोई तुम्हारी स्तुति नहीं करने आता
तुम किसी की भी रक्षा नहीं कर पा रही हो जड़ता से
मुझ मूर्खतम की क्या करोगी
सस्वती वंदना सरीखे विषयों पर लिखी गई ढेरों परंपरागत कविताएं, वह सच नहीं कह पातीं, जिसे विष्णु खरे मौजूदा दौर की विस्थियों को उभारते हुए सहज ही कह देते हैं. कहना न होगा कि इसके पीछे सच कहने की चुनौती को स्वीकार करने का उनका दुसाहस ही है, जो उनकी शुरुआती कविताओं से लेकर अंत तक देखा जा सकता है.
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कवियों के लिए कविताएं लिखने वाले हिंदी में बहुतेरे कवि हैं, पर इनमें विष्णु खरे नहीं हैं. हां, पर इस ढंग की उनकी दो ऐसी कविताएं हैं जिन्हें मैं भूल नहीं सकता. एक तो 'कूकर' शीर्षक से लिखी गई कविता जिसमें उन्होंने खुद को कबीर, निराला, मुक्तिबोध सरीखे कवियों के चरणों में बैठा कूकर बताया है. कविता अपनी लड़ाइयों से शुरू होती है और होते-होते अंत में कबीर, निराला और मुक्तिबोध से जुड़कर हिंदी साहित्य की एक बड़ी विद्रोही परंपरा का हिस्सा बनती है-
मैं अपने नियमों से अपना खेल अकेले ही खेल लूंगा
इस उम्मीद में कि दिमाग में जो एक कील सी गड़ी हुई है
और दिल में जो कड़वाहट है वह वैसी ही रहेगी अंत तक
कबीर निराला मुक्तिबोध के नाम का जाप आजकल शातिरों और जाहिलों
में जारी है
उन पागल संतों के कहीं भी निकट न आता हुआ सिर्फ उनकी जूठन पर
पला
छोटे मुंह इस बड़ी बात पर भी उनसे क्षमा माँगता हुआ
मैं हूं उनके जूतों की निगरानी करने को अपने खून में
अपना धर्म समझता हुआ भूँकता हुआ
मुझे याद नहीं पड़ता कि कबीर, निराला, मुक्तिबोध पर ऐसी थपरथरा देने वाली पंक्तियां किसी और ने भी लिखी हैं. यह उन दर्जनों कविताओं से अलग है जिनमें एक सुरक्षित घेरे में बैठकर, दूर-दूर से इन बड़े कवियों की महिमा का स्तुति गायन है. पर विष्णु खरे ऐसा नहीं करते. वे सिर से लेकर पैर तक उन लड़ाइयों में शामिल हैं, जिनके बगैर कबीर, निराला, मुक्तिबोध की बात ही नहीं की जा सकती.
और दूसरी ऐसी ही एक मार्मिक संवेदना से निकली कविता रघुवीर सहाय पर है. एक तरह से खून को ठंडा कर देने वाली, अकथ दुख से सीझी कविता 'अपने आप और बेकार', जिसका पीछे भी जिक्र हो चुका है. इस कविता में रघुवीर सहाय और अज्ञेय की एक मुलाकात का जिक्र है. अज्ञेय के बारे में रघुवीर सहाय की एक बातचीत विष्णु नागर द्वारा संपादित पुस्तक 'रघुवीर सहाय' में है. इस कविता का संदर्भ वही है. 'दिनमान' के संपादक पद से हटाए जाने या कहिए कि पदावनति के बाद 'नवभारत टाइम्स' में भेजे जाने पर रघुवीर सहाय उद्विग्न हैं और अपना वही दुख अज्ञेय को बताने वे उनके निवास पर गए हैं.
विष्णु खरे ने इस कविता में रघुवीर सहाय की तब की मन:स्थिति का इतना सच्चा, इतना मार्मिक चित्र खींचा है, मानो वे खुद सूक्ष्म रूप में वहां मौजूद हों और सब कुछ देख-सुन रहे हों. अज्ञेय और रघुवीर सहाय के अलग-अलग व्यक्तित्व, मूड्स और स्थितियां यहां काबिलेगौर हैं तो रघुवीर सहाय की वह विवशता भी है, जो उन्हें अपने साथ हुए अपमान को किसी तरह खून के घूँट की तरह पी लेने को विवश करती है. और यह दुख, क्रोध, अपमान और बेबसी एक साथ उनके पूरे व्यक्तित्व में फैलकर छा जाती है-
क्या अपनी किसी मार्मिक कविता की शैली में कहा होगा
रघुवीर सहाय ने
कि मुझे दिनमान में अपमानित किया जा रहा है
मुझे डिमोट करके नवभारत टाइम्स में भेज रहे हैं
या फिर अपने किसी निबंध या कहानी के रूप में
लेकिन यह जरूर साफ कहा होगा उन्होंने
कि आप बोलिए आप कुछ कहिए उनसे कि यह क्या बदतमीजी है
मैं नौकरी करने को तैयार हूं
उसकी जो शर्तें हैं उन्हें मानता हूं
लेकिन आप कहिए उनसे कि इस अपमान का मतलब क्या है
और कुछ देर बाद इस मुलाकात के लगभग आखिरी पल में रघुवीर सहाय की अकथनीय विकलता भी विष्णु खरे की कविता में आ गई है-
कई-कई बार कहा रघुवीर सहाय ने
देखिए मेरे साथ अन्याय हो रहा है
दुर्व्यवहार हो रहा है मेरे साथ
किंतु मौन रहे वात्स्यायन लाचारी अपरोध बोध या खीज में पता नहीं
इस कविता की आखिरी पंक्तियां भी मैं उद्धृत किए बिना नहीं रह सकता. इसलिए कि ये सिर्फ रघुवीर सहाय पर लिखी गई पंक्तियां नहीं हैं, बल्कि हमारे समाज में लेखक की क्या जगह है, यह भी इससे पता चल जाती है-
अचानक पहचानी होगी फिर से
रघुवीर सहाय ने अपनी ही कविता इस समाज में
अपने मानव होने का एक और अर्थ
और वह दर्पहीन लड़ने की एक अलग तरह की उदास करुणा बनकर
आया होगा उनमें
जैसे पहचानता सा लगता हूं मैं
जब मैं कल्पना करता हूं अपनी अकथ विवशता में अपनी बैठक में मौन
अकेले वात्स्यायन को उनके अज्ञात विचारों के साथ छोड़
और गेट तक विदा देने आईं इला डालमिया को नमस्कार कर
सिर झुकाए रघुवीर सहाय के धीरे-धीरे सड़क पर आने की
कुल मिलाकर हमारे समाज में एक बड़े कवि की स्थिति या उसके साथ घटित हुई क्रूर विडंबना का भीतर तक स्तब्ध कर देने वाला चित्र इस कविता में है. एक बड़े सरोकारों से जुड़ा बड़ा कवि, जो सबके दुख, सबके साथ ही हो रहे अत्याचारों पर लिखता है, खुद अपने दुख, निराशा में वह कितना अकेला हो जाता है-यह इस कविता को पढ़कर जाना जा सकता है.
फिर एक और बात. मुझे जाने क्यों लगता है, इस कविता में रघुवीर सहाय के दुख और बेबसी के साथ-साथ कहीं न कहीं विष्णु खरे का अपना दुख भी शामिल है. या उसकी एक मद्धिम छाया जरूर है कविता में, जिसने इस कविता को इतना अधिक करुण, मार्मिक और स्मरणीय बना दिया है.
इसी क्रम में तीसरी कविता 'मुआफीनामा' है, जिसमें विष्णु जी अपने कवि मित्र कवि गिरधर राठी जी का एक अविस्मरणीय चित्र आंकते हैं. बात आपातकाल के दिनों की है, जब बहुत से और लेखकों की तरह राठी जी भी रातोंरात गिरफ्तार कर लिए गए थे और जेल में थे. विष्णु जी की तब संयोगवश संजय गाँधी से काफी निकटता थी. अपने मित्र को छोड़ने की बात उन्होंने संजय गाँधी से कही तो उनका कहना था कि अगर वे माफी माँग लें तो उन्हें छोडा जा सकता है.
जेल में संक्षिप्त मुलाकात के समय विष्णु खरे यही प्रस्ताव लेकर राठी जी के पास गए थे. वहीं राठी जी का चिंतित परिवार भी मौजूद था. पत्नी और दो छोटे-छोटे बच्चे. एक बड़ा ही उदास माहौल, जिसमें विष्णु जी ने संजय गाँधी का प्रस्ताव राठी जी को बताया, तो अपनी उदास तंजिया मुसकराहट के साथ उन्होंने इसे ठुकरा दिया-
मुझे मालूम था कि इस बातचीत से कुछ हासिल नहीं होगा
फिर भी औपचारिक फर्ज था कि बतलाता
भाई संजय गाँधी कहता है कि आपका दोस्त माफी माँग ले तो छूट जाएगा...
छोड़िए आप किन चक्करों में पड़े हैं
कहा गिरधर ने और अपने तरीके से मुसकराता चुप हो गया
फिर वह मुसकान भी चली गई
अंत में उनको थाने के लॉन में अपने परिवार से बातें करते छोड़, विष्णु जी वापस लौटते हैं. पर उनके मन में एक ऐसा उदास बिंब अटका रहता है, जिसे वे कभी भूल नहीं पाए. यह एक कवि के स्वाभिमान और उदासी, दोनों का एक साझा बिंब है, जिसे पढ़ते हुए आपातकाल के दिनों की बड़ी दुखद स्मृतियां आंखों के आगे कौंध जाती हैं-
बाहर आया तो थोड़ा दौड़ाकर चालू करना पड़ा स्कूटर
जिसे बेचे हुए आज इकतीस बरस हो गए
और पार्लियामेंट्री थाने समेत सब कुछ कई-कई बार बदल गया
आज यहां से सीधे संसद-सदन नहीं जा सकते
दिल्ली भी छूट गई
उस मंजर के साथ कि
गिरधर लान पर बैठा हुआ है किरन उसकी तरफ आशंका से देखती हुई
विशाख और मंजरी के चेहरे कुम्हलाए हुए
उन पर तीसरे पहर की जर्द चमकती हुई सर्दी की धूप
मेरी पीठ की तरफ सूरज डूबता हुआ
बिना कुछ कहे विष्णु जी ने चंद पंक्तियों में आपातकाल की दुस्सह स्मृतियों और एक कवि की खुद्दारी का जो अछूता चित्र खींचा है, वह हमारे दिलों में भी देर तक खिंचा ही रहता है, और आपातकाल के अन्यायों की पूरी तस्वीर आंखों के आगे आ जाती है.
कवियों पर लिखी गई तमाम भावुक किस्म की अतिरंजना भरी कविताएं मैंने पढ़ी हैं. पर यह कविता उन सबसे इतनी अलग है, इतनी सच्ची और प्रामाणिक भी, कि इसे भूल पाना नामुमकिन है.
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इसके अलावा विष्णु खरे की कविताओं की एक अन्यतम विशेषता मेरे खयाल से यह है कि वे शुरू से अपने लिए एक अलग जमीन खोदते रहे हैं और घिसे-पिटे विषयों पर लिखने के बजाय, वे कविता न लिखना पसंद करते हैं. विष्णु खरे की कविताओं की यह शक्ति ही है जिसके कारण कोई छोटी-सी घटना या कोई छोटा-सा प्रसंग भी वहां आकर बेहद अर्थवान हो जाता है.
'काल और अवधि के दरमियान' संग्रह की 'इग्ज़ाम' इस लिहाज से गौर करने लायक कविता है. कविता में एक बच्चे के परीक्षा हॉल में बैठकर पेपर देने और फिर अध्यापक को कॉपी पकड़ाकर बाहर आ जाने का वर्णन है. पर यह वर्णन इतना अछूता और प्रभावशाली है कि इसे पढ़कर न केवल मुझे अपने परीक्षा काल के दिन बेहतर याद आए, बल्कि यह कविता अचानक एक प्रतीक कथा का-सा अर्थ देती जान पड़ी.
मेरा खयाल है, यह कविता जितनी परीक्षा हॉल की कथा है, उतनी ही जीवन के आखिरी दौर की कथा भी कहती है, जिसमें बहुत कुछ जो जिया जा चुका है, अब हमारे हाथ से बाहर की चीज है. और थोड़ा-बहुत समय है जिसमें खुद को समेटकर हमें कुछ जरूरी काम कर लेने हैं. मुझे याद नहीं पड़ता कि इम्तिहान या परीक्षा जैसे विषय पर मैंने आज तक कोई ऐसी कविता पढ़ी है.
इसी तरह 'सांबवती', 'सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा', 'लाइब्रेरी में तब्दीलियां', 'पृथक छत्तीसगढ़ राज्य', 'प्रत्यागमन', 'विनाशग्रस्त इलाके से एक सीधी टीवी रिपोर्ट', 'अव्यक्त', 'गरमियों की शाम' सरीखी बहुत कविताएं हैं विष्णु जी के यहां, जो काफी कम डिस्कवर की गई या सचमुच अव्यक्त स्थितियों की कविताएं हैं जिन्हें पढ़ना एक अलग सुकून देता है. इसलिए कि ये कविताएं जीवन के उन मार्मिक क्षणों को जानने और परिभाषित करने में हमें मदद देती हैं जिन्हें हम जानते तो हैं, महसूस भी करते हैं, लेकिन उन्हें कह पाने की ठीक-ठीक भाषा हमारे पास न थी.
अपने आखिरी संग्रह 'और अन्य कविताएं' की 'और नाज मैं किस पर करूँ' कविता में विष्णु जी अपने बचपन के दिनों का जिक्र करते हैं, जिसमें कहीं भी जाने पर लोग स्वभावतः उनसे पिता का नाम पूछते थे. फिर उनके बताने पर, 'अच्छा, तम सुंदर के बेटे हो' कहकर उनके पिता के बचपन और उस समय की उनकी आदतों वगैरह का रस ले-लेकर वर्णन करने लगते थे, तो उनके लिए बड़ी अटपटी स्थिति हो जाती थी. उनके पिता कभी छोटे भी थे और स्कूल जाते थे, उनके लिए तो यह सोच पाना ही कठिन था. और फिर लोगों की बातें सुनकर अचानक हुआ यह अहसास उन्हें भीतर तक विस्मय से भर देता है. यहां तक कि बड़े होने पर भी वे उस विस्मयपूर्ण अटपटे अनुभव को भूल नहीं पाए, और उसे कविता में ढालते हैं. 'और नाज मैं किस पर करूँ' कविता इस लिहाज से बिल्कुल अलग सी कविता है. उसे पढ़ते हुए लगता है, जैसे खुद हम भी छिंदवाड़ा में बीते उनके बचपन के दिनों में पहुंच गए हों-
अजीब लगता है कि तुम्हारे पिता कभी छोटे भी थे
और स्कूल जाते थे और खेलते भी थे
और कुछ लोग ऐसे भी हैं जो उनके बारे में
सुंदर ऐसा था सुंदर यह करता था वह करता था
सरीखे लहजे में बात कर सकते हैं
फिर उनके पैर छूना पड़ता था
और वे और आशीर्वाद देते थे
लेकिन कहते थे
अब तुम्हारा बाप किसी से मेल-जोल क्यों नहीं रखता बेटे
मुझे याद नहीं पड़ता कि इस तरह के बारीक और विरल अनुभवों पर हमारे दौर के किसी और कवि ने कविता लिखी हो.
ऐसे ही 'पाठांतर' संग्रह की 'प्रतिरोध' कविता में गणेश जी के सिर काटे जाने पर, उनके धड़ पर हाथी का सिर जोड़े जाने के मिथक का बिल्कुल एक नया पाठ है. यहां विष्णु जी की चिंता उस हाथी को लेकर है, जो संयोगवश वहां से गुजर रहा था, और उसका सिर काटकर गणेश जी को लगा दिया गया. पर क्या वह हाथी अपने वन के साथियों और वन्य जीवन की स्मृतियों को भूल सका होगा? क्या उसे उनकी याद न आती होगी, और याद आने पर उसकी कैसी विडंबनापूर्ण स्थिति हो जाती होगी? विष्णु जी इसकी कल्पना करते हैं, और हमारे सामने एक ऐसी बेमिसाल कविता आती है, जिसे शायद विष्णु खरे ही लिख सकते थे. कविता की आखिरी पंक्तियां हैं-
और जो सिर
अभी विश्ववंद्य देवपुत्र के शरीर पर लगा है
क्या वह कभी स्मरण करता है
अपने वनों और पर्वतों का
अपने यूथ अपने सहचर मित्रों का
अपने माता-पिता का किसी षड्दंत की तरह
या अपनी शीर्षस्थ आराध्यता में
वह इतना संतोषमज्जित है
कि अपने मूल अपने अतीत से कटा रहना ही
उसे सर्वसुरक्षित लगता है
कहना न होगा कि जो हमारी आंखों से दिखता है, विष्णु जी अकसर उसके भीतर छिपे सत्य की तलाश में दूर-दूर तक भटकते हैं, और हर बार कुछ ऐसा खोज लाते हैं, जो हर मायने में अछूता है. इसीलिए उनती कविताएं कई मायनों में अद्वितीय कविताएं हैं.
अभी कुछ दशक पहले तक जीवन के तमाम पहलू ऐसे थे, जो कविता की चौदहद्दी से बाहर समझ लिए जाते थे. वहां तक जाते हुए हमारे पैर ठिठकते थे और जबान लगभग मूक हो जाती थी. पर विष्णु खरे की दुस्साहसी कविताएं उन अभेद्य क्षेत्रों तक भी जाती हैं और हमारे उस गूंगेपन को खत्म करके, बहुत कुछ अव्यक्त को देखने और कहने-सुनने में मदद करती हैं. और जो जमीन एकदम छूटी हुई थी, वहां खुदाई करने का साहस दिखाती हैं.
विष्णु खरे की कविता की यह एक ऐसी विशेषता है, जो उन्हें हिंदी का सबसे अधिक विलक्षण और दुर्जेय कवि बना देता है. इसीलिए मन आज भी दौड़-दौड़कर उन तक जाता है. आज भी वे हिंदी के सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले कवि हैं, जैसे कल थे, और आज से सौ बरस बाद भी उनकी कविता अपनी रुक्षता के बावजूद एक दुर्दमनीय आकर्षण के साथ हजारों पाठकों के दिल में बसी रहेगी.
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# लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं. संपर्क: प्रकाश मनु, 545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008, ईमेल- prakashmanu333@gmail.com