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अलविदा कृष्णा सोबती! हिंदी में अब ऐसी बोल्ड कथाएं, नारी का दर्द कौन सुनाएगा

मशहूर हिंदी साहित्यकार कृष्णा सोबती का निधन हो गया है. आइए जानते हैं उनके जीवन के बारे में..

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लेखिका कृष्णा सोबती
लेखिका कृष्णा सोबती

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'जिन्दगीनामा' अब कौन सुनाएगा? कृष्णा सोबती अब खामोश हैं. पर गई कहां? उनके शब्द तो यहीं हैं, हमारे इर्दगिर्द. हिंदी साहित्य में चमकते, गूंजते और तिरते इधर-उधर. 'ऐ लड़की' शायद 'डार से बिछुड़ी' और 'मित्रों मरजानी' होती हुई 'अब बादलों के घेरे' के पार चली गई. शायद 'समय सरगम' पर 'दिलो दानिश' को 'सूरजमुखी अंधेरे के' का किस्सा सुनाने, या फिर 'शब्दों के आलोक में' तीन भागों में 'हम हशमत' या 'सोबती एक सोहबत' की कथा सुनाने. वैसे वह 'मार्फ़त दिल्ली', 'लेखक का जनतंत्र' पर चर्चा करते 'गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान' होते हुए 'सोबती वैद संवाद' के बीच 'तिन पहाड़' पर कुलांचा भी भर सकती हैं, या फिर 'बुद्ध का कमण्डल: लद्दाख़' भी पहुंच सकती हैं. पर जहां भी पहुंचें या पहुंची होंगी,  रचेंगी शब्द ही.

ऊपर सिंगल इन्वर्टेड में जितने भी शब्द हैं वे कृष्णा सोबती की कृतियां हैं. वह कृतियां जिनसे हिंदी साहित्य समृद्ध हुआ. नारी की आवाज मुखर हुई. बंटवारे का दर्द उभरा. पाकिस्तान वाले गुजरात में चिनाब नदी के किनारे छोटे से पहाड़ी कस्बे में 18 फरवरी, 1925 को उनका जन्म हुआ था. देश का विभाजन हुआ तो परिवार दिल्ली आ गया. यहीं उन्होंने एक बार लिखना क्या शुरू किया, साहित्य के आकाश पर छाती चली गईं. उनकी लेखकीय प्रतिष्ठा का आलम यह था कि साल 2017 में जब उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित करने की घोषणा की गई, तो यह कहा गया कि इस समिति ने अपनी इज्जत बचा ली. साहित्यिक गलियारों में चलने वाली सियासत के चलते उन्हें यह सम्मान बहुत देर से मिला था.

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वह इससे बहुत पहले साहित्य अकादमी पुरस्कार, शिरोमणी पुरस्कार, हिंदी अकादमी पुरस्कार, शलाका पुरस्कार, पद्म भूषण और व्यास सम्मान पा चुकी थीं. साल 1996 में ही वह साहित्य अकादमी की फेलो बन चुकी थी, जो कि अकादमी का सर्वश्रेष्ठ सम्मान है. ऐसे में साहित्य जगत ने दर्जनों जूनियर लेखकों के बाद सोबती को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने को पुरस्कारदाताओं की फेसशेविंग एक्सरसाइज करार दिया था. वाकई कृष्णा इस सम्मान से बहुत ऊपर थीं. अपनी संयमित अभिव्यक्ति और सुथरी रचनात्मकता से वह अपने पात्रों और उनके इर्दगिर्द के माहौल को इस कदर जीवंत बना देतीं कि पाठक उसी युग में पहुंच जाता. अपनी रचनाओं के माध्यम से कृष्णा सोबती ने नारी के उपर होने वाले विभिन्न प्रकार के अत्याचारों को उजागर किया. इसके चलते वह सामाजिक और नैतिक बहसों को हवा देने में सक्षम थीं.

कृष्णा सोबती स्त्री के जीवन और विडंबना को रेखांकित करने वाली लेखिका रहीं, इसके बावजूद उन्होंने कभी स्त्रीवादी होने का दंभ नहीं भरा. वह कहती थीं, लेखन भला स्त्री या पुरुष कैसे हो सकता है? स्त्री लेखन, पुरुष लेखन कोई अलग अलग चीज नहीं है. अपने एक इंटरव्यू का किस्सा वह अक्सर बतातीं कि किसी ने उनसे पूछा कि औरत होना क्या होता है तो उनका जवाब था, औरत होने का अर्थ यह है कि उन्हें भी संविधान में पुरुषों जैसे ही अधिकार प्राप्त हैं. स्त्री और पुरुष उनकी निगाह में बराबर थे, पर अपनी रचनाओं में उन्होंने हमेशा सच उजागर किया. सोबती ने 'हम हशमत' पुरुष छद्मनाम से लिखा था, जो उनके समकालीनों को लेकर उनके जीवन अनुभवों का वर्णन एक तरह से डॉक्यूमेंटेशन था. कृष्णा सोबती इन अर्थों में कुरर्तुल ऐन हैदर, इस्मत चुगताई और अमृता प्रीतम जैसी अपनी अग्रणी लेखिकाओं से अलग थीं इनकी रचनाओं में एक विशिष्ट संवेदना, मुहावरे और स्थानीय वातावरण खुशबू जहां उद्वेलित करती वहीं विचलित और रोमांचित भी करती.

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उनका सबसे ताजा उपन्यास लगभग नब्बे साल की उम्र में आत्मकथात्मक रचना के तौर पर आया, जो उम्र के इस पड़ाव पर भी उनकी अदम्य लेखकीय जिजीविषा को उजागर करने के लिए काफी था. 'गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दोस्तान तक' में सोबती ने विभाजन की यातना और जमीन से अलग होने की त्रासदियों के बीच अपने युवा दिनों के संघर्ष को भी याद किया और औपन्यासिक लहजे में तत्कालीन राजनीतिक हालात, रियासतों के विलय से जुड़ी उठापटक और उधेड़बुन, रियासतों के आंतरिक संघर्ष और दिल्ली की नई सरकार की पेचीदगियों की दास्तान बड़े ही रोचक ढंग से लिखी. खास बात यह कि इस उपन्यास में उन्होंने उस दौर को जीवंत किया था, जब महात्मा गांधी एक व्यक्ति और विचार के रूप में भारतीय कथा साहित्य के परिदृश्य पर छाने लगे थे.

मैथिलीशरण गुप्त, मुंशी प्रेमचंद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत और नागार्जुन जैसे रचनाकार अपनी रचनाओं में गांधी के व्यक्तित्व और उनके विचार से दो-चार हो रहे थे. आजादी के ठीक बाद इन विषयों पर काफी कुछ लिखा जा चुका था. फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास 'मैला आंचल' से लेकर यशपाल का 'झूठा सच', भीष्म साहनी का 'तमस',  राही मासूम रज़ा का 'आधा गांव' पाकिस्तान के सवाल और उससे उपजी हिंसा को उजागर कर चुका था. ऐसे में कृष्णा सोबती ने एक बार फिर से 'गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान' के बहाने उसी दौर को फिर उजागर किया था.

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इस उपन्यास से उन्होंने 10 अगस्त, 1946 के 'डायरेक्ट एक्शन डे' और उसके बाद की घटनाओं को फिर से याद किया जिसमें लाहौर से लेकर बिहार और बंगाल तक मुसलमानों और हिंदुओं ने एकदूसरे के खिलाफ हिंसा की, दूसरे धर्म के लोगों की हत्या की, एकदूसरे के घर जलाए और धर्म विशेष की महिलाओं का बलात्कार किया. कृष्णा सोबती ने यही रचा कि उस दौर में महिलाओं की देह अलग-अलग देशों के पुरुषों की दंभ और तुच्छ वीरता का शिकार हो गई. उनका 'गुजरात पकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान' अगर उनकी कहानी 'और सिक्का बदल गया' से मिलाकर पढ़ा जाए तो समझ में आ जाता है कि वह वाकई क्या कहना चाहती थीं.

कृष्णा सोबती हिंदी लेखन में निर्मल वर्मा और कृष्ण बलदैव वैद की समकालीन थीं. उनके पात्र काफी बोल्ड थे. यह उनका लेखकीय बिंदासपन ही था कि साठ के दशक में उनके उपन्यास 'मित्रो मरजानी' में संयुक्त परिवार में ब्याही उनकी नायिका अपनी यौनिकता का पुरजोर और खुलेआम इजहार करती है और अपनी यौन इच्छाओं को तृप्त न कर पाने के लिए अपने पति को फटकार देने से भी गुरेज नहीं करती. इस उपन्यास से हिंदी जगत में उस समय तहलका मच गया था. उन की नायिकाएं अपने प्रेम और अपने शरीर की जरूरतों के प्रति किसी भी तरह के संकोच या अपराधबोध में पड़ने वाली नहीं थीं. इसी तरह 'जिंदगीनामा' को एक महाकाव्यात्मक उपन्यास माना जाता है. भाषा और बोलियों के अद्भुत संसार से रचागुंथा यह उपन्यास पंजाब के एक गांव की दशकों की कहानी कहता है. इसी उपन्यास की बदौलत सोबती हिंदी में साहित्य अकादमी पाने वाली पहली महिला लेखिका बनीं. हालांकि इस उपन्यास से जुड़ा कॉपीराइट विवाद भी उभरा जो अमृता प्रीतम तक को अदालत तक खिंच ले गया था.

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सोबती अपनी साहसिक पारिवारिक, सामाजिक, आधुनिक, नैतिक दृष्टि की वजह से भी अभिभूत करती रहीं. उन्होंने एक ऐसी विलक्षण गद्य भाषा हिंदी को दी जो अपने काव्यात्मक प्रवाह के चलते पाठकों को हमेशा चमत्कृत करती रही. उनके लेखन का आंतरिक सौंदर्य जहां लुभाता वहीं आधुनिक समय में आदमजात की वेदना और यथार्थ को भी उजागर करता. वह अपने समूचे जीवनकाल में समकालीन समय की सच्चाईयों को कहने वाली सूत्रधार रहीं. लेखन से इतर सामाजिक जीवन में भी कृष्णा सोबती काफी सक्रिय और मुखर रहीं. 90 पार की उम्र में अस्वस्थता के बावजूद 2015 में उन्होंने हिंदी साहित्यिक बिरादरी की ओर से असहिष्णुता के खिलाफ आवाज उठायी थी और धार्मिक कट्टरपंथ और हिंसा का कड़े शब्दों में विरोध करते हुए अपना साहित्य अकादमी अवार्ड वापस कर दिया था. कृष्णा सोबती के लिए लेखक की पहचान एक साधारण नागरिक का बस थोड़ा-सा विशेष हो जाना था, पर वह थोड़ा-सा नहीं, हिंदी साहित्य जगत के लिए काफी विशेष थीं. इस महान हिंदी कथाकार को साहित्य आजतक की श्रद्धांजलि!

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