किताब: द इमरजेंसी - ए पर्सनल हिस्ट्री
राइटर: कूमी कपूर
पब्लिशर: पेंग्विन वाइकिंग
कीमत: 599 रुपये (हार्डबाउंड एडिशन)
'मनमोहनी' दौर और उसके बाद पैदा हुई पीढ़ी के लिए इमरजेंसी एक शब्द है, जिसका बूढ़े पुराने नेता कांग्रेस को गरियाने के लिए और एक पुरानी तारीख को याद करने के लिए इस्तेमाल करते हैं. मगर राजनीति में जरा भी दिलचस्पी रखने वालों के लिए इमरजेंसी एक बेहद जरूरी पाठ है. लोकतंत्र की कद्र करने वालों के लिए और लोकतंत्र से ताकत पाने वालों के लिए भी इसको याद रखना जरूरी है.
25 जून 1975 का दिन, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आंतरिक उपद्रवियों का हवाला देते हुए देश में आपातकाल लागू किया था. इसके साथ ही जयप्रकाश नारायण समेत सभी विरोधी नेताओं को जेल में डाल दिया गया था. संसद का कार्यकाल पांच बरस से बढ़ाकर छह बरस का कर दिया गया था. तमाम मौलिक अधिकार रद्द हो गए. कोर्ट के पर कतर दिए गए. प्रेस को सेंसरशिप के जरिए खामोश कर दिया गया. इन सबके साथ ही इंदिरा की सरकार और उनके छोटे शहजादे और राजनीतिक वारिस संजय गांधी की मनमानियों का सिलसिला भी चल निकला. कागज पर इसे पांच सूत्री प्रोग्राम कहा गया.
संजय गांधी अपने नाना पंडित नेहरू के समाजवाद और मम्मी की कथित गरीब समर्थक नीतियों से कतई प्रभावित नहीं थे. वह कैपिटलिस्ट व्यवस्था के भक्त थे. और साथ में बेतरह अधीर भी. उन्हें बिना कुछ किए ही बजरिए मम्मी असीमित शक्ति मिल गई थी. बिना किसी जवाबदेही के. और इसका उन्होंने क्रूर ढंग से फायदा उठाया. मगर इमरजेंसी सिर्फ इंदिरा और संजय के कारनामों का चिट्ठा ही नहीं है. इन दोनों के इर्द गिर्द सत्ता की गिरी मलाई चाटने के लिए कई लोग जुटे थे. ये उनकी भी कहानी है. और उनसे भी बढ़कर ये उन विरोधी नेताओं, कार्यकर्ताओं और आम लोगों की कहानी है, जिन्होंने इस निरंकुशता का दंश झेला.
इमरजेंसी पर देश में कई किताबें, लेख और संस्मरण लिखे गए. ये मोटे तौर पर दो तरह के थे. एक, जिन्होंने इसे भोगा. उन्होंने अपना नजरिया लिखा. मसलन, इंडियन एक्सप्रेस की समाचार एजेंसी के उस समय संपादक रहे कुलदीप नैयर की किताब, इमरजेंसी रिटोल्ड. या फिर इतिहासकारों ने इसे भारतीय राजनीति के एक अध्याय के तौर पर लिखा. इसके लिए तमाम फर्स्ट हैंड अकाउंट, अखबारी रिपोर्ट और इमरजेंसी की जांच के लिए जनता सरकार द्वारा बनाए गए शाह कमीशन की रिपोर्ट को आधार माना गया. पहले में बहुत सब्जैक्टिविटी रही और दूसरे में बहुत ऑब्जैक्टिविटी. दोनों का ही अपना महत्व है. मगर अब एक किताब आई है, जिसने शानदार ढंग से दोनों के बीच संतुलन साधा है. इस किताब का नाम है द इमरजेंसी- ए पर्सनल हिस्ट्री. किताब को इंडियन एक्सप्रेस की कंसल्टिंग एडिटर कूमी कपूर ने लिखा है.
कूमी इमरजेंसी के वक्त इंडियन एक्सप्रेस अखबार के साथ बतौर रिपोर्टर जुड़ी थीं. उनके पति वीरेंदर कपूर फाइनेंसियल एक्सप्रेस के साथ थे. वीरेंदर का एक रोज संजय गांधी की खास युवा नेता अंबिका सोनी से झगड़ा हो गया. नतीजा, वीरेंदर कपूर भी डीआईआर की धाराओं के तहत जेल में. यहां से कूमी का दोहरा संघर्ष शुरू हुआ. बतौर रिपोर्टर इमरजेंसी के दौर की तमाम खबरें करना. अपनी कुछ महीनों की बच्ची को पालना. और वीरेंदर के लिए पैरवी और भागदौड़ करना. यह तो हुई पर्सनल बात. मगर किताब के लिए कूमी ने उस दौर के तमाम अहम लोगों के लंबे इंटरव्यू किए. हर उपलब्ध लिखित शब्द को खंगाला. शाह कमीशन की तीन खंडों की रिपोर्ट हो या फिर उस दौर के अखबार. बाद के दशकों में लिखी गई किताबें हों या फिर समय समय पर होने वाले खुलासे. और इन सबको मिलाकर इमरजेंसी, उसके पहले और उसके बाद की एक मुकम्मल तस्वीर पेश की गई.
किताब बहुत ही रोचक है. इसकी भाषा सरल है. इसमें किस्सों की भरमार है. मगर उनकी सतह के नीचे सियासत के कई जरूरी सबक कुलबुलाते नजर आते हैं. 355 पन्नों को पढ़ने के दौरान कहीं भी बोरियत नहीं होती. छोटे छोटे अध्यायों की वजह से पढ़ने में सहूलियत रहती है. मारूति की कहानी हो या बंसीलाल की चाटुकारिता, ललित नारायण मिश्र का करप्शन और मौत हो या जगमोहन का बुलडोजर. रुखसाना सुल्तान का नसबंदी अभियान हो या फिर जॉर्ड फर्नांडिस और सुब्रमण्यम स्वामी की सरकार संग लुकाछिपी. सबमें एक धारावाहिक सी निरंतरता, रोमांच और गहराई है. उस दौर की क्रूरताओं को याद रखने के लिए एक्ट्रेस स्नेहलता रेड्डी की मौत को जानना जरूरी है. जयप्रकाश नारायण की पीड़ा को समझना जरूरी है. कुल मिलाकर बेहद जरूरी किताब है ये. उम्मीद है कि जल्द ही इसे हिंदी में भी रिलीज किया जाएगा.
राजनीतिक किस्सों में और उनके नतीजों में दिलचस्पी रखने वालों को, और हां युवाओं को खासतौर पर यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए.