‘जिसे लोगों ने नक्सलवाद या माओवाद कह कर बदनाम किया हुआ है, राजेंद्र यादव ने हाल ही एक साक्षात्कार में सूचित किया, ‘रास्ता तो मुझे वहीं दिखाई देता है. वही लोग हैं जो गरीबों के साथ हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियां गरीब-आदिवासियों की जमीनें छीन रही हैं उन पर बड़ी-बड़ी फैक्ट्री बना रही हैं. उनको लगता है सत्ता लेनी है तो बंदूक का सहारा लेना पड़ेगा. उद्देश्य उनका भी गांधीवादी है. तरीका थोड़ा अलग है समाज में समता लाने का. ‘बंदूक की क्षमता और योग्यता बाद में, पहले यादवजी के ‘गरीबनवाज नक्सली’ और उनका ‘पूंजीपतियों के विरुद्ध युद्ध’.
न मालूम यादव जी कौन इलाकों में गये हैं, किन लालधारियों से मिले हैं. इस प्रांत का दृश्य, जहां अनुकूल भूगोल नक्सल उपस्थिति देश में सर्वाधिक बनाता है, दरियागंज दरबार के टैलीस्कोप में टिमकती रूमानियत का विलोम है.
माओवादियों ने पिछले दस साल में पुलिसवालों से कहीं अधिक ‘गरीब आदिवासियों’ की हत्या की है. कई ‘पूंजीपति’ और उनकी ‘बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियां’ यहां कार्यरत हैं, धरती से खनिज निकाल आदिवासियों का ‘शोषण’ कर रहीं हैं लेकिन किसी ‘पूंजीपति’ को नक्सली ने खरौंचा तक नहीं कभी. बैलाडीला की काली पहाडि़यों में बेजोड़ लोहा बसा है, लौह कण ढोने के लिये दुनिया की दूसरी सबसे लंबी पाइपलाइन ‘पूंजीपति’ ने धुर आदिवासी इलाके में बीहड़ जंगलों को काट बिछाई- साक्ष्य मौजूद हैं इसके एवज में करोड़ों का नियमित हफ्ता नक्सलियों को जाता रहा है.
दुचित्ता, दोचेहरा यह लालधारी दिन में जंगल की पगडंडी पर 'पूंजीपति वापस जाओ’ का नारा लिखता है रात में उनका फेंका गोश्त चूसता है. सत्यापित करना हो तो जीवन का, कला का नहीं, जोखिम उठा दंतेवाड़ा आयें, नक्सलियों का जन्माक्षर हासिल कर लें.
लालधारियों की क्रांतिकारिता के चेहरे और भी हैं. बित्ते भर का यह प्रांत, मानव-संख्या दिल्ली जितनी, लेकिन शराब बिक्री का आंकड़ा देश में आरंभिक पायदान पर. बीहड़ नक्सल गांवों में बिजली दिन में छः घंटा, शाम से गलियां सुनसान, निवासी घर पुलिसिये थाने में दुबक जाते हैं, अंग्रेजी दारू की दुकान पर जैनरेटर दस बजे तक चमकता है. गांव में किसी दुकान की बिक्री हजार-पांच सौ से अधिक नहीं, यह अड्डा दस-बारह हजार रोज पीटता है. आदिवासी महुआ, सल्फी, ताड़ी में सिमट-निबट गये, डेनमार्क की बीयर कार्ल्सबर्ग जंगल में मचान बना रहता गरीब-रहनुमा नक्सली सुड़कता है. किस पैसे से? किस नैतिक अधिकार से?
लाल आकाओं के बीच ‘लूट के बंटवारे’ पर झगड़े और कत्ल अनिवार्य हुये हैं. इसी जगह लिखा जा चुका है छः लाख करीब की लूट पर झारखंड के युवा नक्सलियों ने अपने सेनापति को पिछले साल उड़ा डाला था. पुलिस-प्रशासन की ज्यादतियां हैं, बेहिसाब हैं, ‘पूंजीपति’ द्वारा अवैध जमीन अधिग्रहण भी है, इसका घनघोर विरोध होना चाहिये, लेकिन बुजुर्ग संपादक को दीखता ‘एकमात्र रास्ता’ अब बेलगाम, बेमुरव्वत और बंजर हो चुका है.
{mospagebreak}साठ-सत्तर के दशक में, विश्वविद्यालयों को थर्राते आमोर बाड़ी तोमार बाड़ी नक्सलबाड़ी के वक्त, किसी स्वप्निल मुकाम को इंगित करता यह रास्ता आज अधिकांशतः संगठित ठगी का रूपक है. दबंग डकैती भी नहीं, टुच्ची और लुच्ची ठगी. कभी-कभार किसी सच्चे क्रांतिकारी से मिल आप परिवर्तन की उम्मीद न सही उसकी निष्ठा को सलाम करते हैं लेकिन जल्दी ही जान जाते हैं वह अकेला पड़ चुका है, घुटने भींचे बैठा उसका पेटभरा कामरेड खुद को चुप स्खलित कर रहा है. नक्सलपुर में विचार ही नहीं ईमान और दुस्साहस की भी तंगी है.
क्या थी इसकी वजह? क्या पिछली सदी का विलक्षण साम्यवादी तोहफा? पिछले साठ सालों में इस ग्रह पर सर्वाधिक प्रयुक्त रूसी शब्द. लेनिन, स्टालिन, ट्राट्स्की या ब्राड्स्की नहीं, तारकोवस्की, टाल्सटाय या दोस्तोयवस्की, गोर्बाचेफ, ग्लासनोस्त भी नहीं- कलाश्निकोव उर्फ अवतोमात कलाश्निकोव- 47. सैंतालीस नहीं, फोर्टी सैवन.
सुकमा. जनवरी.
बंदूक कमबख्त बड़ी कमीनी और कामुक चीज रही. सुकमा के जंगल में काली धातु चमकती है. स्कूल के एनसीसी दिनों में पाषाणकालीन थ्री-नाट-थ्री को साधा था -- बेमिसाल रोमांच. गणतंत्र दिवस परेड के दौरान रायफल के बट की धमक आज भी स्मृति फोड़ती है.
लेकिन यहां एसएलआर यानी सैल्फ-लोडिंग राइफल और मानव इतिहास की सबसे मादक और मारक हमला बंदूक एके-47. भारतीय आजादी के साल किसी रूसी कारखाने में ईजाद और आजाद हुये इस हथियार के अब तक तकरीबन दस करोड़ चेहरे सूरज ने देख लिये हैं. इसकी निकटतम प्रतिद्वंद्वी अमरीकी एम-16 महज अस्सी लाख. एक बंदूक अपने चालीस-पचास वर्षीय जीवनकाल में दस इंसानों ने भी साधी तो सौ करोड़. भारत की आबादी जितने होंठ इसे चूम चुके.
इसका जिस्म, जोर और जहर गर्म मक्खन में चाकू की माफिक दुश्मन की छाती चीरता है. ख्रुश्चेव की सेना ने 1956 का हंगरी विद्रोह इसी बंदूक से कुचला था. वियतनाम युद्ध में इसने ही अमरीकी बंदूक एम-14 को ध्वस्त किया. झुंझलाये अमरीकी सिपाही अपने हथियार फेंक मृत वियतनामियों की एके-47 उठा लिया करते थे. समूचे सोवियत खेमे और गुटनिरपेक्ष देशों को यह हथियार निर्यात और तस्करी के जरिये पहुंचता था.
शीत युद्ध के दौरान नाटो सेना अपने तकनीकी ताप के बावजूद इस बंदूक का तोड़ नहीं ढूंढ़ पायी थी. पिछले साठ साल में दुनिया भर के सशस्त्र विद्रोह इसकी गोली की नोक पे ही लिखे गये. दक्षिण अमरीका या ईराक, पश्चिमी आधिपत्य के विरोध में खड़े प्रत्येक छापामार लड़ाके का हथियार.
दिलचस्प कि सोवियत सेना को आखिर उनके ही हथियार ने परास्त किया, सोवियत किले पर पहला लेकिन निर्णायक प्रहार इस बंदूक ने ही किया. 1979 में अफगान युद्ध के दौरान अमरीका ने दुनिया भर से एके-47 बटोर अफगानियों को बंटवायीं और लाल सेना अपनी ही निर्मिति को सह नहीं पायी. दस साल बाद जब सोवियत टैंक अफगानी पहाडि़यों से लौटे तो पस्त सिपाहियों की बंदूकों का जखीरा छिन चुका था.
आज भी तालिबानी लड़के इसी क्लाश्निकोव का घोड़ा चूमते हैं, राकेट लांचर की गुलेल बना अमरीकी हेलीकॉप्टर आसमान से तोड़ पहाडि़यों में गिरा लेते हैं. इतना मारक और भरोसेमंद हथियार नहीं हुआ अभी तक. अफ्रीकी रेगिस्तान, साइबेरिया की बर्फ या दलदल- कीचड़ में दुबका दो, साल भर बाद निकालो, पहले निशाने पर झटाक. तमाम देशों की सेना इसके ही मूल स्वरूप को लाइसेंस या बिना लाइसेंस ढालती हैं. चीनी टाइप-56, इजरायल की गलिल या भारतीय इन्सास- सब इसकी ही आधी रात की संतानें.
अकेली बंदूक जिस पर पत्रकार और सेनापतियों ने किताबें लिखी. लैरी काहानेर की बेजोड़ किताब 'द वैपन दैट चेंज्ड द फेस आफ वार.' समूचे मानव इतिहास में, सैन्य विशेषज्ञ बतलाते हैं, किसी अकेले हथियार ने इतनी लाश नहीं गिराई. परमाणु बम होता होगा सेनापतियों की कैद में, राजनैतिक-सामरिक वजहें होंगी उसके बटन में छुपी. तर्जनी की छुअन से थरथराता यह हथियार लेकिन कोई मर्यादा नहीं जानता.
सच्चा साम्यवादी औजार यह- हसीन, सर्वसुलभ, अचूक.
समूची पृथ्वी पर सर्वाधिक तस्करी होती बंदूक. कई जगह मसलन सोमालिया में छटांक भर डालर दे आप इसे कंधे पर टांग शिकार को निकल सकते हैं. हफ्ते भर के तरकारी-झोले से भी हल्की और सस्ती.
नाल से उफनती चमकते पीतल की ज्वाला. झटके में पीली धातु का जाल हवा में बुन देगी. साठ सेकेंड उर्फ छः सौ गोली का आफताब. पिछली गोली का धुंआ अगली को खुद ही चैंबर में खटाक से अटका देगा. एक सेकेंड उर्फ ढाई हजार फुट दौड़ मारेगी गोली. हथेली का झटका और दूसरी मैगजीन लोड. कैंची साइकिल चलाने या रोटी बेलने से कहीं मासूम इसका घोड़ा. साइकिल डगमगायेगी, गिरायेगी, घुटने छील जायेगी, चकले पर आटे का लौंदा बेडौल होगा, आंच और आटे का सम सध नहीं पायेगा- यह चीता लेकिन बेफिक्र फूटेगा. फूटता रहेगा. कंधे पर टंगा कमसिन करारा, तर्जनी पर टिका शोख शरारा.
बित्ता भर नीचे मैगजीन उर्फ रसद पेटी का बेइंतहा हसीन कोण. पृथ्वी पर कोई बंदूक नहीं जिसकी अंतड़ियां यूं मुड़ती जाये.
दुर्दम्य वासना, इसके सामने मानव जाति को उपलब्ध सभी व्यसन बेहूदे और बेबस और बेमुरब्बत. जैन अनुयायी भले हों आप इस हथियार का सत्संग करिये, यह संसर्ग को उकसायेगी, आपकी रूह अंतिम दफा कायांतरित कर जायेगी. नवजात सिपाही का पहला स्वप्न. शातिर लड़ाके की अंतिम प्रेमिका. लड़ाके की पुतलियां चमकेंगी ज्यों वह बतलायेगा आखिर क्यों यह हथियार कंधे से उतरता नहीं.
क्या इतना मादक हथियार क्रांति का वाहक हो सकता है? क्रांति शस्त्र को विचार ही नहीं तमीज और ईमान और जज्बात की भी लगाम जरूरी जो लड़ाके खुद ही बतलाते हैं इस हथियार संग असंभव. क्या उन्मादा पीला कारतूस ख्वाब देख सकता है? या गोली की नोक भविष्य का जन्माक्षर लिख सकती है, वह पंचाग जिसकी थाप पर थका वर्तमान पसर सके, आगामी पीढ़ियां महफूज रहे?
फकत दो चीज अपन जानते हैं. पहली, अफगानियों को इस हथियार से खेलते देख उस रूसी सिपाही ने कहा था- अगर मुझे मालूम होता मेरे अविष्कार का ये हश्र होगा तो घास काटने की मशीन ईजाद करता.
दूसरी- जब तोप मुकाबिल हो, अखबार निकालो.
आखिर मिखाइल तिमोफीविच क्लाश्निकोव बचपन में कवितायें लिखते थे, सेना में भरती होने के बावजूद कवितायें लिखते रहे थे. इतिहास का सबसे संहारक हथियार भी क्या किसी असफल रूसी कवि को ही रचना था?
{mospagebreak}सुकमा. अठारह जनवरी.
नक्सल- आदिवासी मसले पर अंग्रेजी अखबार-पत्रिकाओं में नियमित लिखने वाली कई चर्चित शख्सियत कम ही इस राज्य के जंगलों में आयीं होंगी. हाल ही दंतेवाड़ा को विभाजित कर बनाये इस नये जिले सुकमा में एक कथित नक्सली ने पुलिसानुसार थाने में आत्महत्या कर ली. मेडिकल रिपोर्ट और अन्य साक्ष्य जुटा इस रिपोर्टर ने घटना का विलोम उजागर किया जिसके आधार पर मानवाधिकार आयोग ने राज्य पुलिस को नोटिस भेजा.
अगले ही दिन एक प्रमुख अखबार ने मेरी खबर को आधार बना, उसका जिक्र कर लेकिन मिसकोट करते हुये खबर छापी, दूसरे में एक संपादकीय लेख आया तथ्यों को मरोड़ता- जाहिरी तौर पर दोनों की ही डेटलाइन सुकमा नहीं थी.
पखवाड़ा पहले बीजापुर में भी यही स्थिति. एक आदिवासी बच्ची की रहस्यमयी मृत्यु में पुलिस ने ‘मानव बलि' खोज निकाली. कई विदेशी प्रकाशनों में सुर्खियां लपलपायीं- भारत के आदिवासी इलाके में देवी को प्रसन्न करने के लिये मानव बलि. इनमें से कोई पत्रकार बीजापुर के उस गांव नहीं पहुंचा था, जहां वह रहती थी. पहुंचने की जेहमत भी कौन करता. सबसे नजदीकी हवाई अड्डे रायपुर से भी आठ-दस घंटे का सड़क सफर.
जगदलपुर के बाद जंगल, नक्सलियों द्वारा खोदे गये गहरे गढ्ढों और बंदूकधारी जवानों के बीच चलती सड़क पर पुती लाल इबारत किसी भी नवागंतुक को खौफजदा बनायेंगी. वैसे भी अंडमान के जरवा आदिवासी का नृत्य मसला जब चमक रहा हो तो भारत की एक दूसरी खोह में ‘मानव बलि’ से ज्यादा रसीली खबर क्या होती वो भी जब एक वरिष्ठ अधिकारी बोल रहा हो.
सबसे सरल था फोन पर क्वोट लेना इसकी फिक्र फिर कौन करता कि समूचा गांव कह रहा है उनकी जनजाति में ऐसी बलि की प्रथा कभी रही नहीं, पुलिस पहले बच्ची के पिता को पकड़ कर ले गयी थी उसे ग्यारह दिन रखा, पीटा कि वह कबूल कर ले उसने अपनी बेटी का या तो कत्ल या बलात्कार किया या बलि दे दी, जब वह रोता रहा मैं अपनी बच्ची को आखिर क्यों मारूंगा, तो पुलिस ने किसी दूसरे को पकड़ बंद कर लिया है उसे मुख्य अभियुक्त बतलाती है जो दरअसल ईसाई है और उसके धर्म में किसी देवी को प्रसन्न करने जैसी चीज ही नहीं.
पुलिस के ऑन रिकार्ड तर्क और भी रोचक. ‘इन आदिवासियों की देवी बलि के दौरान विषम संख्या की आवृत्ति से बहुत प्रसन्न होती है. मसलन तीन, पांच, सात, नौ, ग्यारह साल के बच्चे उसे बहुत पसंद आते हैं. खासकर सात. वह बच्ची सात साल की थी. उसके पिता की आठ संतानें थी, उसकी बलि के बाद अब सात बचीं.'
अगर जुर्म साबित करने को कटिबद्ध पुलिस की सभी प्रस्तावना यहां लिख दूं तो कोई भी निष्कर्षित कर सकता है भारतीय दंड संहिता के साथ शायद यह खाकीधारी तंत्र विज्ञान का भी गहन अध्ययन कर रहे है.
पुलिस तो बदनाम रही खैर, उन बुद्धिमानवों का क्या जो खाकी को क्रूर बता लतियाते हैं लेकिन जो बर्बबरता उन्हें सुविधाजनक या दिलचस्प लगे उसे चुप स्वीकार कर लेते हैं. तंत्र-मंत्र-व्याकुल बीजापुर पुलिस की शव-साधना अब तक इन महारथियों को सर्वमान्य रही आयी है.
सत्रह जनवरी, दंतेवाड़ा.
क्या नक्सली इलाके राशोमोन की क्रीड़ा स्थली हैं- बहुलार्थी, बहुव्यंजक आख्यान को आतुर एक हरी स्लेट?
जेल में बंद जिन कथित नक्सलियों को अंग्रेजी के कुछ प्रकाषन षहीद निरीह आदिवासी बतला कारुणिक होते रहे हैं, मेरी समझ में वे निर्दोष नहीं हैं. किसी मसले पर वैचारिक भेद मान्य है लेकिन यहां विषुद्ध तथ्यों का फलन है. जिन जगहों पर जा मैंने प्रमाण जुटाये हैं, वहीं वे रिपोर्टर भी गये थे. इनके जिन परिवारीजनों से मैं मिला और जिन्होंने मुझे उनके नक्सल संबंधों को बतलाया, उनसे वे भी मिले.
इनके जिन नक्सल मुखबिर संबंधियों से मेरा संपर्क है, उनका भी है यानी तथ्य-स्रोत एक ही है. फिर आकलन का विलोम क्यों? ऐसा नहीं तथ्य के प्रति उन पत्रकारों की निष्ठा कमतर या उनकी समझ में पोल है, उनके कर्म के प्रति सम्मान है, लेकिन यह व्याख्या-भेद अनिर्वचनीय है. वे भी बहुत संभव है मेरे आकलन को ऐसा ही पाते होंगे.
लेकिन क्या हम सभी रिपोर्टर वाकई ‘तथ्य’ की षुद्ध परिधि में हैं? जिस जगह मैं आज हूँ वहां अगर कोई कल आयेगा तो क्या ‘तथ्य’ वही रहेगा या बुनियादी रूप से परिवर्तित या शायद परावर्तित हो चुका होगा? वह मुखबिर जिसने आज मुझे कुछ सूत्र बतलाये क्या उसने ठीक यही कल आये रिपोर्टर को भी कहे होंगे? रसैल और विटगैंस्टाइन कह गये हैं यह सृष्टि किन्हीं “तार्किक तथ्य” की निर्मिति है, मूल तथ्य.
तथ्य की यह तत्वमीमांसीय प्रस्तावना बस्तर के जंगल में अपनी तार्किकता भूल तुतलाने लगती है, बेतरतीब झाडि़यों में उलझ जाती है. यही रिपोर्टिंग और संपादकीय लेखन का बुनियादी फर्क भी है. रिपोर्टर अपनी निगाह पर संदेह कर, प्रष्नों को उघाड़ता है. वैकल्पिक व्याख्यान के व्यूह में फंसे उसके पास कोई सांत्वना नहीं. एकदम अकेला है वह. संपादकीय लेखक इस खबर पर अपनी समझ बतलाता है, समाधान प्रस्तावित करता है.
क्या रिपोर्टर को कथाकार और संपादकीय लेखक को आलोचक कहा जा सकता है? साहित्य की ही तरह यह पत्रकारिता की भी विडंबना है कि बिना कृति को आत्मसात किये मानुष आलोचना लिख पड़ने लग जाते हैं, खबर की पूर्वपीठिका बगैर संपादकीय लेखों पर हस्तकौशल आजमाते हैं.
जबकि रिपोर्टर जानता है इन आदिम चट्टानों के बीच कोई आश्वस्ति नहीं. यह दायीं का बायीं आंख से संघर्ष है, अनुभूति की अनुभव से लड़ाई है, समझ का स्मृति से द्वंद्व है, अक्षर का शब्द से, शब्द का व्याकरण से विद्रोह है. जमीन से उठता धुंआ धूप की माया है, निगाह किसी अबूझी मरीचिका की गिरफ्त में है.
कीबोर्ड पर चलती उंगलियां ‘तथ्य’ लिखने का दावा करते सहमति हैं. आप चाहते हैं आपकी हर खबर के नीचे एक हलफनामा आये- मेरा लिखा एक भी अक्षर झूठ नहीं है लेकिन जरूरी नहीं वह सत्य या शायद तथ्य भी हो. विट्गैंस्टाइन ने भी रसैल से यही कहा था- मुझे इस कमरे में डायनासोर दिखलाई नहीं देता लेकिन मैं यह नहीं कह पाउॅंगा कि इस कमरे में कोई डायनासोर नहीं है.
आप चाहते हैं पाठक को बतला दें यह शब्द आपने दर्ज जरूर किया है लेकिन आप भी उसकी ही तरह इसके समक्ष निहत्थे थे, इसकी अनुभूति के तिलिस्म में रास्ता आपने खुद खोजा था और अब पाठक का भी वही विकल्प है.
सम्मोहिनी वृक्षों की पुकार सब. टहनियों पर मचान और बंदूकें सजी हैं, पत्तियों से मनुष्य का ताजा लहू टपक रहा है. शब्द क्यों बचा रहेगा आखिर? कहा तो था उसने- एके-47 निहायत ही कामुक हथियार है.
(कथाकार-पत्रकार आशुतोष भारद्वाज की डायरी के अंश जानकीपुल से साभार)