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असगर वजाहत की 'सबसे सस्ता गोश्त' का दिल्ली में विमोचन

देश की राजधानी दिल्ली के बेहद नजदीक दादरी की घटना इन दिनों हरेक की जुबान पर है. इस घटना के बगैर इन दिनों कोई भी राजनैतिक या साहित्यिक बहस पूरी नहीं मानी जा रही. आलम ये है कि साहित्य के बेहद नाजुक और संवेदनशील मंचों पर भी ये वारदात अपनी हाजिरी दर्ज करवा रही है.

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सबसे सस्ता गोश्त
सबसे सस्ता गोश्त

देश की राजधानी दिल्ली के बेहद नजदीक दादरी की घटना इन दिनों हरेक की जुबान पर है. इस घटना के बगैर इन दिनों कोई भी राजनैतिक या साहित्यिक बहस पूरी नहीं मानी जा रही. आलम ये है कि साहित्य के बेहद नाजुक और संवेदनशील मंचों पर भी ये वारदात अपनी हाजिरी दर्ज करवा रही है.

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इस नए दौर में, जबकि जमाने का चाल- चलन अपना चेहरा बदल रहा है. नई और वैज्ञानिक सोच समाज में अपनी नई जगह बनाने की कोशिश कर रही है. नए- नए आविष्कारों ने इंसानी जरूरतों के रंग- ढंग बदल दिए हैं और ऐसे में सियासत के वही पुराने घिसे पिटे बहाने इस बात पर मुहर लगाते नजर आते हैं.

इस मुल्क में सियासत करने वाले अभी भी नहीं बदले. इस मुल्क की समस्या भी यही है कि यहां राजनीति करने वाला तबका साम्प्रदायिकता को अपना मजहब मान बैठा है और ये बुराई तभी दूर हो सकती है जब हम सब न सिर्फ पढ़ लिखकर काबिल बनें, बल्कि जागरूक भी हों और जागरूक करने के लिए एक कामयाब हथियार हमारे पास नुक्कड़ नाटकों की शक्ल में मौजूद भी है. गरज ये कि इसका इस्तेमाल सही तरीके से हो.

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हिन्दी के जाने- माने लेखक और अपने नुक्कड़ नाटकों की रचना के लिए दुनिया भर में मशहूर असगर वजाहत तो कम से कम ऐसा ही मानते हैं. पुस्तकों के लोकार्पण कार्यक्रम के अपने तीसरे पड़ाव में असगर वजाहत शुक्रवार को दिल्ली विश्वविद्यालय के सबसे पुराने कॉलेज में से एक हिन्दू कॉलेज पहुंचे. मौका था उनकी नुक्कड़ नाटकों के संग्रह 'सबसे सस्ता गोश्त' के विमोचन का.

किसी भी नाटककार का इससे बेहतरीन इस्तकबाल नहीं हो सकता कि वो जिस सभा में पहुंचे. वहां ठीक वैसा ही माहौल कायम कर दिया जाए, जैसा वो अपनी कलम के जरिए सफेद पन्नों में सधे और जज्बातों से भरे लफ्जों के जरिए पैदा करता है. हिन्दू कॉलेज के छात्र- छात्राओं ने अपने मनपसंद लेखक का कुछ इसी अंदाज में स्वागत किया और उन्हें इस बात का भी एहसास करवा दिया कि उनके लिखे हुए शब्द किसी किताब में कैद होकर रहने वाले नहीं, बल्कि ऐसी नौजवान कोशिशों के जरिए जमाने के सामने जाहिर होते रहते हैं.

सौ साल से भी ज्यादा पुराने प्रकाशक राजपाल एंड संस की ओर से आयोजित इस कार्यक्रम का समां तो वहां के छात्र- छात्राओं ने अपनी सूफी कव्वाली के जरिए पहले ही बांध दिया था. उसके बाद नाटकों पर अपनी गहरी पकड़ रखने वालीं किरोड़ी मल की प्राध्यापिका और हिन्दू कॉलेज की पूर्व छात्रा प्रज्ञा ने असगर वजाहत की खासियत और उनके नाटकों की खूबियों के बारे में जब बताना शुरू किया तो सभागार में मौजूद हर शै बस उन्हें ही सुन रहा था.

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खुद असगर वजाहत ने इस मौके पर न सिर्फ अपनी पुस्तक का एक अंश पढ़कर सुनाया बल्कि कुछ सुलगते हुए सवालों के जवाब देकर उन्होंने हर छात्र- छात्रा के मन को टटोला भी और उसे सहलाया भी. इस मौके पर काबिलेगौर एक बात भी हिन्दू कॉलेज के छात्र- छात्राओं ने देखी, और वो ये कि हिन्दी के इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए जर्मन नागरिक खासतौर पर मौजूद थी, और हैरानी उस वक्त सबसे ज्यादा बढ़ गई जब वहां लोगों के सामने ये खुलासा हुआ कि वो जर्मन महिला हिन्दी की छात्रा है और अपने मुल्क में हिन्दी के प्रसार के लिए एक खास मुहिम चला रही हैं.

14 नुक्कड़ नाटकों की इस पुस्तक में असगर वजाहत ने समाज में छुपे दर्द, विडम्बना, सरोकार और सियासत को बेहद करीब से टटोला है और बहुत चुटीले अंदाज में मुद्दों को उठाकर इस बात को जाहिर करने की कोशिश की है कि समस्या का समाधान कैसे सार्थक तरीके से निकाला जा सकता है.

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