छायावाद के प्रवर्तक, उन्नायक कवि, मूर्धन्य साहित्यकार जयशंकर प्रसाद का साहित्य सर्वसुलभ है, लेकिन उनके 'तुमुल कोलाहल' भरे जीवन की कहानी से दुनिया अब तक प्रायः अपरिचित रही है. ऐसे में, प्रसाद के महाप्रयाण के आठ दशक बाद उनकी जीवन-कथा को पहली बार पूरे विस्तार से प्रस्तुत करने की कोशिश कथाकार श्याम बिहारी श्यामल ने उपन्यास 'कंथा' के माध्यम से की है. श्यामल ने अपनी इस कृति में प्रसाद का जीवन-चित्र तो आंका ही है, बीसवीं सदी के आरम्भिक दौर के उस पूरे परिदृश्य को उसके सम्पूर्ण रूप-गुण, राग-रंग और घात-प्रतिघातों के साथ साकार कर दिया है, जिसमें प्रसाद का कृती-व्यक्तित्व विकसित हुआ था. प्रसाद युग के इस चित्र में पं मदन मोहन मालवीय, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचन्द, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला', शिवपूजन सहाय, महादेवी वर्मा, रामचन्द्र शुक्ल, केशव प्रसाद मिश्र, रायकृष्ण दास, विनोदशंकर व्यास, कृष्णदेव प्रसाद गौड़ आदि अनेक विभूतियों का कथा-चरित्र भी शामिल है. साहित्य आजतक पर पढ़िए प्रेम, सौन्दर्य, मानवीयता, इतिहास, त्याग और अध्यात्म के अद्भुत चितेरे जयशंकर प्रसाद के जीवन और युग पर केन्द्रित श्याम बिहारी श्यामल के उपन्यास 'कंथा' का यह अंशः
पुस्तक अंशः कंथा
'साहित्य की दुनिया को भी कैसे-कैसे तिजारती लोगों के दांव-पेंचों का दंश झेलना पड़ता है!' प्रसाद रजिस्टर पलट रहे हैं प्रतिष्ठान के हिसाब का, किन्तु दिमाग में चेहरे घूम रहे हैं 'अग्रवाल स्पोर्ट्स क्लब' के भाग्यविधाताओं के.
पत्रिका का नाम तो बेशक कुछ अन्य भी रखा जा सकता है. ऐसा तो है नहीं कि किसी दूसरे नाम से पत्रिका निकले तो कोई उसे हाथ में लेना ही नहीं चाहे या 'भारतेन्दु' नाम होने पर उसकी प्रतियों की लूट ही मच जाए? लेकिन, इन क्लब वालों को यह बात भला कौन समझाए कि 'भारतेन्दु' नाम के पीछे कोई तिजारती निशाना नहीं बल्कि हमारा भावनात्मक लगाव है! हम तो सिर्फ यही चाहते हैं कि समकालीन सृजन की प्रवहमान यात्रा हर क्षण अपने साहित्य के जनक की संज्ञा-छवि से लगातार जुड़ी रह सके, और हम हिन्दीवालों के सिर से यह कलंक मिट जाए कि हम लोग 'भारतेन्दु' नाम की एक पत्रिका भी नियमित नहीं छाप सकते. सर्वाधिक मलाल तो यह कि स्वयं व्रजचन्द्र के होते हुए भी क्लब वाले पत्रिका के नाम की रायल्टी वसूलना चाहते हैं! किसको नहीं पता कि सार्थक पत्रिका निकालना अपने-आप में 'घर-फूँक तमाशा' देखने का एक दर्दनाक खेल है? इसके बावजूद यह सोच? ऐसी अड़ंगेबाजी?
सीने में टीस उठ रही है जो टभकती हुई बवंडर-सी गोल-गोल भंवर खाती तेज चढ़ती ऊपर पहुंचकर दिमाग पर टन्-टन् ठोकर मारने लग जा रही है. न कुछ लिखने-पढ़ने में मन रम रहा है, न पत्रिका निकालने के इस जुनून से पीछा ही छूट पा रहा. नहीं चाहते हुए भी मन बार-बार यही विश्लेषण करने में जुट जा रहा है कि क्लब वालों ने आखिर क्या सोचकर ऐसा नकारात्मक निर्णय सुनाया? किन्तु हर बार कोई निष्कर्ष निकालने में विफल. कोई ठोस कारण समझ में नहीं आ रहा. यह गुत्थी लगातार पहेली बनी हुई है.
एक-एक कर क्लब के लोगों पर ध्यान जाकर टिक जा रहा है. व्रजचन्द्र बालसखा ही हैं, उनसे किसी दांव-पेंच की कोई आशंका नहीं. शिवप्रसाद गुप्त तो अपने नाम के ही जीते-जागते उदाहरण! एकदम किसी भी नकारात्मक सोच से सर्वथा मुक्त; इसलिए उनकी ओर से भी किसी आपत्ति की कोई गुंजाइश नहीं. उसी तरह राजाराम भी जितने सरल, उतने ही सच्चे-सज्जन साहित्यानुरागी; इसलिए इस पक्ष से भी किसी तरह की लंगी लगाए जाने का प्रश्न ही नहीं. फिर किसे इसमें ऐसी गहरी असहमति हो गई?
मन चकराकर रह गया.
प्रसाद मन-ही-मन स्वयं को यह समझाने का प्रयास भी चलाते रहे कि पत्रिका निकालने की कोई विवशता तो है नहीं, अम्बिका को घरेलू सुँघनी उद्योग में ही कोई ठोस कार्य-दायित्व सौंपा जा सकता है, इसलिए इस पत्रिका-योजना से मुक्त हो लेना अधिक श्रेयस्कर होगा. यों भी ऐसे कार्य निजी लेखन-प्रयास को कहीं न कहीं बाधित करेंगे. दूसरे ही पल, फिर यह लगता कि अम्बिका के लिए कोई भी कार्य सँभालना मुश्किल नहीं किन्तु उसकी रुचि का कार्य तो पत्रिका-प्रकाशन ही है. इसके अलावा उसे दूसरे किसी काम में लगाने का अर्थ होगा—उसकी बौद्धिक प्रतिभा और स्वयं उसके साथ घोर अन्याय.
रजिस्टर को एक ओर रखते हुए वह उठने को हुए कि कानों में पड़ा : 'शिव-शिव!' सामने अम्बिकाप्रसाद 'शिव-शिव' करते आते हुए. प्रसाद को स्वयं पर आश्चर्य हुआ. उन्होंने पहले अपने सीने पर हाथ फिराया फिर छूकर अपने होंठ जाँचे. ऐसे तनाव के क्षण में यह औचक राहत व मुस्कान कहां से आ गई? ध्यान गया, यह 'शिव-शिव' की टेर तो सचमुच प्रभावी उपक्रम है. विचार-बवंडर थम-से गए.
अम्बिका आकर सामने तख्त पर आहिस्ते बैठ गए, “शिव-शिव, शिव-शिव!...क्या बात है मामा जी, यह कोई नई कसरत आविष्कृत कर ली क्या?”
चकरा गए प्रसाद. चौंककर ताका. पूरक प्रश्न ढुलककर सामने आ गया, “स्पर्श-व्यायाम जैसा कुछ?...वैसे, अब मेरा विचार तो यह है कि 'भारतेन्दु' के पुन:प्रकाशन की अपनी योजना हमें छोड़ देनी चाहिए.”
प्रसाद कुछ बोले नहीं किन्तु आंखें दर्द से छलछलाई-सी दिखने लगीं. यह भाँपते ही अम्बिका सहमकर रह गए. वाणी को भरसक मृदु बनाते हुए बात बदलने लगे, “पत्रिका किसी दूसरे नाम से भी निकालकर हम अन्ततः जो कार्य करेंगे, इससे भारतेन्दु बाबू की आत्मा को ही शान्ति पहुंचेगी. जो हिन्दी भाषा-साहित्य व पत्रकारिता का जनक है, उसकी आत्मा हमारे मर्म को अवश्य पहचानेगी.”
आंखें मूँदे पाल्थी जमाये प्रसाद कुछ देर यों ही अनुपस्थित-से उपस्थित रहे. अम्बिका को स्थिति की गम्भीरता का भान हो चुका है. अब वह भी मौन ओढ़े टुकुर-टुकुर ताकने लगे. सच बात तो यह कि उनसे प्रसाद की यह दशा देखी नहीं जा पा रही. उन्हें यह लगने लगा है कि मामा जी कोई सामान्य व्यवहारी पुरुष तो कदापि नहीं हैं. एक ओर जहां तनिक ताप से पिघल जानेवाले नवनीत जैसे अत्यन्त कोमल तो दूसरी ओर भावनात्मक प्रतिकूलता की जरा-सी चोट पर भी उग्र संवेदनशीलता से भर जानेवाले तीव्र ज्वलनशील मानस के व्यक्ति! उनका हृदय एकदम कपास जैसा है—सर्वांश निर्मल-श्वेत भी और चिनगारी के स्पर्श मात्र से धधक उठने वाला भी. मन के किसी कोने में कहीं यह अपराधबोध भी जागा : 'मेरे के कारण ही तो यह योजना बनी जिसने उन्हें मर्माहत कर देनेवाली ऐसी विषम परिस्थिति तैयार कर डाली.' ग्लानि पनपने लगी—नाहक ही यह योजना बनी जिसने अन्ततः मामा जी को ऐसी दाहक मनोदशा में धकेलकर छोड़ दिया है. मन में आया, क्यों न रात में गुपचुप उठकर यहां से फुर्र हो जाया जाए? एक झटके में मामा जी की सारी मुसीबत हवा हो जाएगी. दूसरे ही पल लगा कि ऐसा भूलकर भी नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि इससे इनकी मुसीबत कम नहीं होगी बल्कि उल्टे बढ़ जाएगी. छोटी से छोटी बात पर इतना अधिक सोचने वाला ऐसा व्यक्ति कब क्या सोच-समझ ले और कैसे अपनी प्रतिक्रिया कर दे, कोई जरा भी इसका पूर्वानुमान नहीं लगा सकता. एक ही उपाय है कि इन्हें किसी भी तरह इस अवसाद-कूप से बाहर निकाला जाए.
इसी क्रम में ध्यान गया तो अम्बिका अचम्भित. प्रसाद ने ज्योंही आंखें खोलीं, उनका चेहरा तनाव से सर्वथा मुक्त. न क्लेश, न ऊहापोह, न कोई उलझन. जैसे उमड़ते-घुमड़ते काले मेघों की घाटियों-पहाड़ियों को छट्-छट् काटता चमकीला सूर्य सामने सर्वांग खिल गया हो! उनकी काव्यमयी वाणी का माधुर्य भी मुक्ति-मनोदशा की सजीव बानगी पेश करने लगा, “तुमने सही समय पर सही सलाह उपलब्ध करा दी, लेकिन...”
जान में जान आई. अम्बिका ने राहत की सांस ली. प्रसाद अपने मन की तहें खोलने लगे, “पत्रिका के लिए 'भारतेन्दु' नाम बहुत अच्छा था, ऐसा दूसरा नाम हो ही नहीं सकता. इस संज्ञा में एक ही साथ कई लक्ष्य सिद्ध हो रहे हैं—अपने परम्परा-पिता की प्रत्यक्ष स्मरण-उपस्थिति भी और भारत के जाज्वल्यमान सृजनात्मक इन्दु-पक्ष के उदय की कामना या उद्घोष भी, और साम्प्रत रचनाशीलता के आकलन-आलोकन का उज्ज्वल संकल्प-बोध भी....सच बात तो यह कि भारतेन्दु जी का स्मरण मात्र मेरे मन को ऐसा आविष्ट कर देता है कि एक विशिष्ट सृजनात्मक मनोदशा तैयार हो जाती है, रचनात्मक ऊर्जा की धारा बहने लगती है. मुझे लगता है कि ऐसी ही अनुभूति हिन्दी के अधिकतर लेखक-पाठकों को होती होगी, इसीलिए पत्रिका के लिए दूसरा नाम चुनना अब बहुत कठिन लग रहा है मुझे.”
“यदि यही बात है तो क्यों नहीं हम पत्रिका का नाम 'हरिश्चन्द्र' रख लें?”
“हरिश्चन्द्र से तो राजा हरिश्चन्द्र का भी बोध होगा.”
“पत्रिका जब एक बार लोगों के हाथ में पहुंच जाएगी तब तो अगली बार से किसी को कोई भ्रम नहीं होगा. हम पत्रिका के नाम के साथ भारतेन्दु जी के मुखमंडल का एक रेखांकन भी तो छाप सकते हैं.”
प्रसाद कुछ बोले नहीं किन्तु सिर उठाकर ध्यान से देखा.
अम्बिका को यह अन्यमनस्क चुप्पी सरसराती हुई महसूस हुई. सचमुच प्रसाद के उमड़ते मन में ऐसे ही विचार-पतवार छप्प्-छप्प् चलते-बजते और हिलते-डोलते रहे. मन की तुला पर 'भारतेन्दु' और 'हरिश्चन्द्र' नाम परस्पर तुलते रहे. अनुभूति बोल रही थी: जो भाव-बोध 'भारतेन्दु' शब्द से निःसृत हो रहा है, वह 'हरिश्चन्द्र' में कहां? भारतेन्दु यानी भारत का इन्दु! 'सितारेहिन्द' को शिकस्त देने के लिए जनस्वीकृत विशेषण! समाज को जाति-भेद से उबारने की भावना से लिखे एक लेख को ब्राह्मण-विरोध समझ लाहौर के एक हिन्दी-प्रेमी पंडित ने कातर भाव से पत्र भेजा था. उसने लिखा- हरिश्चन्द्र के रूप में आप हर हिन्दी-भाषी के हृदय में विराजमान हैं लेकिन सबको ब्राह्मण बनाने का विचार व्यक्त कर आपने पंडितों की मर्यादा को कम कर दिया है, इसलिए मैं आपको भारतेन्दु अर्थात् भारत का चंद्रमा कहना चाहता हूं. चंद्रमा में चमक और सौंदर्य तो है लेकिन दूर से दिखने वाला दाग भी. पत्र को पढ़कर यहां सबने महसूस किया कि लाहौर के पंडित जी ने एक-एक शब्द गुस्से व गहरे क्लेश के भावों में डूबकर लिखा है लेकिन क्रुद्ध-भाव से भी जो विशेषण उछाला है, वह दुर्लभ और धार्य है.
बीमार पड़े बाबू हरिश्चन्द्र के म्लान मुखमंडल पर कोई सुखद लकीर देखने के लिए मित्र-मंडली ने इसे अपनी स्वीकृति दे उन्हें अवगत कराया. इसके बाद तो इसे आम स्वीकृति देने में सामुदायिक प्रेम कुछ यों उमड़ा कि व्याकरण के सारे बंध-उपबंध मोम की तरह पिघल कर बह चले. प्रेम के ताप में तपकर विशेषण एक ही झटके में संज्ञा में बदल गया. अब तो 'भारतेन्दु' शब्द कहीं भी दिख जाए, सारा अतीत-संदर्भ मन-गगन पर एक साथ इन्द्रधनुष की तरह खिंच जाता है. यह अनुभूति-लाभ भला दूसरे किस नाम से कहां सम्भव है? तो, क्या भारतेन्दु जैसी ध्वनि-छवि का ही कोई वैकल्पिक शब्द तलाशने का प्रयास किया जाए? दूसरे ही क्षण मन ने इस प्रयास-युक्ति के आत्मप्रस्ताव को पारित कर दिया. ऐसा कौन-सा शब्द हो सकता है? भारतचन्द्र? नहीं-नहीं, यह तो सुनने में ही अटपटा लग रहा है. भारत का चन्द्रमा? नहीं. यह तो और अधिक गड़बड़ है. तो, भारत का इन्दु? नहीं. यह तो भारतेन्दु नाम को दरकाकर तोड़ देने के कृत्य जैसा होगा. तो, क्यों नहीं 'इन्दु'?
प्रसाद का मन चाँदनी की चमक-शीतलता और मधुरता से भर गया. जैसे अंधेरे मन-गगन पर सचमुच पूर्णकला चन्द्रमा छलककर आ टिका हो! चन्द्र-मुस्कान चाँदनी बनकर जैसे छलकने लगी हो! लगा, लंबी व्यग्र प्रतीक्षा अब पूरी हुई हो!
अम्बिका बहुत बारीकी से प्रसाद का मुखमंडल खंगालने में जुटे रहे.
कवि-मन में क्या चल रहा है, यह तो नहीं, किन्तु कैसा कुछ चल रहा है, इसका कुछ-कुछ अंदाजा उनके सक्रिय गहन मौन से अवश्य पता चल पा रहा है. मुखमंडल पर आए ताजा झिलमिल भावों ने कुछ सकरात्मक संकेत-अनुमान दे दिये. उन्होंने हौले से टोका, “शिव-शिव! मामा जी, लगता है, आपकी उलझन अब सुलझने के रास्ते पर आ गई है, शिव-शिव!”
प्रसाद के शब्दों में हल्की चमक जगी, “हां, पत्रिका तो निकालेंगे ही और नाम भी ऐसा ही रहेगा जिससे बिना किसी मानसिक उद्यम के भारतेन्दु बाबू का स्पष्ट स्मरण-बोध सीधे-सीधे सम्भव बने.”
“अरे, वाह, शिव-शिव! तब तो ठीक है. मैं भी मस्तिष्क दौड़ाता हूं, ऐसा शब्द खोजने में अभी से जुट जाता हूं. सम्भव है, इसमें कोई सहायता हमसे भी हो जाए.”
“शिव-शिव जी, इसके लिए अब परेशान होने की कोई आवश्यकता नहीं. यह अपेक्षित नाम तो मुझे मिल गया है.”
“शिव-शिव, शिव-शिव! मामा जी, तब तो बताने में अब जरा भी विलम्ब न कीजिए. मेरी बेचैनी को समझिए, बता दीजिए.”
“'इन्दु'!” प्रसाद की आंखें रत्न की तरह चमकने लगीं. तुरन्त पूछ लिया, “कैसा लगा?”
“शिव-शिव, शिव-शिव! बहुत अच्छा. 'इन्दु' की ध्वनि भी एकदम 'भारतेन्दु' वाली ही है. अर्थ-संदर्भ के विस्तार की दृष्टि से तो यह अधिक व्यापक लग रहा है : भारत का ही नहीं, सारे संसार का चंद्रमा!”
पुस्तकः कंथा
लेखकः श्याम बिहारी श्यामल
विधाः उपन्यास
भाषाः हिंदी
प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन
पृष्ठ संख्या: 544
मूल्य: 599/- रुपए