भारत के बहुचर्चित नाटककारों में सर्वाधिक प्रतिष्ठित बादल सरकार का जन्म 5 जुलाई, 1925 को हुआ था. भारत में नाटक विधा पर चर्चा उनके बिना बेमानी है. मूल बंगाली में लिखे होने के बावजूद उनके दर्जनों नाटक उसी तन्मयता के साथ अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित हुए और खेले जाते रहे हैं. हिंदी, अंग्रेजी, मराठी, गुजराती, कन्नड़, मणिपुरी, असमी, पंजाबी भार्त और दुनिया की अनगिनत भाषाओं में उनके नाटक अनूदित हुए और खेले गए.
प्रसिद्ध कला और साहित्य समीक्षक चिन्मय गुहा ने कहा था, 'आज से सौ वर्ष बाद शायद इस बात पर बहस हो कि क्या बीसवीं और इक्कीसवीं सदी के संधि काल में, एक ही साथ तीन-तीन बादल सरकार हुए थे, जिनमें से एक ने सरस पर बौद्धक रूप से प्रखर संवादों से भरे, कॉमिक स्थितियों की बारीकियों पर अपनी पैनी नज़र साधे, बेहद प्रभावशाली हास्य नाटक लिखे थे, दूसरे, जिन्होंने समाज में हिंसा के, विश्व राजनीतिक खींचातानी के चलते युद्ध की काली परछाई के, परमाणु अस्त्रों के, आतंक के और समाज में बढ़ती आर्थिक असमानता के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ को अपने नाटकों में दर्ज किया था और तीसरे, जिन्होंने प्रेक्षागृहों के अंदर कैद मनोरंजन प्रधान रंगमंच को एक मुक्ताकाश के नीचे आम जनता तक पहुंचाने का सपना देखा था,'
जवाहरलाल नेहरू फैलोशिप, पद्म श्री, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और संगीत नाटक अकादमी फैलोशिप से सम्मानित बादल सरकार की कृति 'पगला घोड़ा' बांग्ला और हिंदी दोनों भाषाओं में अनेकानेक बार मंचस्थ हो चुकी है. बांग्ला में शम्भू मित्र (बहुरूपी, कलकत्ता) और हिंदी में श्यामानंद जालान (अनामिका, कलकत्ता), सत्यदेव दुबे (थियेटर यूनिट, बम्बई) तथा टी.पी. जैन (अभियान, दिल्ली) ने इसे प्रस्तुत किया है.
गाँव का निर्जन श्मशान, कुत्ते के रोने की आवाज, धू-धू करती चिता और शव को जलाने के लिए आए चार व्यक्ति- इन्हें लेकर इस नाटक का प्रारंभ होता है! हठात एक पांचवां व्यक्ति भी उपस्थित हो जाता है- जलती हुई चिता से उठकर आई लड़की, जिसने किसी का प्रेम न पाने की व्यथा को सहने में असमर्थ होकर आत्महत्या कर ली थी और जिसके शव को जलाने के लिए मोहल्ले के ये चार व्यक्ति उदारतापूर्वक राजी हो गए थे.
आत्महत्या करने वाली लड़की के जीवन की घटनाओं की चर्चा करते हुए एक-एक करके चारों अपने अतीत की घटनाओं की और उन्मुख होते हैं और उन लड़कियों के, उप घटनाओं के बारे में सोचने को बाध्य होते हैं जो उनके जीवन में आई थीं और जिनका दुखद अवसान उनके ही अन्याय-अविचार के कारण हुआ था. बादल बाबू के खुद के शब्दों में यह ‘मिष्टि प्रेमेर गल्प’ अर्थात ‘मधुर प्रेम-कहानी’ है!
बादल सरकार की जयंती पर साहित्य आजतक पर पढ़िए उनके नाटक 'पगला घोड़ा' के खास अंश:
पुस्तक अंशः 'पगला घोड़ा
[अचानक अंधकार भेदकर लड़की की हँसी सुनाई पड़ती है. कमरे के बाहर का अँधेरा हिस्सा आलोकित हो उठता है. लड़की के बाल खुले हैं, आँचल कमर में बँधा है. वह हँसे ही जा रही है. कमरे की रोशनी बुझ गई है, तीनों छाया जैसे दिख रहे हैं. वे तीनों स्थिर हैं- उनमें से किसी ने लड़की की हँसी नहीं सुनी है.]
लड़की : (हँसते-हँसते) मैं कौन हूँ? मैं क्या हूँ? मेरा किस्सा क्या है? तुम लोग नहीं जानते? तुम लोग कोई नहीं जानते? मैं कौन हूँ? मैं क्या हूँ? मेरा किस्सा क्या है?
[रोशनी कम होकर एकदम अँधेरा हो जाता है. लड़की का चेहरा, उसकी हँसी अंधकार में विलीन हो जाती है. कमरे में प्रकाश होता है. ऐसा लगता है जैसे बातचीत में कोई व्यवधान ही न पड़ा हो.]
सातू : मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा है. यह लड़की...
कार्तिक : लड़की का बहुत बड़ा किस्सा है सातू बाबू- बहुत बड़ा!
शशि : मुझे तो लड़की का कोई भी दोष नहीं लगता!
कार्तिक : लड़की का एकमात्र दोष यह था कि वह लड़की थी.
शशि : हाँ...आप ठीक कहते हैं...
सातू : आप लोग तो इस किस्से को और भी पेचीदा बनाए जा रहे हैं. लगता है, जैसे इसके पीछे कोई रहस्य है...
[कमरे में फिर अँधेरा. बाहर लड़की पर रोशनी.]
लड़की : किसकी जिंदगी में रहस्य नहीं है? और किस्सा? किसकी जिंदगी में किस्सा नहीं है? तुम? तुम लोग? तुम लोगों का कोई हिस्सा नहीं है? कोई रहस्य नहीं है? सब कह डालो न. कहकर जी हल्का कर डालो. देखोगे कि तुम सबका किस्सा एक जैसा ही है- सबका एक जैसा किस्सा मिलकर एकरूप हो जाएगा.
[खिलखिलाकर हँस पड़ती है. रोशनी कम होने लगती है.]
तुम लोगों का...हम लोगों का...सब किस्सा...मिलकर एकरूप हो...
[स्वर विलीन हो जाता है. कमरे में प्रकाश।]
शशि : किस्सा...हाँ, सो क्यों नहीं है?
कार्तिक : कोई बात हुए बिना मलिक बाबू यों ही विलायती बोतल देते? वैसे, शशि बाबू बोतल के लिए नहीं आए, यह सही है. हिमाद्रि की तो बात ही छोड़िए!
शशि : देखिए कार्तिक बाबू, मेरा भी कुछ स्वार्थ था तभी आया, यूँ ही नहीं. मेरे पास न तो हिमाद्रि की तरह आदर्श है और न सातू बाबू की तरह...
सातू : वाह, मैं तो आप लोगों की कम्पनी की खातिर आया हूँ. यह स्वार्थ नहीं है?
शशि : स्वार्थ तो है पर ऊँचे दर्जे का. मेरा स्वार्थ बहुत सीधा-सादा, साधारण-सा है. मलिक बाबू को राजी रखने से ट्रांसफर के झमेले से छुट्टी मिल सकती है. पोस्टऑफिस के बड़े अफसरों से उनकी खूब रब्त-जब्त है.
सातू : आप लोग तो इस तरह कह रहे हैं जैसे अपने-अपने स्वार्थ के लिए ही आए हों! स्वार्थ न होता तो ऐसे ही न आते!
कार्तिक : ऐसे ही? हँह...यह बाह्मन का बेटा तो हरगिज न आता.
सातू : आपके कहने का मतलब कि यदि कोई लड़की इस तरह मर जाती...ऐसी लड़की जिसका बाप के सिवाय और कोई न हो, और वह भी लकवा का शिकार होकर खाट पकड़े हो तो...
शशि : सातू बाबू...क्या हिमाद्रि की तरह आप पर भी आदर्श का भूत हो रहा है?...
[सातू हँस पड़ता है. हिमाद्रि का प्रवेश.]
सब ठीक है...?
हिमाद्रि : हाँ, अब कुछ देर आराम से निश्चिन्त हुआ जा सकता है.
शशि : बैठो-बैठो.
[बैठने के लिए बढ़ने पर बोतल-गिलास देखकर हिमाद्रि ठिठक जाता है. फिर बैठता है. कार्तिक शशि की ओर देखकर जरा-सा मुस्कुरा देता है.]
कार्तिक : क्या सातू बाबू, उसे खोलिएगा नहीं?
सातू : हाँ...हाँ, क्यों नहीं?
[बोतल खोलकर गिलास में ढालता है.]
हिमाद्रि बाबू, बुरा मत मानिएगा. सुना, आपको यह सब नहीं चलता.
हिमाद्रि : नहीं-नहीं, बुरा मानने की क्या बात है? मेरी...मेरी चिंता बिलकुल मत कीजिए...आप लोग...
शशि : मैं इतनी नहीं लूँगा.
सातू : इतनी कितनी है! शुरू करने से पहले ही ना-ना करने लगे. सोडा तो है नहीं, किसी को पानी चाहिए?
कार्तिक : जी नहीं. पानी मिलाकर मैं इसे चौपट नहीं करना चाहता.
सातू : शशि बाबू, आपको?
शशि : नहीं, नीट ही ठीक रहेगी.
सातू : वाह, सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे निकले! यह अच्छी बात है.
कार्तिक : हिमाद्रि, जरा-सा चखकर देखोगे?
हिमाद्रि : नहीं-नहीं...मुझे यह सब नहीं चलता....आप लोग लीजिए.
कार्तिक : हम लोग तो लेंगे ही. एक दिन तुम भी जरा चखकर देखते...
हिमाद्रि : नहीं, मुझे माफ कीजिए.
कार्तिक : डरो मत, तुम्हारे स्टूडेंट्स नहीं जान पाएँगे. और हेडमास्टर साहब को तो कहीं दूर-दूर तक पता नहीं चलेगा.
हिमाद्रि : नहीं, वह बात नहीं है.
शशि : (व्यंग्य से) तो फिर क्या बात है? प्रिंसिपुल का सवाल है?
[हिमाद्रि अचानक सिर उठाकर सीधे शशि की आँखों में देखता है.]
हिमाद्रि : प्रिंसिपुल भी नहीं शशि बाबू, असल में मुश्किल क्या है कि स्कूल टीचर को देखते के साथ आप लोग उसे सिद्धान्तों का पिटारा मान बैठते हैं.
शशि : अम्...हाँ...तुम कह तो ठीक ही रहे हो...
सातू : तो फिर जरा-सा चखने में क्या हर्ज है?
हिमाद्रि : हर्ज नहीं...डर है. स्कूल टीचर का कोई सिद्धान्त न भी हो तो भी उसे उसका खोल तो ओढ़ना ही पड़ता है. नहीं तो नौकरी चली जाए.
कार्तिक : तो यहाँ...इस एकांत में एक-दो घूँट लेने में क्या डर है?
हिमाद्रि : यह कौन कह सकता है कार्तिक दा कि एक-दो घूँट तक ही- इस एकांत तक ही बात खत्म हो जाएगी!
सातू : यह आप गलत सोच रहे हैं हिमाद्रि बाबू! एक दिन चखने से ही नशे की आदत नहीं पड़ जाती. यदि मन मजबूत हो तो...
हिमाद्रि : मेरा मन कितना मजबूत है, नहीं पता सातू बाबू. अपने को जितना कुछ जाना है उससे अपने-आप पर बहुत भरोसा नहीं होता.
कार्तिक : अच्छा, हम लोग इधर-उधर बहके नहीं जा रहे हैं?
हिमाद्रि : बहके जा रहे हैं? हूँ...
कार्तिक : देखो हिमाद्रि, मुँह पर कहना तो नहीं चाह रहा था पर सारा गाँव, बड़े-बूढ़े, लड़के-बच्चे, मास्टर सभी तुम्हारी इतनी तारीफ करते हैं कि...
हिमाद्रि : (हँसकर) कैसी तारीफ कार्तिक दा? मैं गणित अच्छा पढ़ाता हूँ, यही न?
कार्तिक : अरे नहीं, इससे बहुत ज्यादा. वह सब सुनकर क्या करोगे! पर हाँ, यह सही है कि जिसका मन मजबूत न हो उसे इतनी तारीफ नहीं मिलती.
हिमाद्रि : लोग किसी के बारे में कितना जानते हैं? भूल से वे जिसे मन की मजबूती मान बैठते हैं वह क्या है, जानते हैं? हठ- एक हठी आदमी का जबर्दस्त हठ. इसे मैं जितनी अच्छी तरह जानता हूँ उतना और कोई नहीं जान सकता.
[लड़की फिर हँस पड़ती है- उस पर रोशनी पड़ती है. कमरे का प्रकाश इस बार जलता ही रहता है.]
लड़की : यह हुई न बात! यही तो तुम्हारा किस्सा है...यही तुम्हारा रहस्य है...बोले जाओ...सब लोग...एक-एक आदमी का एक-एक किस्सा...एक-एक रहस्य. कौन किसका किस्सा जानता है? बोलो? कौन किसके बारे में जानता है?
हिमाद्रि : लीजिए, शुरू कीजिए आप लोग.
सातू : चीयर्स.
शशि : चीयर्स.
कार्तिक : यह क्या?
हिमाद्रि : (हँसकर) वाह कार्तिक दा, पीने से पहले चीयर्स किया जाता है, आप नहीं जानते?
कार्तिक : ना. मैं तो कहता हूँ- तारा तारा काली ब्रह्ममयी माँ।
[एक साथ बड़ा-सा घूँट लेकर कार्तिक मुख विकृत करता है.]
आ हा, क्या बात है विलायती की. जी जुड़ा गया.
शशि : जुड़ा गया नहीं, जल गया कहिए.
कार्तिक : एक ही बात है भाई, एक ही बात है.
लड़की : सच? जी जलना और जी जुड़ाना एक ही बात है? सच? सच कह रहे हो?
[पीछे की ओर उँगली से दिखलाते हुए]
तो धू-धू करती वह आग, जला रही है या जुड़ा रही है?
[लड़की पर पड़नेवाली रोशनी अचानक बुझ जाती है.]
शशि : और कितनी देर लगेगी, हिमाद्रि!
हिमाद्रि : ज्यादा-से-ज्यादा दो घंटा. आग खूब तेज जल रही है.
कार्तिक : हाँ, कम उम्र का मुर्दा है, जलने में देर नहीं लगेगी.
[अचानक एक कुत्ता जोरों से रोने लगता है. सातू बुरी तरह चौंक पड़ता है.]
कार्तिक : अरे सातू बाबू, कुत्ते की रुलाई सुनकर आप ऐसा चौंक क्यों पड़े?
सातू : (हल्की हँसी के साथ) कुत्ते की यह चीख मुझे बहुत बुरी लगती है, मुझसे कभी नहीं बर्दाश्त होती.
[खिड़की में लड़की का चेहरा दिखलाई पड़ता है.]
लड़की : कभी नहीं? सच?
शशि : हाँ, कुछ ऐसी आवाजें होती हैं जो बचपन से ही जाने क्यों...
सातू : (गम्भीर) नहीं, बचपन से नहीं. 'कभी मैंने ऐसे ही कह दिया था- हटाइए इसे.
[एक घूँट लेता है.]
लड़की : क्यों, हटाइए क्यों? बोलो न, अपनी कहानी बोलो न.
सातू : कार्तिक बाबू, पाँच काला तो खुला ही है, इन लोगों की काली झंडी नहीं खुलवाइएगा?
लड़की : नहीं कहोगे? अपनी कहानी नहीं कहोगे?
शशि : हाँ न. आओ तो हिमाद्रि. अभी सब काला बंद करके लाल करता हूँ.
[ताश बाँटा जाता है. लड़की खिड़की से हटकर दरवाज़े के पास आकर उत्सुकता से देखती है.]
शशि : बोलिए.
सातू : सोलह.
हिमाद्रि : पास.
कार्तिक : पास.
शशि : सत्रह.
सातू : मेरे.
शशि : अठारह.
सातू : पास.
[शशि रंग लगाता है. ताश बाँटकर खेल शुरू होता है. लड़की पास आकर झुककर एक आदमी का ताश देखने लगती है. फिर सामने की ओर आ जाती है.]
लड़की : (मुलायम स्वर में) साहब-बीबी. पेयर. साहब-बीबी पेयर. पेयर? ना...जोड़ा...? वह कविता थी न...मौसी सुनाया करती थीं...जोड़ा-जोड़ा...हाँ, याद आया-
आम का पत्ता जोड़ा-जोड़ा
आम का पत्ता जोड़ा-जोड़ा
मारा चाबुक दौड़ा घोड़ा.
छोड़ रास्ता खड़ी हो बीबी
आता है यह पगला घोड़ा.
[धीरे-धीरे करके आवाज तेज होती जाती है. मुट्ठी बँध जाती है- चेहरे पर वेदना का भाव उभर आता है.]
पगला घोड़ा. घोड़ा पगला गया है. बंदूक से उसे मार दिया गया है. आल राइट, वेरी गुड.
[अचानक मुँह दबाकर उसी कुत्ते की तरह चीत्कार कर उठती है.]
ना...आ...आ...आ...
सातू : ग्यारह-तेरह-सोलह. चलिए, काली झंडी हो गई.
[लड़की सामने एक ओर हट जाती है. उसकी नजर इन लोगों की ओर है. दर्शकों की ओर पीठ है जिस पर खुले बाल लहरा रहे हैं.]
काली झंडी.
[बोतल उठाकर]
कार्तिक बाबू, गिलास बढ़ाइए, आप भी शशि बाबू.
[लड़की घूमकर खड़ी होती है. खिलाड़ियों की ओर उँगली दिखाती हुई दर्शकों से कहती है :]
लड़की : ये दुख भुलाना चाह रहे हैं? शराब के नशे में?
[खिलखिलाकर हँस पड़ती है. हँसते-हँसते चली जाती है, पीठ पर बाल लहराते रहते हैं. सातू ताश बाँटता है.]
शशि : अब और नहीं. मन नहीं कर रहा है.
कार्तिक : क्यों साहब, हार गए तो रोने लगे!
शशि : (खड़े होते हुए) नहीं, हारने की बात नहीं है....अच्छा, क्या जीतने पर हर समय अच्छा ही लगता है.
सातू : वाह! जीतने पर अच्छा नहीं लगता?
शशि : नहीं! हर जीत अच्छी लगनेवाली नहीं भी हो सकती है.
सातू : जैसे?
शशि : जैसे? लीजिए, आपने तो मुश्किल में डाल दिया. अरे, कोई इतना नाप-तौलकर थोड़े ही यह बात कही थी. अच्छा, मान लीजिए किसी बात पर बीबी से आपकी खूब बहस हो गई.
सातू : (जोर से हँसते हुए.) बीबी से मेरी बहस? अरे शशि बाबू, आपको और कोई बीबी वाला नहीं मिला?
कार्तिक : क्यों, क्या आपने शादी नहीं की है?
सातू : ना, एकदम नहीं, एक बार भी नहीं. समय ही कहाँ मिला!
शशि : समय न मिलने के कारण ही ब्याह नहीं कर पाए?
सातू : लीजिए...इस बार आपने बात पकड़ ली. मैं तो यों ही...
कार्तिक : ब्याह करने की इच्छा कभी नहीं हुई?
सातू : इच्छा हो क्यों? ब्याह करके लोग जो कुछ पाते हैं वह मैं यदि बिना ब्याह किए ही पा जाऊँ तो? अच्छा इतना ही नहीं, दूसरे सब लोगों से अच्छा ही पा जाऊँ तो...
हिमाद्रि : सच, क्या ऐसा हो सकता है?
सातू : लगता है, हिमाद्रि बाबू को मेरी बात जँची नहीं.
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पुस्तकः पगला घोड़ा
लेखकः बादल सरकार
अनुवादः प्रतिभा अग्रवाल
विधाः नाटक
प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन
मूल्यः 125/- रुपए पेपरबैक
पृष्ठ संख्याः 120