टाइसन पदक, यूनेस्को का कलिंग पुरस्कार, 1965 में पद्मभूषण उपाधि और 2015 में साहित्य अकादमी पुरस्कार. इन पुरस्कारों से सम्मानित जयंत विष्णु नार्लीकर विज्ञान क्षेत्र के जानेमाने चेहरे हैं. 1938 में जन्मे जयंत ने बीएचयू से पढ़ाई, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी समेत कई बड़ी संस्थाओं से सम्मान और उसके बाद तक का सफर विज्ञान से जुड़े रहते हुए तय किया. जंयत को उनकी किताब वाइरस के लिए हाल ही में 2015 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. यहां पढ़िए जयंत की मशहूर किताब वाइरस के ऐसे अंश, जिसे पढ़ने के बाद आप वाइरस के खौफ को बेहतर समझ पाएंगे.
वाइरस किताब का एक अंश
कमरा नम्बर 153 से जगताप बाहर निकला तो उसके मन में चारों दिशाओं में दौड़ने वाले विचारों का मानो ट्रैफिक जाम हो गया था. एक विचार-शृंखला के आगे बढ़ते-बढ़ते दूसरी आड़े आ जाती थी. और इसकी वजह थी प्रधानमन्त्री के साथ हुई मन्त्रणा!
साउथ ब्लॉक से बाहर निकलते ही ठंडी हवा ने उसका स्वागत किया और उसके दिमाग को ठंडा कर दिया. उसने घड़ी देखी तो एक बज रहा था. उसे बम्बई की चार-पचास की फ्लाइट पकड़नी थी. बशर्ते वह सुबह के कुहरे की वजह से कैंसिल न हो गई हो! कार-पार्क में उसकी हरी गाड़ी खड़ी थी. उसके ड्राइवर सरदारजी अन्य ड्राइवरों से गपशप लड़ाकर समय बिता रहे थे लेकिन जगताप के बाहर निकलते ही तत्परता से हाजिर हो गए.
‘‘चलो पालम!’’ इन्दिरा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा-इतना लम्बा नाम लेने की बजाय दिल्लीवासी अभी पुराना नाम ही पसन्द करते थे.
‘‘हां जी...डोमेस्टिक पर?’’ सरदारजी ने पूछा.
‘‘हां, इंडियन एयरलाइन वाले टर्मिनल पर,’’ गाड़ी स्टार्ट होते-होते जगताप ने देखा कि अब मौसम सुधर रहा है. इंडिया गेट साफ-साफ दिखाई दे रहा था. पालम तो अब
खुल गया होगा. लेकिन विमान सेवाएं कुछ तो रद्द हो गई होंगी और कुछ घंटे-दो घंटे की देरी से चल रही होंगी. पर ट्रंक रूट होने के नाते बम्बई-दिल्ली विमान सेवाएं
बन्द तो नहीं होंगी.
कॉलेज के नोटिस बोर्ड पर परीक्षा के परिणाम घोषित होते हैं तो उन्हें देखते समय परीक्षार्थी का दिल धड़धड़ाता है. नारायण विनायक जगताप एक होशियार छात्र रहा था
जिसे अपनी कर्मठता पर सदा पूरा विश्वास रहा. इसलिए घोषित परिणामों में अपने नाम को खोजने में न तो उसे कठिनाई होती, न चिन्ता. पर वही जगताप एयरपोर्ट
पहुँचने पर सामने लगे विमान सेवाओं के निर्धारित कार्यक्रम को पढ़ने से कतराता था. पता नहीं कितने घंटे इन्तजार करना पड़े.
आज भी उसी धड़धड़ाते दिल से उसने काले बोर्ड पर चॉक से लिखे अक्षरों को पढ़ा और उसकी जान में जान आई. बम्बई जानेवाली फ्लाइट अभी तक तो समय पर थी.
‘‘क्यों जी, आपने बम्बई की उड़ान समय पर कैसे लगा दी? और सब उड़ानें तो देरी से चल रही हैं?’’ उसने कुछ मजाकिया स्वर में चेक-इन काउंटर पर पूछा.
काउंटरवाला सूखी मुस्कान से बोला, ‘‘भाई साहब, एयरक्राफ्ट तो देरी से आने वाला है. पर हमने बनारस जाने वाला विमान हथियाकर बम्बई को डाइवर्ट कर दिया. उस पर
हमारे मिनिस्टर जा रहे हैं न?’’
बहुत खूब! तो मिनिस्टर साहब ने बनारस की उड़ान ही हाइजैक कर ली. मन्त्रियों के साथ यात्रा करने के कुछ फायदे भी होते हैं. पर बेचारे बनारस जानेवालों का क्या
होगा? चलो! ऑल इज फेयर इन लव एंड एयर ट्रेवेल. ऐसा सोचते हुए जगताप सिक्योरिटी से गुजरकर डिपार्चर लाउंज की ओर निकला. वहाँ उसे उसके सवाल का जवाब
मिला.
‘‘हाय नाज्या! इधर कहां?’’ एक पुकार आई. उसे ‘नाज्या’ कहने वाले बहुत थोड़े मित्र थे, लम्बे अरसे के. उसने घूमकर देखा.
‘‘अजय! तुम इधर कैसे...क्या बंगलूर उड़ान की बाट जोह रहे हो?’’ अजय महाराणा से हाथ मिलाकर उसने पूछा.
‘‘नहीं जी, अभी दक्षिण अफ्रीका से लौट रहा हूं...वहां सेमिनार था. पर मुझे अपने पुराने भाई-बन्धुओं से मिलना था जो वहीं बस गए हैं. और उसकी रिपोर्ट मां को देने के
लिए कटक जा रहा हूं. दिवंगत पिताजी के यही अरमान थे जो मैंने पूरे किए. पर यह साली विमान सेवा चले तो!’’ उसने खीजकर कहा.
‘‘कब है तुम्हारी फ्लाइट?’’
‘‘कब थी यह पूछो भाई. पांच बजे निकलने वाली थी. सिक्योरिटी चेक भी हो चुका. बनारस होते हुए यह फ्लाइट भुवनेश्वर जाएगी. अब बता रहे हैं कि फ्लाइट रीशेड्यूल हो
गई. क्यों? कारण भगवान जाने!’’ अजय बोला.
कारण मैं जानता हूं, जगताप ने मन-ही-मन सोचा, पर प्रकट में कुछ नहीं कहा. अगर कारण जाहिर हो तो तहलका मच जाएगा. उसने कहा, ‘‘रीशेड्यूल; यह एक नया
शब्द इन बहादुरों ने खोज निकाला. पहले कहा करते थे ‘डिलेड’...विमान देरी से जाएगा. अब देर हुई, इस बात को भी स्वीकार नहीं करना चाहते. चलो कॉफी पिएं. तुम
मुझे दक्षिण अफ्रीका के किस्से सुनाओ.’’
लाउंज में कॉफी-मशीन थी. लेकिन ‘सेल्फ सर्विस’ के लिए भी मानव-शक्ति इस्तेमाल करने वाला भारत अनोखा देश है. जगताप ने पाँच-पाँच रुपए के दो टोकन खरीदे जिन्हें मशीन पर नियुक्त व्यक्ति ने मशीन में डालकर कॉफी के प्याले हाजिर किए. कॉफी चखकर महाराणा का मिजाज शान्त हुआ. वह बोला, ‘‘नाज्या! जब मौका मिले दक्षिण अफ्रीका अवश्य जाना. अभी संक्रमण की स्थिति से गुजरते उस देश में तो ताजगी और विविधता है वह शायद दस-बीस साल बाद न दिखाई दे...’’ ‘‘तो वहां के कुछ अनुभव तो सुनाओ! अभी समय है.’’ ‘‘नाज्या! डोंट रब इट इन भाई. समय तो काफी है. खैर! बहुत लम्बी दास्तान है...जैसा हमारे फिल्मवाले कहते हैं.’’ अजय अपनी दास्तान सुनाते-सुनाते मूड में आ गया. एक घंटा कैसे बीता, पता भी न चला.
एकाएक बम्बई की फ्लाइट की घोषणा ने दोनों को चौकन्ना कर दिया. अजय से हाथ मिलाकर जगताप उठा. गेट पर यात्रियों की कतार बन रही थी. एकाएक उसे एक बात याद आई. ‘‘अजय...तुम्हारे कई विवरणों में कम्प्यूटर बिगड़ने की बात आई. क्या इसके पीछे कोई साजिश है?’’ उसने पूछा.
‘‘नाज्या! मैं कहने ही वाला था पर बीच में यह डिपार्चर कॉल की घोषणा हो गई. खैर, संक्षेप में यही कि उस देश में कम्प्यूटराइजेशन तेजी से चल रहा है. पर मैं यह मानने को राजी नहीं कि कम्प्यूटर का मिजाज कभी-कभी बिगड़ जाता है और उस पर निर्भर कारोबार ठप्प हो जाते हैं, वैसी ही ये घटनाएँ भी थीं. सभी जगह वाइरस का अन्देशा था और यह वाइरस सोच-समझकर कम्प्यूटर नेटवर्क में छोड़ा गया है. मैं विशेषज्ञ नहीं हूँ पर कम्प्यूटर का काफी इस्तेमाल मैंने किया है. उसी आधार पर मैं कहूँगा कि इस नवोदित देश की व्यवस्था को बिगाड़ने के लिए जान-बूझकर चाल चली जा रही है. क्यों, चौंक क्यों गए?’’
जगताप ने अपने आपको संभाला क्योंकि अजय उसे आश्चर्य से घूर रहा था. अपने मन में दौड़ने वाले विचारों को संभालते हुए उसने गीयर बदला, ‘‘नहीं, एकाएक मुझे याद आई. क्या वहाँ जाने के लिए तुम्हें पीले बुखार का इंजेक्शन लेना पड़ा?’’ उसने पूछा. ‘‘नहीं तो,’’ अजय बोला. पर अभी उसके चेहरे पर कौतूहल था.
‘‘जब तुमने वाइरस की बात की तो मुझे पीले बुखार की याद आई. मैं सूई से हमेशा कतराता हूं.’’
‘‘अबे तुम्हारे पूर्वज मराठे तलवार चलाते थे और तुम सूई से घबराते हो?’’ हंसते हुए अजय ने विदा ली. लेकिन जगताप ने अभी उसका हाथ पकड़ रखा था. वह बोला,
‘‘पर उस कम्प्यूटर वाइरस के बारे में क्या नतीजा निकला? क्या वह किसी साजिश के तहत किया गया था? तुम्हें ऐसा क्यों लगा कि वह देश में अराजकता फैलाने के
इरादे से फैलाया गया?’’
‘‘यह एक सम्भावना मात्र है. अन्यथा इतनी अलग-अलग जगहों पर एक ही तरह के वाइरस के पाए जाने को हम क्या समझें?’’ अजय बोला.
‘‘कम्प्यूटर एकाउंट में घुसकर छेड़खानी करनेवाले हैकर्स तो काफी हैं...तुम्हारे पास कोई सबूत है कि इसके पीछे कोई तगड़ी साजिश है?’’
‘‘सबूत नहीं, पर जिस तरह काफी बातें वहां ऊंचे स्तर पर गुप्त रखी जा रही हैं उनकी बदौलत तो यही लगता है...अच्छा अब भागो तुम्हारी बस निकलने को है.’’
बोर्डिंग की सूचना फ्लैश हो रही थी. विमान कर्मचारी यात्रियों को घूर रहे थे. जगताप गेट की ओर झपटा.
विमान यथासमय उड़ान भर कर दस हजार मीटर ऊँचाई पर पहुंचा. सीट की पेटी खोलने की अनुमति की घोषणा हुई. पर जगताप अजय की दास्तान पर विचार कर रहा था. ‘‘काफी बातें वहां ऊंचे स्तर पर गुप्त रखी जा रही हैं...’’ अजय ने कहा था. उसके भाई राजीव की एक एम.पी. से काफी दोस्ती थी-ऐसा अजय ने कहा था. सम्भव है, वहीं से उसे पता चला हो. वैसे आज प्रधानमन्त्री ने सभी से यही कहा था. उसने गोपनीयता की शपथ ली थी. ‘‘...आज देश पर एक ऐसा संकट गुजरा है...’’ प्रधानमन्त्री के ये आरम्भिक शब्द उसे भूले नहीं थे. क्या अन्य देशों के ऐसे ही समाचार उन्हें ‘थ्रू ऑफिशियल चैनल’ मिले थे? सुबह का चर्चा-सत्र एक बार फिर उसके स्मरण-पटल से गुजरा.
देश पर संकट, वह किस प्रकार का?
पड़ोसी राष्ट्र के हमले का?
अन्दरूनी विघटनकारी तत्त्वों का?
आतंकवादियों का?
पर्याय तो कई थे. यदि अन्य देशों पर भी ऐसी ही गुजर रही है तो यह संकट केवल हमारा अपना नहीं है. पर जब तक बला हमारे सर पर है तब तक हमें उससे निपटना तो है. और तीनों सेना-प्रमुखों के अपने-अपने अनुभव, स्थिति कितनी नाजुक बन गई है इसकी याद दिलाते थे. उन्होंने जो किस्से सुनाए थे वे गहरी चिन्ता जगाने वाले थे क्योंकि आज के कम्प्यूटर युग में-जहाँ सभी क्षेत्रों में कम-अधिक तौर पर कार्यप्रणाली निश्चित करने और उस पर नियन्त्रण रखने का काम अब कम्प्यूटर करने लगे हैं-कम्प्यूटरों के माथे सनक जाने पर क्या उत्पात गुजर सकते हैं, इसका अनुमान भी बेहद चिन्ताजनक था. सेना-प्रमुखों के अनुभवों को देखते हुए लगता था कि कोई देश की सुरक्षा-प्रणाली को ही अपना लक्ष्य बना रहा था.
‘‘कम्प्यूटर फेल हो जाने से हमारे सन्देशों का सीमावर्ती क्षेत्रों से आदान-प्रदान ठप्प हो जाता है,’’ वायु सेनाधीश ने कहा था. स्थल और नौसेना प्रमुखों ने भी सहमति में
सिर हिलाए थे.
‘‘तो क्या अब हमें रात को चपातियाँ लेकर दौड़ने वाले सन्देशवाहकों पर निर्भर रहना पड़ेगा?’’ चिड़चिड़ाहट के साथ प्रधानमन्त्री बोले. उन्हें याद आ रहा था जॉन मास्टर्स
का उपन्यास ‘द नाइट रनर्स ऑफ बेंगाल’...1857 के स्वाधीनता संग्राम की पार्श्वभूमि पर लिखा हुआ. अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध रची साजिश की मन्त्रणाएं ऐसे दौड़नेवाले
सन्देशवाहक इधर-से-उधर पहुंचाते थे...चपातियों के माध्यम से.
जनरल बत्तरा सन्दर्भ समझ गए और बोले, ‘‘सर! वैसी बात नहीं. हम डेढ़ सौ साल के अतीत में नहीं जाने वाले. जब नई तकनीक-यह आधुनिक कम्प्यूटरचालित सन्देश
यन्त्रणा-इस्तेमाल होती है, तब कभी-न-कभी, कुछ-न-कुछ बिगड़ने की सम्भावना अवश्य रहती है. परन्तु अब स्थिति उन आरम्भिक दुर्घटनाओं से आगे बढ़ चुकी है.
कम्प्यूटर सनकने के पीछे कोई साजिश है.’’
‘‘हां सर! ये गलतियां हार्डवेयर की हैं या सॉफ्टवेयर की ये खोज निकालने की आवश्यकता है. हमारे विशेषज्ञ कहते हैं, पूरी कम्प्यूटर प्रणाली में वाइरस घुसा है.’’
‘‘वाइरस?’’ प्रधानमन्त्री ने चकित होकर पूछा.
‘‘जी, मैं इस बात को समझाता हूं,’’ प्रधानमन्त्री की ओर देखते हुए प्रोफेसर विनोद शर्मा बीच में ही टपक पड़े. किसी भी चर्चा-सभा में अधिक देर बिना बोले वे रह नहीं
सकते थे. प्रधानमन्त्री उनकी इस आदत से अच्दी तरह परिचित थे. कुछ मुस्कुराकर उन्होंने अनुमति दी और शर्माजी ने अपनी वाक्गाड़ी ऊंचे गीयर में चढ़ाई.
‘‘जैसे प्राणियों के शरीर में होनेवाली प्राकृतिक जैविक क्रियाओं में अड़ंगा डालनेवाले रोग-जीवाणु यानी वाइरस हुआ करते हैं, वैसे ही कम्प्यूटर की तर्क-विशुद्ध कार्य-प्रणाली में
अड़ंगा डालनेवाले कम्प्यूटर प्रोग्राम होते हैं, इन्हें भी वाइरस ही कहते हैं. इन प्रोग्राम यानी कम्प्यूटर को दिए गए आज्ञा-पत्र के माध्यम से कम्प्यूटर की सुचारु कार्यप्रणाली
बदली जा सकती है.
‘‘वाइरस घुसाने की शुरुआत 1980-90 के दशक में हुई. इसी दशक में कम्प्यूटरों की लोकप्रियता तेजी से बढ़ी. बड़े कार्यालयों और वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं की दीवारों को
फाँदकर कम्प्यूटर जन सामान्य के घर में जा घुसा. अपने दैनिक कार्यों में भी यह बन्दा काम आ सकता है, इसकी जानकारी जनमानस में फैलने लगी और ऐसे कार्यों के
लिए कम्प्यूटर को दिए जानेवाले प्रोग्राम या आज्ञापत्र लिखने का नया माहौल उठ खड़ा हुआ. जैसे इन आज्ञापत्रों ने अपनी उपयुक्तता की वजह से ऊँची कीमत हासिल
करनी शुरू की वैसे ही कॉपीराइट के प्रश्न भी उठ खड़े हुए. गायक की कैसेट बाजार में आती है तो उसे कॉपी करके बेचना कॉपीराइट एक्ट का उल्लंघन माना जाता है.
‘‘कम्प्यूटर आज्ञा-पत्र भी कॉपी करके बेचनेवाले बहादुरों पर काबू पाने के लिए मूल आज्ञा-पत्र लेखकों ने वाइरस का इस्तेमाल किया. जो गैरकानूनी ढंग से आज्ञा-पत्र कॉपी करते थे वे एक वाइरस को भी उस आज्ञा-पत्र में घुसा पाते थे! और यह वाइरस उनके कम्प्यूटर के अन्य आज्ञा-पत्रों में भी फैल जाता था. संक्षेप में यह गैरकानूनी इस्तेमाल की सजा होती थी. उलटे यदि रॉयल्टी की कीमत चुकाकर वह कम्प्यूटर प्रोग्राम इस्तेमाल होता था तो उसमें वाइरस अपना प्रभाव नहीं दिखा पाता. ‘‘पर यह बात यहीं तक सीमित नहीं रही. जब एक पर्सनल कम्प्यूटर में वाइरस घुस जाता है तो वह उसमें डाली डिस्केट या फ्लॉपी डिस्क पर भी आ जाता है. फिर यदि उस डिस्केट का इस्तेमाल किसी अन्य कम्प्यूटर पर हो जाए तो वाइरस वहां भी घुस जाता है. यह संसर्गजन्य रोग शायद अब नेटवर्क के माध्यम से और भी दूर पहुंच जाता है क्योंकि नेटवर्क में दूर के कम्प्यूटर भी एक श्रृंखला में जुड़ जाते हैं.’’
‘‘प्रोफेसर शर्मा! आपने अपने सरल ढंग से मूल प्रश्न पर प्रकाश तो डाला किन्तु एडमिरल साहब यह जानना चाहते हैं कि उन्हें पीड़ित करनेवाला वाइरस आया कहां से,’’ प्रधानमन्त्री के सौम्य शब्दों में निहित हल्का-सा व्यंग्य डॉ. रामचन्द्रन की काकदृष्टि से नहीं छूटा! जगताप की ओर देखकर उन्होंने हल्की मुस्कुराहट के साथ आंखें मिचकाईं.
वास्तव में जगताप शर्मा और रामचन्द्रन-दोनों की कद्र करता था. लेकिन कर्मठ होते हुए भी दोनों शासकीय माहौल में एक-दूसरे को नीचा दिखाने को क्यों उत्सुक रहते हैं, यह वह अब तक नहीं समझ सका था. पहले राजदरबार में दो प्रतिभाशाली संगीतकारों, साहित्यकारों, चित्रकारों में होड़ एवं ईर्ष्या का माहौल रहा करता था...क्या वैज्ञानिक भी ऐसी मानवीय भावनाओं से परे नहीं रह सकते? उसने स्वयं इन दोनों हस्तियों से मित्रता निभाने की नीति अपनाई थी, लेकिन उसका फल उसे, दुर्भाग्य से, शीघ्र ही मिलने वाला था.
प्रधानमन्त्री ने आगे कहा, ‘‘...वाइरस के बारे में मैं कम्प्यूटर क्षेत्र के जाने-माने विशेषज्ञ सब्योदा से टिप्पणी सुनना चाहता हूं.’’
‘‘सब्योदा,’’ यानी सब्यसाची बाबू या सब्यसाची मुखोपाध्याय सामान्य चर्चा में, गपशप में अपनी मितभाषिता के लिए मशहूर थे. परा यदि कोई उन्हें अपना मत सुनाने का
आह्वान करे तो स्पष्ट बोलने से कतराते नहीं थे. प्रधानमन्त्रीजी के पूछने पर उन्होंने कहा: ‘‘प्रधानमंत्रीजी, मैं पहली बार इस वाइरस के बारे में सुन रहा हूं. सेनाध्यक्षों की
बातें सुनकर यह तो सिद्ध है कि यह कोई अनूठा वाइरस है जिसकी जांच करना निहायत जरूरी है. जैसा शर्माजी ने स्पष्ट किया, वाइरस फ्लॉपी या डिस्केट के माध्यम से
फैलता है. पर यहां हमें नेटवर्क पर से फैलनेवाली महामारी पर काबू करना है. हमें पहले यह देखना है कि घुसे हुए वाइरस को बाहर कैसे निकालें. फिर यह जानना है कि
यह पट्ठा-टॉप सिक्योरिटी के बावजूद अन्दर घुसा कैसे, ताकि ऐसा फिर न होने पाए. तीसरी बात यह खोजने की है कि किस व्यक्ति या संस्थान ने या देश ने हमारे साथ
यह छेड़खानी की है.’’
सब्योदा इतना कहकर चुप हुए. उन जैसे मितभाषी के लिए यह एक लम्बा भाषण था. जगताप ने कुछ कहने की अनुमति के लिए हाथ उठाया. प्रधानमन्त्रीजी का ध्यान उसकी ओर आकर्षित हुआ. और बोलने को उत्सुक शर्माजी को दबाकर उन्होंने जगताप से बोलने को कहा. ‘‘मैं यही कहना चाहूँगा कि यदि यह वाइरस नेटवर्क पर फैला है तो इलेक्ट्रॉनिक मेल के मार्ग से उसके आने की सम्भावना है. आज ई-मेल के इतने नेटवर्क हैं जो देश को जोड़ चुके हैं. क्या आप उच्चस्तरीय और गोपनीय मार्ग से यह जानकारी हासिल कर सकते हैं कि अन्य देशों में भी ऐसी कठिनाइयां महसूस की जा रही हैं...शायद वे भी हमारी तरह ही पीड़ित हैं और गोपनीयता की वजह से हमें उनकी जानकारी न हो,’’ नारायण बोला.
‘‘नारायण की सलाह विचारणीय है,’’ रामचन्द्रन बोले, ‘‘दुर्भाग्य से कई राष्ट्रों को राष्ट्र-विघातक आतंकवादियों का सामना करना पड़ रहा है. कारण अलग-अलग हो सकते हैं. पर ऐसे माहौल में कोई अनीति से पैसे कमानेवाला अन्तर्राष्ट्रीय संगठन वाइरस बनाकर यह गुस्ताखी कर रहा होगा. हम तो जानते हैं कि छिपे तौर पर गैरकानूनी ढंग से शस्त्रास्त्रों का आयात-निर्यात होता है. संभव है, उसी में अब वाइरस भी आ गया हो!’’
‘‘प्रोफेसर रामचन्द्रन लगता है जेम्स बॉण्ड या डॉ. फू मांचू की कहानियाँ पढ़कर आए होंगे,’’ शर्माजी बोले. कुछ देर पहले रामचन्द्रन ने आंखें मिचकाई थीं, यह बात शर्माजी की नजर से नहीं छिपी थी. शर्माजी की टिप्पणी पर हंसी-ठहाकों के प्रवाह में जगताप की सूचना कहीं से कहीं बह गई. अब बम्बई जाते समय उस सूचना पर पुनर्विचार करते-करते जगताप को उसमें काफी मजबूती दिखाई दी. अजय महाराणा के दक्षिण अफ्रीकी अनुभव उसकी पुष्टि करते थे. कम्प्यूटर बन्द हो गए या सनक गए...आज यहां, कल वहां...आज कम पैमाने पर तो कल अधिक व्यापक रूप से...क्या ये घटनाएँ अलग-अलग केवल इत्तेफाक से हो रही थीं या उनके पीछे किसी शक्ति की प्रेरणा थी...किसी अनिष्ट शक्ति की? आतंकवाद भी ऐसे ही फैलता है और कभी-कभी जब उसका व्यापक रूप सामने आता है तो काफी देर हो चुकी होती है. क्या आज की ये स्फुट घटनाएँ कल विश्व को नेस्तनाबूद करने की पूर्व सूचनाएं तो नहीं?
विमान में जलपान देना आरम्भ हो गया था. यात्री खाने-पीने, गपशप लड़ाने या कुछ पढ़ने में लगे थे. वातावरण इतना साधारण था कि जगताप को लगा कि उसके विचार
सत्य-सृष्टि को छोड़ कहीं भटक तो नहीं रहे? खैर, अब विमान दिल्ली से बम्बई जा रहा था, तो उसे भी दिल्ली के विचार छोड़ बम्बई की बातों पर सोचना उचित था.
जिस मसले के लिए वह बम्बई जा रहा था, वह भी काफी रंगीला साबित होनेवाला था. जगताप ने अपने ब्रीफकेस से सी.पी. स्नो लिखित ‘मास्टर्स’ उपन्यास निकाला.
उन्नीसवीं सदी की समाप्ति और बीसवीं सदी के शुरू होने पर केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के एक कॉलेज के ‘मास्टर’ यानी प्रिंसिपल का चुनाव कैसे हुआ, इन्हीं घटनाओं पर
आधारित वह उपन्यास था. शायद वह जिस काम के लिए जा रहा था, वह भी ऐसा ही नाट्यमय हो!
क्योंकि वह एक ‘सर्च कमिटी’ का सदस्य था जिसे बम्बई के
मशहूर विज्ञान संस्थान के निदेशक का चुनाव करना था.
(राजकमल प्रकाशन से साभार)