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साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित रमेशचंद्र शाह की किताब विनायक के 2 यादगार अंश

यहां पढ़िए 2015 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित डॉ. रमेशचंद्र शाह की किताब विनायक के दो दिलचस्प अंश.

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Ramesh Chandra Shah
Ramesh Chandra Shah

साल 2015 का साहित्य अकादमी पुरस्कार मशहूर साहित्यकार डॉ. रमेशचंद्र शाह को मिला है. गोबरगणेश, किस्सा गुश्लाम, पूर्वापर, चाक पर गणेश और विनायक जैसे तमाम उपन्यासों से अपनी पहचान बना चुके शाह का जन्म 1937 में उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा में हुआ था. शाह ने कई मशहूर काव्य, कहानी संग्रह, यात्रा वृतांत भी लिखे हैं. शाह को उनके विनायक उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया है. यहां पढ़िए अपने शानदार लेखन की वजह कई पुरस्कारों से सम्मानित रमेशचंद्र शाह के उपन्यास विनायक के दो दिलचस्प अंश.

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विनायक का पहला अंश: सच बोल रहे हो विनायक?

बम्बई के जिस कॉलेज में विनायक पिछले कोई दस-बारह बरसों से पढ़ा रहा है उसका एक बड़ा लाभ यह है कि उसे जो कमरा मिला है विभागाध्यक्ष की हैसियत से, उसकी खिड़की पर समुद्र लहराता है. वह चाहे तो घंटों पर्वताकार लहरों को उठते और पछाड़ खाकर गिरते देख सकता है. यह एक ऐसा सदाबहार सेंसेशन है जिसे वह और किसी सुख से नहीं बदलना चाहेगा. शायद अपने पहाड़ी लैंडस्केप से भी नहीं. अरे, जब समुद्र की उत्ताल तरंगों में ही पल-प्रतिपल नई-नई पर्वत-शृंखलाओं को उभरते देखने का नित्य-नूतन रोमांच सहज सुलभ है तो पहाड़ जाने की भी क्या जरुरत है! परंतु... यह सुख छिन जाएगा, तब? तब क्या? बारह बरस कम नहीं होते. बारह बरसों से वह यह सुख भोग रहा है. और...अभी तो पूरे तीन वर्ष रिटायरमेंट को बाकी हैं. क्या पता, दो वर्ष और एक्सटेंशन मिल जाए. अब तो उसकी खासी साख बन गई है. झंडा जो गाड़कर आया है विदेश में.

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वेल्श में समुद्र और पर्वत, दोनों का सान्निध्य एक साथ सुलभ था. पूरा एक साल मानो सपने सा गुजर गया. सपना आखिर सपना है - सपने को बहुत लम्बा भी नहीं खिंचना चाहिए. विनायक चाहता, तो साल-छह माह और बढ़ा सकता था. मार्गरेट - प्यारी मार्गरेट - तो मानकर ही चल रही थी कि विनायक इतना बढ़िया और उसके मन का प्रोजेक्ट - जिससे खुद वह भी दिलोजान से जुड़ी थी विनायक के ही कारण - कभी बीच में छोड़कर नहीं जाएगा. नहीं छोड़ता - विनायक का बस चलता, तो. मगर क्या सब कुछ आपके अपने हाथ में होता है?

हेडशिप का भी तो चक्कर था. तुरंत ज्वाइन नहीं करता तो कोई दूसरा आकर इस कुर्सी को हथिया लेता और यह असह्य होता विनायक के लिए. पदोन्नति तो उसे चाहिए ही चाहिए. विभागाध्यक्ष की कुर्सी और यह कमरा, जिस पर जाने कब से उसकी आँख लगी हुई थी. पंड्याजी के रिटायर होते ही उसकी बारी लगनी तय थी. किंतु तभी, जब वह तुरंत ज्वाइन कर ले. कॉलेज की प्रबंध समिति कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी. छह-छह माह करके दो बार छुट्टी बढ़ा दी, इसका मतलब यह तो नहीं कि विभाग उसके इंतजार में बैठा रहेगा? तिस पर विदेश में मौज मार रहे आदमी का क्या भरोसा! लौटे, न भी लौटे. गोया, कॉलेज न हुआ, विदेश छलांग लगाने के लिए एक स्प्रिंगबोर्ड हो गया.

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आसान नहीं था विनायक के लिए अपने उस स्वर्ग से वापस धरती पर लौट आने का निर्णय लेना. किंतु...और करता क्या! सत्तावन वर्ष की उम्र में अब कौन उसके लिए अनंत संभावनाओं के द्वार खुलने वाले हैं. काश, उसके पास सिर्फ़ दस बरस और होते! यानी, यह जो निमंत्रण मिला विदेश का, वह दस बरस पहले ही मिल गया होता. तब विनायक बड़े इत्मीनान से इस पदोन्नति को ही क्यों, कुछ भी ठुकरा सकता. जोखिम उठाए बिना - एडवेंचर के बिना - ज़िंदगी का लुत्फ ही क्या! यूं तब जोखि़म जैसा भी उसमें क्या था? समय ही समय होता उसके पास- कैसी भी चुनौतियों से निपटने को. अब क्या! फंस गए अब तो बुरी तरह. मालती बम्बई छोड़ने से रही, बम्बई आकर ही तो उसे अपनी असली रुझान का पता चला. ऐसी अपनी जन्मभूमि से भी ज्यादा गरीयसी कर्मभूमि को छोड़कर मालती वेल्श क्या, कहीं भी जाने को क्योंकर तैयार होगी! रहे दोनों लड़के, तो वे दोनों अपना भविष्य बनाने को इसी माह यहाँ से विदेश की उड़ान भरने को तैयार बैठे हैं. मां यहां अकेली रहें और पिताजी वेल्श-विहार करें यह उन्हें कैसे सुहाएगा? क्यों होनी चाहिए आपकी कैसी भी लालसाएं या जरुरतें भी, अब इस स्टेज पर? जब आपके पास बाकी बची उम्र पर आपकी औलाद का हक़् पहले है, आपका बाद में.

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मालती जीवन-संगिनी है. जीवन-संगिनी से सहानुभूति न हो, यह कैसे संभव है? मगर क्या विनायक भी उतनी ही, बल्कि मालती की तुलना में कुछ अधिक ही, सहानुभूति का पात्र नहीं? विनायक खुद को अकसर ‘लेट स्टार्टर’ कहा करता है अकसर, तो क्या यूं ही? सब कुछ विलम्ब से ही घटित हुआ उसके जीवन में. समय पर सब कुछ होता चलता तो उसकी महत्त्वाकांक्षा ख़ुद उसके घर के लोगों को अनर्गल लगती? मालती तो कई बार यह बात दुहरा चुकी है कि रिटायरमेंट की दहलीज पर खड़े आदमी को अपने लिए नहीं, अपने बच्चों के लिए जीना चाहिए. उन्हीं के बारे में सोचना चाहिए. उन्हीं की सफलता में अपनी सफलता और उन्हीं की ख़ुशी में अपनी ख़ुशी देखनी चाहिए. - क्यों साहब, क्यों? आपने क्या अपना यह आश्रम बच्चों की ख़ुशी के लिए खोला है?...तो फिर? ‘पर उपदेश कुसल बहुतेरे’....

मार्गरेट...हां, हां, मार्गरेट तक ने उस दिन क्या कह दिया था जिससे विनायक का बल्ब एकदम ‘फ्यूज’ हो गया था. ‘एम्बिशन कम्ज व्हेन अर्ली फोर्स इज स्पेंट’ (महत्त्वाकांक्षा तब जागती है जब प्राणऊर्जा का असली सोता सूख चुका होता है). उसने तो यों ही सहज भाव से जो उसे सूझा या याद आ गया उस प्रसंग में अनायास, उसी को व्यक्त भर किया था. विनायक कहीं से भी लक्ष्य नहीं था उस सूक्ति का; मगर पता नहीं क्यों विनायक को वह बात चुभ गई थी. बेचारी मार्गरेट को तो इसका भान ही नहीं था रत्ती भर, कि अनजाने में यूं ही, उसके मुंह से निकल गया जुमला विनायक को कितने गहरे विषाद में डुबो गया. मगर क्यों? ऐसा क्या था उस जुमले में? उसका कार्टून सरीखा बनाता हुआ?

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समुद्र आज कुछ ज़्यादा ही उफान पर है. तभी तो विनायक अपनी आँख ही नहीं हटा पा रहा उससे. उत्ताल तरंगों पर तरंगें चढ़ती-फिसलती...और फिर उत्तरोत्तर ऊंची होती जातीं पर्वतमालाओं सी. वाक़ई समुद्र आज कुछ अजीब ही मूड में है. ऐसे में ही विनायक के भीतर सोया पड़ा वह लैंडस्केप जाग जाता है जो उसे मानो किसी पूर्वजन्म की सुधि की तरह आकुल-व्याकुल कर देता है. जाने कैसे कब से एक कविता की पंक्ति उसके भीतर रह-रहकर घुमड़ रही है - ‘क्यों हाहाकार स्वरों में/वेदना असीम गरजती.’

आज से पहले तो यह पंक्ति कभी इस तरह विनायक को याद नहीं आई थी. तब फिर आज ही क्यों याद आ रही है? विनायक के कान बहुत चौकन्ने हैं. अभी-अभी उसे जो आहट मिली, वह पहले भी मिल चुकी है. पर उसे अनसुना किया है उसने. परसादीलाल चपरासी कम-से-कम तीन बार चक्कर काटता हुआ कमरे में झांक चुका है. और, साहब हैं कि हिलते ही नहीं अपनी जगह से. ये उठें किसी तरह, तो वह भी कमरे पर ताला मारे. छुट्टी हो उसकी. और सारे विभाग तो कभी के बंद हो चुके. एक यही अपने साहब, पता नहीं क्यों, दफ़्तर से चिपके ही रहते हैं. घर जाना अच्छा नहीं लगता क्या इन्हें? बाकी सारे प्रोफ़ेसरों को घर पहुंचने की जल्दी रहती है, जैसे कि परसादीलाल को भी रहती है. तो फिर एक इन्हीं को क्यों नहीं? चक्कर क्या है?

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सच में...यह सवाल तो परसादी के अलावा भी कइयों के मन में उठता होगा. कि, आखिर क्या कारण है कि प्रोफ़ेसर विनायक को घर पहुंचने की जल्दी नहीं? क्यों वे सबसे पहले अपने विभाग में दाखिल होते और सबसे बाद में ही उससे बाहर आते दिखते हैं? क्या यह बेचारे परसादी के साथ ज़्यादती नहीं है? काहे की ज़्यादती? ‘टेन टु फाइव’ ड्यूटी है उसकी. अभी तो साढ़े चार भी नहीं बजे. क्यों लगाता है चक्कर खामखाह? कामचोर कहीं का. वैसे यह स्कूल नहीं कॉलेज है. यहां ‘टेन टु फाइव’ कोई भी नहीं रुकता. तीन-चार घंटों से ज़्यादा किसी का काम नहीं पढ़ाने का. अनिवार्य नहीं है किसी भी व्याख्याता या प्रोफेसर के लिए अपने लेक्चर्स निबटा चुकने के बाद भी कॉलेज में बने रहना.

परंतु, अगर प्रोफेसर विनायक को अपने घर से कहीं ज़्यादा अपने काम करने की जगह में ही सुकून मिलता है, मनचाहा एकांत भी, तो इसमें किसी को क्यों परेशानी हो! बम्बई के इस सबसे टॉप कॉलेज से विनायक का घर - यानी फ़्लैट - मुश्किल से तीनेक किलोमीटर के फ़ासले पर होगा. कितना कहा मालती ने, ड्राइविंग नहीं सीखी तो नहीं सीखी. यह भी कोई बात हुई? लाखों उससे भी ज़्यादा उम्रदराज़ लोग हाँक लेते हैं गाड़ी. और नहीं सीखा तो नहीं सीखा. गाड़ी चलाना सीखना कब से बड़ा भारी पराक्रम हो गया?

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पर...बुरा तो लगता ही है कभी-कभी, कि लाखों लोग जो काम आंख मूंदकर कर सकते हैं, वह भी तुम्हारे लिए असंभव पुरुषार्थ क्यों हो गया? मालती चला लेती है गाड़ी और विनायक नहीं चला सकता - क्या यह डूब मरने जैसी बात नहीं? भास्कर चलाता है, सुदर्शन चलाता है. जितने भी विनायक के कलीग्स हैं सभी तो चलाते हैं. एक विनायक ही है जो गाड़ी नहीं चला सकता. क्यों भला? मार्गरेट मजे-मजे में सिखा देती. सिखा ही रही थी. सीख लिया होता उसी से, तो कितना अच्छा होता! उसका सिखाया विनायक भूल नहीं सकता था. वह भी एक यादगार चीज होती - जब-जब गाड़ी चलाता, बगल में बैठी उसे सिखाती मार्गरेट दीखती महसूस होती. कितना अच्छा होता! चकित हो जाते यहां घर के लोग सबके सब - उसे अचानक इतने आत्मविश्वासपूर्ण लाघव के साथ गाड़ी चलाते देखकर. तब वह निस्संकोच बताता उन्हें, कि कैसे किसने सिखाया.

मार्गरेट के साथ विनायक को क्यों हमेशा ऐसा लगता रहा जैसे उसमें शक्ति-ही-शक्ति है, जैसे उसकी उम्र भी बीस बरस घट गई है. क्यों लगता था ऐसा? उम्र का अहसास ही जैसे एकबारगी बिला गया था. और वही क्यों, घर-परिवार की चिंताएं, असुरक्षा और अपराध-बोध की गहरे घर कर चुकीं ग्रंथियां...सब की सब कहां बिला गई थीं अपने-आप? मानो विनायक यहां पढ़ाने नहीं, पढ़ने आया हो - सब कुछ सही और सहज बना देने वाले प्रेम का पाठ. नए सिरे से. एक तरह से क्या वह पुनर्जन्म जैसा ही नहीं था उसका? पुनर्जन्म या पुनरुज्जीवन और कहते किसे हैं? मेधावी महिलाओं की यूं अपने यहां भी कहां कोई कमी है - विनायक के विभाग में ही नहीं हैं क्या एक से एक?...मगर, मार्गरेट की तो बात ही निराली थी. इतने गहन गाम्भीर्य के भीतर इतनी उत्ताल तरंगें भी हो सकती हैं - कौन कह सकता था! कुछ लोगों की असलियत का पता बहुत धीरे-धीरे और बाद में चलता है, जब संपर्क उत्तरोत्तर प्रगाढ़ होता चलता है और भावना के धरातल पर निकटता स्थापित हो जाती है. तभी ऐसे व्यक्तित्व अपनी असली रंगत में आते हैं. शान्तम् भी तो ऐसी ही थी. नहीं, नहीं!

तुलना करना व्यर्थ है, अनर्गल है. इस संसार में कोई भी किसी और जैसा नहीं. हर व्यक्ति विलक्षण है, अद्वितीय है. यहाँ कोई किसी का ‘सब्स्टीट्यूट’ नहीं बन सकता. शान्तम् शान्तम् थी; मार्गरेट मार्गरेट है. फिर भी...जाने क्या बात है कि विनायक के भीतर अकसर ही दोनों की छवियां, मुद्राएं, हरकतें एक-दूसरे के साथ गड्डमड्ड होने लगती हैं. बरबस, अनायास. जबकि...क्या लेना-देना है एक का दूसरे से! कहाँ कुछ भी कॉमन था दोनों के बीच? परिस्थिति, परिवेश, स्वभाव...सभी कुछ तो अलग था.

पता ही नहीं चला, कब किनारे खड़े धूप में नहाते-नहाते नदी अपने अदृश्य वेग से ही गहरे पानी के भीतर खींच ले गई...कब उस तेज़ बहाव में पाँव उखड़ गए. नहीं!...उखड़ते-उखड़ते भी पाँव रोप ही दिए थे मँझधार में. नदी को चिंता नहीं थी बेशक; मगर, तैरने वाले को तो थी. सच? सच बोल रहे हो विनायक?...या कि, यह महज़ घटना घट चुकने के बाद की बुद्धिमत्ता बघार रहे हो? पश्चाद्बुद्धि! अरे, इस मामले में सभी तो पश्चाद्बुद्धि ही होते हैं. तुम क्या दुनिया से न्यारे हो? कौन है जो अपने को औरों से अलग विशिष्ट-विलक्षण नहीं समझता? मगर...हैरानी की बात तो है ही. आखि़र क्यों विनायक के साथ ही ऐसी घटनाएं घटती होंगी?

कहां कोई गुंजाइश थी अब उम्र के इस मोड़ पर यह सब देखने-भोगने की. पर, क्यों नहीं? हम क्या जानते हैं, कितना जानते हैं अपने आपको और दुनिया को? सब कुछ क्या अपने ही हाथ में होता है? घटना-चक्र भी क्या हमारे घुमाए घूमता है? फिर भी, इतना तो सभी जानते हैं, मानते भी हैं कि विनायक कोई उच्छृंखल स्वैराचारी नहीं, एक ज़िम्मेदार पति और पिता है. साथ ही एक आदर्श अध्यापक और खोजी विद्वान् की भी ख्याति उसने कमाई है तो यूं ही नहीं कमा ली. फिर...अपनी युवावस्था में जो एक बार ऐसे जानलेवा भंवर में फंस चुका हो, और फंसकर मरणासन्न जैसी हालत भुगतने के बाद उस भंवर से साबुत उबर भी आया हो, वह क्या अब इस वृद्धावस्था की दहलीज़ पर, जानते-बूझते अपने को फिर से वैसे ही एक और भंवर के हवाले हो जाने देगा? नहीं! कदापि नहीं; किसी हालत में नहीं.

क्यों विनायक के साथ ही ऐसा होता है कि जो भी स्त्री उसके घनिष्ठ संपर्क में आती है, वही उस पर छा जाना चाहती है, उसके होशोहवास उड़ा देती है? जिस निश्शंक गहरे विश्वास का पात्र वह ख़ुद अपने को कभी नहीं पाता, वैसे अंधे-अतलान्त विश्वास का पात्र वह कैसे क्यों बन जाता है स्त्रियों के लिए? और वह भी असामान्य रूप से बुद्धिमती और व्यक्तित्ववान् स्त्रियों के लिए. निस्संदेह खुद उसी के वेदन-तंत्र में कोई ऐसी जगह होगी - एक बेहद स्नायविक और सुकुमार जगह, जहां पर रन्ध्र फोड़कर स्त्री उसके भीतर दाखिल हो जाती है. उसके मन-प्राण को वशीभूत कर लेती है. इसमें उसका क्या दोष है? दोष तो विनायक का ही हुआ न! कि वह उसी जगह वेध्य और वध्य है, निरस्त्र भी, जहाँ उसे सर्वाधिक आत्मजयी और सजग-सावधान होना चाहिए. क्योंकि यह वध्यता, यह ‘वल्नरेबिलिटी’ ही तो उसकी प्राण-ऊर्जा और भाव-ऊर्जा का अक्षय स्रोत है, जो दूसरे की भी वैसी ही प्राण-ऊर्जा और भाव-ऊर्जा को चुम्बक की तरह अपने वृत्त में खींच लेता है.

विनायक को अपनी इस दुर्बलता का अहसास ही न हो, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता. पिछले पच्चीस-तीस वर्षों के दौरान क्या ऐसे प्रलोभन-प्रसंग उसके जीवन में आए ही नहीं? आए ही; तो फिर विनायक कैसे उनसे हर बार बाहर निकल आता रहा? इसी बूते ना, कि सारी कमज़ोरियों के बावज़ूद उसके भीतर एक आदर्शवादी पैठा हुआ है जो अपने दाम्पत्य को कवच की तरह ओढ़े रहता है! और, यह क्या सहज नहीं था - ऐसा होना? आखिर विनायक ने विवाह भी तो प्रेमविवाह की ही शर्तों पर किया था. अब यूं तो प्रेमविवाह भी अधिकतर तो असफल ही होते देखे हैं ख़ुद विनायक ने. दूर क्यों जाएँ अपने ही विभाग के रेड्डी को ही ले लो....मगर, विनायक को ऐसे मामलों से सहानुभूति नहीं होती. अरे...तुम ही न थे, जिसने सच्चा प्रेम करने का दम भरा था! तो अब उसे निबाहने की जिम्मेदारी किसकी है - तुम्हारी ही नहीं तो? यह तो अपनी ही पराजय स्वीकार करना है - अपने ही विवेक, अपनी ही भाविक सामर्थ्य को ख़ुद अपने ही सामने निहायत कच्चा और अविश्वसनीय साबित कर देना है. अपनी ही बनाई कसौटी पर बुरी तरह फेल हो जाना है. कैसे कोई आदमी इतनी बड़ी हार क़बूल कर लेता है अपने आप के सामने, यह विनायक की समझ से बाहर है. अरे, जब तुम पहले दाँव में ही चित्त हो गए तो दूसरा-तीसरा दाँव लगाकर भी क्या कर लोगे? यह मनुष्य-जीवन क्या जुआड़ी का दांव है?

इससे बड़ी आत्म-प्रवंचना और क्या होगी कि तुम जिस स्त्री को अपनी बनाने के लिए आकाश-पाताल एक किए हुए थे, उसे सचमुच पाकर भी उसके साथ नहीं निभा सके; और अब, उससे पिंड छुड़ाकर नए सिरे से फिर वही चक्कर चलाना चाहते हो - इसी दुराशा में, कि इस बार सब ठीक हो जाएगा. खाक ठीक हो जाएगा! दाम्पत्य कोई प्रयोगशाला है क्या बायलॉजी या केमिस्ट्री की? बेशक, विनायक की यह राय प्रेमविवाह को लेकर बनी है; विवाह-मात्र को लेकर नहीं. हालांकि उसका आदर्शवादी संस्कार तो यही कहता है कि जैसे तुम जिम्मेदार नहीं, वैसे ही, जो औरत तुम्हारे गले बांध दी गई, वह कहाँ से, कैसे जिम्मेदार ठहराई जा सकती है?

तुम अकेले कैसे पल्ला झाड़ के अलग हो सकते हो?...तो भी, जहां पहले से खुदी खाई निरंतर और-और चौड़ी ही होती जानी है. ऐसे अनमेल विवाह का नरक भुगतते रहने से तो बेहतर है, अलग ही हो जाओ. इतना विनायक मान लेगा. मगर, प्रेम विवाह के मामले में कहीं कोई समझौता नहीं करेगा. अरे, तुम्हें एक-दूसरे को देखने-परखने का भरपूर अवसर मिला. बच्चे नहीं थे तुम; खासे सयाने और पढ़े-लिखे थे. यह तुम्हारा पूरे होशोहवास में लिया गया निर्णय था और उसका भी. अब तुम दोनों में कोई भी उसे निबाहने की ज़िम्मेदारी से नहीं कतरा सकता. ठीक है, सब कुछ तत्काल उजागर नहीं हो जाता. कई सारे कोने होते हैं - क्या पुरुष और क्या स्त्री के भी स्वभाव और व्यक्तित्व के - जिनका पता शुरू से नहीं चलता... धीरे-धीरे ही चलता है - जब वे तीखे कोने आपको बुरी तरह गड़ने लगते हैं. मगर इस सबके लिए तो आदमी को तैयार रहना ही चाहिए. और, जहाँ दोनों के बीच एक तीसरा - यानी बच्चा - आ जाए, वहां तो फिर सवाल ही नहीं उठता अलग होने का. वैसा सोचना ही अपराध है - अक्षम्य अपराध उस नन्ही जीवात्मा के प्रति, जिसने तुम सरीखे नालायको को चुना इस दुनिया में उतरने के लिए.


विनायक किताब का दिलचस्प अंश- ‘सेक्स ऑन द माइंड एंड...’

मालती और शकुंतला को गाड़ी में बिठाके तीनों जने लौट रहे हैं रानीखेत को. अभी अंधेरा तो नहीं घिरा, मगर हेडलाइट जला दी है. उतरने में तीन घंटे लगे थे तो उतना ही वक्त चढ़ने में भी लगेगा ही. बल्कि कुछ ज़्यादा ही. ‘‘बीनू! मुझे अभी तक समझ में नहीं आया, तुम्हारी मालती जी को लौटने की इतनी जल्दी क्या थी?’’


‘‘संस्था चलाती हैं भाई. कोई इंग्लिश डिपार्टमेंट थोड़े है जो मेरे बिना भी चलता रहेगा.’’
‘‘त्रिभुवन आपकी सहधर्मिणी को लेकर परेशान हैं और मैं आपकी सहकर्मिणी को लेकर.’’ - विभा कहती है. ‘‘मुझे तो उसके संग-साथ की जैसे लत ही पड़ गई थी. ऐसा मैंने आज तक किसी के साथ महसूस नहीं किया. समझ में नहीं आता मैं उसके बिना रहूंगी कैसे? भाई साहब, मालती जी तो, चलो, मान लिया नहीं रुक सकती थी; मगर शकुंतला की तो अभी काफ़ी छुट्टी बाक़ी थी. आपने रोक क्यों नहीं लिया उसे?’’
‘‘अरे, मुझे क्या पता था आपको उसके साथ की इतनी लत लग गई है.’’ - विनायक बोला. ‘‘आपको मुझे पहले ही यह बताना था. मैं रोक लेता उसे.’’
‘‘रहने दीजिए...’’ - विभा के चेहरे पर हलकी सी शरारत है. ‘‘सहधर्मिणी पर तो आपका ज़ोर नहीं चलता; सहकर्मिणी पर कैसे चल जाता?’’
‘‘दोनों बातें बिलकुल अलग-अलग धरातलों की है विभा?’’ - त्रिभुवन बोला. ‘‘उन्हें इस तरह नहीं जोड़ा जा सकता.’’
‘‘मैं तो सोच रही थी कितना भाग्यशाली होगा वह पुरुष, जो ऐसी स्त्री का पति है,’’ - विभा अभी भी अपनी ही धुन में थी. ‘‘वह क्यों नहीं आया साथ में?’’
‘‘बदक़िस्मत है कम्बख्त!’’ - विनायक कहता है. ‘‘जो रहस्य इतने घोल-मेल के बाद भी नहीं खुला, उसे अब खोल के क्यों मूड खराब किया जाय विभा का!’’
‘‘आइ हैव नेवर सीन माइ वाइफ फॉलिंग इन लव विद ऐनीबडी लाइक दैट,’’ - त्रिभुवन कहता है. ‘‘थैंक गॉड शी इज़ अ वुमन, ऐंड नॉट अ डैम्ड मेल...’’
‘‘तुम्हें कैसे पता?’’ - विनायक चुहल के मूड में आ गया है. ‘‘सुना नहीं तुमने, जो अपने पुरखे कह गए? ‘स्त्रियश्चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं दैवो न जानाति कुतो मनुष्यः’....’’
‘‘अर्थ बताओ, अर्थ,’’ - त्रिभुवन कहता है. ‘‘संस्कृत मैंने बस उतनी ही पढ़ी है जितनी पीताम्बर दत्त जी ने सातवें दरजे में पढ़ाई थी. और वह भी मैं भूल गया.’’
विनायक अर्थ समझा रहा है श्लोक का. . ‘‘डैम इट,’’ - त्रिभुवन कहता है. ‘‘नीरद चौधुरी ने ठीक ही लिखा है हम हिन्दुओं के बारे में....’’
‘‘क्या लिखा है, मैं भी तो सुनूं जरा.’’ विनायक चौंक गया है. ‘‘नीरद चौधुरी यहां कहां से आ टपका.’’
‘‘नीरद कहता है - ‘सेक्स ऑन द माइंड ऐंड फियर इन द हार्ट’.... मेरा ख्याल है यह एक ख़ासी दिलचस्प और सटीक टिप्पणी है हम हिंदुओं पर, ऐज अ व्होल. तुम क्या सोचते हो?’’


‘‘नीरद चौधुरी इज अ सिनिक,’’ - विनायक जड़ता है. ‘‘यू कैन एन्ज्वाय हिज़ राइटिंग़ विदाउट हैविंग टु टेक हिम सीरियसली...ही डज़ हैव एन इंटरेस्टिंग माइंड एंड ही डज़ राइट वेल. बट दैट डज़ंट मीन ही इज़ वाइज़ और सेंसिबिल टू.’’
‘‘व्हॉट डू यू मीन?’’ - त्रिभुवन बीच में टोक देता है. ‘‘तुम तो लिटरेचर के ही मर्मज्ञ हो. क्या तुम यह कहना चाहते हो कि लेखकों का असली सरोकार और असली प्रेरणा सत्य की खोज करना या सच बोलना नहीं है?’’
‘‘है क्यों नहीं, अवश्य है. मगर लेखक भी तो कई तरह के होते हैं.’’
‘‘तो, नीरद चौधुरी तुम्हारे हिसाब से किस तरह का लेखक है?’’
‘‘इंटेलैक्चुअल, सेरीब्रल, थ्योरेटिकल. बड़ी दूर की कौड़ी लाके सबको चौंकाने वाला. कुछ लोग - जिनमें लेखक भी शामिल हैं. ऐसे होते हैं जो न अपने साथ रह पाते हैं, न अपने सांस्कृतिक परिवेश के साथ. दोनों जगह वे अपने को मिसफिट पाते हैं. वे अपने जीवन-संसार का कोई ऐसा अर्थ नहीं ढूंढ़ पाते जो उनको स्वस्थ और मुक्त कर सके; वे न तो अपनी संस्कृति के साथ मेल बिठा पाते हैं, न परिस्थिति के साथ. तो वे एक तरह के स्नायुभंग के कगार पर स्वयं को खड़ा पाते हैं. सोचते हैं कि वे सोचते हैं इसीलिए हैं. तो सोच-सोच के वे अपने होने को ‘जस्टिफाई’ करना चाहते हैं. ख़ुद अपनी तथा औरों की निगाह में. इसलिए वे एक ज़ोरदार थ्योरी गढ़ना चाहते हैं जिसमें सारी असंगतियां संगत ठहराई जा सकें.’’


‘‘पर...भाई साहब, इसमें बेईमानी या झूठ क्या है? अगर कोई स्वभाव से इंटेलैक्चुअल है तो, वह अपने अनुभव को इंटेलैक्चुअली ही तो देखेगा, समस्याओं को इंटेलैक्चुअली ही तो सुलझाने की कोशिश करेगा. आपको इससे इतनी शिकायत क्यों है?’’ - विभा टोकती है - ‘‘आप क्या खुद भी इंटेलैक्चुअलों की ही बिरादरी में नहीं आएंगे?’’ विनायक कुछ क्षण चुप रहता है. मुश्किल में डाल दिया है विभा ने. पूछ रही है कि थियरी गढ़ने से, इंटेलैक्चुअलिज़्म से, अतिबुद्धिवाद से आपके इस उग्र विरोध की जड़ में क्या है?

‘‘विभा! बहुत मुश्किल है इसका जवाब देना. मैं समझता हूं. इंटेलैक्चुअल होना एक बात है, जीवन को, संसार को, मनुष्य को अपने विचार की कोटियों में बाँध के रिड्यूस करके यह मान लेना कि यही सत्य है, परमार्थ है, बिलकुल दूसरी बात है. देकार्त कहता है - ‘मैं सोचता हूं. इसलिए मैं हूं.’ बहुत प्रसिद्ध वाक्य है उसका. मेरी समझ में यह बड़ी भारी भूल है उसकी. और यही सारी मुसीबतों की जड़ है. ‘सच यह है कि मैं हूं; इसलिए मैं सोचता हूं.’ सोचना एक फंक्शन मात्र है; जबकि होना एक फैक्ट है. हमें फैक्ट को पकड़कर चलना चाहिए, न कि फंक्शन को.’’
‘‘क्या तुम एक्जिस्टेंशियलिस्ट हो? मुझे कुछ पता नहीं इस बारे में. सुनी-सुनाई कह रहा हूं.- त्रिभुवन कहता है.

‘‘पता नहीं यार, क्या हूं? दर्शनशास्त्र में मेरी न तो कोई गति है, न रुचि ही, उस तरह. मेरी तो बुद्धि ही कुछ ऐसी बनी है कि मुझे लिटरेचर का प्रमाण ही ज्यादा प्रामाणिक लगता है, तुम्हारे दर्शनशास्त्री के तर्कों की तुलना में. मैं यह भी समझता हूं कि वैस्टर्न फ़िलॉसफ़ी एक अंधी गली में फंस गई है. उसके लिए अब आगे कोई राह नहीं है. मगर, पश्चिम का जो लिटरेचर है, उसमें बड़ी जान है. दर्शन का मेरी समझ से अगर कोई महत्त्व है तो उसके लिए अपने ही दार्शनिकों और उससे भी ज़्यादा संतों, भक्त कवियों आदि को देखना पड़ेगा. नीरद चौधुरी इतिहास का सीरियस अध्येता ज़रूर है: भारत का इतिहास उसे - जैसे कि वी.एस. नायपॉल को भी - बहुत दुखद और ग्लानिजनक लगता है. उससे उसका आत्मबिंब आहत होता है, खंडित होता है. तो उसकी सारी समस्या इस सेल्फ़-इमेज़ को सहेजने-सँवारने की है. इसी की ख़ातिर वह इतिहास पढ़ता है और अपने मनमाने अर्थ उसमें से निकालने के लिए उसे एक थियरी में रिड्यूस करता है. नायपॉल एक क्रिएटिव राइटर की तरह देखता है अपने औपनिवेशिक अनुभव को, ऐतिहासिक मजहबों के इतिहास को भी. हालाँकि जिस तरह वह इस्लाम को ‘इक्जामिन’ करता है, उस तरह ईसाइयत को क्यों नही करता? ख़ैर, चलो छोड़ो...इसको. बात बहक जाएगी और यह उपयुक्त अवसर भी नहीं है ऐसी बातों के लिए.’’

‘‘फिर भी क्या यह आश्चर्य की बात नहीं कि इतने दिनों में कभी भी ऐसी बातों की नौबत नहीं आई, अभी आई, इस गाड़ी में सफर करते हुए.’’ - विभा कहती है - ‘‘पर, भाई साहब, आपकी यह ‘सोचने’ और ‘होने’ के फ़र्क़ की बात मुझे बहुत पते की लग रही है. एक्जिस्टेंशलिज़्म क्या होता है, मुझे इसका कोई इल्म नहीं. जहां तक मैंने सुना है, उसे दर्शनशास्त्री लोग दर्शन नहीं मानते; लिटरेचर जैसा ही मानते हैं. यानी, कि हंसी उड़ाते हैं उसकी. आपकी बातों से मेरे मन में एक सवाल उठ रहा है. और वह यह, कि अगर ‘होना’ ही बेसिक बात है, सोचना सेकंडरी, तो ‘होने’ का अनुभव और ज्ञान ही सच्चे जीवन-दर्शन को जन्म दे सकता है; न कि सोचना. जो कि जिसे आप थियरी या ‘सिस्टम-बिल्डिंग’ कह रहे हैं, उसी की ओर ले जा सकता है. तो, भाई साहब, क्या आपको ऐसा नहीं लगता, कि ये जो योगी और ज्ञानी कहलाते हैं - जो आध्यात्मिक क्षेत्र के लोग होते हैं, वे ही सत्य के ज़्यादा निकट होते हैं, न कि तथाकथित वैज्ञानिक तथा तरह-तरह के फल्सफों वाले सिस्टम बिल्डर्स?’’

विनायक का मन हुआ चिल्ला पड़े - ‘‘शाबाश विभा, यह हुई कुछ बात - मैं इसी तरफ़ आ रहा था. कहाँ थी अभी तक आप देवीजी!’’...बमुश्किल उसने अपने को रोका और कहा - ‘‘मैं आपसे सहमत हूं विभा.’’.फिर वह त्रिभुवन की ओर मुखातिब हुआ और बोला, ‘‘त्रिभुवन, तुम कहां नीरद चौधुरी के चक्कर में पडे़ हो? वह बेचारा ऐंग्लोफिल तुम्हें क्या दे देगा? तुम तो विभा से ही दीक्षा ले लो.’’ ‘‘चक्करों की कुछ न पूछिए भाई साहब!’’ - विभा ने तुरंत बात का रुख़ ही पलट दिया. बोली - ‘‘अब जैसे आपके चंदू भाई हैं, वे गायत्री-परिवार के चक्कर में पड़े हैं. लच्छू भैया हर महीने एक बार यहाँ जो परमहंस योगानंद का ‘योगदा’ आश्रम है द्वाराहाट में, वहां का चक्कर लगाते हैं. यह आदमी नाम का जानवर सिर्फ़ जीने से संतुष्ट नहीं. जीने का कोई मतलब भी ढूंढ़ने के चक्कर में पड़े बिना, उसका गुज़ारा नहीं. तो अपने-अपने ढंग से कई लोग यह मतलब ढूंढ़ते और निकालते रहे हैं. हम कैसे यह कहें कि इसी का हल सही है, उसका गलत है?’’

‘‘विभा, धर्म और अध्यात्म की बात अलग है. फिलहाल हम साहित्य की ही बात तक सीमित रहें जिसका हमें थोड़ा बहुत अनुभव है. मैं त्रिभुवन से कह रहा था कि कुछ लेखक एक उम्र तक हमें बहुत मोहते हैं, हम उनकी चमकीली राइटिंग़ से प्रभावित होते हैं. पर वे हमारे साथ ‘ग्रो’ नहीं कर पाते. हमीं उन्हें ‘आउटग्रो’ कर जाते हैं. नीरद बाबू ऐसे ही लेखक हैं.’’ ‘‘बीनू, तुम तो बात को खामखाह खींचे दे रहे हो?’’ - त्रिभुवन खीझ गया. ‘‘एक वाक्य भर मैंने नीरद चौधुरी का कोट किया जिसमें कुुछ दम नज़र आता है. वह कोई विवेकानंद या अरविंद पर टिप्पणी नहीं कर रहा है. औसत हिंदू चरित्र के बारे में पिछले दो हज़ार वर्षों के इतिहास का जो आकलन उसका है, उसकी जो छवि उसके मन में बनी है उसे भर जता रहा है. बल्कि, मैं तो समझता हूं - नीरद बाबू - हिंदू सभ्यता के निंदक भी उस तरह नहीं, प्रशंसक ही हैं: किंतु सिर्फ उसके आत्म- विश्वासपूर्ण दौर के. वे अगर यूरोफिल हैं तो डंके की चोट पर हैं: उसे छुपाते तो नहीं वे. तुम्हें आनंदकुमार स्वामी से भी चिढ़ है क्या?’’

‘‘क्या बात कर रहे हो? दोनों की क्या तुलना है?’’ - त्रिभुवन बोला.
‘‘ठीक है. मगर याद करो कुमारस्वामी कहते हैं - हमें भारतीय आत्मा चाहिए और यूरोपियन शरीर यानी प्राण-ऊर्जा भी. अर्थात् समन्वय दोनों का. ज़िंदगी भर वे भारतीय दर्शन की व्याख्या में लगे रहे और जबर्दस्त अंतर्दृष्टि भी दिखाई. मगर रहने, काम करने को उन्होंने यूरोप ही चुना. क्यों चुना? बताओ. इतना ही नहीं; पत्नियाँ तक चारों उन्होंने विदेशी ही ढूंढ़ी’’
‘‘मुझे कभी-कभी लगता है, हम लोग यों भी चीन जापान जैसे एशियाई देशों की तुलना में यूरोप के अधिक निकट हैं. क्या आपको ऐसा नहीं लगता?’’ - विभा ने सहसा सवाल उछाल दिया.


विनायक चौंक गया. उसे विभा से ऐसे स्मार्ट जुमले की अपेक्षा न थी. एकाएक उसे कोई जवाब नहीं सूझा. पर जवाब तो देना ही पड़ेगा.
‘‘हो सकता है, आप ठीक हों. मगर यह तो हिस्टोरिकल कंडीशनिंग हुई. दो सौ साल हम उनके ग़ुलाम रहे. पूरा शिक्षातंत्र, पोलिटिकल सिस्टम, प्रशासन तंत्र हमारा उन्हीं से उधार लिया हुआ है. भाषा तक हमारी अपनी नहीं. अंग्रेज़ी में ही हमारे बुद्धिजीवी सोचते-लिखते हैं. ऐसे में यूरोप तो हमें निकट लगेगा ही. चीनी-जापानी क्यों लगेंगे जिन्होंने सारा यूरोपियन इल्म और टेक्नोलॉजी भी अपनी भाषाओं के माध्यम से सीखी है.’’


‘‘आइ थिंक वी आर टॉकिंग ऐट क्रॉस पर्पजेज.’’ त्रिभुवन ने टोका. ‘‘विभा औपनिवेशिक ज़ेहनियत की बात नहीं कर रही. वह ‘कल्चरल एफिनिटी’ की बात कर रही है. मामला वैसे भी इकतरफ़ा नहीं है. यूरोप ने भी भारत से - वाया अरब ही सही - बहुत कुछ लिया और पचाया. मगर तुम्हीं बताओ, चीन-जापान से भारत ने लिया क्या? दिया ज़रूर - पर क्या? बौद्धधर्म दिया, जिसे उन्होंने अपने ही हिसाब से ढाला. माध्यम की बात तुम्हारी ठीक है. मगर - हो सकता है मैं ग़लत होऊं - पर - मुझे तो ऐसा लगता है कि सारे नक़लचीपन और गड़बड़ी के बावज़ूद परंपरागत भारत अभी भी काफ़ी कुछ बचा हुआ है; जबकि जापान-चीन का सचमुच यूरोपीकरण हो गया है. ‘कल्चरल रिवोल्यूशन’ भी चीन का - तथाकथित - क्या था आखि़र? यूरोप की देन कम्युनिज़्म का ही एक ज़्यादा बर्बर संस्करण ही नहीं तो? कम्युनिस्ट हो जाना यूरोप की ग़ुलामी से छुटकारा पा लेना नहीं है. बल्कि और कसके उसमें बँध जाना है. लोहिया ने क्या कहा था - जरा याद करो.’’
विनायक ठठाकर हँस पड़ा. ‘‘मगर त्रिभुवन, तुम तो ख़ुद ही ‘यूरोफिल’ हो. तुम्हें चीन और जापान का अमरीकीकरण या कम्युनिस्टीकरण क्यों अखर रहा है?’’ ‘‘बात पटरी से उतर रही हे बाश्शाओ...!’’ विभा अचानक बोल पड़ी. ‘‘तुम दोनों ही अब पीनक में हो. मुझे बिलकुल मज़ा नहीं आया तुम्हारे ‘डिस्कशन’ में. वास्तव में...मैं तो अभी इस ‘जुदाई’ से ही नहीं उबर पा रही हूं. बहुत ख़ाली-ख़ाली लग रहा है मुझे. भाई साहब, आपने इस तरह जाने क्यों दिया इन दोनों को?’’

विनायक ने एक ठंडी सांस छोड़ी.
‘‘स्त्री को जितना स्त्री समझ सकती है, पुरुष कभी नहीं. आप दोनों के बीच मुझे ‘कम्युनिकेशन गैप’ लगा. मैं ग़लत कह रही हूं.’’ - अचानक विभा बोल पड़ी.
अंधेरे में विनायक का चेहरा विभा को नहीं दीख रहा. दीखता तो उसमें उसे खिसियाहट और खिझलाहट दोनों नजर आतीं.
इतने में त्रिभुवन बोल पड़ा - ‘‘डार्लिंग, समटाइम्स यू सरप्राइज़ ईवन मी विद योर विज्डम.’’
‘‘वेल...समटाइम्ज इज सर्टेनली बेटर दैन नैवर,’’ विभा ने भी नहले पर दहला जड़ा.
‘‘यू मीन आइ नैवर डेविएट इंटु सेंस?’’ - त्रिभुवन ने भी जड़ ही दिया.


विभा मुस्कराती हुई चुप रही. विनायक कुछ बोलने को हुआ. पर हकलाकर रह गया. नींद और नशे के मारे उसकी हालत खराब थी.
‘‘यू कैन स्लीप ऑन माइ शोल्डर्ज...बोथ ऑफ़ यू,’’ - त्रिभुवन बोला. ‘‘आइ कैन बीयर बोथ ऑफ़ यू.’’
‘‘दैट्ज़ द वाइजेस्ट स्टेटमैंट यू ऐवर मेड,’’ - विनायक तुतलाया और इत्मीनान से ब्रिगेडियर के कंधे पर लद गया. उधर विभा ने भी अपना सिर उसके दूसरे कंधे पर टिका दिया.


‘‘सो जाओ. अभी पूरे डेढ़ घंटे का सफर बाक़ी है.’’ - त्रिभुवन बोला. यों ऊँघ का झोंका उसे भी आ रहा था. शायद इसीलिए, पूरी तरह चैतन्य दीखने के लिए वह बीच-बीच में गाने की तरह...‘सेक्स ऑन द माइंड ऐंड फियर इन द हार्ट’...गुनगुनाने लगता था. विनायक इससे मन-ही-मन कुढ़ रहा था. उसने भी नीरद के ‘ऐंटीडोट’ की तरह टैगोर का गाना चालू कर दिया-‘व्हैर द माइंड इज़ विदाउट फियर, ऐंड द हेड हैल्ड हाइ...’ पर उसे जाने क्या हुआ - गाना (कविता) ख़त्म होने से पहले ही वह सिसकने लगा.

विभा चौंककर उठ बैठी सीधे. ‘‘क्या हुआ भाई साहब, आपकी तबीयत तो ठीक है? विभा का स्पर्श अपने सिर पर महसूस करते हुए विनायक भी सीधा हो गया....‘‘ओह! कुछ नहीं विभा’’ - वह एक क्षण सम्हलने की चेष्टा में रुका रहा. फिर बोला - ‘‘सब इसका दोष है. देखो मुझे चिढ़ाने के लिए कब से नीरद चौधुरी की माला जपे जा रहा है. तो मैंने भी उसका जवाब निकाल दिया.’’


‘‘ख़ाक़ जवाब!’’ - त्रिभुवन जाने किस मूड में बोल गया. ‘‘टैगोर तो नीरद बाबू के भी हीरो ही रहे. वो उसके ऐंटीडोट कैसे हो गए?’’
‘‘तुम नहीं समझोगे त्रिभुवन! विभा, मेरी मदद करो. इस त्रिभुवन से पूछो - किस तरह लड़कपन के दिनों में मैंने ‘भारतमाता ग्रामवासिनी’ की ट्यून बनाई थी. मगर जब भी गाता, मुझे रुलाई छूटने लगती. वैसा ही कुछ आज मेरे साथ अभी यह टैगोर की कविता कर रही है. मैं अपने लिए नहीं रोता विभा; मैं अपने देश के लिए रोता हूं.टैल मी विभा! प्लीज़ टेल मी दि ट्रथ...ऐम आइ इंडल्जिंग इन फॉल्स सेंटीमैंटेलिटी?...टेल मी, टैल मी त्रिभुवन, विभा!...यू आर माइ बैस्ट फ्रेंड्स.’’...उसका गला फिर से रुंधने लगा.

‘कम ऑन , माइ डियर...’’ त्रिभुवन उसका कंधा थपथपाते हुए बोला.
विनायक को अपने ऊपर झेंप सी महसूस हुई. यह क्या हो रहा है उसको? इस तरह रोना...वह भी विभा की प्रेजेंस में ! क्या सोच रही होगी वह! कि देखो हाल इनका. यही हैं हमारे बुद्धिजीवी! रोतल, सेंटीमेंटल!’’


उसने गला खंखारा. बोला - ‘‘डू यू नो त्रिभुवन!...मुझे मेरे पिताजी ने सिखाया था बचपन में...कि जब भी तुम्हें डर लगे अँधेरे में,...तुम ‘हनुमान चालीसा’ जपना शुरू कर देना. मुझे लगा...तू वैसा ही जाप नीरद चौधुरी का कर रहा है.’’
विनायक के इस जुमले पर त्रिभुवन का ड्राइवर किशनसिंह हँसते-हँसते बेहाल हो गया. ‘‘सम्हल के रे किसनुवा!’’ - त्रिभुवन बोला - ‘‘नहीं रुक रही है हंसी, तो पहले गाड़ी किनारे खड़ी कर दे और जी भर के हंस ले. नहीं तो,...चल, तू उठ वहाँ से. मैं चलाता हूं गाड़ी!’’
‘‘नहीं...नहीं साब,’’ - किसन बोला. ‘‘बिनैक साब तो भौत ही मज़ा लगाते हैं.’’


गाड़ी अंधेरे में धीरे-धीरे चढ़ाई पर रेंग रही थी. तीनों जन अब चुपचाप खामोश अपने में ही डूबे हुए थे. ड्राइवर किशनसिंह को यह सन्नाटा अखर रहा था. बोला - ‘‘साब - आप लोग तो बिलकुल सुन्न हो गए हैं. कुछ बातचीत करते रहिए ना. गाड़ी चलाने में अच्छा रहता है.’’
त्रिभुवन-विभा को इस पर हंसी आनी ही थी. इतने में विनायक ने फिर से सिसकना शुरू कर दिया. ‘‘क्या कर रहा है यार? क्या हो गया आज तुझे?’’ - त्रिभुवन ने डपटा तो वह ‘सॉरी त्रिभुवन, सॉरी विभा’...कहता हुआ सम्हल गया. फिर...उसकी भर्राई सी आवाज उस सन्नाटे में अजीब ढंग से गूंजने लगी.


‘‘तुम ठीक कह रहे थे त्रिभुवन!...यही है फ़िलहाल हमारा राष्ट्रीय चरित्र...यही... सेक्स ऑन द माइंड ऐंड फियर इन द हार्ट’.... यही है त्रिभू...यही है. वो नहीं, जिसका सपना श्री अरविंद ने दिखाया था, गाँधी ने दिखाया था. टैगोर ने दिखाया था....‘व्हैर द माइंड इज़ विदाउट फियर...ऐंड द हेड हेल्ड हाइ.’ कहां है वह निर्भयता? और कहाँ है वह स्वाभिमान? मुझे शर्म आती है त्रिभु...आइ ऐम अशेम्ड ऑफ अवर इंटेलिजेन्सिया. दे हैव बिटेªेड एवरीथिंग. एवरी ड्रीम ऑफ़ अवर ग्रेट मैन...वी आर स्लेव्ज़ त्रिभु - वी आर एप्स. वी आर अटरली अनवर्दी ऑफ़ अवर हेरिटेज...त्रिभू! ऑफ़कोर्स आइ डोंट लाइक योर नीरद चौधुरी. आइ डोंट लाइक ईवन योर अमर्त्य सेन...ऐंड आइ हेट अवर डेमागौग्ज़, अवर सो कॉल्ड इंटेलैक्चुअल्ज़...दे आर एप्स, दे आर मियर शैडो - माइंड्स त्रिभु. लैट अस डू समथिंग अबाउट इट विभा, लैट अस डू समथिंग टु स्टैम दिस रॉट. वी जस्ट कांट एफोर्ड टु रिमेन म्यूट स्पैक्टेटर्स ऑफ़ दिस शेमफुल सेल्फ़-विट्रेयल. इट्ज़ अ शेम....’’

‘‘नाउ कम ऑन बीनू...सॉरी इफ़ आइ हर्ट यू,’’ - त्रिभुवन उसे थपकाते हुए बोला - ‘‘कम ऑन, टेक इट इज़ी वीनू....’’
‘‘ओह, हाउ कैन आइ टेक इट ईज़ी माइ फ्रेंड्स! हाउ कैन आई?’’ - ...विनायक की सिसकियाँ फिर चालू हो गईं. इतने में विभा को जाने क्या सूझा - उसका हाथ बरबस ही विनायक के सिर पर, उसके बालों पर फिरने लगा. ‘‘आई नो...आई नो, वीनू भैया! यू कांट टेक इट इज़ी. नॉर कैन वी. रैस्ट अश्योर्ड विनायक भैया...यू आर नॉट अलोन. वी बोथ आर विद यू भैया...बिलीव मी...वी बोथ आर विद यू. स्टॉप क्राइंग वीनू भैया...बी आर ऑल विद यू...यू आर नॉट अलोन....’’

विनायक की सिसकियाँ थम गईं. ‘‘थैंक्यू विभा,...आइ एम सो ग्रेटफुल टू यू...आइ ऐम...आइ ऐम...आइ ऐम.... सुनो त्रिभु...सुनो विभा...मुझे कुछ याद आ रहा है...सुनाऊं.’’...और उसी उखड़े-पुखडे़ अंदाज़ में गाना शुरू कर दिया - मैं हूं यह वरदान सदृश, क्यों लगा गूंजने कानों में. मैं भी कहने लगा मैं रहूं शाश्वत नभ के गानों में...
‘‘वाह! किसकी कविता है यह भाई साहब?’’ - विभा बोली. ‘‘और सुनोगी? सुनो’’ - विनायक फिर चालू हो गया. हिमाद्रि तुंग शृंग से/ प्रबुद्ध शुद्ध भारती स्वयं प्रभा समुज्ज्वला/ स्वतंत्रता पुकारती...‘‘और सुनोगे? लो,’’...कहते-कहते विनायक लुढ़क गया त्रिभुवन के कंधे पर.
‘‘हम पहुंच गए.’’ - त्रिभुवन ने कहा. ‘‘विभा, इसे लच्छू के होटल में छोड़ें, कि अपने साथ अपने घर ही ले चलें?’’
‘‘घर ही ले चलो.’’ - विभा बोली. ‘‘इस वक़्त इन्हें अकेले छोड़ना ठीक नहीं है.’’

1. मुझे शर्म आती है अपने राजनेताओं और इन तथाकथित बुद्धिजीवियों पर. उन्होंने हमारे महापुरुषों के सपनों के साथ विश्वासघात किया है. हम ग़ुलाम हैं त्रिभु, हम नkलची बंदर हैं - अपनी विरासत सम्हालने में सर्वथा अक्षम! त्रिभु, सच है कि मैं तुम्हारी नीरद चौधुरी को पसंद नहीं करता. मुझे तो अमर्त्य सेन भी बिलकुल नहीं सुहाते. हम सब छायाजीवी हैं त्रिभु. क्या हम इस छायानृत्य के मूकदर्शक ही बने रहेंगे? कुछ करो त्रिभुवन, कुछ करो. इस आत्म-द्राह के खि़लाफ़ कुछ करो. यह हमारी राष्ट्रीय शर्म है - इसका कुछ तो इलाज होना चाहिए वक़्त रहते त्रिभु.
2. संभलो बीनू, सब ठीक हो जाएगा - धीरज से काम लो’’
3. कैसे त्रिभु. मैं कैसे धीरज रक्खूं?’’
4. मैं जानती हूं बीनू भैया आपकी तक़लीफ़ मैं समझती हूं. फ़िक्र मत कीजिए. आप अकेले नहीं हैं, हम सब आपके साथ हैं, रोइए नहीं भैया, हम सब आपके साथ हैं.

(राजकमल प्रकाशन से साभार)

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