पोर्न वेबसाइट बैन को लेकर पूरे देश में बहस का माहौल है. लेकिन क्या आप जानते हैं एक ऐसा भी शहर है, जहां देह व्यापार और सेक्स एजुकेशन को लेकर बेहद खुलापन और जागरुकता भरा माहौल है. शहर का नाम है एम्स्टर्डम.
लंदन में शतरंज की कोच और बिंदास घूमने वाली लेखिका अनुराधा बेनीवाल ने दुनिया के कई देशों का दौरा कर अपनी यात्राओं के अनुभवों को ‘यायावरी आवारगी’ किताब में समेटा है. ‘यायावरी आवारगी’ किताब इसी साल नवम्बर में सार्थक- राजकमल प्रकाशन के एक उपक्रम से छपेगी. अनुराधा ने एम्सटर्डम के ‘रेड लाइट डिस्ट्रिक्ट’ के बारे में अपनी किताब में शानदार तरीके से खुलकर लिखा है. आगे पढ़िए ‘यायावरी आवारगी’ किताब के ऐसे अंश, जो पोर्न को लेकर देश में चल रही बहस के बीच आपको सोचने का नया नजरिया देगा.
एम्स्टर्डम का ‘रेड लाइट डिस्ट्रिक्ट’
''मुझे कोई अचंभा नहीं हुआ कि स्नेहा का यहां (एम्सटर्डम) बस जाने का मन
हुआ! वह शहर में काम करती और समय मिलने पर शहर भर की ख़ाक छानती. जो मन में आए वह पहनती, जब मन चाहे,
जहां मन चाहे- घूमती. किसे प्यार नहीं होगा इस आज़ाद ख़्याल शहर से! उसकी और गौरव की अंडरस्टैंडिंग भी मुझे एक सुलझे
हुए दम्पति की लगी. कोई तनाव या बनावटीपन नहीं दिखा उनके साथ में, इसलिए उनकी संगत में मुझे काफी संतोष जान पड़ा.
पेरिस के बाद कुछ हद तक विश्वास उखड़ने-सा लगा था किसी भी सोशल अरेंजमेंट पर से. लेकिन नयी पीढ़ी बदलती जान पड़ती
है.
शाम का प्लान बना कि मुझे रेड डिस्ट्रिक्ट घुमाया जाए. सच बताऊं, मुझे तो पहली बार ‘क्वीन’ फिल्म देख कर एम्स्टर्डम के ‘रेड लाइट डिस्ट्रिक्ट’ के बारे में पता चला था. मुझे किसी भी देश के बारे में तब कुछ भी जानकारी नहीं थी, जब भारत में रहते हुए विदेश घूमने के सपने देखती थी. जाने कैसे बस पहुंच गयी थी सपनों के मुल्कों में! लंदन, पेरिस, रोम, स्विटज़रलैंड, स्पेन और जर्मनी- यही मोटे-मोटे नाम पता थे, बस. कुछ ख़ास करने का एजेंडा भी नहीं था. एजेंडा तो तब हो ना, जब किसी चीज़ की जानकारी हो!
यों भी शायद लड़कियां रेड-लाइट डिस्ट्रिक्ट कम ही ढूंढती हैं. उनकी जरूरत का सामान जो नहीं है वहां. अगर उनके जरूरत के मुताबिक कुछ वहां होता तो क्या ढूंढती? कहते हैं, लड़कियों को शरीर के साथ भावनाओं का मेल चाहिए होता है, और लड़के शरीर और भावनाओं को अलग-अलग रख सकते हैं. मुझे भी एक समय में ऐसा ही लगता था, लेकिन ज्यों-ज्यों कंडीशनिंग टूटी, त्यों-त्यों भावनाएं ओवररेटेड लगने लगीं और शरीर की जरूरतें अंडररेटेड. जितनी जरूरत भावनात्मक जुड़ाव की थी, ठीक बराबर मात्रा में शारीरिक लगाव की भी थी. कभी एक का पलड़ा भारी तो कभी दूसरे का. लेकिन हमें चूंकि पाठ बचपन से यही पढ़ाया जाता था कि शरीर की जरूरतें पाप हैं, तो हम शरीर की जरूरतों को भावनाओं की रेशमी चादर से ढंकते रहे. किसी से मिल कर सिर्फ सेक्स कर पाना या सिर्फ सेक्स करने की इच्छा भर रखना भी हमें पाप बताया जाता है. ऐसे में कितनी ही बार करना तो चाहते हैं हम सेक्स, लेकिन करते हैं "दोस्ती", और फिर सेक्स की जरूरत को हज़ार तरह के पाखंडों से छुपाते हैं. सिर्फ सेक्स कर सकना, सेक्स करने भर के लिए, ना हमने कभी सीखा और ना हमे कभी इसके बारे में बताया गया. ऐसे पाखंडों को तो एक-न-एक दिन टूटना ही होता है, तब असलियत और भयानक लगती है. सोचते हैं, सिर्फ सेक्स कर पाते- साफ़ बोल कर, तो जाने कितने ही ऊपरी आडंबरों से बच जाते!
लेकिन यूरोप की लड़कियां ऐसी नहीं थीं. इनकी मेक जाने कौन-सी फैक्ट्री की थी? मेरी एक ग्रीक दोस्त है लंदन में, इक्कीस साल की, और कोई बॉयफ्रेंड नहीं है उसका. लेकिन शारीरिक जरूरतों का एकदम-से ख़्याल रखती है. उसे अपनी देह की जरूरतों का ठीक-ठीक ज्ञान है और वह इसे मुखौटे में नहीं छुपाती.
और लड़के, उनका क्या? ‘शरीफ’ से ‘शरीफ’ लड़कों को ‘उस जगह’ की जानकारी तो कम-से-कम होती ही है. जाएं न जाएं, अलग बात. इंडिया में जहां लीगल भी नहीं है, वहां भी मुमकिन है.. मेरी पहचान में तो ऐसा कोई न था जिसने एक बार ‘उस जगह’ के दर्शन ना किये हों. जो इंडिया में शराफत का लिबास ओढ़े रहते थे, उनको मैंने लंदन में नंगे फिरते देखा. जिन्हें बुधवार पेठ (पुणे) या जीबी रोड (दिल्ली) से घिन आती थी, वे बैंकॉक में घिनौने हो जाते हैं. नहीं-नहीं, यह बात नहीं है कि मैं उन्हें घिनौना समझती हूं. बिलकुल अपनी-अपनी पसंद अपनी जगह है. बस जब शराफ़त का चोला पहन के औरों को गरियाते हैं, तब दिक्कत है. कितनी बार तो मुझे खुद ऐसा लगा कि यह जिस्म का बाजार पुरुषों का भी होता तो एक बार चक्कर लगाया जा सकता था. नहीं? क्या हर्ज़ होता? कितने सारे मनहूस ब्रेकअप से तो मैं भी शायद यों ही बच जाती. भावनाओं की ओट में, कीमती समय और डिनर के बाद पर्दा उठने से अच्छा यह नहीं कि बात पहले से साफ़-साफ़ हो?
चूंकि पहले कभी रेड लाइट एरिया देखा नहीं था तो दिमाग में कोई ऐसी तस्वीर थी भी नहीं. फिर तो अपना ख़ाली दिमाग़ लेकर मैं पहुंच गयी 'रेड डिक्ट्रिक्ट ऑफ़ एम्स्टर्डम.' सेंट्रल स्टेशन के एकदम नजदीक, एकदम प्राइम लोकेशन और रेजिडेंशियल एरिया से सटा था यह बाज़ार.
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उसकी उम्र पच्चीस-तीस बरस रही होगी. उसकी खिड़की के आगे बेहद भीड़ है. वह सबको सरसरी
निगाहों से देखती है और अपने ग्राहक पहचान लेती है. उसने काले रंग की जाली वाली ब्रा और पैंटी पहन रखी है. उसका बदन
बेहद कसा हुआ और खूबसूरत है. वह बड़ी अदा से अलग-अलग अंदाज में मुड़ती है. उसकी नज़रें बार-बार भीड़ को जैसे छांटती
रहती हैं. मेरा मन उसे जी भर कर देख लेने का करता है, मेरी नज़रें उसी पर टिकी हैं. लेकिन वह मुझे दोबारा नहीं देखती. उसे
पता है कि मैं उसकी कस्टमर नहीं हूं और वह तारीफ़ बटोरने के लिए यहां खड़ी नहीं हुई है. फिर एक नज़र पर उसकी नज़र
अटक जाती है. वह खिड़की की चिटकनी खोलती है और खिड़की पर पर्दा डाल देती है. भीड़ के साथ हम भी आगे बढ़ जाते हैं.
एक कैनाल के दोनों तरफ की रोड एकदम चकाचौंध वाली, रंगीली है. उन सड़कों पर चटक लाल और गुलाबी रंग की सात-आठ फुट की सैकड़ों खिड़कियां और उन खिड़कियों में खड़ी लड़कियां हैं. और लड़कियां सिर्फ मैनिक्विन जैसे नहीं खड़ी हैं. वे सब एक लय में जैसे डोल रही हैं, कोई अपनी लचक तो कोई अपनी ताकत दिखा रही है. दुनिया के अलग-अलग कोनों से युवतियां यहां अपने शरीर का व्यापार करने आती हैं लेकिन बड़ी संख्या ईस्ट-यूरोपियन लड़कियों की है. (अब मैं थोड़े नाक-नक़्शे पहचानने लगी हूं) एक-आध चेहरा हमारे यहां जैसा भी दिखता है लेकिन हाव-भाव लगभग सबका एक जैसा है. सब बड़े कॉन्फिडेंस के साथ खड़ी हैं लेकिन अगर कोई फोटो खीचने की कोशिश करे तो सर्र-से पर्दा खींच लेती हैं.
जरूरी नहीं सबके मां-बाप और समाज को पता हो उनके धंधे के बारे में. वहां वैसे तो कोई फोटो खींचता नज़र आता नहीं है, लेकिन अगर कोई खींचता भी है तो सब आस-पास वाले ऐसी नज़रों से देखते हैं कि खुद शर्म आ जाए उसे.
कोई उन लड़कियों से बदतमीजी से पेश नहीं आता दिखता. वो सब अपने-अपने अंदाज़ से ग्राहक को रिझाने की कोशिश कर रही हैं. कोई हंटर लेके खड़ी है तो कोई गुलाब का फूल, कोई डॉक्टर के लिबास में है तो कोई पुलिस वाली के. सब तरह के खेल हैं यहां. हर इंसान को लुभाने के तरीक़े हैं इनके. तभी शायद दोनों तरफ की सड़कों पर सैकड़ों की संख्या में भीड़ है.
कुछ खिड़कियां एकदम खाली हैं तो कुछ खिड़कियों के आगे लाइन लगी है. वैसी खिड़कियां जिनके आगे लाइन नहीं कोई, उनमें ज्यादातर अधेड़ उम्र की महिलाएं हैं, लेकिन रेट उनका भी सेम है. उनके चेहरे मैं पढ़ नहीं पाती हूं. वो ज्यादा हिल-डुल नहीं रही हैं, वो ज्यादा किसी को रोकने की कोशिश भी नहीं करती हैं. मैं सोचती हूं कि ये यहां क्यों खड़ी हैं. इस जवान बाज़ार में इनका कौन ख़रीददार है? शायद वो दिन में कुछ और काम करती होंगी. शायद यह सिर्फ पार्ट टाइम जॉब होगा. इनमें से बहुत-सी लड़कियां सुबह कॉलेज जाती हैं और शाम को इधर खिड़की में होती हैं. जाने इस खिड़की का किराया कितना है? मैं एक ख़ाली खिड़की से ‘हैलो’ कहती हूं तो वह फटाक से चिटकनी खोल देती है. उसे पता है कि मैं ग्राहक नहीं, लेकिन वह फिर भी आराम से मुस्कुराती है और हैलो कहती है। जब मैं उसके सैंडल्स की तारीफ़ करती हूं तो वह खुश होती है और कहां से लिए हैं, यह भी बताती है. फिर कुछ लड़कों के झुण्ड को आता देख चिटकनी बंद कर देती है. उसके बाद वह फिर मुझे नहीं देखती. मैं कुछ देर रूकती हूं और आगे बढ़ जाती हूं.
हर खिड़की में बिताए तीस मिनट का रेट पचास यूरो है. भीड़ वाली खिड़की के बाहर खड़े कुछ युवक मोल-भाव करने की कोशिश करते हैं तो वह उन्हें आगे जाने को बोलती है. वह युवक भी बेहद आकर्षक हैं, शायद इसी बूते पर रेट कम कराने की आस रखते हैं, लेकिन उसके लिए वह सिर्फ ग्राहक हैं, शायद! उसे अपने समय की कीमत मालूम है, और वह यहां मौज के लिए भी नहीं खड़ी है. उसे खिड़की का किराया भी देना है. सबका एक रेट फिक्स है. किसी भी और व्यापार की तरह उनकी भी रसीद होती है. चाहे आप ये रसीद अपने टैक्स रिटर्न में दिखाएं या ना दिखाएं, ये लोग जरूर दिखाती हैं और बाकायदा टैक्स फाइल करती हैं.
हर तरह के लोग नज़र आते हैं यहां- बूढ़े, जवान, कोट-पैंट वाले (जो सीधे मीटिंग के बाद यहां आ गए थे शायद), कुछ कपल्स भी हैं जो एक-दूसरे का हाथ पकड़े खिड़कियां देख रहे हैं. शायद अपनी किस्मत पर खुश हैं, अपने ग्राहक ना होने के गुरूर में हैं! उनके पास फिजिकल-इमोशनल कनेक्ट- दोनों का इंतज़ाम है. तो क्या जो ग्राहक हैं, उनकी बीवी या गर्ल-फ्रेंड नहीं हैं? सब-के-सब की? और अगर हैं तो वो क्या ढूंढते आए हैं? थ्रिल? कुछ अलग पाने की भूख? हम भी तो बाज़ार में यों ही फ़िरते हैं. घर में दस जोड़ी जूते हों, एक और ले आते हैं. दो बैग रखे हों, एक और ले आते हैं. कुछ नहीं तो बस देखने पहुंच जाते हैं. एक तरह की वेश्यावृति वह भी तो है कि नहीं? ऐय्याशी सिर्फ देह की नहीं होती है. उसका सम्बन्ध किसी भी तरह के उपभोग की अधिकता या उसके मनमानेपन से है.
इस बाज़ार में कुछ लोग देखने और कुछ खरीदने चले आये हैं. जगह-जगह सेक्स टॉयज और कंडोम की दुकाने हैं. दुकानों में कंडोम रंग-बिरंगे गुब्बारों के जैसे टंगे हैं. खिड़कियों में खड़ी लड़कियां हैं तो लाइव पोर्न की दुकानें हैं, सेक्स टॉयज भी बाहर डिस्प्ले विंडोस में सजे रखे हैं, लेकिन इस जिस्म के बाज़ार में कोई हुड़दंगी नहीं है. कोई भी देखने वाला, ना तो वहां फोटो खीच सकता है और ना ही कोई बदतमीजी कर सकता है. कोई पुलिस दिखाई तो नहीं पड़ती है, लेकिन सुना है कि कोई बदतमीजी करे तो आने में देर नहीं लगाती है. मतलब कि सब कायदे से है. मुझे उन लड़कियों पर ना दया आती है और ना ही उनसे घृणा होती. मैं उनको समझने की कोशिश करती हूं, लेकिन वो भी क्षमता मुझमें नहीं है. मैं जैसे उनके सम्मोहन में हूं. मैं उन गलियों के पंद्रह चक्कर काट चुकी हूं लेकिन मैं बाहर नहीं आ पाती हूं. आखिर वो कैसे, यह मालूम होते हुए भी कि बाज़ार में हर नज़र उनको तराश रही है, इतनी ग्रेस के साथ खड़ी हैं!
पोर्न का यों खुला बाज़ार होते हुए भी लोग शालीन हैं. राह चलती लड़कियों पर टूट नहीं पड़ रहे. उनके साथ कोई ऐसी-वैसी हरकत नहीं करते. वे अपनी मर्जी की दुकान चुन के अंदर जाते हैं. उन्हें पता है, वे क्या ढूंढ रहे हैं या क्या चाहते हैं. ये यहां सेक्स सीखने नहीं आये हैं. डच स्कूलों में पहली क्लास से बच्चों को सेक्स एजुकेशन दी जाती है. क्या होता है जब आप जिसे पसंद करते हैं, जब वह आपको गले लगाता है, हग करता है? क्या उन्हें कभी प्यार हुआ है? क्या होता है प्यार? प्यार में होते हैं तो कैसा लगता है? कब किसी को छू लेने का मन करता है? स्कूल में जीवन के इन सब जरुरी सवालों पर स्वस्थ बातचीत होती है.
उम्र के साथ शरीर के बदलावों के बारे में बताया जाता है. क्यों खुद को छू लेने का मन करता है? सेक्स क्या होता है, किस उम्र में किया जाना चाहिए? क्या-क्या सावधानियां बरतनी चाहिए? किसी का छुआ आपको अच्छा ना लगे तो क्या करना चाहिए? किस से बात करनी चाहिए? कोई अच्छा लगना बंद हो जाये तो उसको कैसे बताया जाये? एक-दूसरे की ब्रेक-अप के समय कैसे मदद करनी चाहिए. इन सब के बारे में क्लास टीचर आपसे बात करती है.
यहां आपको एक लड़की से बात करने के लिये पनिशमेंट नहीं दी जाती. लड़के-लड़कियों को अलग-अलग नहीं बिठाया जाता. आपको अपनी देह की जरूरतों के प्रति जागरूक किया जाता है. आपको दुत्कारा नहीं जाता.
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'तब देखी थी मैंने पहली बार
पोर्न'
मैंने पहली बार पोर्न कॉलेज के हॉस्टल में देखी थी. साल में एक बार सब लड़कियां पोर्न की सीडी मंगा कर देखती थीं. मैं और
मेरी दोस्त भी ऐसे एक प्रदर्शन में देखने पहुंच गये. दो-तीन मिनट देख कर ही मन में एक डर-घबराहट और घिन्न का
मिलाजुला जैसा कुछ भाव लेकर हम उलटे पांव वापस आ गये. मेरी दोस्त जिसे अभी तक सेक्स कैसे करते हैं- तक पता नहीं
था, काफी देर तक रोती रही. उसने कसम खाई कि अगर सेक्स ऐसा होता है तो वह कभी नहीं करेगी. मेरे मन में भी एक
घिन्न-सी भर गई. हालांकि सुनी हुई कुछ बातों से मुझे थोड़ा सा अंदाजा तो था कि सेक्स कहते किसे हैं, लेकिन निहायत उथले
किस्म का. ऐसे में फ़िल्म में जो देखा तो डर तो लगना ही था. जिस तरह से वो लड़का भावनाओं से रिक्त उस लड़की पर
सवार था, और लड़की के चहरे पर भी कोई ख़ुशी या प्रेम जैसा कोई भी भाव नहीं था- वह बेहद अजीब लगा. हमारी यह पहली,
किसी भी तरह की, सेक्स एजुकेशन थी. सही बताऊं तो यह एजुकेशन सेक्स के प्रति एक तरह का डर-सा पैदा कर गया.
जिस सोसाइटी में हाथ पकड़ना गुनाह हो, वहां लड़के-लड़कियां सेक्स के बारे में कहां सीखेंगे? आपके मां-बाप, अध्यापकों, स्कूल की किताबों ने आपको बताया कभी कि सेक्स क्या होता है और कैसे किया जाना चाहिये? किसी को देखने भर से जो पेट में तितलियां उड़ती हैं, उसके बारे में किसी ने बताया? मैंने तो पहली बार हिंदी फिल्मों में सिर्फ रेप के बाद औरत को गर्भवती होते देखा था. हीरो हीरोइन तो जब प्यार करते थे तो दो फूल सामने आ जाते थे. लेकिन रेप अच्छे से दिखाया जाता था. वाकई ऐसा देख कर मुझे लगता था कि जोर-जोर से हँसते वक्त, कपड़े फाड़ने और गर्दन पर जबरदस्ती चूमने से बच्चे पैदा होते हैं। खैर, इसका दोष मैं कभी स्कूल ना जाने को दूंगी। वहाँ शायद कोई अलग जानकारी मिलती हो.
अब बारहवीं कक्षा में पढ़ रहा मेरा भाई, जिसके पास फ़ोन है, गूगल है, यूट्यूब है, वह क्यों पोर्न नहीं देखेगा? जी हाँ, आपका बेटा कैसे नहीं सेक्स के बारे में सीखेगा? यह अलग बात है कि हम सबको अपने बच्चे एसेक्सुअल लगते हैं, यौन संबंधों के प्रति एकदम उदासीन. लेकिन माफ़ कीजिये, ऐसा है नहीं. बारह-तेरह साल की उम्र तक आपने उसे कुछ नहीं बताया है तो वह अपना रास्ता खुद ढूंढेगा. और फिर वह रास्ता जहां भी ले जाये। उसके हाथ में कामसूत्र लग जाये या वायलेंट पोर्न. आप शायद वह कंट्रोल नहीं कर सकते. कर सकते, अगर करना चाहते तो. अगर आप उसे खुद कामसूत्र गिफ्ट कर देते या उसके पेट में गुदगुदी का जिक्र कर उसका रहस्य उससे डिस्कस करते; या उसके शरीर में हो रहे बदलावों और देह की नई-नई इच्छाओं से उसे वाकिफ कराते. लेकिन आप तो उलटा उसे पोर्न देखने पर मजबूर करते हैं; अपने लालन-पालन के तौर-तरीकों से!
कुछ समय बाद मैंने कुछ बढ़िया बनी हुई पोर्न फिल्में भी देखीं, और पढ़ीं भी. और मुझे अच्छी लगीं. दो लोगों के बीच में प्रेम से, आपसी सहमति से बनाये गये यौन संबंध बहुत खूबसूरत हो सकते हैं और होते हैं. पोर्न बहुत खूबसूरत हो सकती है और होती है. पोर्न बहुत घिनौनी और आपराधिक नेचर की भी हो सकती है. लेकिन यह कौन बतायेगा आपके बच्चों को कि कौन-सी पोर्न कहां देखे? आपने बताया कभी या कोशिश की? आपको बताया गया कभी, उस व्यक्ति द्वारा जिसपर आप विश्वास कर सकें? जो आपका भला चाहता हो?
मैंने अच्छी और बुरी दोनों तरह की पोर्न देखी है और खुद फर्क जान के अपनी पसंद बनाई है. लेकिन क्या सब अपनी पसंद बनाने की स्थिति में होते हैं? और क्या बैन कर देना ही समाधान है? आज तक लंदन में भी गैरकानूनी डाउनलोड बैन नहीं हो पाया है. एक साइट बंद होती है तो दस नई खुलती हैं. आप कर लो पोर्न बैन! लेकिन उसके दो नुकसान हैं, एक तो मेरे जैसे लोग आपको कोसेंगे और दूसरा कि आपकी मेहनत व्यर्थ जाएगी। क्योंकि आप कर तो पाएंगे नहीं!
चाइल्ड पोर्न, जबरदस्ती या छुप के बनाई गयी पोर्न आदि- ये सब तैयार करना अपराध हैं. रिवेंज पोर्न या लीक्ड पर्सनल वीडियो जैसी सामग्री भी आपराधिक मानसिकता की देन हैं. ऐसे अपराधियों को कड़ी-से-कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए. लेकिन आपको अगर समाज़ के युवाओं (युवा ही क्यों, सब उम्र के लोगों) को ये देखने से वास्तव में रोकना है तो उन्हें बचपन से स्कूलों में सेक्स एजुकेशन देनी होगी। आपने अगर उन्हें भूखा छोड़ दिया तो फिर वे कचरा खाएं या सात्विक भोज- यह तो उनका स्वभाव तय करेगा! मेरा मानना यह है कि समाज को सेक्स नार्मलाइस करना होगा. सेक्स के बारे में बात करनी होगी, एजुकेशनल पोर्न आसानी से उपलब्ध करानी होगी और उसके पीछे का हौवा मिटाना होगा. किसी चीज़ को परदा में छुपाने, उस पर बैन लगाने से तो इंसान स्वाभाविक तौर पर उसकी तरफ आकर्षित होता है.
दुनिया को हमने कामसूत्र दिया है और अपने समाज में हम इस पर बात करने से कतरा रहे हैं. इसको बंद अंधेरे कमरे का रहस्य बनाए रखने पर उतारूं हैं जिससे कि समाज निकलना चाह रहा है. पोर्न बैन करना तो जैसे एक बच्चे को भूसे के कमरे में बंद करना है ताकि वह बदमाशी करना भूल जाए। सेक्स को दबाने की बजाये उसे पढ़ाया जाये, बताया जाये, सिखाया जाये। जान कर ही किसी चीज़ से ऊपर उठा जा सकता है. यह क्या बात हुई कि हमारे पास कामसूत्र और खजुराहो तो है लेकिन हमारी आंखें बंद हैं और इच्छाएं नियंत्रित! हम ज्ञानी हैं इसलिए दुनिया हमसे सीखे, इसका मतलब यह तो नहीं कि हम दुनिया से कुछ नहीं ले सकते. उन्होंने हमसे सीखा है, लेकिन हमें अपने अहंकार से निकलकर अब दुनिया से भी कुछ सीखने की जरूरत है. और एम्स्टर्डम एक मिसाल है, जैसा मैंने उसको देखा है.''
साभार- राजकमल प्रकाशन