विश्वनाथ त्रिपाठी उन विरल शिक्षकों में से रहे हैं जो अपने विद्यार्थियों की खोज-खबर रखते थे. ‘गुरुजी की खेती-बारी’ में शामिल संस्मरणात्मक लेख उनके अध्यापन के दौरान के हैं. इन लेखों में वो विद्यार्थियों की चर्चा करते है. इसमें कई संभावनाशील छात्रों की भी चर्चा है, जो वक्त के अंधेरे में खो गए. ये किताब डॉ. त्रिपाठी के करुणा से भरपूर अध्यापक मन के बारे में बताती है. डॉ. त्रिपाठी पहले ‘हिंदी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास’ लिखा था, जो आज भी विद्यार्थियों का मार्गदर्शन कर रही है. उनका ये किताब बाजारवाद के इस दौर में बिखर रहे गुरु-शिष्य परंपरा की याद दिलाते है. आज शिक्षक दिवस पर साहित्य आजतक पर पढ़िए उनके किताब का एक मजेदार अंश.
त्रिपाठी जी अपने शब्दों में सामने खड़े महसूस होते हैं. इन पृष्ठों में आप राजनीति का वह ज़माना भी देखेगे जब ‘अनशन, धरना, जुलूस, प्रदर्शन, क्रांति, उद्धार-सुधार, विकास, समाजवाद, अहिंसा जैसे शब्दों का अर्थपतन, अनर्थ, अर्थघृणा और अर्थशरम नहीं हुआ था. और विश्वविद्यालय के छात्र मेजों पर मुट्ठियां पटक-पटककर मार्क्सवाद पर बहस किया करते थे. जवाहरलाल नेहरु, कृपलानी, मौलाना आजाद जैसे राजनितिक व्यक्तित्वों और डॉ. नगेन्द्र, विष्णु प्रभाकर, बालकृष्ण शर्मा नवीन, शमशेर और अमर्त्य सेन जैसे साहित्यिकों-बौद्धिकों की आंखों में बसी स्मृतियों से तारांकित ये पुस्तक त्रिपाठी जी के अपने अध्यापन जीवन के अनेक दिलचस्प संस्मरणों से बुनी गई है.
किस्म-किस्म पढनेवाले यहां हैं. हरियाणा से कम्बल ओढ़कर और साथ में ढूध की चार बोतलें कक्षा में लेकर आनेवाला विद्यार्थी है तो किरोड़ीमल के छात्र रहे अमिताभ बच्चन, कुलभूषण खरबंदा, दिनेश ठाकुर और राजेंद्र नाथ भी हैं. शुरुआत उन्होंने बिस्कोहर से अपने पहले गुरु रच्छा राम पंडित के स्मरण से की है. इसके बाद नैनीताल में अपनी पहली नियुक्ति और तदुपरांत दिल्ली विश्वविद्यालय में बीते अपने लम्बे समय की अनेक घटनाओं को याद किया है जिनके बारे में वे कहते है: ‘याद करता हूं तो बादल से चले आते हैं मजमूं मेरे आगे.’ मुझे उन छात्रों की याद आती है.
पुस्तक अंश- गुरुजी की खेती-बारी
हिन्दी विभाग विश्वविद्यालय के अन्य विभागों से थोड़ा अलग होता है. उसमें देसीपना, भदेस और उजड्डपन भी रहता है. विद्यार्थियों में गुरु-भक्ति अपेक्षाकृत ज्यादा होती है. काव्य-गोष्ठियां, वाद-विवाद प्रतियोगिताएं ज्यादा होती हैं और साहित्यकारों के रूप में वक्ता, कवि, आलोचक, कथाकार आते रहते हैं. विद्यार्थी ज्यादातर निम्नमध्यवर्गीय, निम्नवर्गीय होते हैं. अब बहुत हाल में प्रशासकीय सेवाओं में हिन्दी के विद्यार्थियों का चयन भी होने लगा है. कुल मिलाकर वहां वातावरण अपेक्षाकृत अनुशासित रहता है, दिल्ली विश्वविद्यालय में विशेष रूप से. ऐसे छात्रों की काफी संख्या होती है, जो पढ़ाई के साथ कुछ समय के लिए नौकरी भी करते हैं.
नवें के दशक से दो बातें विशेष रूप से दिखलाई पड़ीं. एक तो बिहार से आनेवाले छात्रों की संख्या में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई. ये छात्र प्राय: पढ़ने-लिखने में रुचि लेनेवाले और सचेत होते हैं. वे थोड़े अपने ढंग के भी होते हैं. प्राय: राजनीति में सक्रिय दिलचस्पी लेनेवाले होते हैं. वे अन्य विद्यार्थियों से प्रतियोगिता में पीछे रहना पसन्द नहीं करते. दूसरी बात यह हुई कि शोध छात्रों को राष्ट्रीय प्रतियोगिता, नेट, जे. आर. एफ. में अच्छी रकम छात्रवृत्ति के रूप में मिलने लगी. अक्सर यह होता कि अच्छे छात्र छह हजार-सात हजार प्रति मास की छात्रवृत्ति पांच वर्षों तक लेते और किसी प्रतियोगिता में सफल होकर अच्छी नौकरी भी पा जाते. बेशक, ऐसे विद्यार्थियों की संख्या ज्यादा नहीं होती. ऐसे छात्र भी होते, जो प्रतियोगिता में सफल होने की क्षमता रखते, लेकिन अध्यापक ही बनते. एकाध उदाहरण ऐसे भी हैं कि विश्वविद्यालय की नौकरी छोड़कर सक्रिय राजनीति में पूर्णकालिक काम करने लगे हैं.
मेरे अनेक विद्यार्थी ऐसे भी थे, जो हमें बीच में ही छोड़कर चले गए. कहीं और नहीं, हमेशा के लिए हमें छोड़ गए. निहायत आत्मीय, प्रतिभाशाली छात्र. उनकी याद से हूक-सी उठती है. हमारी स्मृति-चेतना विवश-चीख करती है और चुप हो जाती है. मैं आपको पहले उस विद्यार्थी के बारे में बताऊँगा, जिसके बारे में यह भी नहीं पता चला कि वह कहां और कैसे मरा? वह मरा भी या नहीं? बस, यह पता है कि वह पिछले डेढ़ दशकों से लापता है.
श्रीप्रकाश का रंग काफी दबा था. औसत से लम्बा-पतला. जरूरत से ज्यादा हंसता. हंसने का एक अलग ही ढंग था. हकलाता था, काफी हकलाता था. बात शुरू करता. कुछ कह लेता फिर हकलाने लगता. कोशिश करने पर भी अपनी बात नहीं कह पाता, तो बेबस होकर हँसने लगता. अपनी बेबसी पर हंसने लगता. सफेद दांतों की पंक्ति चमकने लगती. हंसता रहता, फिर हंसते-हंसते ही बातें करता, हकलाता. हमारे मन में परेशान-करुणा पैदा करता. एम.फिल. में मेरा छात्र नहीं था. उसके निर्देशक कोई और थे.
विश्वविद्यालय में क्लास लेने के बाद तीसरे पहर मैं अक्सर छात्रों के साथ बैठकर गप मारता था. झोला लिये रहता था. झोला फटा था. चलते समय कन्धे पर झूलता रहता. कॉलेज से विश्वविद्यालय की आर्ट्स फैकल्टी में पढ़ाने लगा, तो समर्थ, सीनियर शुभचिन्तकों ने राय दी, ''अब झोला त्याग दो.’’ मैंने सोचा, 'चोला छूट जाए, लेकिन झोला नहीं छूटेगा.’ छात्रों के साथ बैठकबाजी भी नहीं छूटी, झोला भी नहीं छूटा. मेरे अध्यापक जीवन पर झोले का प्रभाव है. उससे छात्र परच जाते थे. खासतौर पर मामूली या उपेक्षित छात्र. एक दिन श्रीप्रकाश घर आए. उदास, गमगीन. ''मुझे कोई अपने साथ रखना नहीं चाहता. लोग दर्शनीय शिष्यों के सुपरवाइजर बनना चाहते हैं. मैं हकलाता हूँ, लोग पीठ पीछे मुझे 'मेंटल’ कहते हैं. मैं क्या करूँ? आप मुझे अपने निर्देशन में रख लीजिए. मैंने पता लगा लिया है, आपके पास जगह खाली है.’’
मैंने सोचा, ढोंगी है. चालाकी से अन्य अध्यापकों की आलोचना कर रहा है. टरका दिया, लेकिन वो आता रहा. एक दिन आया. बोला कुछ नहीं. मैंने उसे चाय पिलाई. वो चाय पीते-पीते सुबक-सुबकर रोने लगा. रोता जाता, हकला-हकलाकर बोलता जाता. बीच-बीच में बोलना बन्द करके मुस्कुराता भी. मैं उसका सुपरवाइजर हो गया. मुझे जहां तक याद पड़ता है, उसका विषय था, 'रेणु-साहित्य में राजनीतिक चेतना’
मेरा एक और शोध छात्र था—संजय कुमार. श्रीप्रकाश मेरे यहां प्राय: उसी के साथ आते. संजय कुमार भी बिहार के छपरा से थे. श्रीप्रकाश मुजफ्फरपुर के थे.
श्रीप्रकाश ठीक से बोल नहीं पाते थे, लेकिन पढ़ने में तेज थे. प्रथम श्रेणी के विद्यार्थी तो थे ही. नेट और जे.आर.एफ. में भी नम्बर आ गया था. अच्छी-खासी छात्रवृत्ति पाते थे. वे अपने हकलाने से उत्पन्न स्थितियों का वर्णन रस लेकर करते. अपने घर की स्थिति बताते हुए खिन्न, उदास हो जाते. मानो कहीं दूर चले जाते. सुनाया, ''मैं बस में जा रहा था. देखता था, टिकट चेकर आता है, तो लड़के कह देते हैं, 'स्टाफ’ और टिकट चेकर चुपचाप बिना टिकट मांगे या देखे, आगे बढ़ जाता है. मेरे पास टिकट चेकर आया तो मैंने हकलाकर कहा, 'स्टाफ’. बताया, 'स्...टा...फ’. टिकट चेकर मुझे देखता रहा. हटा नहीं. मैंने समझाया, 'रि...रिसर्च कर रहा हूं.’ टिकट चेकर समझ गया, बोला, 'प्...प्...ढ़ते ज्...जा्...इए, प्...प्...ढ़ते ज्...जा्...इए.’’
सुनाते-सुनाते श्रीप्रकाश प्...प्...ढ़ते ज्...जा्...हंसते जाते, ऐसे कि खुद उनकी आँखों में आँसू आ रहे थे. हम श्रोता जरूर अवाक् थे.
श्रीप्रकाश हाथ देखकर भाग्यफल भी बताते थे. अपने सभी सहपाठियों, सहपाठिनियों का हाथ देखकर भाग्यफल बता चुके थे. मेरे एक शोध छात्र नीरज की उंगलियां दबाईं. चेतावनी दी, आपमें आत्महत्या की प्रवृत्ति है. बच के रहना. नाना प्रकार की अंगूठियां भी पहनने की सलाह देते थे. खुद भी अंगूठियां धारण करते थे. कुछ लोगों का कहना था, श्रीप्रकाश कामभर के रसिक भी हैं. हाथ दिखाने सहपाठियों से ज्यादा सहपाठिनियां आती हैं.
वे अपने घर की बात करते समय बेहद उदास हो जाते. श्रीप्रकाश कायस्थ थे, घर में कई बहनें थीं. बहनों की उम्र शादी करने लायक थी. शादी हो नहीं रही थी. एकाध बार शादी तय हो गई, फिर टूट गई. पैसे की कमी की वजह से. कई भाई थे. श्रीप्रकाश कुछ कमाकर घर पर दे नहीं पाते थे. लोग ताना मारते थे. श्रीप्रकाश को घर में 'मेंटल’ समझा जाता. वे कई बार घर से निकलते कहीं के लिए, चले जाते कहीं और लोग ढूंढ़ने निकलते, परेशान होते, फिर लोगों ने मन मार लिया. कहां तक परेशान हों? कहते, 'बउरहा, धउरहा है, कहीं चला गया होगा.’ घरवाले और विशेष रूप से पिता बात-बात पर डांटते और लोग उपेक्षा करते. श्रीप्रकाश का मन किसी वजह से घर जाने का नहीं होता. थे स्वाभिमानी. सोचते—'काश, मैं हकला न होता.’
मुझसे तस्दीक कराते, ''सर, मैं ठीक हो सकता हूँ?’’
मैं कहता, ''तुम ठीक हो, और बेहतर हो जाओगे.’’ अनेक उदाहरण देता, ''यह शारीरिक रोग नहीं, आत्मविश्वास की कमी है.’’
श्रीप्रकाश सशंकित होकर पूछते, ''सर, मैं 'म...मेंटल’ तो नहीं हूँ न?’’
मैं कहता, ''बिलकुल नहीं.’’
वे हँसने लगते. हंसी में मेरी बात पर अविश्वास और आत्म-व्यंग्य की आवाज आती, चेहरे पर भी झलकता. कई बार महीनों नहीं आते. पता नहीं कहाँ रहते? आते तो बताते, ''पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगता. पढ़ने बैठता हूँ, तो बहनें याद आ जाती हैं, पिता की डांट याद आती है. किसी से कुछ कह नहीं सकता. घबराहट में मुंह से कुछ निकलता ही नहीं.’’ फिर मुस्कुराने लगते. निराशा, आत्मविश्वास की कमी मानो तट-सीमा पर पहुंचकर क्षीण होने लगती या कि वे अपने को दूसरों की निगाह से देखकर उन्हीं की तरह अपने पर ही हंसने-मुस्कुराने लगते. मैं बहुत परेशान हो उठता. वे काम बिलकुल नहीं करते या बहुत कम करते. मुझे उनकी रपट सन्तोषजनक लिखकर ही अग्रसारित करनी पड़ती, तभी उन्हें छात्रवृत्ति मिलती. मैं खीझता, उनसे काम करने को कहता.
मुझे याद है, वे एक बार आए. बोले, ''अब मैं पहले से बेहतर फील करता हूं, दवाई असर कर रही है. मेरा मन पढ़ने में लगता भी है. कुछ लिखा है, दिखाऊंगा. मैं चार महीने में शोध प्रबन्ध लिखकर जमा कर दूंगा.’’ बहुत उत्साहित थे. ये भी बताया, ''एक बहन की शादी भी ठीक हो गई है. नौकरी तो नहीं लगी है, लेकिन स्कॉलरशिप में से दस हजार रुपए पिताजी को दे आया हूं. बहन की शादी में खर्च करने के लिए. आप भी शादी में चलते तो अच्छा रहता.’’
मैंने कहा, ''श्रीप्रकाश, तुम्हारी शादी में चलूंगा. लड़की की शादी में बारातवालों की खातिरदारी में लगे रहोगे. तुम्हारी शादी में लड़कीवाले गुरुजी की अच्छी खातिरदारी करेंगे.’’ श्रीप्रकाश शरमाए, मुस्कराए. मैंने सोचा—ठीक है.
श्रीप्रकाश घर गए. तब से लौटकर दिल्ली नहीं आए. इसके पहले भी कई बार ऐसा होता था कि वे मुजफ्फरपुर जाते थे, तीन-चार महीने तक पता नहीं चलता था. संजय कुमार कहते, ''सर, पता नहीं चल रहा है, लेकिन कहीं-न-कहीं से वो आ जाएगा.’’
और श्रीप्रकाश एक दिन अकेले या अपने साथी के साथ मुस्कुराते हुए घर में प्रवेश करते. विस्तार से बताते, कहां चले गए थे और क्यों देर हो गई. हमने सोचा, इस बार भी वे हमेशा की तरह ज्यादा-से-ज्यादा तीन-चार महीने में आ जाएंगे. उम्मीद टूटने की कोई खास वजह नहीं थी. जिस ट्रेन से वे दिल्ली के लिए रवाना हुए थे, उसका पता लगा लिया. ये भी कि वे पटना तक आए. इसके बाद पता नहीं चलता. कहते हैं कि वे नदी पर गुजरती हुई ट्रेन के वक्त बहुत प्रसन्न होते. कहते कि मन होता है, नदी में कूद पड़ूं.
जब कई महीने हो गए, तो उनके पिताजी ने मुझे फोन किया, ''श्रीप्रकाश दिल्ली में तो नहीं है?’’
मैंने कहा, ''नहीं, उसके दोस्तों को भी उसका कोई पता नहीं है.’’
उसके पिताजी दिल्ली आए. उसके दोस्तों से मिले. किसी से कोई पता नहीं चला. लोगों को कहते सुना गया कि वह सोन या गंडक में चलती हुई ट्रेन से कूद न पड़ा हो. ऐसा क्यों हुआ, कोई नहीं जानता. एक कारण उसकी घोर निराशा का यह हो सकता है कि उसकी बहन की शादी में कुछ गड़बड़ी फिर हो गई थी. मुझे याद पड़ता है कि वो परिवार में सबसे ज्यादा बहनों को ही चाहता था. यकीन ही नहीं होता कि श्रीप्रकाश अब नहीं आएगा. सामने बैठकर मुस्कुराएगा और हंसेगा नहीं—सफेद दांतोंवाली निश्छल हंसी! उसके पास हँसने के सिवाय और रास्ता क्या था?
अध्यापकीय जीवन-यात्रा में कई छात्र-छात्राओं की मौत का समाचार मिला है. अध्यापक मां-बाप नहीं होता. कभी-कभी होता भी है. वो कुछ ऐसा भी होता है, जो मां-बाप नहीं होते. मां-बाप का दु:ख असहनीय होता है, वे रोते-धोते भी हैं. सन्तानों की संख्या दो-चार सीमित होती है. छात्रों की बहुत ज्यादा. सभी छात्र इतने प्रिय या आत्मीय नहीं होते. आत्मीय हों भी, तो यह कहकर नहीं बताया जाता है, लेकिन श्रीप्रकाश-जैसे छात्रों की मृत्यु पर मन मसोसकर रह जाना पड़ता है.
एक और छात्र की मृत्यु आंखों देखी- दीपक की. वह दूसरी तरह का था. श्रीप्रकाश को जानता था. श्रीप्रकाश की बात उससे करो तो खूब हंसता था. दीपक की बात फिर करूंगा. अभी मुझे एक छात्रा की याद आ रही है. हर्ष की. एम.ए. में पढ़ती थी. सुशील, सलोनी. पढ़ने में अच्छी रही होगी, क्योंकि वह मेरे मित्र प्रो. नित्यानन्द तिवारी के निर्देशन में शोध कर रही थी. प्रसन्न वदन, निर्मल हंसी के साथ मिलती. देखते ही वात्सल्य उमड़ता. एक अनौपचारिक सम्मान व श्रद्धा का भाव उसके व्यवहार में रहता. सम्पन्न घर की नहीं थी और जिम्मेदारियों को निभा रही थी. मैंने पूछा, ''तुम कुछ और काम क्यों नहीं कर लेतीं? पढ़ने के साथ-साथ कुछ कमाने का भी.’’
उसने कहा, ''सर, विभाग आज्ञा नहीं देता. कहते हैं कि पी-एच.डी. का शोध-कार्य करते समय कहीं और कोई काम नहीं कर सकते.’’
मेरे मुख पर चिन्ता का भाव आया होगा, मैंने देखा, वह मुस्करा रही है. बोली, ''सर, मैं एक जगह, हाईस्कूल में पढ़ा रही हूं. किसी को बताया नहीं है.’’
मैंने गम्भीरता से कहा, ''बताना भी नहीं.’’
ये जानकर मैं आश्वस्त हुआ कि हर्ष सीधी है और दुनिया में बने रहने-भर को चतुर भी है. समाचार मिला कि उसकी शादी हो गई. सोचा कि हर्ष-जैसी लड़की जहां रहेगी, सुखी रहेगी और सुखी रखेगी. फिर लगभग सालभर तक उसके बारे में कुछ नहीं सुना. सोचा कि सब ठीक होगा. एक दिन अखबार में पढ़ा कि एक नवविवाहिता की आकस्मिक मृत्यु हो गई. आगे पढ़ा-तो-पढ़ा कि वधू का नाम हर्ष था. मन को किसी तरह बांधा कि हर्ष नाम की तो कई लड़कियां होंगी. कुछ भी हो, उसकी याद आज भी मेरे हृदय में सुरक्षित है. जिस हर्ष का नाम अखबार में छपा था, वह वही हर्ष थी.
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पुस्तकः गुरुजी की खेती-बारी
लेखक: विश्वनाथ त्रिपाठी
विधाः संस्मरण
प्रकाशनः राजकमल प्रकशन
मूल्यः 150/- रूपए पेपरबैक
पृष्ठ संख्या: 120