किताबः बोलती दीवारें
लेखकः इरशाद कामिल
प्रकाशकः वाणी प्रकाशन
कीमतः 200 रुपये
कवरः हॉर्ड बाउंड
प्रेम जरूरी है
किताबों के लिए
किताबों से परे
केवल बहकावा
एक और रख रहा हूं देखिए..
लड़की का प्रेम फितूर
लड़के का अय्याशी
लड़की का प्रेम जहर लड़के का लहू
लड़की का प्रेम
मां का रक्तचाप, बाप का हृदय रोग
भाई की शर्मिंदगी, मौसी का मसाला
बुआ की झोंक, चाची का चटखारा
पड़ोसी की लपलपाती जीभ
अन्ततः शादी
लड़के का प्रेम
आज, चलो दूसरी ढूंढ़ें.
वाणी प्रकाशन से प्रकाशित बोलती दीवारें.. जब दो किरदारों के जरिए फुसफुसाती है तो ये पाठक के कानों को ‘भारी’ लगती हैं. लेकिन जब वे बीच बीच में छोटे-छोटे अंतराल पर कविताएं पढ़ती है, तो अंतर्मन में छोटे-छोटे बुलबुले फूटते हैं और उससे हल्की हल्की आवाज उभरती है इरशाद..इरशाद.
बोलती दीवारें.. इरशाद कामिल लिखित नाटक है. जिसे पढ़ते हुए कई बार लगता है कि आप किसी मुंबइया फिल्म की स्क्रिप्ट पढ़ रहे हो. इरशाद खुद भी यह कहते हैं कि ‘यह नाटक फिल्मी प्रेम पर सैकड़ों गीत लिखने की थकावट का नतीजा है’. लिहाजा अब पाठक को यह तय करना है कि थकावट का नतीजा अच्छा है या बुरा.
नाटक की समीक्षा लिखते वक्त जब वर्तमान परिदृश्य पर नजर जाती है, तो इसका वजन बढ़ने लगता है. प्रेम करना जब जेहाद होने लगे तो बोलती दीवारों के कानों ने लव जेहाद का शोर भी भभका होगा. ऐसे में ‘वसीम’ अगर आज के किसी जीते जागते समाज में ‘पूजा’ से प्रेम करता है, तो संभव है कि लव जेहादी करार दिया जाता और उसके साथ क्या सूलूक होता कोई नहीं जानता.
हालांकि इरशाद कामिल का ‘वसीम’ इस मायने में लकी है और उसे पुजारी के रूप में एक भला हिंदू आदमी मिलता है, जो दाढ़ी रखने वाले मुसलमान को अपने मंदिर में शरण देता है और उसकी रक्षा करता है. इरशाद की ‘बोलती दीवारें’ अपना संदेश देने में कामयाब है.
नादान परिंदे... और साड्डा हक.. जैसे मानीखेज गाने लिखने वाले इरशाद का नाटक अपने डॉयलॉग की वजह से कमजोर नजर आता है. नाटक का शिल्प और संरचना फिल्म से प्रभावित है और इसमें नाटकीय मोड़ भी है.
देवीः ऐसे मत देखो..वसीम ने मुझे सब बताया है.
पूजाः क्या बताया उसने आपको?... मेरी टीस, मेरा दर्द, मेरा पल-पल मरना बताया?... मेरे जीने का कारण बताया... मेरी उलझन और पागलपन की वजह बतायी... लेकिन मैं उसकी जलन को जानती हूं... जानती हूं कि क्यों कहा उसने मेरे ससुर को कि मैं रंजीत के लिए शुभ नहीं...
जब हिंदू और मुसलमान का प्रेम ‘लव जेहाद’ होने लगे, तो यह नाटक प्रासंगिक हो जाता है. भले ही ‘लव जेहाद’ का मामला मध्य वर्ग और गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों पर लागू हो. क्योंकि उच्च वर्ग के लिए तो इसका कोई औचित्य ही नहीं है.
अपने पात्रों पुजारी, उसकी पत्नी देवी के साथ पूजा और वसीम की प्रेम कहानी के जरिए इरशाद कामिल आज के हालात में चौराहें पर आईना लिए खड़े हैं. ताकि प्रेम पर राजनीति कर हिंदू-मुसलमान के बीच लकीर खींचने वाले अपना चेहरा निहार सकें.