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पुस्तक समीक्षाः 'दिद्दा -द वारियर क्वीन ऑफ कश्मीर', एक सर्वकालिक महान नायिका की भूलीबिसरी गाथा

आशीष कौल कॉरपोरेट जगत में सफल पारी खेलने के बाद इनदिनों लेखन जगत में भी धूम मचा रहे हैं. 'दिद्दा -द वारियर क्वीन ऑफ कश्मीर' उनकी ऐतिहासिक विषय पर लिखी किताब है. इससे पहले उनकी किताब 'रिफ्यूजी कैंप' कश्मीर समस्या पर थी, जिसे काफी सराहना मिली..

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कवर 'दिद्दा -द वारियर क्वीन ऑफ कश्मीर'
कवर 'दिद्दा -द वारियर क्वीन ऑफ कश्मीर'

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किसी किताब के पन्नों में बंद कहानी अगर अपने पात्रों के साथ-साथ आपके समाज को एक नए महानायक का तोहफा दे जाए तो लेखक और किताब की सफलता अपने आप में कुछ नए मापदंड स्थापित करती हुई जान पड़ती है. कुछ ऐसा ही हुआ है पिछले दिनों पाठकों के बीच आयी आशीष कौल की किताब 'दिद्दा -द वारियर क्वीन ऑफ कश्मीर' के साथ.

आशीष कॉरपोरेट जगत में सफल पारी खेलने के बाद इनदिनों लेखन जगत में भी धूम मचा रहे हैं. कश्मीर में फैले आतंकवाद की जड़ और उसके हालातों को उजागर करने वाली किताब 'रिफ्यूजी कैंप' से उन्होंने काफी चर्चा बटोरी. यह किताब कश्मीर पर हिंदी में लिखी सर्वाधिक चर्चित किताबों में से एक है और भारत से लेकर पाकिस्तान तक एक बड़े पाठकवर्ग द्वारा सराही गई.

'दिद्दा -द वारियर क्वीन ऑफ कश्मीर' उनकी ऐतिहासिक विषय पर लिखी किताब है, और 'रिफ्यूजी कैंप' से अलग यह पहले अंग्रेजी में छपी है. इस किताब के माध्यम से उन्होंने रानी लक्ष्मी बाई समेत उँगलियों पर गिनी जा सकने वाली महिला रोल मॉडल्स की संख्या से संतुष्ट भारतीय समाज को कश्मीर की रानी दिद्दा के रूप में वो महानायिका दी है, जिसने अपनी शर्तों पर अपने बनाये नियमों के अनुरूप अपने युग में पुरूषवादी पितृसत्तात्मक समाज को न सिर्फ चुनौती दी बल्कि मौके दर मौके उसे ठेंगा भी दिखाया.

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यह किताब दिद्दा के जीवन के अनेक पहलुओं को कुछ इस कदर उजागर करती है कि पाठक़ खुद से ये सवाल करता जान पड़ता है कि ऐसी करिश्माई महिला के हाथ शासन की बागडोर रही तो उसका ज़िक्र इतना धुंधला क्यों रहा कि किसी को दिखा ही नहीं? निश्चय ही पितृसत्तात्मक इस समाज ने उस वीरांगना से मौके-मौके पर मिली हार के बदले में उसकी वीरता की गाथा ही इतिहास से इस कदर ओझल कर दी कि वो सिर्फ एक चुड़ैल रानी ही बन कर कहीं गुम हो गयी.

लोहार राजवंश (आज का हरियाणा, पंजाब, पुंछ राजोरी जिसका भाग था) में जन्मी एक खूबसूरत नन्हीं बच्ची को उसके माँ बाप सिर्फ इसलिए त्याग देते हैं कि वो अपंग पैदा हुई. नौकरानी का दूध पीकर पली बढ़ी वो लड़की अपने अपंग होने को बाधा न मानते हुए युद्ध कला में पारंगत हुई और तरह-तरह के खेलों में निपुणता हासिल की. एक दिन आखेट के दौरान कश्मीर के राजा क्षेमगुप्त ने जब उस खूबसूरत राजकुमारी दिद्दा को देखा तो पहली ही नज़र में दिल दे बैठा.

राजा क्षेमगुप्त एक भला राजा था. यह जान लेने के बाद भी कि दिद्दा लंगड़ी है उसने उससे ब्याह रचाया और दिद्दा की किस्मत एक तरह से पलटी खा गयी. उसे पति का प्यार, मान-सम्मान, पुत्र रत्न तो मिला ही, साथ ही उसने क्षेमगुप्त के राज काज में भी भागीदारी निभानी शुरू कर दी. इस भागीदारी के सम्मान में अपनी पत्नी के नाम पर सिक्का जारी किया. वह ऐसा पहला राजा बना जो अपनी पत्नी के नाम से जाना गया.

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'दिद्दा -द वारियर क्वीन ऑफ कश्मीर' में उल्लिखित वर्णन के अनुसार जब सबकुछ ठीकठाक चल रहा था तभी एक दिन आखेट के दौरान क्षेमगुप्त की मृत्यु हो गई, बस फिर क्या था दिद्दा की ज़िंदगी एक दौराहे पर खड़ी हो गई. इस दोराहे में जहाँ एक तरफ पति की मृत्यु का दुःख और सती हो जाने की परंपरा थी, तो दूसरी तरफ एक नन्हे राजकुमार के राज-पाठ संभालने लायक होने तक उसके पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा की ज़िम्मेदारी निभाने वाली माँ का दायित्व.

इसी द्वंद्व के दौरान मरते हुए राजा को राज्य के सुरक्षित हाथों में देने का प्रण उसे यकायक वो शक्ति दे जाता है, जिसके चलते वो सती होने से मना कर देती है. 'दिद्दा -द वारियर क्वीन ऑफ कश्मीर' में यह पढ़ना दिलचस्प है कि कैसे समय-समय पर दिद्दा ने पुरुष सत्तात्मक समाज के बने-बनाए नियम तोड़े और अपने खुद के नियम बनाए. इसका नतीजा यह निकला कि मर्दवादी मानसिकता ने दिद्दा को डायन तक करार दिया. पुरूष समाज को यह समझना मुश्किल था कि आखिर बिना मायावी शक्तियों के कोई विकलांग लड़की चार दशक से भी अधिक समय तक समूचे कश्मीर और धरती के एक बड़े हिस्से पर राज्य कैसे कर सकती थी?

दिद्दा की कहानी एक ऐसी नायिका के जीवन यात्रा की कहानी है जो एक अनचाही अपंग कन्या से शुरू होकर, कश्मीर के राजा की बीवी बनने और फिर विधवा होने के बाद राज्य संभालने, कई युद्ध करने और युद्ध जीतने के लिए गुरिल्ला तकनीक ईजाद करने के प्रसंग से होती हुई उस दिलचस्प मोड़ से गुज़रती है, जहां संभवतः विश्व की प्रथम कमांडो सेना, एकांगी सेना के बनने का घटनाक्रम वर्णित है.

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यह कहानी साहस, संयम, कर्तव्य और राष्ट्रभक्ति की गाथा तो कहती ही है, मानव मन के विकार और द्वेष की गाथा भी सुनाती है. यह यों ही नहीँ है कि दिद्दा जिस बेटे के लिए जीवित रही उसी के द्वारा अपने महल से निकाल दी गई. इसके बावजूद उसने जनता से जुड़ाव जारी रखा, मंदिरों का निर्माण कराया, सारे एशिया के साथ व्यापार और ईरान तक फैले अखंड भारत की सीमाओं की रक्षा के लिए रणनीति निर्माण कराया.

इस किताब के तमाम संदर्भ आपको इतिहास के उस दौर में ले जाते हैं, जिसकी बात अक्सर होती ही नहीं है. इन सबके बीच उस खूंखार महमूद गज़नी का भी ज़िक्र आता है, जिसके हिन्दुस्तान में प्रवेश करने के बाद जो विध्वंस हुआ, उस इतिहास को समूचा देश जानता है, पर यह किताब महमूद गज़नी का ज़िक्र करते हुए एक ऐसे प्रसंग की बात करती है जिस से अधिकांश लोग अनभिज्ञ हैं.

भारत पर आक्रमण करने वाले सर्वाधिक खूंख्वार आक्रांताओं में से एक, सोमनाथ मंदिर को लूटने वाले और कई शहरों को तहस-नहस करने वाले गजनी को दिद्दा ने अपनी रणनीति से एक नहीं दो-दो बार भारत में घुसने से रोका और युद्ध में हराया, जिसके बाद उसने रास्ता बदला और गुजरात के रास्ते भारत में प्रवेश किया.

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एक के बाद एक कई युद्ध प्रसंगों के बाद दिलचस्प है दिद्दा का अपने वारिस को चुनने का तरीका. एक सशक्त राज्य एक काबिल शासक के हाथों में जाए ये सुनिश्चित करने के लिए भी दिद्दा का अपना ही तरीका था. अपने भांजों के बीच उसने एक अनूठी प्रतियोगिता रखी कि जो सबसे ज़्यादा सेब एक बार में अपने हाथों में समेटकर ले आएगा वो उसे ही सत्ता की बागडोर सौंप देगी. साफ़ है कि राज्य के भावी राजा के पराक्रम और बुद्धि के सही संतुलन को आंकने का यह दिद्दा का अपना तरीका था.

रानी दिद्दा की यह वीर गाथा यों तो काल्पनिक लगती है, पर कथाकार के रूप में आशीष कौल इसे असली नायक की वीरगाथा बताते हैं. वह गाथा जिसे उन्होंने बचपन में सुना था, और जिसे उन्होंने करीब छह साल के रतजगों के बाद लिखा. उनके मुताबिक यों तो राजा विक्रमादित्य के बाद ज़मीन और शासकों को जोड़कर एक अखंड साम्राज्य पर राज्य करने वाली उस अभूतपूर्व रानी की पूरी कहानी जानने का दावा कोई नहीं कर सकता, पर इस किताब के बारे में वह सिर्फ एक ही वाक्य कहना चाहते हैं, 'ये दिद्दा के जरिये हर जुझारू महिला की कहानी है, विश्व भर की महिलाओं के लिए दिद्दा प्रेरणा है.'

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'दिद्दा -द वारियर क्वीन ऑफ कश्मीर' को पढ़ते वक्त ऐसा लगता है कि लेखक ने उपलब्ध जानकारियों के टुकड़ों को जोड़कर शौर्य बहादुर वीरांगना रानी दिद्दा की कहानी लोगों तक पहुंचाने की एक कोशिश की है. सच पूछिए तो रानी दिद्दा की कहानी आज के जमाने में तब और भी समसामयिक हो जाती है, जब बहुत-सी महिलाएं अपनी संघर्ष भरी यात्रा के बाद सत्ता व शोहरत के बीच सफलता पाकर ऊंचे पदों पर न सिर्फ बैठ रही हैं, बल्कि अपनी काबलियत से दुनिया भर को चौंका रही हैं. ठीक यही तो आज से 1200 साल पहले रानी दिद्दा ने किया था.

इस किताब का फॉरवर्ड एक और असाधारण महिला पैरा ओलिम्पिक चैम्पियन और पद्मश्री दीपा मालिक ने लिखा है. दीपा कहती हैं कि ‘ये भारतीय इतिहास द्वारा भुला दी गयी एक ऐसी अनूठी मर्मस्पर्शी भारतीय महिला की कहानी है, जिसको लोगों तक पहुंचाने के लिए लेखक ने बड़ी खूबसूरती से शब्दों के दिन बनाकर कहानी की माला में पिरोया है. ये कहानी सिर्फ कहानी न होकर महिलाओं से जुड़ी कई वैश्विक मान्यताओं को तोड़ती है और विश्व को महिलाओं की काबलियत की न सिर्फ इज्ज़त करना सिखाती है. बल्कि, उनकी स्वीकार्यता भी बढ़ाती है.।

'दिद्दा -द वारियर क्वीन ऑफ कश्मीर' को बाजार में आए अभी ज्यादा वक्त नहीं हुआ है, पर इस किताब को पाठकों का भरपूर प्यार मिल रहा है, और पहले ही हफ्ते में अमेज़न की बेस्टसेलर रैंकिंग में दसवें नंबर पर पहुंचकर इसने एक नया कीर्तिमान स्थापित किया. अभी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर अंग्रेजी के तमाम प्रकाशनों में इस किताब की चर्चा थी. लेखक के मुताबिक दिद्दा की यह कहानी जल्द ही हिंदी के साथ-साथ अन्य भाषाओँ के पाठकों के लिए भी उपलब्ध होगी.  

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किताबः दिद्दा -द वारियर क्वीन ऑफ कश्मीर

लेखकः आशीष कौल

प्रकाशकः रुपा पब्लिकेशंस इंडिया

पृष्ठ संख्याः 232

भाषाः अंग्रेजी

मूल्यः रुपए 160

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