scorecardresearch
 

बुक रिव्यू: 'बेला बहू' से समझिए जिंदा और आजाद रहने में फर्क और मायने

अगर आप जिंदा और आजाद रहने के फर्क और उसके मायनों को विस्तार से समझना चाहते हैं तो मैत्रेयी पुष्पा की ये किताब जरूर पढ़ें. लेखिका ने सही ही कहा है कि ये किताब उनके लिए है जो लोग स्वाभिमान को सबसे बड़ी दौलत समझते हैं. समझौतों के इस भयानक दौर में 'बेला बहू' के किरदार के जरिए लेखिका ने बदलते ग्रामीण भारत और पुरुष प्रधान समाज की सच्चाइयों को उजागर किया है.

Advertisement
X

किताब: फरिश्ते निकले
लेखक: मैत्रेयी पुष्पा
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
कीमत: 395 रुपये

Advertisement

अगर आप जिंदा और आजाद रहने के फर्क और उसके मायनों को विस्तार से समझना चाहते हैं तो मैत्रेयी पुष्पा की ये किताब जरूर पढ़ें. लेखिका ने सही ही कहा है कि ये किताब उनके लिए है जो लोग स्वाभिमान को सबसे बड़ी दौलत समझते हैं. समझौतों के इस भयानक दौर में 'बेला बहू' के किरदार के जरिए लेखिका ने बदलते ग्रामीण भारत और पुरुष प्रधान समाज की सच्चाइयों को उजागर किया है.

किताब में 'बेला बहू' और उसके आस-पास के किरदारों को जिस तरह रचा गया है वो मन में इस किताब की एक अविस्मरणीय छवि छोड़ते हैं. शुगर सिंह, बलवीर, भरतसिंह, जोरावर, बसंती आदि किरदारों के जरिए इस किताब में कई छोटी-छोटी कहानियां का ताना-बाना बुना गया है. इन्हें पढ़कर आप जानेंगे कि किस कदर मामूली स्तर के लोग रईस और रसूखदार लोगों के जुल्मों का शिकार होते हैं. उनके अन्याय, अत्याचार को सहते हुए गुलामी का जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं.

Advertisement

पुस्तक में पुरुष प्रधान समाज के भीतर स्त्री को यौन वस्तु समझने वाली सोच पर जबरदस्त कटाक्ष किया गया है. जरा किताब का ये अंश पढ़िए...
'बिन्नू! कोई आदमी जहां-तहां या थोड़ा-मोड़ा नहीं होता. वह जब होता है तो अपने गुन-अवुगनों के साथ पूरा-पूरा होता है, इतनी बात हम जानते हैं तो तुम भी अवश्य जानती होंगी...
बेलाबहू! परिवार की पोल खुलेगी लेकिन तुम्हारा चाल-चलन तो जितना भी खुलेगा, लोगों की दिलचस्पी के लिए मजेदार चीज होगी. समाज हो या साहित्य या कि राजनीति, इनमें आनेवाली स्त्री 'कैची पॉइन्ट' मानी जाती है. मर्दों के चरित्र को कौन देखता है.'

किताब में क्षेत्रीय भाषा के इस्तेमाल ने इसे पढ़ने में और अधिक सरल और मजेदार बना दिया है. कैसे एक स्त्री अपना बचपन खो देती है, बिक कर एक अधेड़ के चंगुल में फंस जाती है, उसके बाद यौवन आने पर भी उसे वैवाहिक सुख नहीं मिल पाता. और फिर हमउम्र मर्दों के प्रति उसका खिंचाव, उसमें बच्चे, घर बसाने और ममता लुटाने की चाह, और हमदर्दी के बहाने अन्य पुरुषों द्वारा उससे अपनी सेक्स संबंधी जरूरतें पूरी किए जाना. स्वाभिमान और आत्मसम्मान भरी जिंदगी पाने के लिए संघर्ष की ये दास्तां बेहतरीन है.

किताब के कुछ रोचक अंश-
'क्या आत्मसम्मान से ज्यादा आराम की खाने का आकर्षण होता है औरत को? खुद्दारी निभाना इतना मुश्किल पड़ता है कि किसी मर्द के पास आते ही वह खुदा लगने लगे?' ये भी तो संस्कार है पुरुष सत्ता कबूल करने का संस्कार.

Advertisement

'उनके यहां बेला जैसी स्त्रियों के लिए दो ही भूमिका बेहतरीन है - आज्ञाकारिता और संभोगपटुता. बेला में ये खासियतें थीं शायद जो पाहुने जैसे लोगों को दिलचस्प लगीं. इसी अदा को बेला जैसी औरतों की सभ्यता समझा जाता है'.

'बेला को आज लग रहा है कि जब-जब औरत को इस सभ्यता में डालकर तौला-मापा जाएगा, तब-तब मरदाना जकड़बंदी कसती चली जाएगी और जब इस जकड़न के खिलाफ दासी जैसी रम्भाओं की लड़ाई जन्म लेगी तब-तब औरत के लिए पुरुषों में नफरत का भाव जगेगा क्योंकि वे औरत की जवानी को अपने फायदे में निचोड़कर मालिक बने रहने की कोशिश में रहते हैं. मगर यह 'सभ्यता' कब तक रहेगी? यह निजाम बासी नहीं पड़ता जा रहा?'

 

Advertisement
Advertisement