किताब: हिंदुत्व का मोहिनी मंत्र
लेखक: बद्री नारायण
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
कीमत: 400 रुपये
कवरः हार्डबाउंड
बद्री नारायण की किताब 'हिन्दुत्व का मोहिनी मंत्र' इस षड़यंत्र को उद्घाटित करने की कोशिश में लिखी गई है कि बीजेपी के सांस्कृतिक सहयोगियों ने पिछले दस वर्षों में बड़ी ही सूक्ष्मता से दलितों को अपनी ओर खींचने की रणनीति तैयार की है. अपनी इस किताब में उन्होंने तर्कों साक्ष्यों, व्यक्तिगत तौर पर जुटाई गई जानकारियों और इतिहासकार-समाजशास्त्रियों के हवाले से यह प्रमाणित करना चाहा है कि विश्व हिन्दू परिषद और संघ जैसी संस्थाओं का एकमात्र उद्देश्य दलितों को हिन्दुत्व के वृहत्तर एजेंडे से जोड़ना है. ताकि उन्हें मुसलमानों के खिलाफ एकजुट किया जा सके और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की स्थिति में दलितों को सवर्ण हिन्दुओं की रक्षा के लिए पेश किया जा सके.
उन्होंने खास कर उत्तर प्रदेश और बिहार में हिन्दूवादी शक्तियों को इस ध्रुवीकरण और गोलबंदी के लिए जिम्मेदार ठहराया है . पहले अध्याय, भूमिका: अतीत और राजनीति, में वे कहते हैं- 'अस्सी के दशक में हाशियों में सिमटी दलित जातियां प्रजातांत्रिक मंच पर उभरने लगीं और सत्ता के संतुलन को छिन्न-भिन्न करने लगीं, तब राजनीतिक दलों को भी अपनी रणनीति पर नए सिरे से विचार करना पड़ा'. उन्होंने संघ और विश्व हिन्दू परिषद के अलावा मुख्यत: दो राजनीतिक पार्टियों की दलित विचारधारा का जिक्र किया है, बसपा और बीजेपी.
बहुजन समाज पार्टी, जिसका गठन ही सदियों से दमित, शोषित दलितों के सशक्तीकरण के लिए हुआ था, उसने लोगों में आत्मविश्वास भरने के लिए ऐतिहासिक नायकों को प्रतीक के रूप में चुना जबकि बीजेपी ने रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों से पात्र चुने. मसलन रामायण से शबरी, निषादराज, महाभारत से एकलव्य और धीरे-धीरे उनके जातीय नायकों को राम और लक्ष्मण के अवतार बता कर यह जताने का प्रयास किया कि उन्हें सवर्ण हिन्दुओं ने नहीं, तुर्क और मुगल आक्रांताओं ने सदियों प्रताड़ित किया है.
बद्री नाराय़ण लिखते हैं- 'बीजेपी ने दलितों के लिए वंचित शब्द का इस्तेमाल करना चाहा है, वंचित एक निरापद शब्द है लेकिन प्रजातांत्रिक राजनीति के दबाव में दलित शब्द के प्रयोग से भी परहेज नहीं किया है. वंचित इसलिए कि वो लोग कभी हिन्दू धर्म और संस्कृति के गौरवशाली रक्षक और संरक्षक हुआ करते थे, लेकिन समाज में मुस्लिमों की घुसपैठ के बाद वंचित हो गए. बीजेपी का ये भी कहना है कि पिछले पैंतालीस वर्षों में हुए दंगों में हिन्दुओं के लिए लड़ने वाले और मरने वाले अधिकांश लोग आज की दलित और पिछड़ी जातियों से संबंधित थे. इसका अर्थ यह हुआ कि हिन्दुओं की रक्षा के लिए मुसलमानों से लड़ने वाले वही लोग थे, जो कि तथ्यात्मक रूप से गलत नहीं है. दंगों में किस वर्ग के लोग ज्यादा भोगते हैं, यह सर्वविदित है, और मध्ययुगीन बर्बरता भी निश्चय ही इसी वर्ग के लोगों ने ज्यादा झेली थी. यह तो ऐतिहासिक तौर एक स्थापित सत्य है.'
वे कहते हैं कि बीजेपी ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को सफल बनाने के लिए जो रणनीतियां अपनाईं वे कारगर साबित हुईं और पार्टी एकाएक कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्वी बन गई. लेकिन धीरे-धीरे जब राम का मिथक वोट दिलाने में असफल होने लगा तो वीएचपी और संघ इस वोट बैंक की जातीय स्मृतियों की ओर मुड़े. वे प्रमाण देते हैं कि उत्तर प्रदेश और बिहार में मुसहर जाति की अच्छी खासी आबादी को भुनाने के लिए दो लोकप्रिय नायकों- दीना-भदरी को राम और लक्ष्मण के अवतारों के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है.
इसी तरह दुसाध जाति के नायक सलहेस को भी भगवान राम का अवतार बताया जा रहा है. निषादराज गुह्य और शबरी को महान दलित प्रतीक बनाया जा रहा है. शबरी और निषादराज दोनों ही राम से जुड़े हैं. शबरी का राम के प्रति भक्तिभाव जगजाहिर है और राम की शबरी के प्रति करुणा भी अनन्य है. वे मानते हैं कि दलितों में उनके नायकों और जातीय स्मृतियों को लेकर अभिमान पैदा करने का एकमात्र उद्देश्य उन्हें मुसलमानों के खिलाफ गोलबंद करना है. जबकि वे खुद इस सत्य को स्वीकार करते हैं खुद दलितों में अपनी जातीय स्मृतियों के लिए गौरव अनुभव करने की इच्छा बलवती हुई है.
उत्तर प्रदेश के बहराइच में सुहेलदेव के मिथक का इस्तेमाल किया गया है. किताब में कुछ इतिहासकारों का जिक्र है, जिन्होंने दलितों की वंशावली या उनका इतिहास लिखा है. इस कड़ी में वे कुछ आर्यसमाजियों की चर्चा भी करते हैं. किताब मेहनत से लिखी गई है, जिसमें तमाम बड़े समाजशास्त्रियों, इतिहासकारों, विचारकों को उन्होंने उद्धरित किया है. खुद लेखक ने कई क्षेत्रों का दौरा किया है और लोगों से बातचीत के आधार पर सबूत जुटाए हैं. लेकिन अधिकांश जगहों पर दृष्टि एकांगी हो गई है.
उन्होंने संघ परिवार को खतरनाक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ओर बढ़ते हुए प्रस्तुत किया है, लेकिन वैश्विक स्तर पर इस्लाम के प्रचंड रूप के बरक्स एक संरक्षणात्मक और प्रतिक्रियात्मक शक्ति के रूप में इनके उदय को देखने से चूक गए हैं. वे कहते हैं कि बहराइच में पासी नायक सुहेलदेव के प्रतीक को पूरी तरह से सांप्रदायिक रंग दे दिया गया है.
बद्रीनाराय़ण के मुताबिक संघ परिवार ने सुहेलदेव को एक वीर पासी राजा के रूप में चित्रित करने में बहुत हद तक कामयाबी पाई है, जिसने मुस्लिम सैयद सालार गाजी मियां का वध किया था और लोगों को उसके आतंक से मुक्ति दिलाई थी. बहराइच में गाजी मियां की दरगाह भी है, जहां लाखों हिन्दुओं की आस्था है. लेकिन सुहेलदेव का मंदिर बनवाकर और नौटंकी खेलकर लगातार वहां का माहौल बिगाड़ा जा रहा है. हालांकि उन्होंने यहां लिखा है कि बहराइच जिले में मदरसों की बाढ़ से हिन्दू सशंकित हुए हैं.
लेखक के मुताबिक, संघ दावा करता है कि गाजी मियां की दरगाह प्राचीन काल में बालार्क ऋषि का आश्रम हुआ करती थी. इसके भीतर के सूरजकुंड को तहसनहस कर दिया गया. उन्होंने सुहेलदेव के मंदिर की तस्वीर तो किताब में दी है लेकिन दरगाह की कोई तस्वीर नहीं दी है. इतिहास के मुताबिक सालार गाजी महमूद गजनी का भांजा था. किताब में इलाके का सौहार्द्र बिगाड़े जाने का तो खूब जिक्र है लेकिन महमूद गजनवी का भांजा होने के बावजूद सालार मसूद को सवालों के घेरे से बाहर रखा गया है. बहराइच में मदरसों की भरमार को भी उन्होंने बहुत ही साधाऱण तरीके से उठाया है और लगातार यह स्थापित करने की कोशिश की है कि सुहेलदेव के चरित्र को भगवा रंग में रंगा जा रहा है.
कई जगहों पर उनके तर्क में दम है लेकिन कई जगहों पर अजीबोगरीब बातें भी है. वे कहते हैं कि संघ ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाने के लिए देश की जगह राष्ट्र शब्द को प्रचलित कर दिया है. अब उनसे पूछा जा सकता है कि अंग्रेजी शब्दों के आतंक से सहमी हुई हिन्दी भाषा में भला राष्ट्र शब्द का इस्तेमाल कितने लोग करते है. करते भी हैं तो राष्ट्र और देश शब्द में अंतर क्या है. दोनों ही संस्कृत शब्द हैं.
उनके मुताबिक निषादों के वोट पाने के लिए संघ और बीजेपी ने निषादराज गुह्य को खूब महिमामंडित किया है. पहले मल्लाहों को राम और निषादराज के संबंध का हवाला देकर कार सेवा के लिए उकसाया गया था अब उन्हें लगातार हिन्दू संस्कृति की रक्षा के लिए आगे आने को नकारात्मक अर्थ में प्रेरित किया जा रहा है. उनकी जातीय स्मृतियों को दो सभ्यताओं के संघर्ष में जीवंत किया जा रहा है.
बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों का हवाला देते हुए उन्होंने यह भी माना है कि इन तमाम जातियों के लोग जो हमेशा से सवर्णों के साथ खुद को देखना चाहते थे, आत्माभिमान से वंचित थे, अब ऊपर उठ रहे हैं लेकिन सांप्रदायिकता के विषय पर आते ही वे सिर्फ संघ परिवार को दोष देते हैं. उन्हें इस अर्थ में हिन्दू धर्म की सहिष्णुता और विराटता का अनुभव भी नहीं होता कि दीना-भदरी और सलहेस जैसे दलित नायकों को भी राम का अवतार कहना सिर्फ यहीं संभव है. क्योंकि अवतार की पूरी अवधारणा ही इस सिद्धांत पर आधारित है. हिन्दू धर्म में मनुष्य अपने जीवन में ईश्वर के अवतार मान लिए जाते हैं और ईश्वर मनुष्य के रूप में धरती पर अवतार लेते हैं. यहीं से मनुष्य और ईश्वर के बीच एक कड़ी जुड़ जाती है, जो मनुष्य से मनुष्य को भी ज्यादा आसानी से जोड़ती है.
अपनी बात को वजनदार बनाने के लिए लेखक ने हिन्दू समाज में मुसलमानों के लिए प्रचलित कहावतों, कविताओं को उद्धरित किया है. जैसे 'दलित सेना की खोज' अध्याय के शुरू में एक कहावत को उद्धरित करते हैं- 'सुअर के बार और तुरुक के दाढ़ी एक जैसा होला'. लेकिन ये कहावतें और तमाम कविताएं सिर्फ इस बात को प्रमाणित करने के लिए लिखी गई हैं कि संघ और विहिप लगातार इन कहावतों को अपने मतलब का विस्तार दे रहे हैं.
लेखक ने बीजेपी नेताओं के भाषण पेश किए हैं, कि कैसे जाति विशेष को भुनाने के लिए उनके सामने नायकों का गुणगान किया जा रहा है. सांस्कृतिक स्रोतों की राजनीति अध्याय में वे शुरू में विहिप नेता और सन्त स्वामी प्रपन्नाचार्य का एक कथन पेश करते हैं- 'दलितों में राम किसी और रूप में पैदा हुए हैं'. क्या वंचितों और सदियों से शोषित जाति को आत्मा का गौरव प्रदान करने के लिए उनके लोक से किसी नायक को खोजकर उसमें राम को प्रतिष्ठित करना सिर्फ सांप्रदायिक सोच है? क्या हिन्दू समाज को जाति-भेद और वर्ण से मुक्त करने की ये कोशिश सिर्फ षड़यंत्र है?
लेखक को इस बात से भी आपत्ति है कि शबरी को इतना महत्व क्यों दिया जा रहा है. वे कहते हैं कि शबरी की कथा नेसफील्ड की रामायण में है ही नहीं. पहली बात तो यह कि नेसफील्ड की रामायण को भारत में पढ़ता कौन है, दूसरी बात ये कि शबरी की कथा इस बात का अकाट्य प्रमाण भी है कि हिन्दू धर्म की मूल आत्मा में जाति व्यवस्था जैसी कोई चीज थी नहीं. दीना-भदरी, शबरी, सुहेलदेव, एकलव्य, सलहेस, फूलन देवी इन तमाम पात्रों के जरिए उन्होंने दलितों के भगवाकरण को रेखांकित किया है.
किताब के आखिरी हिस्से में उन्होंने लिखा है- 'ग्रामीण स्तर पर सामाजिक यथार्थ का अध्ययन करने वाले समाजशास्त्री के रूप में इस तथ्य को उदघाटित करना मेरा कर्तव्य है कि उत्तरप्रदेश और बिहार के कई अंचलों में लोक-संस्कृति न केवल मानवीय भावनाओं से ओतप्रोत है बल्कि उसमें सांप्रदायिकता का भी कुछ रंग है'. आगे वे कहते हैं कि इसका मतलब यह नहीं कि गांव के लोग सांप्रदायिक हैं, बल्कि सभी समुदायिक सद्भाव के साथ रहते हैं.
इस सद्भाव के नीचे का सच ये भी है कि भारत में हिन्दू-मुसलमान एक साथ रहते हुए भी दो भिन्न संस्कृतियों के वाहक के रूप में कभी भी आमने-सामने आ जाते हैं. भारतीय मानस में सदियों की गुलामी की कुंठा बहुत गहरी है. और उसे पिछले बीस वर्षों में वैश्विक आतंकवाद, देश पर हुए तमाम आतंकी हमलों, पाकिस्तान के घोर इस्लामीकरण और कश्मीर समस्या ने निरंतर बल प्रदान किया है. इस पुस्तक में उठाई गई बातें विचारणीय तो हैं लेकिन एकतरफा हैं, जो निष्पक्ष होकर सांप्रदायिकता के सवाल को हल नहीं करतीं. उन बातों में ईमानदार इतिहास-बोध का भी अभाव है.