किताब: कहानियां रिश्तों की: मां
संपादक: मनोज कुमार पांडेय
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
कीमत: 150 रुपये (पेपरबैक)
रचना के हिसाब से एक बेहद छोटे-से शब्द के आगे दुनिया की बड़ी-से-बड़ी हर चीज अपने-आप छोटी हो जाती है...वह शब्द है ‘मां’. वह मां ही है, जिसकी ममता की छांव में शिशु आंखें खोलकर पहले-पहल संसार देखता है. वह मां ही होती है, जिनकी करुणामयी कृपा से इंसान दुनियाभर की तमाम दुश्वारियों से पार पा जाता है. इसी रिश्ते को केंद्र में रखकर लिखी गई बेहद लाजवाब कहानियों का संग्रह राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया है.
संग्रह में प्रेमचंद, भीष्म साहनी, उपेंद्रनाथ अश्क सरीखे कई नामचीन कहानीकारों की रचनाएं हैं, जो इस रिश्ते के हर पहलू को एकदम सटीकता से बयां करते हैं.
प्रेमचंद ने ‘माता का हृदय’ कहानी के जरिए एक ऐसी मां की तस्वीर खींची है, जो अपने बेटे के अहित का बदला लेने के लिए घर की देहरी लांघकर कुछ भी करने को तैयार नजर आती है:
‘रात भीगती जाती और माधवी उठने का नाम न लेती थी. उसका दुख प्रतिकार के आवेश में विलीन होता जाता था. यहां तक कि इसके सिवा उसे और किसी बात की याद ही न रही. उसने सोचा, कैसे यह काम होगा. कभी घर से नहीं निकली. वैधव्य के 22 साल इसी घर में कट गए. लेकिन अब निकलूंगी. जबरदस्ती निकलूंगी, भिखारिन बनूंगी, टहलनी बनूंगी, झूठ बोलूंगी, सब कुकर्म करूंगी. सत्कर्म के लिए संसार में स्थान नहीं.’
प्रेमचंद की कहानियां आदर्शवाद की ओर झुकी होती हैं. इसकी झलकी यहां भी देखी जा सकती है. मां तो आखिरकार मां ही होती है:
‘माधवी अहित का संकल्प करके यहां आई थी. आज जब उसकी मनोकामना पूरी हो गई, तो उसे खुशी से फूला न समाना चाहिए था. उसे उससे कहीं घोर पीड़ा हो रही थी, जो उसको अपने पुत्र की जेल यात्रा से हुई थी. रुलाने आई थी और खुद रोती जा रही थी.’
प्रेमचंद ने इस कहानी में जिस मां को दिखाया है, वही किसी माता का असली रूप होता है:
‘माता का हृदय दया का आगार है. उसे जलाओ, तो उससे दया की ही सुगंध निकलती है. पीसो तो दया का ही रस निकलता है. वह देवी है. विपत्ति की क्रूर लीलाएं भी उस स्वच्छ निर्मल स्रोत को मलिन नहीं कर सकती.’
उपेंद्रनाथ अश्क की कहानी ‘मां’ में ऐसी माता की तस्वीर उभरती है, जो बेटे के लिए बड़ा से बड़ा त्याग करती है, पर बेटा पत्नी के लिए मां को बेसहारा छोड़कर चला जाता है. मां विष में ही अमृत तलाशने को मजबूर हो जाती है:
‘मां की आंखों के आगे अंधेरा छा गया....जैसे उसे विष नहीं, जीवनामृत मिल गया हो. एक ही बार सारी की सारी अफीम निकालकर मुंह में रख ली. जीवन के सारे दुख, सारी विपत्तियां, समस्त हारें, एक-एक करके उसकी आंखों के सामने घूमने लगीं.’
भीष्म साहनी की कहानी ‘चीफ की दावत’ में बूढ़ी मां अपने बेशर्म बेटे की तरक्की की खातिर अपना अपमान खुशी-खुशी सह लेती है. पर बेटा है कि....
‘...और मां आज जल्दी से सो नहीं जाना. तुम्हारे खर्राटे की आवाज दूर तक जाती है.’ मां लज्जित-सी आवाज में बोली, ‘क्या करूं बेटा, मेरे बस की बात नहीं है...’
आखिरकार मां के हुनर की बदौलत बेटे की तरक्की की राह निकलती है. मां बेबस है, लाचार है, पर यह सब बेटे को नजर कहां आता है:
वह अपनी मां को गले लगा लेता है...'ओ अम्मी, तुमने तो आज रंग ला दिया, साहब तुमसे इतना खुश हुआ कि क्या कहूं...'
मां आंसू पोंछते हुए कहती है, 'बेटा तुम मुझे हरिद्वार भेज दो.'
बेटा कहता है, 'अगर तुम फुलकारी बना दोगी, तो मुझे तरक्की मिल जाएगी.’
इसी तरह भैरव प्रसाद गुप्त की कहानी ‘मां’, मन्नू भंडारी की ‘रानी मां का चबूतरा’, मार्कंडेय की ‘माई’, कृष्णा सोबती की ‘ए लड़की’ व इस संग्रह की अन्य कहानियां दिल को गहराई से छू जाती हैं.
कुल मिलाकर 'मां' पर आधारित यह कहानी संग्रह एकदम बेजोड़ है और रिश्तों में नई जान डालने वाला है. इसी तरह कुछ अन्य अहम रिश्तों पर आधारित नामचीन रचनाकारों की कहानियों का संग्रह भी इसी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. ऐसी कहानियों के संकलन में किसी खास रिश्ते को ही आधार बनाया गया है, जैसे- मां, दांपत्य, पिता, सहोदर, दादा-दादी-नाना-नानी, दोस्त, परिवार आदि. अन्य रिश्तों में भी ढेरों मर्मस्पर्शी कहानियां हैं. श्रृंखला संपादक हैं अखिलेश, जो पाठकों को रिश्ते की डोर में बड़ी मजबूती से बांधने में कामयाब रहे हैं.