बुकः मैंडेट- विल ऑफ द पीपल (नॉन फिक्शन- इंग्लिश)
पब्लिशरः वेस्टलैंड लिमिटेड
एडिशनः पेपरबैक, 137 पेज
कीमतः 195 रुपये
जाने माने पत्रकार, स्तंभकार और लेखक वीर सांघवी ने एक किताब लिखी है. शीर्षक है, मैंडेट- विल ऑफ द पीपल. सांघवी ने इसमें कई ऐसी बातें लिखी हैं, जो जनता के लिए नई और चौंकाने वाली हैं. मसलन इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी को इंद्र कुमार गुजराल ने डपटते हुए क्या कहा, ये खुद गुजराल की जुबानी बताया गया है. इसके अलावा यह भी बताया गया है कि सोनिया गांधी ने 1999 में ही तय कर लिया था कि कांग्रेस सत्ता में आई, तो मनमोहन पीएम होंगे.
बाबरी मस्जिद विध्वंस के मामले में राष्ट्रपति का रोना हो या अमेरिका में इलाज के दौरान एक मुलाकात के बाद न्यूक्लियर डील पर अमर सिंह और फिर सपा का बदला स्टैंड, सांघवी ने तमाम अहम राजनीतिक घटनाक्रमों के कई दिलचस्प और नए ब्यौरे दिए हैं.
दशकों तक अलग अलग प्रतिष्ठानों में संपादक रहने और सत्ता के गलियारों में करीबी पैठ के चलते सांघवी को कई ऐसी बातें भी पता थीं, जो पब्लिक नहीं हुई थीं. ये किताब ऐसी कई बातों को सामने लाती हैं.
पेश हैं किताब से पांच रोचक राजनीतिक घटनाक्रम..
1. संजय गांधी को गुजराल की दो टूक, वरिष्ठों से तमीज से बात कीजिए
इमरजेंसी का दौर. इंद्र कुमार गुजराल इंदिरा सरकार में सूचना प्रसारण मंत्री. एक कैबिनेट मीटिंग के बाद इंदिरा गांधी के सुपुत्र संजय गांधी का गुजराल को फरमान. मैं ऑल इंडिया रेडियो के न्यूज बुलेटिन प्रसारित होने से पहले देखना चाहता हूं. गुजराल ने दो टूक जवाब दिया. ये मुमकिन नहीं. मैं भी प्रसारण से पहले कभी नहीं देखता. तभी इंदिरा आती हैं और बात को टालते हुए कहती हैं, इसे बाद में देखते हैं.
फिर कुछ रोज बाद गुजराल को प्रधानमंत्री आवास में तलब किया जाता है. जब वह पहुंचते हैं, तो पाते हैं कि इंदिरा तो अपने दफ्तर के लिए निकल चुकी हैं. उनके सामने संजय गांधी खड़े हैं. संजय गुजराल को चेताते हुए कहते हैं, देखिए ऐसे नहीं चलेगा. गुजराल ने वो जवाब दिया, जिसके बारे में इंदिरा कैबिनेट का और कोई मंत्री सोच भी नहीं सकता था. गुजराल बोले, देखिए यहां. जब तक मैं हूं ऐसे ही चलेगा. और आप यह तमीज सीखेंगे कि वरिष्ठों से कैसे बात की जाती है. गुजराल यहीं नहीं रुके. उन्होंने कहा कि मेरी आपके प्रति कोई जवाबदेही नहीं है. मैं आपकी मम्मी की सरकार में मंत्री हूं. यह कहकर गुजराल चले गए और फिर उनसे इस्तीफा मांग लिया गया.
2. 80 के दौर का पंजाब
आतंकवादी भिंडरावाले के खौफ के साये में अमृतसर का स्वर्ण मंदिर. एक दिन पंजाब पुलिस के डीआईजी अटवाल मंदिर जाते हैं. दर्शन करते हैं, प्रसाद पाते हैं. वापसी के दौरान सीढ़ियों तक ही पहुंच पाते हैं कि एक गोली उनके शरीर को बेध जाती है. ये गोली भिंडरावाले की टोली के एक आतंकवादी ने चलाई थी. जो मंदिर के बगल के गेस्ट हाउस में अपने बंकर में घात लगाए बैठा था. पूरे शहर, पूरे सूबे, पूरे मुल्क में सनसनी दौड़ जाती है. सिखों के इस सबसे पवित्र घर में इस तरह की हरकत. मगर शर्म को अभी और पैमाने तय करने थे. पुलिस बल में भिंडरावाले और उसके गुर्गों का ऐसा खौफ कि अटवाल की लाश भी नहीं उठाई जा सकी. 24 घंटे तक उनका शव वहीं सीढ़ियों पर पड़ा रहा. फिर अमृतसर का डिस्ट्रिक्ट्र मैजिस्ट्रेट भिंडरावाले के पास पहुंचा, गिड़गिड़ाया और तब उसने अटवाल की लाश उठाने की अनुमति दी. इसके बाद हालात और खराब होते गए और फिर फौज ने ऑपरेशन ब्लू स्टार को अंजाम दिया. इसमें बड़े पैमाने पर सैनिक, अफसर, निर्दोष तीर्थयात्री, आतंकवादी और हां, भिंडरावाले भी मारा गया.
3. रो रहे थे राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा
6 दिसंबर 1992, दोपहर 12.30 बजे देश भर को पता चल गया कि उन्मादी कारसेवक अयोध्या में बाबरी मस्जिद के एक गुंबद पर चढ़कर उसे तोड़ने में जुट गए हैं. दिल्ली स्थित तमाम मुस्लिम नेता प्रधानमंत्री दफ्तर में फोन करने लगे. हस्तक्षेप की उम्मीद के साथ. मगर हर बार जवाब मिलता, प्रधानमंत्री आराम कर रहे हैं. दोपहर 2.30 बजे कई नेता, समाजसेवी और धर्मगुरु राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा से मिलने पहुंचे. शर्मा रो रहे थे. उन्होंने आए हुए लोगों को एक खत दिखाया. ये खत शर्मा ने प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को लिखा था. इसमें कहा गया था कि अयोध्या में स्थिति विस्फोटक है, राज्य की बीजेपी सरकार की स्थिति साफ नहीं है. ऐसे में राज्य सरकार बर्खास्त कर केंद्र को सुरक्षा व्यवस्था अपने हाथ में ले लेनी चाहिए. फिर शर्मा बोले, मगर मैं भी प्रधानमंत्री तक नहीं पहुंच पाया.
यहां यह भी याद करना जरूरी है कि शंकरदयाल शर्मा के इनकार के बाद ही नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री की कुर्सी मिली थी. दरअसल तमिलनाडु के श्रीपेरंबुदूर में राजीव गांधी की लिट्टे के आत्मघाती हमलावर दस्ते के हाथों हत्या के बाद पार्टी में हर कोई उनकी विधवा सोनिया गांधी से नेतृत्व की उम्मीद कर रहा था. सभी ने उनसे कांग्रेस अध्यक्ष बनने को कहा. उस वक्त यह साफ था कि जो पार्टी संभालेगा, वही सत्ता में आने पर प्रधानमंत्री बनेगा. सोनिया ने इससे साफ इनकार कर दिया. मगर नया अध्यक्ष उन्हीं की सहमति से बनता, यह साफ था. सोनिया ने परिवार के पुराने साथी और नौकरशाह रहे पीएन हकसर से मशविरा किया. हकसर ने उपराष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा का नाम सुझाया. शर्मा ने अपने खराब स्वास्थ का हवाला देते हुए इनकार कर दिया. तब बारी आई नरसिम्हा राव की. उस वक्त तक राव राजनीति से संन्यास लेने का मन बना चुके थे. राजीव गांधी की गुड बुक में वह थे नहीं. हालत ये हो गए थे कि उनकी राज्यसभा सांसदी भी खत्म हो गई थी. जब वह हैदराबाद जाने को तैयार थे, तभी सोनिया ने ऐलान किया. ऑलराइट, इट्स पीवी देन. और नरसिम्हा राव को पहले पार्टी और फिर चुनाव नतीजे आने के बाद देश की कमान मिल गई.
4. मायावती ने छुए अटल के पैर और फिर दिया धोखा
अप्रैल 1999, अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को सत्ता में 13 महीने बीत चुके थे. तभी गठबंधन की अहम सहयोगी जयललिता की एआईएडीएमके ने समर्थन वापस ले लिया. सरकार अल्पमत में आ गई. उत्तर प्रदेश में बीजेपी के सहयोग से मुख्यमंत्री रह चुकी बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने अटल के राजनीतिक प्रबंधकों को भरोसा दिलाया कि वह एनडीए का समर्थन करेंगी. उस वक्त एक-एक वोट की कीमत थी. विश्वास मत पर वोटिंग वाले दिन मायावती अटल से मिलने गईं, उनके पैर छुए और पार्टी के छह सांसदों के समर्थन की बात कही. मगर फिर लोकसभा में मायावती पलट गईं. बीएसपी सांसदों ने एनडीए सरकार के खिलाफ वोट दिया. सरकार एक वोट से गिर गई. मायावती ने खुशी जाहिर करते हुए प्रेस से कहा, मैंने जान बूझकर बीजेपी को मूर्ख बना दिया.
5. 1999 में ही सोनिया ने तय कर लिया था, मनमोहन होंगे कांग्रेस के पीएम
1999 में जब अटल सरकार एक वोट से विश्वासमत हार गई, तो गेंद विपक्ष के पाले में आई. सोनिया गांधी ने सरकार बनाने की कोशिशें तेज कर दीं. आखिर में समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने इस पर वीटो कर दिया और देश में मध्यावधि चुनाव हुए. मगर दिलचस्प यह है कि अब तक ज्यादातर लोग यह मानते थे कि उस वक्त सोनिया को प्रधानमंत्री बनने की हड़बड़ी थी. कहा जाता है कि सोनिया ने राष्ट्रपति केआर नारायणन को समर्थन पत्र की सूची और सरकार बनाने का दावा, दोनों सौंप दिए थे. मगर राष्ट्रपति नारायणन की माने तो सोनिया गांधी खुद प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहती थीं.
उन्होंने नारायणन से कहा था कि अगर गठबंधन बहुमत के लिए जरूरी आंकड़ा जुटा लेता है, तो वह मनमोहन सिंह को शपथ दिलवा दें. यानी सोनिया 2004 में नहीं, बल्कि उससे पांच साल पहले ही मनमोहन को गद्दी पर बैठाने का फैसला कर चुकी थीं. शायद इसी रणनीति के तहत 1999 में मनमोहन सिंह को पहली और आखिरी बार लोकसभा चुनाव लड़वाया गया. मगर, साउथ दिल्ली सीट पर वह बीजेपी के विजय कुमार मल्होत्रा से 30 हजार वोटों से चुनाव हार गए.
वेस्टलैंड पब्लिकेशन से आई और अंग्रेजी में लिखी गई यह किताब दरअसल 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान वीर सांघवी द्वारा किए गए एक टीवी शो का बाईप्रॉडक्ट है. सांघवी के मुताबिक शो की रिसर्च के दौरान मैंने पाया कि नई पीढ़ी को भारतीय राजनीति के कई अहम पड़ावों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है. इसी को ध्यान में रखते हुए यह किताब लिखी गई. इसमें 1971 से 2009 तक के चुनावों का ब्यौरा और विश्लेषण है. इसमें सांघवी ने पारंपरिक आंकड़ों की बाजीगरी के बजाय उन चुनावों के अहम किरदारों, घटनाओं और रुझानों पर बात की है.
जो लोग भारतीय राजनीति को करीब से देखते हैं. उनके लिए किताब में ज्यादा कुछ नया नहीं है. अगर आपने वीपी सिंह, नटवर सिंह, संजय बारू, आरडी प्रधान, पीसी एलेग्जेंडर और ऐसे ही कई लुटियंस दिल्ली के किरदारों की आत्मकथाएं और किताबें पढ़ी हैं, तो आपको कई किस्से जाने पहचाने लगेंगे. मगर जैसा कि सांघवी ने खुद कहा, मेरा इरादा राजनीति शास्त्र में एक नई बहस शुरू करने और बड़े बड़े खुलासे करने से ज्यादा इस पीढ़ी को सरल भाषा में भारतीय चुनाव का रूप रंग और उसी क्रम में भारतीय राजनीति पर एक नजरिया मुहैया कराने का है. किताब की भाषा सरल है. तरीका रोचक और आकार ऐसा कि एक या दो बार की रीडिंग में ही पूरी पढ़ ली जाए.