किताब: मेरे मंच की सरगम (थियेटर गीत)
गीतकार: पीयूष मिश्रा
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
पन्ने: 192
कीमत: 450 रुपये
'आंटी पुलिस बुला लेगी और पार्टी फिर भी चालेगी' जैसे गीतों के दौर में कोई दीवाना ही होगा जो चांद पर रोटी की चादर डालकर सो जाने की बात करता है. जिसके गीतों में सीपियों की खनक भी है और सिसकियों की कसक भी. जो नाटक का आदमी होकर भी नाटकीय नहीं है और अपने गीतों में अनिवार्य रूप से 'साफ-सुथरे' और 'हाइजीनिक' रूपक ही नहीं चुनता. जिसके शब्द-चित्रण में अंगड़ाई तोड़ते कबूतर और नुक्कड़ पर भौंकते कुत्तों की भी हिस्सेदारी है. जहां आदम और हव्वा का ऐतिहासिक संदर्भ चौंकाता है तो गर्म मांस के नरम लोथड़े का जिक्र, अचानक आकर सहमा देता है.
पीयूष ने ऐसे कई गीत लिखे हैं जो अच्छे साउंड सिस्टम पर ढंग से सुन लिए जाएं तो रौंगटे खड़े हो जाते हैं. लफ्ज़ों से लेकर उच्चारण और आलाप तक, उनके गीतों का आकर्षण एक खुरदुरा आकर्षण है. इसीलिए बॉलीवुड की गुलाबी और चमकदार सी दुनिया में एक कलाकार के तौर पर वह हर कतार से अलग खड़े नज़र आते हैं. दारू पीकर भंड हुए बॉलीवुडिया साहित्य के बाद पनपे हैंगओवर का नाम है पीयूष मिश्रा. होश में आने के बाद का सिरदर्द हैं उनके गीत. लयबद्ध होते हुए भी, बहुत कुछ भंग कर जाने वाले हैं उनके शब्द.
आखिर क्यों यह गीतकार गीतों के 'गुडी गुडी' काल में नुक्कड़ पर रोते हुए कुत्तों की बात करता है? इस गीतकार के चरित्र कौन हैं और ये किसे लताड़ते हुए प्रतीत होते हैं? मांस के वे लोथड़े किसके हैं? इसी गुलाबी सी दुनिया के लोगों के सामने ऐसे तीखे सवाल पीयूष अपने गीतों के जरिये खड़े करते हैं.
नए किस्म का लालच है पीयूष के थियेटर गीतों की किताब
फिल्मी पर्दे पर आकर थियेटर का यह आदमी मशहूर और मकबूल हो गया, लेकिन उनकी बुनियाद रंगमंच से ही पड़ी. फिल्मों में जिन गीतों के जरिये आप पीयूष को जानते हैं, उनमें से ज्यादातर उन्होंने थियेटर के लिए ही लिखे थे. इसी साल उनके थियेटर गीतों की किताब आई है, 'मेरे मंच की सरगम.' पीयूष के करीब 125 गीत इसमें संकलित किए गए हैं. अगर फिल्मों में पीयूष के दो-चार गाने सुनकर आपकी प्यास नहीं बुझी है तो इस किताब का रुख करें. लेकिन यह किताब भी एक नए किस्म का लालच पैदा करती है. थोड़ा और, थोड़ा और, कितना और. इन्हें पढ़ते हुए पीयूष के अलहदा अंदाज में गुनगुना लेने का मन भी हो जाता है और यह ख्याल भी साथ ही आता है कि काश इन गीतों की रिकॉर्डिंग भी मौजूद होती.
पीयूष इसलिए भी समकालीन गीतकारों से अलग हैं कि एक राजनीतिक तेवर वह अपने गीतों में साथ लिए चलते हैं. गीत 'दूर देस के टावर' में जब राणा जी सौतन को घर लाते हैं तो प्रेमिका के बिछोह की पीड़ा इराक की बर्बादी के समांतर हो जाती है. यह किताब भी ऐसे गीतों से भरी हुई है. मसलन यह गीत
मैं जाना चाहता हूं अमेरिका
खूब जाना चाहता हूं अमेरिका
पी जाना चाहता हूं अमेरिका
खा जाना चाहता हूं अमेरिका
इक बंदा है वहां पे जिसका नाम जॉर्ज बुश होता है
छोटे बच्चों पर जो फेंके बम तो वो खुश होता है
ऐसे मुलुक में जा करके क्या क्या कर पाएंगे जनाब
जहां पे चमड़ी के रंग से इंसा का होता है हिसाब
इसीलिए हम कहते हैं आली जनाब ये बात
कि हिरोशिमा है अमेरिका
नागासाकी है अमेरिका
वियतनाम के कहर के बाद
क्या बाकी है अमेरिका
मैं जाना चाहता हूं अमेरिका
शब्दों का औघड़ परिवार
पीयूष के गीत अचानक मीटर बदलते हैं तो और अच्छे लगते हैं. शब्दों के स्तर पर भी उन्होंने
कोई फिल्टर नहीं लगाया है. इसके अलावा रौंगटे खड़े कर देने वाले शब्दों का एक खास कुनबा
पीयूष के साथ चलता है, जो गुलजार, प्रसून जोशी या समकालीन गीतकारों से बिल्कुल अलग
है. यानी बोलचाल के और बिना बोलचाल के शब्दों का असरदार संयोजन उनके गीतों में
मिलता है.
जब होती है खामोशी बंद अंधेरों की शक्लो-सूरत पर मेहरबान
जब अलसाया शैतान उबासी लेकर अपने जबड़ों से खूं धोता है
जब अंगड़ाई को तोड़ चहलकदमी करने की तैयारी में होता है
तब शहर हमारा सोता है...
रात ये आती है
साथ ये लाती है
गुब्बारा खून का
फव्वारा खून का
नक्कारा खून का
टंकारा खून का
पिचकारा खून का
फुंकारा खून का
नज़्ज़ारा खून का
दरकारा खून का
इनमें ऐसे भी शब्द हैं, जिन्हें सभ्यता कई बार खारिज कर देती है. सभ्यता के चुटकुले भी खूंखार हो सकते हैं, इसको बड़ी सहजता से वह अपने गीतों में उतार देते हैं. इस गीत के शब्द भी देखें और संभवत: एक कॉरपोरेट कंपनी में काम करने वाले देहाती शख्स की तमन्नाएं भी देखें.
फ्रेंच लीव हां हां फ्रेंच लीव
एनफ्रेंच लीव हां हां फ्रेंच लीव
बट व्हाई यू बिलीव इन फ्रेंच लीव
हा हा हू हू का मौका है मिलता मुझे
अरे सुस्सू का मौका है मिलता मुझे
अरे भगने का मौका है मिलता मुझे
और हगने का मौका है मिलता मुझे
अरे फ्रेंच लीव....अरे फ्रेंच लीव
मैं तो पेड़ों पर चढ़कर के चिल्लाऊंगा
मैं तो छतरी लगाकर के सो जाऊंगा
मैं तो कुत्ते लगाकर के भौं भौं सुनूंगा
मैं बिल्ली की म्याऊं पर टकराऊंगा
अरे फ्रेंच लीव हां हां फ्रेंच लीव
पीयूष के गीतों की रेंज तब महसूस होती है जब पन्ना पलटते ही 'उजला ही उजला शहर होगा' गीत सामने आता है. उजला ही उजला शहर होगा जिसमें हम तुम बनाएंगे घर, दोनों रहेंगे कबूतर से, होगा न बाज़ों का डर हम फिर भी होंगे पड़े आंख मूंदे, कलियों की लड़ियां दिलों में हां गूंथे. भूलेंगे उस पार कि उस जहां को जाती है कोई लहर. इसमें प्रेम का आदर्शवाद दिखता है. जो नौजवानों के प्रेम का यूटोपियन, लेकिन लुभाने वाला संस्करण है.
क्यों पढ़ें
थियेटर और पीयूष मिश्रा में दिलचस्पी रखने वाले लोग जरूर करें. जिन्होंने पीयूष को सिर्फ फिल्मी पर्दे पर गाते सुना है, उन्हें भी पढ़नी चाहिए. थियेटर न देखने वालों और थियेटर करने वालों दोनों को पढ़नी चाहिए.
पीयूष के खुमार में कोई कह दे कि यह किताब एक कलाकार के फक्कड़पन के बारे में है तो ज्यादा गलत नहीं लगता. ये गीत दरअसल एक थियेटर वाले के बेतरतीब तराने ही हैं, जिनमें गुस्सा भी है, निराशा भी और बीच-बीच में इश्क के पाकीजा नगमे भी. इसकी फाकामस्ती में बहुत कुछ भूल जाने और थोड़ा बहुत याद रखने को मन करता है. पीयूष के मिजाज को समझने और उससे मेल खाने वाले लोगों को यह किताब छोड़नी नहीं चाहिए. बजरिये बॉलीवुड जो पीयूष आप तक पहुंचे हैं, उनकी जिंदगी का 'आरंभ है प्रचंड' बहुत पहले हो चुका है. पिक्चर चुक गई है, थियेटर अभी बाकी है.
पीयूष की ये नज्म, किताब की प्रस्तावना से
वो काम भला क्या काम हुआ
जिस काम का बोझा सर पे हो
वो इश्क भला क्या इश्क हुआ
जिस इश्क का चर्चा घर पे हो
वो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें साला दिल रो जाए
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो आसानी से हो जाए
वो काम भला क्या काम हुआ
जिसकी ना शक्ल इबादत हो
वो इश्क भला क्या इश्क हुआ
जिसकी दरकार इजाजत हो