किताबः मुकुटधारी चूहा
लेखक: राकेश तिवारी
प्रकाशकः वाणी प्रकाशन
कीमतः 275 रुपये
कवरः हार्डबाउंड
मुकुटधारी चूहा.. वाणी प्रकाशन से प्रकाशित राकेश तिवारी का कहानी संग्रह है. सात कहानियों के इस संग्रह में कुछ बेहद रोचक कहानियां है. इन कहानियों के अनेक रूप है जो कड़े सवाल करती है. 'अंधेरी दुनिया के उजले कमरे में' रहने वाले 'मुकुटधारी चूहों' की हकीकत बयां करती ये कहानियां बताती है कि 'मुर्गीखाने' में नाचती 'कठपुतली' भी आखिर में थक जाती है. अपराधबोध जब हावी होता है, तो एक किशोर भी 'साइलेंट मोड' में चला जाता है.
किताब में कहीं भी राकेश तिवारी के बारे में जानकारी नहीं दी गई है. लेकिन इन कहानियों को पढ़ते हुए लगता है कि ये उत्तर भारत से ताल्लुक रखती है और यहां बसे समाज की खिड़कियों पर चढ़ी काली फिल्में नोंच डालती है ताकि सड़ांध का पता सबको लग सके और फड़कती मूंछों का कोलतार उतर सके.
तिवारी के इस संकलन की वैसे तो सभी कहानियों रोचक और पढ़ने लायक है लेकिन 'मुकुटधारी चूहा' और 'मुर्गीखाने की औरतें' जरूर पढ़ी जानी चाहिए. सभी कहानियों में तो नहीं लेकिन कुछ में आंचलिकता का पुट है, लेकिन दर्शन सबमें उपस्थित है. 'कठपुतली थक गई' जहां संचार क्रांति के बाद के प्रभाव को दर्शाती है, तो वहीं 'अंजन बाबू हंसते हंसते' सरकारी दफ्तरों में होने वाली प्रमोशन पॉलिटिक्स की गिरहें खोलते चलते हैं. हालांकि इन सबमें 'मुकुटधारी चूहा' और 'मुर्गीखाने की औरतें' प्रभावी है.
'मुकुटधारी चूहा' में तिवारी ने 'मुक्की' किरदार के जरिए समाज में आए बदलाव को सामने रखा है. दो औरतों की जीवन शैली बताती है कि समाज का एक तबका जहां सुर्ख पेय गटक रहा है, तो कुछ लोगों की जिंदगी अब भी गोबर में लिपटी सुर्ख होने को मजबूर है. अगर थोड़ा ठहर कर देखें, तो ये 'मुकुटधारी चूहा' कब सांप्रदायिक रूप ले लेता है पाठक को पता नहीं चलता.
‘इडियट यह कोई वक्त है फोन करने का. इतना कहकर उसने बत्ती बुझा दी और मुक्की को लेकर बिस्तर पर लुढ़क गई. मुक्की का दम घुटने लगा. उसे मितली आने लगी और फिर चीख पड़ा, मैं दूध नहीं पियूंगा..मैं जहरीला दूध नहीं पियूंगा!’ गाउन के बटन खुले थे, लेकिन इससे बेखबर स्त्री उसे झपटकर पकड़ भी नहीं सकती थी. वह दरवाजे से अंदर गरदन डालते हुए पूरे जोर से चिल्लाया- ‘मैं दूध नहीं पियूंगा..पूतना के हाथ नहीं आऊंगा.’
संकलन की पहली कहानी लंबी है और पाठक से धैर्य की मांग करती है. दूसरी तरफ 'मुर्गीखाने की औरतें' शुरू से अंत तक बांधे रखती है. तीखे कथ्य और विषय इसे संकलन की बेहतरीन कहानी बनाते हैं.
'पंचों की गर्दन के बाल खड़े हो गए. उसने मर्दों को नपुंसक करार दिया. सुनकर पंच हत्थे से उखड़ गए. मूंछें फड़फड़ाने लगीं. उन्होंने फुल्लो को सजा का फरमान सुना दिया. सजा यह कि बारी-बारी से उसके मुंह पर थूका जाए.'
'फुल्लो' राकेश तिवारी के मुर्गी खाने की औरतों में से एक है. वो मुर्गी जो प्रेम कर बैठी. वो ऐसे मर्दों के बीहड़ में रहती है जो अपनी नपुंसकता का इलाज का कराने के बजाय उसे मूंछों के ताव में छुपाए रहते हैं.
मुर्गीखाने की औरतों के बहाने राकेश तिवारी कथित सभ्य समाज की औरतों की स्थिति को उघाड़ देते हैं. वो एक कड़वी सच्चाई बयां करते हैं जो इसी दुनिया की है. लेकिन कुछ ही फुल्लो जुबान खोल पाती है और अपना गला घोंट मुक्ति पाती है. हालांकि इस मुक्ति में एक रुदन है लेकिन इस रुदन से ध्यान हटाने के लिए औरतें अपने-अपने घरों में घुसकर गीत गाने लगती है.’
संकलन की पहली दो कहानियों (मुकुटधारी चूहा और मुर्गीखाने की औरतें) को छोड़ दें तो बाकी कहानियां इनके मुकाबले उन्नीस पड़ती है. कुलमिलाकर मुकुटधारी चूहा आश्वस्त करती किताब है. जिसे पढ़कर मन कहता है कि राकेश तिवारी से उम्मीदें रखी जा सकती है.