उपन्यासः निर्वासन
लेखकः अखिलेश
प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन
पृष्ठ संख्याः 360
कीमतः 600 रुपये (हार्ड बाउंड एडिशन)
निर्वासन की कहानी
25 अध्यायों में बांट कर लिखी गई महागाथा 'निर्वासन' की कहानी मुख्य पात्र सूर्यकांत के इर्द-गिर्द
घूमती है. पूरी कहानी मुख्य कहानी के साथ फ्लैशबैक में चलती रहती है. सूर्यकांत अपने बॉस पर्यटन
निदेशालय के चेयरमैन संपूर्णानंद वृहस्पति से परेशान है और अपने पत्रकार मित्र बहुगुणा से कहीं और
नौकरी की सिफारिश करने को कहता है. संस्कृत का प्रकांड ज्ञानी बहुगुणा सूर्यकांत को रामअजोर पांडे
से मिलवाता है जो अपने पूर्वजों की तलाश में सूरीनाम से इंडिया आया हुआ है. रामअजोर पांडे का
कोई वारिस नहीं है और सूर्यकांत का पत्रकार मित्र बहुगुणा चाहता है कि सूर्यकांत अपनी सूझबूझ से
पांडे को प्रभावित कर उनका उत्तराधिकारी बन जाए. रामअजोर पांडे के पूर्वजों की तलाश में सूर्यकांत
को मजबूरन सुल्तानपुर (उ.प्र.) जाना पड़ता है. अपने उस परिवार के बीच जहां उसकी पत्नी गौरी का
अपमान हुआ था. उसके पिता अपने किए पर पश्चाताप करते हैं लेकिन इस सारे घटनाक्रम में
सूर्यकांत को अपने इस परिवार से हमेशा के लिए विरक्ति हो जाती है. फिर जब अंत में वह लखनऊ
पहुंचता है तो वहां रामअजोर पांडे और संपूर्णानंद बृहस्पति को एक साथ पाता है. रामअजोर पांडे
संपूर्णानंद के उस प्रोजेक्ट को पीपीपी के तहत स्पॉन्सर कर रहे हैं जिसकी वजह से सूर्यकांत खफा
होकर नौकरी छोड़ने पर आमादा है.
कई कहानियां मिलकर बनी हैं निर्वासन
निर्वासन का शाब्दिक अर्थ है निष्कासन या बलपूर्वक किसी को किसी राज्य या भू-भाग से निकाल
देना. इस उपन्यास में एक साथ निर्वासन की कई कहानियां हैं जो साथ-साथ चलती हैं. पहली कहानी
है इसके मुख्य किरदार सूर्यकांत की जो अपने पिता की ओर से अपने परिवार से निष्कासित है
क्योंकि वह गौरी से प्रेम करता है और उससे शादी करना चाहता है.
सुल्तानपुर में वह प्रचंड कोहरे से घिरी जाड़े की ठिठुरती रात थी जब सूर्यकांत गौरी को अपने परिवार से मिलवाने लाया था. कोहरा इतना घना था कि खुद के कपड़े बमुश्किल दिख रहे थे. रात के 11 बजे सूर्यकांत की गर्दन पकड़ कर उसे और गौरी को बाहर धकेल दिया था बाबूजी ने और जोर से दरवाजा बंद कर लिया था. दरवाजे पर चिल्लाते हुए बाबूजी गौरी को भद्दी भद्दी गालियां दे रहे थे.
दूसरी कहानी है अरबपति रामअजोर पांडे और उनके दादा भगेलू कुम्हार उर्फ भगेलू पांडे की जो इंडिया में अकाल, सूखा, गरीबी, भुखमरी के कारण लाचारी में गिरमिटिया मजदूर बनकर करीब 125 साल पहले सूरीनाम चले जाते हैं और जिंदगी भर वापस अपने परिवार के पास आने के लिए तरसते रहते हैं. अब उनका अरबपति पोता अपने पूर्वजों की तलाश में इंडिया आया हुआ है और जिसकी वजह से यह पूरी कहानी लिखी गई है.
तीसरी कहानी सूर्यकांत के चाचा की है जो पढ़ाई में बहुत होशियार थे. अच्छी नौकरी भी की. ऐशोआराम की सभी चीजें थीं उनके घर में. जिन्दगी बड़े मजे में कट रही थी. लेकिन पत्नी में अपनी बलवंत कौर (प्रेमिका) की तलाश करते चाचा को एक जोर का झटका लगता है और वह अपने शानदार मकान और परिवार से अलग एक कमरा बनाकर सादगी भरा जीवन जीने लगते हैं.
सूर्यकांत के जीवन में जिस एक व्यक्ति का प्रभाव सबसे ज्यादा है वो हैं उसके चाचा, जिनका नाम इस उपन्यास में कहीं भी उजागर नहीं किया गया है. दोनों के बीच उम्र का फर्क केवल 4-5 सालों का है यानी बचपन एक दूसरे के सबसे करीब बीता. साथ पढ़ते-घूमते बड़े होते हैं. भतीजे पर चाचा का पूरा छाप होता है लेकिन बड़े होने के साथ ही विचारों में बड़ा फर्क आता है. चाचा सुल्तानपुर में रहते हैं और प्रोफेसर हैं लेकिन उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी है क्योंकि उनके परिवार को उनकी नहीं बल्कि उनकी कमाई से प्यार है. चाचा भतीजा के बीच कई विषयों पर तर्क चलता है. चाचा के आधुनिकता विरोधी तर्कों पर भतीजे का सकारात्मक उत्तर पठनीय है.
रोचक अंश
चाचा भतीजे दोनों को पढ़ने की ऐसी भूख थी कि पढ़ाई के दिनों में वे स्कूल के लिए जल्दी निकल
जाते और स्कूल के गेट के बाहर कामरेड कोमल की दुकान पर बैठकर अखबार पढ़ते थे. इतना ही
नहीं चाचा तो इंटरवल के दौरान भी यहीं आकर अखबार पढ़ते थे क्योंकि कामरेड कोमल की दुकान
पर हिंदी के सारे अखबार आते थे. कामरेड कोमल की दुकान पर कम्युनिस्ट और समाजवादियों का
जमावड़ा लगता था और चाचा के जीवन के कालांतर में यह प्रभाव साफ दिखता है.
चाचा के पढ़ने का आलम यह था कि उन्होंने कोर्स की किताबें पहली तिमाही में ही पढ़कर खत्म कर दी थीं. स्कूल के लाइब्रेरी से किताबों की मांग करने वाले वो 8 सालों में पहले छात्र थे. आलमारियों में रखी किताबें जब चाबियों से नहीं खुलीं तो लाइब्रेरियन ने हथौड़ा मारकर उसके शीशे तोड़े और उन्हें उपन्यास दिया. चाचा ने लाइब्रेरियन से पूछा कि अब इसकी हिफाजत कैसे होगी? लाइब्रेरियन ने ठहाका लगाकर जवाब दिया- कोई चुराएगा भी इन्हें? भला उस लाइब्रेरियन को कहां पता था कि पढ़ाई की लत में चाचा ही वहां की कई किताबें चुराकर अपने घर की शोभा बढ़ा लेंगे.
पढ़ने की आदत के कारण भतीजे सूर्यकांत के पास बहुत तेजी से पढ़ने का हुनर है. जब गौरी कई रात जागकर लिखा प्रेम पत्र सूर्यकांत को देती है तो वह इसे कुछ ही देर में पढ़ लेता है और इससे गौरी गुस्सा हो जाती है क्योंकि वह समझती है सूर्यकांत ने उसके प्रेम पत्र का मजाक उड़ाया है. नौबत यहां तक आती है कि वो सूर्यकांत से बात करना बंद कर देती है.
कहानी में इमरजेंसी के दौरान नसबंदी के खौफ का जिक्र भी है. स्कूल, कॉलेज के छात्रों पर नसबंदी की इतनी हदशत था कि हर समय उनका एक हाथ अपने गुप्तांग पर रहने लगा था.
सूर्यकांत की लखनऊ से सुल्तानपुर और वहां से गोसाईंगंज की यात्रा में जगदंबा, नूपुर, कामना, शिब्बू समेत और भी कई पात्र इस कहानी में आते हैं जो इस कहानी को मजेदार बनाते हैं.
जब आप ये कहानी पढ़ेंगे तो जानेंगे किः
क्यों पर्यटन निदेशालय में उच्च पद पर आसीन सूर्यकांत को जॉब से लंबी छुट्टी पर जाना पड़ता
है?
इमरजेंसी के दौरान नसबंदी का खौफ का आलम और इस दौरान मुंडन को गए कई बच्चों के सिर
क्यों आधे छिले रह गए?
ऐशोआराम से भरपूर परिवार का मुखिया, जो यहां चाचा हैं, अपने परिवार को छोड़ अलग क्यों रहने
लगता है?
क्या सूर्यकांत अरबपति रामअजोर पांडे का उत्तराधिकारी बन सका?
इन सवालों के अलावा भी कई और चीजें हैं इस कहानी में. एक बार पढ़ें. मेरी तरह ही ये आपको अपनी ही कहानी लगने लगेगी.
अखिलेश अपने इस किताब के लिए हमेशा याद किए जायेंगे क्योंकि यहां उन्होंने आम आदमी के मर्म को छुआ है. इसमें यथार्थ से जुड़ा वह सच है जिससे चिंतन करने वाला लगभग हर व्यक्ति परिचित तो है लेकिन स्वीकारता नहीं.
अखिलेश एक परिचय
अखिलेश का जन्म उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर में 1960 में हुआ था. उन्होंने इलाहाबाद यूनिविर्सिटी
से हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की है. वर्तमान में वह प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका
तद्भव के संपादक हैं. इन्होंने वर्तमान साहित्य समेत कई पत्रिकाओं में समय-समय पर संपादन कार्य
किया है. इन्होंने 'एक कहानी एक किताब' सीरीज की दस पुस्तकों, 'दस बेमिसाल प्रेम कहानियां' और
'कहानियां रिश्तों की' सीरीज का भी संपादन किया है.
अखिलेश को अपने लेखन के लिए कई सम्मान प्राप्त हुए हैं. इन सम्मानों में श्रीकांत वर्मा, इंदु शर्मा
कथा, परिमल, वनमाली, अयोध्याप्रसाद खत्री, स्पंदन, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' और कथा पुरस्कार
शामिल हैं.
अखिलेख की कृतियां
कहानी संग्रहः आदमी टूटता नहीं, मुक्ति, शापग्रस्त और अंधेरा.
उपन्यासः अन्वेषण, निर्वासन.
सृजनात्मक गद्यः वह जो यथार्थ था.
आलोचनाः श्रीलाल शुक्ल की दुनिया.