किताब: बनारस टॉकीज़ (पेपरबैक, उपन्यास)
लेखक: सत्य व्यास
पन्ने: 192
कीमत: 115 रुपये
प्रकाशक: हिंद युग्म, दिल्ली
'कोई जब पूछ बैठेगा खामोशी का सबब तुमसे, बहुत समझाना चाहोगे मगर समझा न पाओगे.' शायर नज़ीर बनारसी की ये पंक्तियां बनारस के संदर्भ में काफी व्यापक अर्थ लिए हुए हैं. बनारस को समझना मुश्किल है. उसकी अपनी ही रवानगी है, अपना ही मिजाज है. 1932 में भारतेंदु हरिश्चंद्र लिखित 'प्रेमजोगिनी' नाटिका के एक गीत में बनारस के विषय में काफी सटीक वर्णन मिलता है, 'देखी तुमरी कासी, लोगों, देखी तुमरी कासी...'
बनारस के विषय में क्या कहा जाए. तमाम अपवादों के साथ बनारस है ही ऐसा. घाटों का शहर, ज्ञान और ज्ञानियों का शहर, मंदिरों का शहर और सुकून भरी सुबहों का शहर. लेकिन बात बनारस की नहीं हो रही है. और ना ही बनारसी लोगों की. बात हो रही है उस विश्वविद्यालय के एक हॉस्टल की जो भगवान दास के नाम से जाना जाता है. जहां भविष्य के वकील और वर्तमान के छात्र रहते हैं. जब कैम्पस में होते हैं तो एक दूसरी ही दुनिया में जी रहे होते हैं जिन्हें कैम्पस के बाहर की दुनिया का भय भारत के तमाम दूसरे छात्रों की तरह आखिर में सताता है.
सत्य व्यास के नॉवल 'बनारस टॉकिज़' में कहानी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में स्थित भगवान दास हॉस्टल के कुछ छात्रों की है. हालांकि दूसरे छात्रों की दुनिया भी उससे अलग नहीं है. छात्रों का हॉस्टल में आना, एक दूसरे से मिलना, दोस्त बनना यह आम बात है जो कई दूसरे कैम्पस में भी होती हैं. लगभग प्रत्येक कैम्पस में कुछ दोस्त जय-वीरू की तरह भी होते हैं. ऐसे ही दोस्तों में अनुराग डे, जयवर्धन, संजय, राम प्रताप दूबे, राजीव पांडे शामिल हैं. पूरे नॉवल में इन सभी की उपस्थिति लगभग बनी हुई है.
नॉवल की भाषा पूरी तरह बनारसी पुट लिए हुए है. माहौल कैसा भी क्यों न हो भाषाई रंग बनारसी ही मिलेगा. छात्रों के हॉस्टल में नामांकन की प्रक्रिया से नॉवेल की शुरुआत होती है. रैंगिंग के किस्से, गर्ल्स हॉस्टल की कहानी, कैम्पस की गॉसिप, कैम्पस की लव स्टोरी सबकुछ एक के बाद एक इसमें पढ़ने को मिलते हैं. कहानी में नायक के रूप में संजय है जो नॉवल में सूत्रधार भी है. शिखा उसकी गर्लफ्रेंड है और इस नॉवल की एक प्रमुख पात्र भी.
नॉवल की शुरुआत होती है तो लगता है जैसे 'थ्री इडियट्स' का मिलीमीटर सबको इंट्रोडक्शन दे रहा हो. हालांकि दिलचस्प है. पढ़ते हुए कई जगह अपनी हंसी रोक पाना मुश्किल होता है. शायद आप भी ऐसा ही महसूस करें... बानगी के तौर पर आगे की कुछ पंक्तियों को पढ़ें...
कमरा नम्बर-88 में नवेन्दु जी से भेंट कीजिये. भंसलिया का फिलिम, हमारा यही भाई एडिट किया था. जब ससुरा, इनका नाम नहीं दिया तो भाई आ गये ‘लॉ’ पढ़ने कि ‘वकील बन के केस करूँगा.’ देश के हर जिला में इनके एक मौसा जी रहते है.
डॉक्टर-मौसा, प्रॉक्टर-मौसा, इलेक्ट्रिशियन-मौसा, पॉलिटिशियन-मौसा. घोड़ा-मौसा, गदहा-मौसा.
ख़ैर, मौसा महात्मय छोड़ दें तो भी नवेन्दु जी का महत्व कम नहीं हो जाता. फ़िल्म का ज्ञान तो इतना है कि पाक़ीज़ा पर क़िताब लिख दें. शोले पर तो नवेन्दु जी डाक्टरेट ही हैं. अमिताभ के जींस का नाप, धन्नो का बाप, बुलेट पर कम्पनी का छाप और बसंती के घाघरा का माप तक; सब उनको मालूम है. गब्बरवा, सरईसा खैनी खाता था, वही पहली बार बताए थे. अमिताभ बच्चन को याद नहीं होगा कि कितना फ़िल्म में उनका नाम ‘विजय’ है. अमिताभ बोलेंगे - 17, तो नवेन्दु बोलेंगे ‘नहीं सर - 18. आप ‘नि:शब्द’ को तो भूल ही गये. ‘गदर’ के एक सीन में सनी देओल के नाक पर मक्खी बैठी तो नवेन्दु जी घोषणा कर दिये कि ‘फ़िल्म ऑस्कर के लिये जाएगी; क्योंकि आदमी को तो कोई भी डायरेक्ट कर सकता है; लेकिन मक्खी को डायरेक्ट करना...बाप रे बाप! क्या डायरेक्शन है! ऐसे ज्ञानी हैं नवेन्दु जी.
क्रिकेट भी है इस नॉवल में. बिल्कुल 'लगान' स्टाइल का. आप पढ़ेंगे तो हो सकता है कनफ्यूज हो जाएं कि आमिर की 'लगान' को देख रहे हैं या 'बनारस टॉकिज' पढ़ रहे हैं. सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात इस नॉवल में 'बम ब्लास्ट' है और उससे भी ज्यादा चौंकाती है उसका खुलासा. लेखक अगर अपनी कल्पनाशक्ति का उपयोग करें तो इस घटना पर अलग से नॉवल लिख सकते हैं. वह भी काफी ड्रामेटिक अंदाज में.
क्यों पढ़ें इस नॉवल को
अगर आपने हॉस्टल लाइफ को जीया है तो इस नॉवल को पढ़कर आप अपनी हॉस्टल लाइफ फिर से याद कर सकते हैं. अपने खट्टे-मिट्ठे अनुभवों को याद कर रोमांचित हो सकते हैं. कैम्पस की दोस्ती, हॉस्टल की मस्ती, गॉसिप, गर्ल्स हॉस्टल की कहानी आपके अपने हॉस्टल की याद ताजा करा सकती है. यह कहानी आपकी अपनी लग सकती है.
क्यों न पढ़ें
अगर आपको हॉस्टल लाइफ में दिलचस्पी न हो, बनारस में बोली जाने वाली भाषा पसंद न हो या फिर ड्रामेटिक तरीके से किए गए वर्णन आपको ठीक न लगते हो तो यह नॉवल आपके लिए नहीं है.