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आंखों देखी फांसी: अफसानों से अलग है हकीकत की फांसी

यह किताब रायपुर जेल में 25 अक्तूबर, 1978 कोएक हत्यारे को दी गई फांसी की सजा की रिपोर्टिंग और मौत की सजा से जुड़े इतिहास के इर्द-गिर्द बुनी गई है.

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आंखों देखी फांसी
लेखकः गिरिजाशंकर प्रकाशकः आलेख प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्यः 495 रु.


पुस्तक सार
यह किताब रायपुर जेल में 25 अक्तूबर, 1978 कोएक हत्यारे को दी गई फांसी की सजा की रिपोर्टिंग और मौत की सजा से जुड़े इतिहास के इर्द-गिर्द बुनी गई है.

अब का नाम लेहं, हम तो जात हइन... बस हमार लड़कन का दिखा दो...'' ट्रांजिस्टर और ऐसी ही छोटी-मोटी चीजों के लालच में चार लोगों की हत्या करने वाले रामभरोसा ऊर्फ भरोसा उर्फ बैजू को जब रायपुर केंद्रीय जेल में फांसी के फंदे पर भेजा जा रहा था, तो उसकी यही प्रतिक्रिया थी. एक निरक्षर आदिवासी मौत की सजा से ठीक पहले पंडितजी के बार-बार कहने के बावजूद राम का नाम लेने को राजी नहीं है. वह कभी सरगुजा के अपने आदिवासी इलाके से बाहर नहीं गया, लेकिन राष्ट्रपति ने भी जब उसके मौत के परवाने पर मुहर लगा दी, तो वह बार-बार गुहार लगाता है कि इलाहाबाद के मुल्ला वकील को बुला दो, वह उसे फांसी से बचा लेगा. दरअसल बैजू वकील आनंद नारायण मुल्ला की बात कर रहा था जो बाद में ऑल इंडिया कमेटी ऑन जेल रिफॉर्म्स (1980-83) के चेयरमैन बने.

जब जेलवाले उससे बार-बार पूछते हैं कि मरने से पहले किसी रिश्तेदार से मिलना है तो वह खामोश रहता है पर जब फांसी का फंदा सामने आया तो अपने बेटों से मिलने की फरियाद करता है. हतप्रभ जेल अधिकारी पूछते हैं कि इतने दिन से तुमसे पूछा जा रहा है कि किसी रिश्तेदार से मिलना है, तब तुमने कहा नहीं और अब फांसी सामने है तो लड़कों से मिलने की बात कह रहे हो. इस पर बैजू का जवाब न्याय व्यवस्था की भाषा को कठघरे में खड़ा करता है, ''आप तो रिश्तेदारों को बुलाने की बात कह रहे थे, बेटों को बुलाने की बात कहां कही.'' और फांसी से ठीक पहले जब मुजरिम के हाथ पीठ के पीछे रस्सी से बंधे हैं, तब जेल अधीक्षक का उसे अपने हाथ से सिगरेट के कश लगवाना और खुद भी सिगरेट पीना. फांसी की सजा के ये ऐसे प्रसंग हैं जो फिल्मों या साहित्य में नहीं मिलते. चूंकि इस किताब के लेखक गिरिजाशंकर कोई साहित्यकार नहीं बल्कि पत्रकार हैं और फांसी पर चढ़ने वाला कोई काल्पनिक पात्र नहीं सचमुच का हत्यारा है, सो पूरे घटनाक्रम का सपाट वर्णन मुमकिन होता है. सामान्य तौर पर सपाटबयानी नकारात्मक ध्वनि लेकर आती है पर इस किताब की यही खासियत है कि जब-जब लेखक अपनी ओर से कुछ जोड़ने की कोशिश नहीं करता, तभी इस अपरिहार्य मानवीय त्रासदी का सबसे भावुक वर्णन खुद-ब-खुद होने लगता है.

चूंकि किताब सरकारी अनुमति के बाद फांसी की घटना की आधिकारिक रिपोर्टिंग पर केंद्रित है, सो लेखक ने कैदी के फांसी के फंदे की ओर बढ़ने के वर्णन के बीच में ऐतिहासिक और कानूनी प्रक्रियाओं को भी बुन दिया है. अकादमिक महत्व की ये बातें कथाक्रम को तोड़ती हैं पर विषय की समग्र समझ बनाने में मददगार साबित होती हैं. खासकर आज जब टीवी और नेता जोर-शोर से बलात्कारियों को नृशंस मृत्युदंड देने की बात करने लगे हैं, यह किताब इशारा करती है कि ये प्रतिगामी विचार हैं. सभ्यताओं ने हजारों साल के विकास क्रम में सजा देने में खुद को सभ्य बनाया है और इसका मूल उद्देश्य अपराध रोकना है, आंख के बदले आंख निकालना नहीं.

हां, एक बात और गंगराम पुतले का जिक्र इसमें आपको खासा दिलचस्प लगेगा. यह वह पुतला है, जिस पर फांसी देने से पहले फांसी की रिहर्सल होती है. किताब में ऐसी कई बारीकियां बड़े दिलचस्प ढंग से आई हैं.

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