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बुक रिव्यू: इस्लाम की पश्चिमी छवि और 'दफ्न होती जिंदगी'

उपन्यास 'दफ्न होती जिंदगी' का यूएसपी यही है कि इस्लाम कट्टरता बढाता है, दूरियां पैदा करता है, धर्म के नाम पर इंसानी जिंदगियों को दफ्न कर देता है. लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि हाकान गुंडे ने अपराध कथाओं की गुत्थियों में, पेचीदगियों में, इंसानी रिश्तों के जज्बात का ऐसा रसायन मिलाया है कि आप उपन्यास की रहस्मयी दुनिया में धंसते चले जाते हैं.

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तुर्की के लेखक हाकान गुंडे की किताब का हिन्दी संस्करण है 'दफ्न होती जिंदगी'
तुर्की के लेखक हाकान गुंडे की किताब का हिन्दी संस्करण है 'दफ्न होती जिंदगी'

लेखक: हाकान गुंडे

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प्रकाशक: यात्रा बुक्स, भारतीय अनुवाद परिषद्

मूल्य: 295 रुपये

कवर: पेपरबैक

जिस अखबार, जिस मैगजीन को उठाइए उसमें कुछ चुनिन्दा प्रकाशकों की किताबों के बारे में ही चर्चा होती है. एक तो मीडिया में साहित्य का स्पेस सिमटता जा रहा है, दूसरे उस सिमटते स्पेस में भी चर्चा कुछ ‘ख़ास’ ठप्पों वाली किताबों तक सिमटती जा रही है. नतीजा यह होता है कि हमें बहुत सारी अच्छी या जरूरी किताबों के प्रकाशन का पता ही नहीं चलता. कुछ का पता फेसबुक आदि से चल जाता है, कईयों का वहां भी नहीं. मिसाल के लिए, तुर्की की नायाब किताबों के बारे में मुझे भी पता नहीं चला होता अगर चार किताबों का नायाब तोहफा मुझे यात्रा बुक्स से न मिला होता. ये चारों किताबें तुर्की के लेखकों की हैं, उन लेखकों की जो वहां के लोकप्रिय, चर्चित लेखक हैं.

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मैं इन किताबों के ऊपर बारी-बारी से लिखने की कोशिश करुंगा. सबसे पहले आज जिस उपन्यास की चर्चा करने जा रहा हूं वह है 2011 में तुर्की के सर्वश्रेष्ठ उपन्यास के रूप में पुरस्कृत उपन्यास ‘दफ्न होती जिंदगी’, लेखक हैं हाकान गुंडे. अंग्रेजी के माध्यम से उसे सहज, सरल भाषा में हम तक पहुंचाने का काम किया है स्पैनिश भाषा की विदुषी, मार्केज के उपन्यास ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सौलिट्युड’ के ऊपर शोध करने वाली, शोध के अंतर्गत उसका अनुवाद करने वाली मनीषा तनेजा ने. तुर्की में दो तरह के उपन्यास खूब लिखे और पढ़े जाते हैं. एक तो वहां अपराध कथाएं खूब लिखी जाती हैं और पढ़ी भी जाती हैं, वैसे उपन्यास जिनको अंग्रेजी में थ्रिलर कहते हैं. दूसरे, वैसे उपन्यास जिनके एक आदर्श मॉडल के रूप में मैं ओरहान पामुक के उपन्यास ‘स्नो’ को देखता हूं. यानी एक ‘उदार’ समाज में कट्टरतावादी इस्लामिक संगठनों के संघर्ष की खूंरेज कहानी. ऐसे कथानक ‘वेस्ट’ के पाठकों को खूब पसंद आते हैं, जो उनके सामने इस्लाम की एक बर्बर छवि पेश करता है. ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ के दौर में इस्लाम को कट्टर बताकर, बर्बर बताकर, मध्युगीन सोच का बताकर पश्चिमी समाज अपनी श्रेष्ठता को पेश कर पाता है. ऐसे कथानक को आधार बनाकर लिखे गए उपन्यासों को एक बड़ा पाठक वर्ग मिलता है, इनाम इकराम मिलने की संभावना बढ़ जाती है.

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हाकान गुंडे का यह उपन्यास इसी दूसरे वर्ग का उपन्यास है. एक देरदा है जिसका विवाह 11 साल की उम्र में एक शेख के बेटे से करा दिया जाता है. उपन्यास में एक प्रसंग आता है कि गांव में शेख की गाड़ियों का काफिला जब लड़की पसंद करने के लिए गाँव में आता है, तो गाँव का माहौल जिस तरह का दिखाया गया है उससे मुझे बरबस सागर सरहदी की फिल्म ‘बाजार’ की याद आ गई, जिसमें खाड़ी देश का एक पैसे वाला अधेड़ हैदराबाद आता है लड़की पसंद करने ताकि उससे शादी रचाई जा सके. होड़ मच जाती है कि वह मेरी लड़की खरीद ले, वह मेरी लड़की खरीद ले. बहरहाल, देरदा को ब्याह कर लंदन ले जाया जाता है, वहां एक अपार्टमेंट में वह कैदी की तरह पांच साल तक रहती है, जहां अपने मर्द की हवस शांत करने एक अलावा उसके पास कोई काम नहीं होता है. एक दिन वह वहां से भाग निकलती है. वह हेरोइन की आदी हो जाती है. ऐनी नाम की एक औरत उसे दूसरी जिंदगी देती है. वह पेशे से नर्स होती है, लेकिन देरदा को वह अपनी बेटी की तरह रखती है. उसकी जिंदगी बदल जाती है.

ऐसी कई जिंदगियां हैं. तुर्की के लिए प्यार है. उसके समाज की पेचीदगियां हैं. जीवन के उतार-चढ़ाव हैं. धर्म की बनती-टूटती दीवारों के बीच इंसानियत का उजाला है जो सबको जोड़े रखता है. इसमें कोई शक नहीं है कि इस्लाम के नाम पर होने वाले अत्याचार को केंद्र बनाकर लिखे गए इस उपन्यास का यूएसपी यही है कि इस्लाम कट्टरता बढाता है, दूरियां पैदा करता है, धर्म के नाम पर इंसानी जिंदगियों को दफ्न कर देता है. लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि हाकान गुंडे ने अपराध कथाओं की गुत्थियों में, पेचीदगियों में, इंसानी रिश्तों के जज्बात का ऐसा रसायन मिलाया है कि आप उपन्यास की रहस्मयी दुनिया में धंसते चले जाते हैं.

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शुक्रिया यात्रा बुक्स. सबसे बढ़कर शुक्रिया मनीषा तनेजा हमारी भाषा में सहज अनुवाद के जरिए यह उपन्यास पहुंचाने के लिए!

पढ़िएगा तो हो सकता है, बहुत सारे बने बनाए पूर्वग्रह पुख्ता होंगे, लेकिन यकीन मानिए बहुत सारे टूट भी जाएंगे.

(प्रभात रंजन के साहित्यिक ब्लॉग 'जानकी पुल' से साभार)

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