किताब: ग्लोबल गांव के देवता
लेखक: रणेन्द्र
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ
कीमत: 70 रुपये
आज हर कोई विश्व को गांव बनाने की बात कर रहा है. एक ग्लोबल गांव. लेकिन दुनिया को गांव बनाने की दौड़ में जो असल गांव हैं, हम उनको गांव बनाए रखने में नाकाम साबित हो रहे हैं. गांव विलुप्त होते जा रहे हैं और हम विश्व को ग्लोबल गांव में बदलने की बात करते हैं.
आशियाना बनाने की खुशी और उसके टूटने का डर दोनों अगर चरम पर हों, तो जज्बात सबसे ज्यादा उफान पर होते हैं. विकास की अंधी दौड़ में सबने अपने-अपने पैमाने तय किए हैं. किसी बड़ी कंपनी या सरकार के लिए फैक्ट्रियां और पक्की इमारत बनाना विकास है, लेकिन किसी के लिए यह विनाश का मंजर है. इंसान अपना छोटा घर बनाता है, उसमें जिंदगी के दो पल खुशियों के साथ बिताता है. लेकिन कई बार कुछ लोगों को दूसरे की खुशी की कीमत अपनी खुशियों की कुर्बानी देकर चुकानी पड़ती है.
मध्यप्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, बिहार, पश्चिम बंगाल और देश के बाकी राज्यों में रहने वाले आदिवासियों की खुशी ट्विटर पर फॉलोवर या फेसबुक पर डाली जाने वाली सेल्फी पर निर्भर नहीं करती. उनकी खुशी आदिवासी इलाकों में उनकी बसाई दुनिया में उनकी शर्तों पर या बुनियादी जरूरतों को पूरा कर देने भर से पूरी हो जाती है. ग्लोबल गांव के देवता किताब के जरिए लेखक रणेन्द्र ने एक बेहद जरूरी और हाशिए पर खड़े लोगों की बात रखने का सराहनीय कदम उठाया है.
स्कूल टीचर की नौकरी पा चुके एक मां के घुन्ना की पोस्टिंग शहर से दूर पहाड़ के ऊपर जंगल-खादानों के बीच भौंरापाट में होती है. भौंरापाट एक ऐसा इलाका जहां बॉक्साइट की माइनिंग सालों से लगातार हो रही है. विकास के नाम पर कुर्बानी सिर्फ गरीब तबके को ही देनी पड़ती है. इसके बदले उसे मिलती है खुद की ही ढोने वाली जिंदगी. स्वभाविक है कि शुरुआत में नवनियुक्त टीचर को आदिवासी इलाका बोरिंग लगा, लेकिन वहां के हालात को किताब के मुख्य सूत्रधार के जरिए पाठकों को समझाने का काम लेखक ने बखूबी किया है.
असुर: आदिवासियों की एक जाति असुर के बारे में रणेन्द्र ने किताब में आम लोगों की धारणा को सामने रखा है. रणेन्द्र किताब में लिखते हैं, ‘असुरों के बारे में मेरी धारणा थी कि खूब लंबे-चौड़े, काले-कलूटे, भयानक, दांत-वांत निकले हुए, माथे पर सींग-वींग निकले हुए लोग होंगे.’ लेकिन किताब के किरदार ‘लालचन को जानकर सब उलट-पुलट हो रहा था. बचपन की सारी कहानियां उलट रही थीं.’
आदिवासी इलाकों के विकास की सच्चाई: बड़ी-बड़ी कंपनियां मुनाफा कमाने की होड़ में आदिवासी गांवों में खनन काम तेजी से करती हैं. ऐसे गांवों की व्यथा को बताते हुए रणेन्द्र किताब में लिखा है, ‘पिछले 25-30 सालों में खान-मालिकों ने जो बड़े-बड़े गड्ढे छोड़े हैं, बरसात में इन गड्ढों में पानी भर जाता है और मच्छर पलते हैं. महामारी फैलती है. लोग मरते हैं.’ आदिवासी इलाकों में कंपनियां गड्ढे तो कर देती हैं या अपनी जरूरतों के हिसाब से स्थानीय लोगों को विस्थापित कर देती हैं, पर जब उसकी भरपाई की बारी आती है तो कंपनियां सालों खामोश रहना पसंद करती हैं.
सियानी महिलाएं: आदिवासी गांवों की महिलाओं के बारे में रणेन्द्र लिखते हैं, ‘महिलाएं इस समाज में सियानी कहलाती थीं, जनानी नहीं. जनानी शब्द कहीं न कहीं केवल जनन, जन्म देने की प्रक्रिया तक उन्हें संकुचित करता, जबकि सियानी शब्द उनकी विशेष समझदारी-सयानेपन की ओर इंगित करता मालूम होता.’ इसके बाद भी ग्लोबल गांव के देवताओं ने अपनी जरूरतों और इच्छापूर्ति के लिए इन सियानियों का इस्तेमाल किया. सियानी महिलाओं के देवताओं के आगे झुक जाने की वजह उनकी मजबूरी थी.
अंधविश्वास: अंधविश्वास भारत की जड़ों में फैला हुआ है. किताब समाज में फैले अंधविश्वास को उजागर करने में भी सफल साबित होती है, किताब में अंधविश्वास का एक किस्सा कुछ यूं है, ‘दरअसल, अब भी कुछ लोगों के मन में यह बात बैठी हुई है कि धान को आदमी के खून में सानकर बिचड़ा डालने से फसल बहुत अच्छी होती है. इसलिए इस सीजन में मुड़ीकटवा लोग घूमते रहते हैं.’ रणेन्द्र ने किताब के जरिए गांव किनारे आकर बसे शिवदास बाबा के विस्तार और लड़कियों के प्रति उनके विशेष स्नेह पर बखूबी जरूरी और मारक तंज किया है.
ग्लोबल गांव के देवता क्यों न पढ़ें
अगर आपको गंभीर विषय पर लिखी कोई किताब पढ़ना अच्छा नहीं लगता, तो ये किताब आपके लिए नहीं है. चूंकि किताब में मेट्रो शहरों से हटकर आदिवासी लोगों की बात कही गई है. ऐसे में अगर आप गंभीर पढ़ने के आदि नहीं हैं तो किताब आपको बोर कर सकती है. किताब के कुछ हिस्सों में आदिवासी इलाकों की स्थानीय भाषाओं का इस्तेमाल किया गया है. ऐसे में कुछ भावों को समझने में मेहनत करनी पड़ सकती है. किताब लगातर बांधकर रखने में भी कई जगह विफल रहती है. दूसरे शब्दों में कहें तो ये किताब गंभीर पाठकों के लिए है.
हम क्यों पढ़ें इस किताब को...
किताब एक ऐसे मुद्दे को 100 पन्नों में बयान करती है, जिसे जानने के लिए आपको काफी मशक्कत करनी पड़ सकती है. किताब विकास के मानकों और आदिवासी समस्या का सुंदरता बरतते हुए गंभीर चित्रण करती है. अगर आप अपनी सोच का दायरा और देश की बड़ी आबादी का दर्द और समस्या को समझना चाहते हैं तो इस किताब में आपको पूरी ईमानदारी देखने को मिलेगी. जिसे गंभीर पढ़ना अच्छा लगता है, रणेन्द्र के ग्लोबल गांव के देवता ऐसे पाठकों की इच्छा जरूर पूरा करेंगे.