किताब का नाम: धूल पौधों पर
लेखक: गोविन्द मिश्र
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
मूल्य: 325 रुपये
'...उसे स्वतंत्रता चाहिए पर घर की चहारदीवारी भी, पति की निरंकुशता नहीं चाहिए पर पति चाहिए... लोग जो सोचते हैं उसकी परवाह करती है, लोगों की मान्यताओं के अनुरूप दिखावा भी करती है.' स्त्री-पुरुष संबंध, विवाह जैसी सामाजिक संस्थाएं और स्त्री-व्यक्तित्व के विकास से जुड़ी तमाम समस्याओं पर गोविन्द मिश्र ने अपने उपन्यास 'धूल पौधों पर' में काफी संवेदनापूर्ण चित्रण किया है.
उपन्यास के नायक प्रो. प्रेम प्रकाश से मिलने के पहले उपन्यास की नायिका का जीवन कुछ ऐसा था: 'मझोले कद वाला कोई पुराना झाड़... पतली डालियों वाला, गोल-गोल काटा गया... तराशा हुआ तारों में कैद... झाड़ की पत्तियों पर धूल थी जिसके कारण एक बासीपन उससे उठता था.' यह कहानी है उसी झाड़ की पत्तियों पर से धूल को धोए जाने और पौधे एवं पत्तियों के नैसर्गिक चमक हासिल करने की. इस उपन्यास में गोविन्द मिश्र ने जिस बौद्धिक तर्कशीलता का परिचय दिया है वह सराहनीय है.
कहानी की शुरुआत प्रो. प्रेम प्रकाश के जीवन में एक लड़की के दाखिले के साथ होती है. प्रेम प्रकाश उसकी मदद करते हैं लेकिन खुद प्रेम प्रकाश का आंतरिक विकास उस लड़की की मदद से होता है. बेधड़क एक जगह उपन्यास की नायिका कहती भी है कि तुम्हारे जीवन में ऐसा कोई नहीं आया जो तुम्हारे सामने आईना रखे. लड़की से मिलने के बाद प्रो. प्रेम प्रकाश अपने आप में बदलाव महसूस करते हैं. बुद्धि और प्रेम के कशमकश के बीच वे खुद से पूछते भी हैं, 'सच कहो... तुम भी तो उसका साथ चाहते हो... उसे छूते हो, अपने से बांधते हो तो तुम्हारा मन और शरीर दोनों एक हो जाता है. पूरेपन की प्रतीति होती है तुम्हें... लेकिन तुम उसे पूरेपन को क्षणों में जीकर तृप्त हो जाते हो. वह उस पूरेपन का घर बनाना चाहती है, वह टुकड़ों में नहीं जीना चहती... जैसे समय खंड-खंड- इतना तुम्हारे पास, इतना उस घर में- वैसे ही क्या उसका जीवन खंड-खंड? जबकि तुम जब चाहे लौट आने की सुविधा चाहते हो... उस लकीर के भीतर जहां से तुम थोड़ी देर के लिए निकलते हो. उसकी भावनाओं को प्यार कहा जाएगा, जबकि तुम्हारे लिए यह वर्जित संबंध की मिठास का आकर्षण है... तुम कहते हो करुणा... जो गहराते-गहराते प्यार बन गई है. बंधे तुम हो... तो वह भी बंधी हुई है. उसमें निकलने की हिम्मत है, तुममें नहीं. तुम कायर हो... किताबी कीड़े! वह तितली है... फड़फड़ाती, खुले में जाने को बेचैन!'
'धूल पौधों पर' में शिक्षा के हाल बेहाल होने की चर्चा, भ्रष्ट और चालाक धर्म-धुरन्धरों के पाखंड को भी बारीकी से उघाड़ा गया है. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है स्त्री-विमर्श जिसे उपन्यासकार ने काफी संवेदनापूर्ण तर्कसंगत तरीके से प्रस्तुत किया है. स्त्री की मानसिकता में जो असुरक्षा का भाव गहराई से अपनी पैठ बनाए हुए है वह इस सामज की ही देन है. प्रकृति उनमें स्वतंत्रता की अमिट भूख पैदा करती है और स्त्री-पुरुष का जन्मजात अधूरापन उनमें प्यार की प्यास बनाए रखता है.
...और अंत में, लड़की पूछती है, 'आपका और मेरा संबंध क्या है?'
वो कहता है, '...जीवन ने मुझे तुम्हारा बना दिया है, मैं वही हूं. ...जो-जो तुमसे छिनता चला गया, जो तुम्हें मिला नहीं- प्रेम भी, वह सब मैं हूं. मैं तुम्हारा मायका हूं- जो तुम्हें नसीब नहीं हुआ. मायका माने वह जगह... जहां भारतीय लड़की हर तकलीफ के वक्त पहुंचती है, वहां संभलती है और फिर आगे चल पड़ती है...'
'...उठो, संभलो और फिर चलो. मैं तुम्हारे साथ हूं... हमेशा रहूंगा... मुझे हमेशा अपने संग रखना.'
इस उपन्यास में लेखक भावुकता को प्रेम से इतर करने में सफल हुए हैं साथ ही यह संदेश देने में कामयाब भी कि 'अपना संघर्ष अपने दम पर' करना होगा. प्रेम मुक्ति का मार्ग है, बंधन का नहीं. प्रेम ही किसी व्यक्ति को सही मायनों में मुक्त करता है. इस उपन्यास की खूबसूरती यह है कि इसमें पुरुष पात्र के आंतरिक संघर्ष की कहानी है और स्त्री पात्र के सांसारिक संघर्ष की कहानी रची गई है और दोनों कहानियां समानांतर चलती रहती है.