किताबः ड्योढ़ी
लेखकः गुलज़ार
प्रकाशकः वाणी प्रकाशन
कवरः हार्डकवर
मूल्यः 250 रुपये
बड़ा होने लगा था, फिर खयाल आया
मैं पूछूं तो सही, कितना जरूरी है बड़ा होना!…
मशहूर शायर, फिल्मकार, कहानी लेखक और साथ ही बेहतरीन गीतकार गुलज़ार साहब ने किताब लिखी है ड्योढ़ी. ड्योढ़ी कई छोटी-छोटी कहानियों का संग्रह है, जिसमें गुलज़ार साहब के तजुर्बे और अहसासों की खुशबू आती है. गुलज़ार साहब ने खुद लिखा है कि कहानियों के कई रुख होते हैं. ऐसी गोल नहीं होतीं कि हर तरफ से एक सी ही नजर आएं. सामने सर उठाए खड़ी पहाड़ी की तरह हैं, जिस पर कई लोग चढ़े हैं और पगडंडियां बनाते हुए गुज़रें हैं. ड्योढ़ी भी आपको कई पगडंडियों से लेकर गुजरेगी. यह संग्रह गुलज़ार ने रंगमंच के जाने-माने निर्देशक सलीम आरिफ को समर्पित किया है. सलीम इस संग्रह की कुछ कहानियां जैसे 'अठन्नियां', 'झड़ी' और 'बास' का किताब के प्रकाशन से पहले ही मंचन कर चुके हैं.
ड्योढ़ी को गुलज़ार साहब ने आठ हिस्सों में बांटा है और हर हिस्सा शुरू होता है एक शेर से, जो कहानीकार गुलज़ार के साथ शायर गुलज़ार की कमी महसूस नहीं होने देता है. शुरुआत गुलज़ार साहब ने दोस्ती से की है.
किताबों से कभी गुज़रो तो यूं किरदार मिलते हैं
गए वक्तों की ड्योढ़ी में खड़े कुछ यार मिलते हैं!
इस ड्योढ़ी में 'साहिर और जादू' हैं तो 'कुलदीप नैयर और पीर साहब' के साथ 'भूषण बनमाली' भी हैं. गीतकार साहिर लुधियानवी और जावेद अख्तर (जादू) की दोस्ती में 100 रुपये का ज़िक्र इसे बेशकीमती बना देता है. 100 रुपये, साहिर की मौत और जावेद अख्तर का फूट-फूट कर रोना आपकी आंखों को भी नम कर जाएगा.
गुलज़ार साहब ने भारत-पाकिस्तान विभाजन को बहुत करीब से देखा है और इसपर पहले भी काफी कुछ लिख चुके हैं, क्योंकि उनका खुद का बचपन भी सरहद के उस पार छूट गया था. 'कुलदीप नैयर और पीर साहब' में गुलज़ार साहब ने बताया है कि कैसे पीर साहब भी बंटवारे की खाई से नहीं बच पाए. गुलज़ार साहब और नैयर साहब बाघा बॉर्डर की तरफ जा रहे होते हैं तो नैयर साहब उनसे कहते हैं, 'ये सड़क अगर इसी तरह सीधी चलती रहे, ना कोई वीजा पूछे, ना कोई पासपोर्ट देखे, और मैं पाकिस्तान घूम कर आ जाऊं, तो क्या लूट लूंगा उस मुल्क का? लूटने वालों की तो ना इस मुलक में कमी है, ना उस मुलक में. उन्हें बाहर से आने की जरूरत क्या है?' ये दर्द ना जाने कितने ही हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी के जहन में होगा, लेकिन सियासत की लकीरें खिंची तो किसे परवाह इंसानी जज्बातों की?
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अगर आप मुंबईकर हैं तो अपने शहर को और करीब से जानने के लिए ड्योढ़ी का दूसरा हिस्सा जरूर पढ़ें और अगर नहीं हैं तो मुंबई को जानने का इससे अच्छा मौका आपको नहीं मिलेगा. दूसरे हिस्से की शुरुआत होती है 'है सर पानी में और पांव जमीं पर ये नगरी मुंबई की है!...' कभी ना सोने वाली मुंबई की झोपड़ पट्टियों और फुटपाथ पर रहने वालों की जिंदगी की कहानियां पढ़कर आपका दिल पसीज जाएगा. मुंबइया किरदारों के साथ मुंबइया टोन का भी गुलज़ार साहब ने बखूबी इस्तेमाल किया है. 'बास', 'झड़ी', 'सारथी' और 'फुटपाथ' शीर्षक ही अपनी कहानी के बारे में काफी कुछ कह जाते हैं. फुटपाथ पर रहने वाले एक आदमी की मौत को जिस तरह से कुत्ते की मौत से जोड़ा गया है और फिर हीरा का ये कहना, 'फुटपाथ की जिंदगी साला ऐसी इच है!' आपको अंदर तक झगझोर देगा.
आंखों को वीजा नहीं लगता, सपनों की सरहद होती नहीं
बंद आंखों से रोज मैं सरहद पार चला जाता हूं!
अब ये शेर ही बयां करता है कि सरहद के दोनों तरफ के लोग किस तरह से अपनों से मिलने के लिए तड़प कर रह जाते हैं. एलओसी पर तैनात भारत के मेजर कुलवंत सिंह पाकिस्तान से फत्तू मौसी को भारत बुला तो लेते हैं लेकिन अपनी मां और मौसी के साथ एक पल बैठ भी नहीं पाते हैं. 'ओवर' में बुझारत सिंह के दर्द का अंदाजा आप इस पंक्ति से ही लगा सकते हैं- 'अपने भी एक लाइटर होता तो जिंदगी में क्या मजा होता. अब परमाणु बम से बीड़ी तो नहीं सुलगा सकते ना- ओवर...!'
'दुम्बे!!' में न्यूयॉर्क में रहने वाले रिटायर्ड फौजी कैप्टन शाहीन कहते हैं- 'फौजी को भी पहले पहल डर जरूर लगता है. लेकिन दो तीन गोलियां चला लेने के बाद खौफ-व-हरास का खयाल भी नहीं रहता. जब गोली चलती है तो कारतूस की एक खुशबू उड़ती है. फ्रंट पर गोलियां चलाते हुए उसका नशा हो जाता है. थोड़ी देर गोलियां ना चलें तो कभी-कभी नशा टूटने भी लगता है. किसी को लगना लगाना जरूरी नहीं होता! आदमी खौफ से भी मानूस हो जाए तो खौफ नहीं रहता.' जो लोग विभाजन के दर्द से रूबरू नहीं हुए हैं वो इन कहानियों के जरिए उस दर्द को महसूस कर सकते हैं.
ड्योढ़ी में जितनी कहानियां उतने सिरे हैं. कोई भी एक दूसरे से नहीं मिलता पर हर जगह बात इनसानी जज्बातों की ही होती है. दंगे, कश्मीरी हालात, मानव बम, नक्सलाइट और भूकंप पर भी ड्योढ़ी में कहानियां हैं.
आखिरी हिस्से की शुरुआत होती है इस शेर के साथ...
फूल की पत्ती से कट सकता है हीरा
आरी से कटते नहीं नाभी के रिश्ते!
'सांझ' में रिश्तों की बारीक डोर को देखते हैं. लालाजी को लालाइन का बिना बताए बाल कटाने जैसी मामूली बात भी उन्हें इतना आघात पहुंचाती है कि उनके अंत का सबब बन जाती है. वहीं 'एडजस्टमेंट' में नाना जी को नानी की मौत से इतना बड़ा सदमा लगता है कि वो नानी की जिंदगी जीने लगते हैं, नानी की साड़ी और ब्लाउज पहनकर वो खुद में ही नानी को ढूंढ़ते हैं.
क्यों पढ़ें...
इस किताब को पढ़ने की कई वजह हैं. पहली ये कि इसे गुलज़ार साहब ने लिखा है, दूसरी ये कि कहानीकार गुलज़ार के साथ शायर गुलज़ार भी ड्योढ़ी में मौजूद हैं. ड्योढ़ी में आप इंसान के हर रिश्ते को महसूस कर सकते हैं. बचपन की खुशबू है तो बुढ़ापे का दर्द और अकेलापन भी. दर्द है तो दुआ का भी जिक्र है. दोस्ती है तो दंगों के दौरान कैसे इंसान ही इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन बन जाता है उसका भी ब्यौरा है. सरहदो पर तैनात फौजियों की मनोस्थिति के बारे में कुछ ऐसी बातें हैं जिसके बारे में जानकर आप भी हैरान हो जाएंगे.