गजल जब सवाल करने लगे तो लाजवाब कर देती है. रजनीश सचान की गजल की किताब 'लफ्ज के फासले पर जिंदगी' अच्छी गजलों की किताब है. भाषा आसान और दिल छूने वाली है.
ज्यादातर गजलें जिंदगी के प्रसंगों, प्रेम, नफरत, धर्म, सियासत और इंसानी इच्छाओं से जुड़ी हैं और अभिधा में ही खुद को सार्थक करती हैं. कुछ-एक शेर बड़े शायरों याद भी दिलाते हैं. कुछ गजलें सवाल पूछती हुई और उनके समाधान का तजकिरा करती हुई लगती हैं.
यह किताब पढ़कर लगता है कि रजनीश ने अच्छा ही किया जो नौकरी छोड़ साहित्य की दुनिया में आ गए.
'तेरा पाक वजूद इक और क़ुरआन हो गया
तेरी हर इक बात मुझे इक आयत-सी है.'
'उम्र भर मौत नज़र आए न आए लेकिन
ज़िंदगी मौत के दौरान नजर आती है.'
कुछ चीजें ऐसी होती है जिसके बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है. फिर भी वे इतनी मौजू होती हैं कि पाठक हर बार कुछ नया पढ़ना चाहते हैं. कई पुरानी बातों को भी रजनीश ने अपने अंदाज में कहने की कोशिश की है.
'मज़दूरों के घर की आओ बात करें
मंदिर, मस्जिद औ मयख़ाना छोड़ो भी'
रजनीश की गजलें सीख देने की कोशिश भी करती हैं और धर्म के नाम पर बांटने वालों की मुखालफत भी करती हैं.
'ख़ूब तो चाहा किनारा कर लूं उससे
ज़ोर भी कुछ तो चले नर्गिस के आगे'
अगर आप नौजवान हैं और किसी आसान रास्ते के जरिये गजल की दुनिया से रूबरू होना चाहते हैं तो यह किताब पढ़ सकते हैं. आपको इसमें युवा दिल के अरमानों का ही चित्रण मिलेगा.